पत्रिका ....... जो भरती है ताकत



दलित अस्मिता का पच्चीसवाँ अंक मेरे सामने है । मैं सोच रहा हूँ उस अंक के बारे में, जिसमें गाँव के रिस्ते की मेहतर दादी पर मेरा शब्दचित्र ‘गंठी भंगिनियां’ प्रकाशित हुआ था । पहली बार मेरे बापू (पिता जी) ने ‘दलित अस्मिता’ को इस शर्त पर पढ़ा था कि ‘केवल तुम्हारा शब्दचित्र ही पढ़ूंगा . . . और कुछ पढ़ने को मत कहना . . .’ । लेकिन यह संभव न हो सका । उन्होंने पहले मेरा शब्दचित्र पढ़ा (मेरी हर रचना के पहले अथवा द्वितीय पाठक पिता जी ही होते हैं ) फिर अपनी शर्त को भूलते हुए पूरी पत्रिका । (संभवत: वह खुद को रोक न सके हों !)
सवर्ण परिवार में जन्मने के बावजूद भी मेरा चिंतन जनपक्षधरता को लेकर रहा है, जिसे लेकर बापू व परिवार से कई बार टकराव भी हुआ । सनातन संस्कारों के पोषक बापू के बारे में कभी सोचा नहीं था कि उनके चिंतन का स्वरूप कभी बदलेगा भी, लेकिन ऐसा हुआ ! मेरे लिए यह एक बड़ी घटना थी कि दलित अस्मिता का संयुक्तांक (14-15) पढ़ने के बाद उनके अंदर इस विचारधारा को और गहराई से समझने की जिज्ञासा जागृत हुई । इसके बाद तो उनके सनातनी मन ने ऐसी गति पकड़ी कि उनके पढ़ने और चिंतन करने का स्वरूप ही बदल गया ।
वास्तव में यह घटना कोई सामान्य घटना नहीं थी मेरे लिए ! मेरी विचारधारा के कारण कई बार मेरा टकराव घर, परिवार व समाज से होता रहा है, लेकिन अब बापू के इस बदले हुए ‘मोरल सपोट’ के बाद से इसमें एक नवीन प्रकार की मज़बूती आई है ।
किसी भी पत्रिका अथवा पुस्तक से पूरी तरह से न तो सहमत हुआ जा सकता है और न ही असहमत ही, लेकिन यदि कोई पत्रिका किसी के जड़ हो चुके चिंतन को झकझोरकर जगा दे, नई गति प्रदान कर दे तो मुझे लगता है कि यह कोई साधारण बात नहीं है । यह असाधारणता ‘दलित अस्मिता’ में मुझे स्पष्ट दिखाई देती है । इसके लिए पत्रिका का पूरा संपादक मण्डल बधाई का पात्र है । पत्रिका ने कठिन संघर्ष के दौर में, रोज व रोज निकलने वाली हजारों-हजार पत्रिकाओं की भीड़ में, विचारों के हनन व टकराव के दौर में, अभिव्यक्ति पर मंडराते खतरों के दौर में जिस प्रकार से अपने स्वरूप को निखारते हुए अपनी विचारधारा को मज़बूती प्रदान की है, वह काबिले तारीफ है ।
वापस पच्चीसवें अंक पर आता हूँ । संपूर्ण सामग्री में अधिकांश ऐसी सामग्री है, जो आपको जागॄत करती है । आपके रूढ़ हो चुके मनोमस्तिष्क में चंचलता उत्पन्न करती है ।
संपादकीय में विमल थोराट ने समाज में तेजी से पनप रही ‘क्रूरता की पराकाष्टा’ की गहरी पड़ताल की है । इस पड़ताल में संपादक ने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार राष्ट्र के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन हो रहा है । राष्ट्र की परिभाषा बदल रही है । फिरका परस्ती तेजी से बढ़ रही है, अर्थात् तेजी से एक नवीन समाज विकसित हो रहा है । इस समाज में शोषण और अत्याचार के मानदण्ड बदल रहे हैं । अपने संपादकीय में श्री थोराट ने इन मानदण्डों को स्पष्ट किया है ।
राजेश कुमार का आलेख ‘आंबेडकर की दृष्टि में नाटक’ रंगमंच में जम चुकी गहन पपड़ी को खुरच-खुरच कर साफ करता है । राजेश कुमार ने इस आलेख में राजनीति के उस चेहरे को बेनकाब किया है, जिसने सांस्कइतिक मूल्यों के मुख्य उद्देश्य को राह से बेराह करने का प्रयास किया है । इस आलेख में लेखक ने सावित्रीबाई फूले के ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ से आंबेडकर की राजनैतिक विचारधारा को प्रभाभित सिद्ध करने का सार्थक प्रयास किया है । इस आलेख में साहित्य व कला के उन मूल्यों को उजागर करने का प्रयास किया गया है, जो ‘जन’ से सिंचित हुए हैं ।
‘यात्रा का प्रस्थान बिन्दु तलाशती कविताएँ’ आलेख में जहाँ चौथीराम यादव ने दलित विमर्श को बुनती हुई कविताओं की सूक्ष्म पड़ताल की है तो ‘विमर्शों का कला पक्ष’ आलेख में डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे ने कला के तमाम विमर्शों, जैसे – विधा, भाषा एवं शैली, मौलिकता और योगदान, समाज के वर्गीकरण, स्त्री सांस्कृतिक उपलब्धियाँ आदि को समाज के निचले वर्ग के सौंदर्यशास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया है ।
