जोगराजपुर का शिशु मंदिर और मैं

कक्षा आठ में जब दोबारा शिशु मंदिर के मोह में फंशकर वहां पढ़ने पहुंचा तब वहां कुछ आचार्य बदल चुके थे । कुछ पुराने आचार्यों की जगह नए आ गए थे । इन्हीं में एक थे सर्वेंन्द्र आचार्य जी, जो सेहरामऊ से आया करते थे । मैं सब लोगों के पैर छूता था, अत: सर्वेन्द्र आचार्य जी के पैर भी उसी भाव से छूने लगा । लेकिन यह बात शिशु मंदिर के कुछ ब्राह्मण आचार्यों के लिए सहन करने योग्य न थी । एक दिन जब उनसे रहा नहीं गया तो आचार्य प्रतिनिधि श्री राजेश्वर जी ने हमें अलग बुलाकर समझाया कि बेटा तुम ब्राह्मण हो, सबसे बड़े और ये सर्वेन्द्र धोबी है सबके मैले-कुचैले कपड़े धोने वाला । तुम उसके पैर मत छुआ करो, केवल नमस्ते कर लिया करो । मैंने उनकी हां में हां मिला दी । वह खुश हुए कि मैं उनकी बात समझ गया पर मैं ठहरा कुत्ते की पूंछ ; जिस काम के लिए मना किया जात था उसे जानबूझ कर करता था । आगे से उन ब्राह्मण आचार्यों के सामने सर्वेन्द्र आचार्य जी और साथ में ही शिशु मंदिर में ‘कलुआ चमार’ के नाम से जाने जाने वाले एक चपरासी काका के पैर भी छूने लगा । बेचारे अब कुछ कह पाने की स्थिति में तो बचे नहीं  पर इस बात का बदला कक्षा में अवश्य लिया जाने लगा । बात-बात पर लेक्चर (ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत वाला भाव) और मार अलग से ... वह भी सबसे दीगर ... 15/03/2012

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