हिन्दी सिनेमा पर दो महत्वपूर्ण विशेषांक

भारत में हिन्दी सिनेमा के ‘सौ वर्ष’ पूर्ण होने पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से लेकर बेबसाइडों द्वारा सिनेमा को आधार बनाकर तमाम सारे विशेषांक निकाले गए । इस विशेषांकों में मुझे दो विशेषांक व्यक्तिगत रूप से पसंद आए । पहला ‘हिन्दी समय डॉट कॉम’ बेबसाइड द्वारा निकाला गया और दूसरा फरवरी 2013  में हंस पत्रिका द्वारा निकाला गया विशेषांक ‘हिन्दी सिनेमा के सौ साल’ । इन विशेषांकों में हिन्दी सिनेमा की गहन पड़ताल की गई । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह रही इन विशेषांकों की कि इनमें जिन लेखकों ने आलेख लिखे वह हिन्दी साहित्य के बड़े से बड़े नाम रहे, जो सिनेमा की गहरी पड़ताल करते रहे हैं ।

(01.) बेब विशेषांक
लेखक : संकलन (हिन्दी समय डॉट कॉम)
विधा : समीक्षा
प्रकाशक : वर्धा विश्वविद्यालय, गुजरात

‘हिन्दी समत डॉट कॉम’ बेबसाइड समय-समय पर विभिन्न विषयों पर विशेषांक निकालती रहती है । इस क्रम में सिनेमा के सौ वर्ष पूर्ण होने पर उसके द्वारा इस विषय पर भी एक विशेषांक निकाला गया । यह विशेषांक अपने में अद्भुत है । साढ़े तीन सौ पृष्ठों की प्रस्तुत सामग्री में सिनेमा के करीब-करीब सभी पक्षों पर मंथन करने का प्रयास किया गया है ।
इस विशेषांक के अंतर्गत सिनेमा के तकरीबन प्रत्येक पहलू को ध्यान में रखते हुए सामग्री प्रस्तुत की गई । साहित्य और सिनेमा : अंतर्संबंध (सचिन तिवारी), सिनेमा और हिंदी साहित्य (इकबाल रिजवी),
‘चित्रलेखा’ और सिनेमाई रूपांतरण की समस्याएँ (जवरीमल्ल पारख), मणि कौल का सिनेमा और हिंदी (प्रयाग शुक्ल), सामाजिक राजनीतिक यथार्थ और सिनेमा (रामशरण जोशी), फिक्रे फिरकापरस्ती उर्फ दंगे का शोक-गीत (प्रेम भारद्वाज), सिनेमा में प्रतिरोध का स्वरूप (किशोर वासवानी), बॉलीवुड के व्यंजन में क्रांति की छौंक (सुधीर विद्यार्थी), हिंदुस्तानी सिनेमा में भाषा का बदलता स्वरूप (एम.जे. वारसी), सामाजिक सरोकारों से हटता सिनेमा (अशोक मिश्र), समानांतर सिनेमा के सारथी : राय से ऋतुपर्ण तक (कृपाशंकर चौबे), कला सिनेमा में कितना सामाजिक सरोकार (सुधा अरोड़ा), भगवान बुद्ध पर निर्मित फिल्में और उनका स्वरूप (सुरजीत कुमार सिंह), बदल रहा है मराठी सिनेमा (डॉ॰ सतीश पावड़े), भोजपुरी सिनेमा का बढ़ता संसार (कुमार नरेंद्र सिंह), गाँव में सलम और सलीमा (प्रकाश चंद्रायन), आँसू बहा रहे हैं कस्बे के टॉकीज (उमेश चतुर्वेदी), बस, इक जुनूं की खातिर (सुधीर सक्सेना), दादा साहब फाल्के और भारतीय सिनेमा (धरवेश कठेरिया), कहाँ-कहाँ से गुजर गया सिनेमा (सलिल सुधाकर), हिंदी सिनेमा : कल, आज और कल (विनोद विप्लव), भारतीय सिनेमा में पहली बार (हिमांशु वाजपेयी), बदलता देश, दशक और फिल्मी नायक (ज्ञानेश उपाध्याय), क्या आदमी था ‘राय’! (जावेद सिद्दीकी), बिमल राय का रचना संसार (मनमोहन चड्ढा), ऋत्विक घटक सा दूसरा न कोई (सुरेंद्र तिवारी), क्यों न फटा धरती का कलेजा, क्यों न फटा आकाश (अरविंद कुमार), महबूब और उनका सिनेमा परंपरा का आदर : डगर आधुनिकता की (प्रहलाद अग्रवाल), धूसर दुनिया के अलस भोर का फिल्मकार : मणि कौल (अमरेंद्र कुमार शर्मा), अभिनय की संकरी गली के सरताज भारत भूषण (प्रताप सिंह), अंतिम पड़ाव के अधर में अकेला आनंद (प्रभु जोशी), हंगल के जाने से उपजा सन्नाटा (उमाशंकर सिंह), ‘जन कलाकार’ बलराज (अजय कुमार शर्मा), सिने आत्मकथाओं का सच (अनंत विजय), मन्ना डे से एक लंबा आत्मीय संवाद (सुनील मिश्र), हिंदी फिल्मी गीत : साहित्य, स्वर, संगीत (पुष्पेश पंत), हिंदी फिल्मों में गीत संगीत का बदलता चेहरा (शरद दत्त), मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी अनुकृति कैमरा (जयप्रकाश चौकसे), बेहतर का सपना देती फिल्म : शिप ऑफ थीसि‍यस (गरिमा भाटिया), एक कमरा, कुछ पूर्वाग्रह भरे लोग और एक हत्या : एक रुका हुआ फैसला (विमल चंद्र पांडेय), एक आधा गीत और ढेर सारी जिद : नॉट वन लेस (विमल चंद्र पांडेय), लंचबॉक्स : अप्रत्याशित जायकों का डब्बा (राहुल सिंह), गांधी टू हिटलर : गांधी जिंदा रहे और हिटलर मर गया (शेषनाथ पांडेय), हैदर : जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले (उमाशंकर सिंह), कॉलरा की चपेट में प्रेम (विजय शर्मा) जैसे आलेख सिनेमा की पहचान पर चढ़ चुके मुलम्मे को खुरच-खुरच कर हटाते हैं । साथ ही सिनेमा की रंगीनियों में छिपे ‘अंधियारे’ को भी प्रकाश में लाते हैं ।
‘हिन्दी समय’ द्वारा प्रस्तुत यह सामग्री सिनेमा के अध्येताओं के लिए वास्तव में बड़े काम की है ।

