कथा कही एक जले पेड़ ने


पिछले दिनों शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश) में एक नाटक -‘कथा कही एक जले पेड़ ने- देखने को मिला, जो एक चीनी कहानी की कथावस्तु का रंगमंचीय प्रस्तुति था और यह कथावस्तु चीनी लोक में फैली मिथकीय चेतना से संबद्ध थी । नाटक का निर्देशन किया शमीम आजाद ने तो मंच-पार्श्व में विनीत, कृष्णा आदि ने अभिनेताओं को सजाया-संवारा और नाटक को अपने अभिनय के माध्यम से जिन अभिनेताओं ने दर्शको के मनोमस्तिष्क में अंकित किया उनमें रानी की भूमिका के लिए शालू, रानी का मंत्री के लिए नेहपाल, कलाकार की भूमिका में विवेक कनौजिया और राजू की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है । सामान्य आवाज में बोलना और सामान्य वेषभूशा मे अभिनय करना तो ठीक है पर यहाँ तो अभिनेताओं ने बंदर के मेकअप में उन्हीं की बोली का अभिनय किया ।
कहानी की कथावस्तु एक जंगल की थी । नाटक का आरंभ होता है जंगल के बंदरों पर कुत्तों के आक्रमण से, जिसमें बंदरों की एकजुटता की जीत होती है । कहानी बंदरों की एक अहंकारी रानी के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपने हुस्न के कारण पागल-सी हो रही है, उसे अपनी ताकत और हुस्न पर इतना अहं है कि वह सबको अपने बस में करना चाहती है । एक दिन वह अपने चित्र बनवाने का आयोजन करती है । तमाम सारे बंदर कलाकार उसका चित्र बनाते हैं पर उसे एक साधारण कलाकार का बनाया चित्र पसंद आता है । इससे वह इतना प्रसंन्न होती है कि उस कलाकार को पुरष्कृत तो करती ही है उसे राज कलाकार के पद पर आशीन भी करती है । रानी उस कलाकार से अपने तमाम चित्र बनाने को कहती है पर कलाकार वैसे चित्र नहीं बना पाता । बौखलाई रानी कलाकार को देश से निकाल देती है और तमाम कलाकारों को अपने चित्र बनाने के लिए आमंत्रित करती है पर किसी भी कलाकार में वैसा चित्र बनाने की क्षमता रानी को नहीं दिखती । रानी कुछ-२ विक्षिप्त-सी होने लगती है । इसी दौरान वह कलाकार देश-विदेश के भ्रमण के बाद वापस रानी के जंगल में आता है । इस भ्रमण के दौरान उस कलाकार के अनुभव का दायरा बढ़ जाता है , वह जंगल की तुलना पूरे विश्व और मानवता के परिप्रेक्ष में करता है । फिलहल रानी कलाकार के आने से खुश होती है, क्योंकि उसे विश्वास है कि असली कलाकार वही है । रानी उसे राजमहल में बुलाकर फिर से वही प्रस्ताव रखती है । कलाकार बहुत कोशिस करता है कि रानी की छवि बना पाए पर ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि कलाकार को रानी की सुंदर काया में उसका क्रूर हृदय झांकता नजर आता है । एक दिन रानी सज-धज के छवि बनवाने के लिए खड़ी होती है । कलाकार बहुत कोशिस करने पर जब अपनी कला में पूरी तरह से निमग्न हो जाता है तो वह रानी का एक ऐसा चित्र बना जाता है जैसा वह हृदय में महशूस करता था । रानी जब चित्र को देखती है तो मारे गुस्से के आग-बबूला हो जाती है और कलाकार को यातनागृह में डलवा देती है । इधर कलाकार कारागार में तड़प-तड़प कर दम तोड़ देता है, पर कारागार की दीवारों पर ऐसा कुछ अपने नाखूनों से उकेरता है जो विनाश की संभावना पर मुहर लगा जाता है । उधर रानी पागल-सी हो जाती है । एक दिन रानी अपने मंत्री को बुलाकर आदेश देती है कि जो चित्र उस कलाकार ने बनाया था उसकी तमाम सारी प्रतिछवियां बनबाकर पूरे जंगल में लगवा दी जाएं और यह प्रचारित किया जाए कि रानी समाधि की अवस्था में चली गई है, उसके पास तमाम शक्तियां आ गई हैं । जो भी रानी के बारे में गलत सोचेगा उसका अनर्थ होगा और जो रानी की पूजा करेगा तो उसकी रक्षा रानी आबादी के कुत्तों से करेगी । कुल मिलाकर रानी की एक दैवीय छवि का प्रचार किया जाता है । जंगल के सारे बंदर रानी में ईश्वर का रूप देखने लगते हैं और इस बात से निश्चिंत हो जाते हैं कि अब तो आबादी के कुत्ते उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे । रानी की उम्र ढ़लती है और वह सबसे मिलना बंद कर देती है क्योंकि अब वह उतनी सुंदर नहीं रह गई थी । अपनी इसी सुंदरता को चिरनवीन रखने के लिए वह मां भी नहीं बनती है पर उस सुंदरता की समय के पंजों से रक्षा नहीं कर पाती है । एक दिन अचानक जंगल पर आबादी के कुत्ते हमला कर देते हैं पर रानी की ईश्चरीय छवि पर निर्भर हो चुके बंदरों में अब वह शक्ति नहीं रही कि अपनी रक्षा कर सकें । सब के सब मारे जाते हैं और नाटक का मार्मिक अंत होता है । रानी की भूमिका में शालू स्वतंत्र और कलाकार की भूमिका में विवेक कनौजिया के अभिनय की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही है ।