साहित्य में स्त्रियों को या तो देवी के रूप में अथवा भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया गया है । दोनों ही स्थितियों में स्त्री के अधिकारों का हनन हुआ है । हर परिस्थिति में स्त्री का शोषण हुआ है । हरपाल सिंह ‘अरुष’ ने अपने आलेख ‘दलित साहित्य में स्त्री विमर्श’ में भारतीय स्त्री की इस हत्या को सामने रखा है । आपने इस आलेख में स्त्री विमर्श से आरम्भ करते हुए वर्तमान दलित साहित्य में स्त्रियों का जो स्वरूप उभरकर सामने आया है, उस पर अपनी गम्भीर लेखनी चलाई है ।  स्त्री की अपनी अस्मिता होती है, जिसे पुरुष प्रधान विचारक अपनी स्वच्छंदता से परिभाषित करते रहे हैं । उक्त आलेख में लेखक ने स्त्री के उस दबे हुए दर्द को बड़ी ही गहराई से उजागर करते हुए विमर्श के मंच पर खड़ा किया है ।
निरंजन सहाय ने ‘जनशिक्षा की अवधारणा और डॉ. भीमराव आंबेडकर’ आलेख में जहाँ जनशिक्षा के आंबेडकरी प्रयत्नों को तथ्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है तो डॉ. भीम सिंह ने ‘समकालीन आदिवासी कविता के आयाम’ लेख में आदिवासी कविता की प्रासंगिकता को स्पष्ट करने का सार्थक प्रयास किया है ।
मुन्नी भारती ने  संत रविदास और मीराबाई के सामयिक रिस्तों पर गंभीर दृष्टि का परिचय दिया है तो ‘जातिवादी फांस का जायजा लेती एक फिल्म’ आलेख के माध्यम से जनार्दन ने सैराट फिल्म को मूल में रखकर सिनेमा के सामाजिक सरोकारों की गहन समीक्षा की है । इस फिल्म की समीक्षा के बहाने जनार्दन ने एक फिल्मी विमर्श को भी गंभीर मंच पर लाने का स्तुत्य प्रयास किया है ।
मलखान सिंह दलित चिंतन के जाने-माने स्तंभ हैं । शोध छात्र संदीप कुमार के प्रश्नों पर उन्होंने बड़ी ही बेबाकी से बात की है । इस बातचीत में मलखान सिंह ने कविता के स्वरूप से आरम्भ करते हुए दलित चिंतन के स्वरूप और भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना पर माकूल जबाब दिया है ।
सदा की भाँति पत्रिका में कहानी का चयन अपनी गंभीर वैचारिक दृष्टि को स्पष्ट करता है । ईश कुमार गंगानिया, बी.एस.त्यागी व आ.बी.यादव की कहानियाँ अपनी विषय-वस्तु को बुनने में सफल रही हैं । वास्तव में कहानी लिखना बान की चारपाई बुनते हुए उसमें ‘अठकलिया’ का फूल डालने जैसा होता है । एक-एक शब्द चित्रात्मक प्रस्तुति की डोर से बंधा होना चाहिए । पत्रिका में स्थान प्राप्त तीनों कहानियाँ – दर्द से रिश्ता, अलाव की एक शाम व पगली लड़की – अपनी बुनावट में काफी हद तक सफल रही हैं । इसके अतिरिक्त डॉ. पूरन सिंह की लघुकथा ‘एम आई फ्रॉम मसीहगढ़’ ने भी अपनी वस्तुस्थिति को बखूबी स्पष्ट किया है ।
कविता एक प्राण है, जिसे शून्यता तक जाकर ही महसूस किया जा सकता है । पत्रिका में प्रकाशित कई कहानियाँ इस शून्य की गहराई तक पहुँची हैं । हिन्दी कविताओं के साथ-साथ मराठी, अश्वेत, गुजराती कविताओं की छौंक ने कविताओं की दलित दृष्टिअ को पूरे विस्तार के साथ स्पष्ट किया है ।
उक्त के अतिरिक्त जयप्रकाश कर्दम द्वारा प्रस्तुत पुस्तक समीक्षा व हलचल में दिलीप कठेरिया तथा रामवचन यादव ‘सृजन’ द्वारा प्रस्तुत जानकारी नए सृजन के आगाज की सूचना देते हुए भविष्य की गंभीरता को बयां करती है ।
वास्तव में दलित अस्मिता का यह अंक अपने पिछले अंकों  की ही भांति सरलता में गंभीर भावों का संचयन है । पत्रिका की गंभीरता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है । उसका स्वरूप निखरता जा रहा है । इसके लिए संपादक मण्डल को एक बार फिर से इस उम्मीद के साथ साधुवाद देता हूँ कि अगला अंक और भी रोचक, और भी गंभीर चिंतन को संजोए हुए हमारे सामने आएगा ।

सुनील मानव
मानस स्थली
+919307015177
manavsuneel@gmail.com

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