(02.) पत्रिका : हंस (मासिक)
संपादक : राजेन्द्र यादव
विशेषांक संपादक : संजय सहाय
अंक : फरवरी 2013
मूल्य : 50 रू.
संपर्क : अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली

हंस पत्रिका द्वारा निकाला गया हिन्दी सिनेमा पर यह विशेषांक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विशेषांक है । इस विशेषांक के माध्यम से हंस ने ‘हिन्दी सिनेमा के सौ साल’ की लम्बी यात्रा अपनी यायावरी वृत्ति के चलते पूरी की है ।
हंस पत्रिका का एक विशेष आकर्षण उसका नियमित कॉलम ‘तेरी मेरी उसकी बात’ रहा है, जिसका हंस के प्रत्येक पाठक को बेसब्री से इंतजार रहता था । इसके तहत राजेन्द्र यादव ने अपने फिल्मी रिश्तों को याद करने के बहाने फिल्म के साथ अपने संबंधों की गहरी तस्दीक की है । इसके बाद संजय सहाय ने सम्पादकीय में ‘सिनेमा की बात’ करते हुए पत्रिका की संपूर्ण विषय-वस्तु के लिए ‘प्लेटफार्म’ तैयार किया ही साथ ही साथ सिनेमा के सफर का मुआइना भी किया है । ‘विशेष’ कॉलम में ओम थानवी का ‘किसी एक फिल्म का नाम दो’ तथा विजय शर्मा का ‘सिनेमा में शेक्सपीयर : ओथेलो से ओंकारा तक’ जैसे आलेखों ने हिन्दी सिनेमा के नवीन स्वरूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है ।
इस सिलसिले में गुलजार और अभिराम भडकमकर की क्रमश: ‘रेप मार्किट’ तथा ‘चुड़ैल’ कहानियाँ भी सिनेमाई शैली को प्रस्तुत करने वाली ही प्रतीत होती हैं । ‘बातचीत’ कॉलम में विभिन्न लेखकों द्वारा जो सिनेमा के जानकारों से सिनेमा के विभिन्न पक्षों पर जो बातचीत का सिलसिला कायम किया गया है वह सिनेमा की सफलता के लिए नवीनता के तमाम सारे द्वार खोलता है ।
फिल्मकार बासु चटर्जी से फ्रैंक हुजूर की बातचीत ‘गर्त में जा रही है कल्पनाशीलता’, फिल्मकार गौतम घोष से की संजय सहाय की बातचीत ‘सेंसरशिप अपमानजनक है’, फिल्मकार अनुराग कश्यप से फिल्म एक्टिविस्ट अविनाश की बातचीत ‘नया सिनेमा छोटे-छोटे गांव-मोहल्लों से आएगा’, फिल्मकार गोविंद निहलानी से फिल्मकार अनवर जमाल की बातचीत ‘अतीत की नहीं भविष्य की सोचिए’, फिल्मकार सुधीर मिश्रा से फिल्मकार अनवर जमाल की बातचीत ‘नजरअंदाज करना भी एक राजनीति है’, फिल्मकार श्याम बेनेगल से संस्कृतिकर्मी सुनील मिश्र की बातचीत ‘सृजनात्मक जोखिम लेने वालों का था नई धारा