पूरी कथावस्तु तमाम सारे पर्दे उठाती-सी नजर आती है । कलाकार का कारागार की दीवारों पर नाखूनों से विनाश की भविष्यवाणी करके दम तोड़ जाना शाहजहाँपुर के और विश्व नाट्य साहित्य में एब्सर्ड एकांकी के जनक भुवनेश्वर की याद ताजा कर जाता है । उनके जीवन के तमाम बिंदुओं से पर्दा उठाता है । दूसरी ओर रानी द्वारा अपने को ईश्वर घोषित करना प्रदेश की मुख्यमंत्री की छवि से भी पर्दा उठाता है । माननीय मुख्यमंत्री के नाम की आरती उनकी रैलियों में गाया जाना और अपनी ही मूर्तियां लगवाना उस बंदर रानी को वर्तमान में जीवित हो उठना नजर आता है ।
इसके अतिरिक्त एक बात और दृष्टिगोचर होती है कि किस प्रकार से ईश्वर की सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ होगा ।
वस्तुत: दो प्रकार का दर्शन माना जाता है–भाववादी और भौतिकवादी । भाववादी चिंतन में ‘आत्मा की प्रधानता’ होती है तो भौतिकवादी चिंतन में ‘प्रकृति की प्रधानता’ होती है । इन दोनों चिंतनों का आपसी द्वंद्व चिरकाल से चला आ रहा है । अब अगर हम कुछ समय के लिए भौतिक चिंतन को ही सृष्टि का उन्मेषक मान लें तो इस कहानी की कथावस्तु समझते देर नहीं लगेगी कि किस प्रकार संसार में बुर्जुआ वर्ग ने अपने स्वार्थ के लिए ईश्वर को पैदा किया । दरअसल मार्क्स भी जब ईश्वर की मृत्यु की घोषणा करता है तो उसके पीछे यही सामंत विरोधी दृष्टि काम कर रही होती है । खैर अटकले तो बहुत सारी लगाई जा सकती हैं । कहानी एक नहीं बल्कि अनेकों पर्तें खोलती नजर आती है जिसमें समाज के तमाम सफेदपोश सिमटते नजर आते हैं ।
कुल मिलाकर नाटक की प्रस्तुति अद्भुत रही । वस्तुत: शाहजहाँपुर के रंगमंच की एक पहचान उसके नाट्य प्रयोगों को लेकर रही है और खासकर अभिव्यक्ति संस्था के संदर्भ में देखा जाए तो चाहे कहानियों का एकल मंचन हो या ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसी कविताओं का या फिर गोधरा जैसे नरसंहार की रिपोर्टों का । सब के सब मंचन एक एजेंडा लिए हुए, एक प्रयोग में समाहित होकर ही दर्शकों के समक्ष आए हैं । इंजीनियर राजेश कुमार ने जनवादी नाटकों के माध्यम से प्रयोग किए ही उनके जाने के बाद भी शमीम, मनीष मुनि आदि ने इन प्रयोगों को जारी रखा ।
इस नाटक में भी शमीम आजाद और उनके सहयोगियों ने एक नवीन प्रयोग किया था जो इससे पहले शाहजहाँपुर के रंगमंच पर नहीं हुआ था । नाटक चूँकि एक जंगल और बंदरों के समाज को प्रदर्शित करता है इसलिए मंच को एक विशेष आयाम के साथ तैयार किया गया । मंच पर एक बड़ा पेड़ है जिसकी शाखाओं पर बंदर झूलते नजर आ रहे हैं । वहीं पीछे से एक गुफा है जो कारागार के रूप में तैयार की गई है और उस गुफा के ऊपर से रानी के राजमहल में, जो एक बड़े पेड़ पर स्थित है, आने-जाने का रास्ता है । मंच तो मंच दर्शकों के आने जाने का रास्ता भी एक प्रयोग की ही कहानी बयान करता है । इस प्रेक्षागृह में आप प्रमुख द्वार से प्रवेश नहीं कर सकते थे क्योंकि वह बंद करके पीछे की ओर से एक रास्ता बनाया गया था जो झाड़-झंखाड़ से सजाया गया था एक दम जंगल के माफिक । एक बार तो दर्शक अचरज में पड़ ही जाता है कि वह कोई नाटक देखने जा रहा है या किसी जंगल की सैर पर निकला है । कुल मिलाकर देखा जाए तो यह नाट्‍य प्रस्तुति शाहजहाँपुर के इतिहास में एक अलग ही पहचान दर्ज करा के गई ।
25/02/2012
सुनील ‘मानव’
(शोध-छात्र)
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर, अगरतला-799022
मोबाइल : 09436982080
ई.                                                                                                           मेल : manavsuneel@gmail.com


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