नींद की चादर
आज सुबह
नींद की चादर
शहर की कदमताल में
कहीं खो गई
मिचमिचाती हुई आँखों से
दौड़ते हुए
जनसैलाव में
मैंने खुद को तलाशा
मुझे दिखाई दिया
वही सिक्का
जो अक्सर
ट्रेन की पटरी पर
रख देता था
और गुजरी हुई ट्रेन के नीचे का
वह सिक्का
अपना वजूद खोजता
नजर आता था ।
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