सिनेमा’, अभिनेता ओमपुरी से बातचीत ‘गहरी बातों को सरल भाषा में कहना जरूरी है’, फिल्मकार चन्द्रप्रकाश द्विवेदी से अविनाश की बातचीत ‘सिनेमा अंतत: मनोरंजन का माध्यम है’ तथा फिल्मकार कमलस्वरूप से युवा संस्कृतिकर्मी उदयशंकर की बातचीत ‘सिनेमा अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम है’ जैसे साक्षात्कार जैसे साक्षात्कार सिनेमा को परत दर परत खोलते हैं और अतीत को खंगालते हुए भविष्य की संभावनाओं पर मुहर लगाते हैं ।
‘सदी के सरोकार’ कॉलम में तत्याना षुर्लेई का ‘समाज के हाशिए का सिनेमाई हाशिया’, प्रकाश के. रे का ‘नेहरू युग का सिनेमा : मेलोड्रामा और राजनीति’, चंदन श्रीवास्तव का ‘सिनेमा की हिन्दी : भाषा के भीतर की भाषाएँ’, विनोद भारद्वाज का ‘सिनेमा के शताब्दी वर्ष में दस सवाल’, मनमोहन चढ्ढ़ा का ‘क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा’, जयप्रकाश चौकसे का ‘ओघड़ फिल्म उद्योग का शताब्दी उत्सव’, अमरेंद्र किशोर का ‘मनोरंजन के बाज़ार में आदिवासी’, शीबा असलम फ़हमी का ‘अतिक्रमण की आश्लीलता है’ तथा फ्रैंक हुजूर का ‘पोर्न फिल्मों की झिलमिल दुनिया’ जैसे आलेख भारत के हिन्दी सिनेमा की जड़ों तक की पड़ताल कर डालते हैं । 
‘शख्सीयत’ कॉलम में लेखक सुरेश सलिल द्वारा ‘भारतीय सिनेमा और व्ही.शांताराम’, तेजेन्द्र शर्मा द्वारा ‘आम आदमी की पीड़ा का कवि’ तथा इक़बाल रिज़वी द्वारा ‘सिनेमा के प्रयोगधर्मी साहित्यिक किशोर साहू’ जैसे संस्मरण प्रस्तुत किए गए हैं ।
उक्त के अतिरिक्त ‘परख’ (संस्मरणों में गुरुदत्त : सुरेश सलिल, खुद की तलाश का लेखाजोखा : प्रेमचंद सहजवाला), ‘फिल्म समीक्षा’ (लाल झंडे और नीले रिबन के बीच : उदय शंकर), ‘कसौटी’ (मीडिया : फिल्म इंडस्ट्री की प्रोपेगंडा मशीनरी : मुकेश कुमार), ‘सृजन परिक्रमा’ (परसाई के बहाने व्यंग्य चर्चा : दिनेश कुमार) तथा ‘कदाचित’ (जफर पनाही और हम : संगम पांडेय) आदि कॉलमों में सिनेमा की बिखरे पड़े पहलुओं को सिमेटने का आवश्यक प्रयत्न किया गया है ।
कुल मिलाकर ‘हंस’ पत्रिका का सिनेमा पर यह विशेषांक एक अद्भुत एवं संग्रहणीय विशेषांक है । इसे पढ़कर पाठक की सिनेमाई समझ विकसित ही नहीं बल्कि रचनात्मक भी हो जायेगी ।
सुनील मानव, 24.05.2018

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