बतकही


मित्रों रोज की तरह आज भी थोड़ा अलशाते हुए प्रात: भ्रमण पर निकला । वापस में अनायास ही नज़र चली गई आम के पेड़ पर । देखा कि महोदय फिर बौरा गए हैं । वैसे तो बौराए हुए आम के पेड़ों को आपने बाग में देखकर खूब खुश होता था लेकिन आज पता नहीं क्यूं हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का स्मरण हो आया और देखते ही देखाते उस बौराए हुए आम के पेड़ से ईर्ष्या सी हो उठी ।
वैसे तो मैं उत्तर प्रदेश के एक जिले शाहजहाँपुर का रहने वाला हूँ पर इधर त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में रहने का अवसर मिला है । अगरतला में अगर आजीविका की बात की जाए तो रबर, सुपारी, नारियल, केला इत्यादि की महती भूमिका है । पर आज देखता क्या हूँ कि ये अब तो अपने मुरझाए चेहरे लटकाए खड़े हैं और आम महोदय हैं कि मदहोसी में ‘बौराए’ हि जा रहे हैं ।
आज रह-रह कर द्विवेदी जी के निबंद्ध याद आ रहे हैं । क्या उन्हें भी इसी प्रकार की जलन या चिन्ता हुई होगी ?
मेरे घर के सामने वाले घर में तमाम सारे पेड़ खड़े हैं । जिनमें कटहल महाशय सबसे बड़े हैं । त्रिपुरा जैसी जगह पर जहाँ सब्जी की किल्लत है सहज ही सब्जी उपल्ब्ध करा देते हैं, पर यहाँ आस-पास के लोगों से रोज ही गालियाँ खाते है । क्योंकि महोदय आज-कल पतझड़ पर हैं और रोज ही गली को अपने सूखे पत्तों से गंदा जो कर बैठते हैं । वैसे तो इस पतझड़ से आम भी गुजर चुका है लेकिन आज वह सज-संवर कर इठला रहा है तो फिर लोग कटहल या पूरी तरह से पर्ण विहीन हो चुके रबर के पेड़ों से हमदर्दी क्यूँ रखें...! सामने वाले घर में एक पेड़ बेल का भी है जो कभी तो भोले शंकर के सर पर बैठ कर इठलाता है और आज जब पतझड़ पर है तो आम लोगों का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहा है ।
मित्रों आज वास्तव में ‘मेरा हृदय कुछ उदास’ सा है । उदास है पास ही में खड़े कचनार को सूखते हुए देखकर और इसलिए भी ये महोदय जब भी सामने पड़ जाते  हैं एक घटना याद दिला ही जाते हैं । घटना मेरे एम.ए. की है जब हमारी एक मित्र हुआ करती थीं । एक दिन हम दोनों जा रहे थे तो कालेज में ही यह कचनार महोदय पूरी तरह से खिले हुए दिख गए । ऐसा लगा जैसे ‘मदन’ साहब खुद रति के साथ खेल रहे हों । खैर मेरी वह मित्र दौड़ कर उसके नीचे जा पहुँचीं तो हमे भी एक ठिठोली सूझ गई और हमने उस पेड़ को थोड़ा हिला दिया । फिर क्या था होने लगी फूलों की बरशात और हम लोग न जाने कब तक इन कचनार महोदय के साथ ठिटोली करते रहे । लेकिन आज यह भी मुरझाए हुए से पर्ण विहीन खड़े मातम मना रहे हैं । और यह सब हो रहा है इन ‘बौराए हुए’ आम महोदय के कारण जो सबको अपनी ओर खींच कर बांकी पेड़ों को उपेक्षा का पात्र बनवा रहे हैं ।
वैसे दोस्तों यह गलती आम साहब की भी नहीं कही जा सकती ! क्यूंकि यह जो बसंत है सबके लिए अलग-अलग आता है । किसी के लिए एक महीने पहले आ गया तो किसी के लिए दो महीने बाद । आज आम के लिए बसंत है तो कल इन बेचारों के लिए भी होगा.... आज ये इठला रहे हैं तो कल ये सब भी इठलाएंगे.... तब सोचिए जरा इन आम महोदय की क्या दशा होगी जब सब खुश होंगे और ये महाशय फलों के बोझ से दबे पड़े होंगे......
19/02/2012
सुनील ‘मानव’
शोध-छात्र
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर
अगरतला - 799200
मोबाइल - 09436982080
ई.मेल : manavsuneel@gmail.com

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