रोज : आधुनिक जीवन की विसंगतियों की सशक्त अभिव्यक्ति


रोज : आधुनिक जीवन की विसंगतियों की सशक्त अभिव्यक्ति

Ø सुनील कुमार अवस्थी
            प्राय: देखा गया है कि जो रचनाकार पद्यकार होने के साथ-साथ गद्य शैली में भी रचनाएं लिखता है, उसकी गद्य रचनाएं, पद्य के मुकाबले कम प्रसिद्ध या प्रभावशाली होती हैं । पर इस रूप में अज्ञेय संभवत: टामस हार्डी के बाद दूसरे साहित्यिक व्यक्तित्व हैं, जिनका गद्य और पद्य समान रूप से समादृत है । यदि वे पद्य में एक ओर प्रयोगवाद के अग्रदूत और ‘बावरा अहेरी’, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘इत्यलम’, ‘इंद्रधनु रौंदे हुए ये’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘असाध्य वीणा’ आदि संग्रहों के महत्वपूर्ण कवि ठहरते हैं तो दूसरी ओर गद्य में ‘शेखर:एक जीवनी’ जैसा विशिष्ट और महत्वपूर्ण उपन्यास भी उन्होंने साहित्य जगत को दिया है । और इस दृष्टि से अज्ञेय की कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । ‘परंपरा’, ‘कोठरी की बात’, ‘अमर वल्लरी’, ‘जयदोल’, ‘शरणदाता’, ‘हीलीबोन की बत्तखें’ जैसे महत्वपूर्ण कहानी संग्रहों के प्रणेता अज्ञेय की एक महत्वपूर्ण कहानी है-‘रोज’ जो कि ‘गैंग्रीन’ शीर्षक से भी प्रकाशित हुई ।
अज्ञेय ने भारत की औपनिवेशिक स्वतंत्रता के आस-पास और उसके बाद की लगातार बदल रहे सामाजिक - सांस्कृतिक वातावरण में वस्तुत: मनुष्य के व्यक्तिगत वजूद की पहचान, उसकी निजता - विशिष्टता और आत्मिक स्वतन्त्रता से जुड़े प्रश्नों को उठाया । और देखा जाए तो नई कहानी के बाद अज्ञेय आदि के विरोध पर जिन आधुनिक बोध संबंधी मुहावरों को कहानियों में स्थान दिया गया, उनके बीज हमे इस कहानी में मिल जाते हैं ।
रोज एक एकल परिवार की कहानी है, जिसके पात्रों में एक ‘हाउस वईफ’, एक जैसी दिनचर्या वाला डाक्टर पति और एक बच्चा है । मालती का पति एक पहाड़ी गांव में डाक्टर है । तीनों एक सरकारी घर में रहते हैं । डाक्टर रोज सुबह सात बजे अस्पताल चला जाता है और डेढ़ - दो बजे तक लौटता है और शाम को एक बार फिर रोगियों को देखने के लिए अस्पताल जाता है । डाक्टर के जाने के बाद घर में मालती रोज की निश्चित दिनचर्या को यंत्रवत्‍ निपटाती है । ठीक वैसे ही जैसे घड़ी की सुई । मालती की दिनचर्या – पति से पहले सोकर उठना, घर की साफ - सफाई, नाश्ता, खाना, बच्चे की देखभाल, पति का इंतजार आदि - का अपना एक निश्चित दायरा है । आज, कल, परसों हर रोज वही काम । लेखक मालती के घर में पैर रखते ही महसूस करता है - “मानो उस घर पर किसी शाप की छाया मडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पम्य और घना सा फैल रहा था ।”
लेखक मालती को सखी कहता है क्योंकि वह उसके साथ ही बचपन बिता चुका है - हंसता, खेलता और बाल्यकालीन शरारतों से भरा – पूरा । उसके मष्तिष्क में मालती की वही वाचालता वाली छवि अंकित है पर अब उसकी शादी के ‘इतने ही दिनों’ बाद जब लेखक अपनी ‘कजिन’ – सखि - के घर पहली बार आया है, महसूस करता है - “शादी के महज तीन - चार सालों में ही मालती के भीतर की सारी नमी जैसे सूख गई है । इतने दिनों बाद मिलने पर भी उसके भीतर कोई हलचल नहीं होती । उसके भीतर कोई भावावेग दिखाई नहीं पड़ता ।” मालती अपने उस यांत्रिक जीवन में इतने गहरे तक जकड़ी हुई है कि अपने बाल सखा से उसका हाल - चाल तक नहीं पूछ्ती । वह अपने अतिपरिचित से, बार-बार देखे हुए ‘दृश्य’ में इतने गहरे तक समाहित है कि कोई नयापन उसे महसूस ही नहीं होता है । ‘रोज’ में हर एक दृश्य मालती की आंखों के सामने से इस प्रकार निकलता है जैसे कि दैनिक अखबारों में छ्पे मामूली से विवरण, जिन्हें हम रोज ही पढ़कर भूल जाते हैं ।
‘रोज का पुनर्पाठ’ शीर्षक लेख में एक लेखक लिखता है –“रोज कहानी में मालती की जीवन-स्थिति भी जैसे उसकी नियति बन चुकी है, लेकिन उस स्थिति पर ‘अज्ञेय’ जैसे ही एक प्रश्न-चिन्ह लगाते हैं वैसे ही वह जिन्दगी मानों छटपटा कर एक कहानी में बदल जाती है । एक ऐसी कहानी, जिसे पढ़कर हम स्वयं देर तक छटपटाते रह जाते हैं । एक ऐसी कहानी जिसे पढ़कर हम मालती के भीतर की छटपटाहट को ही नहीं देखते, बल्कि उसके पीछे मौजूद उस अलक्षित तंत्र को भी देख लेते हैं, जो किसी अभिशाप की तरह, किसी अशुभ छाया की तरह पूरे परिवार पर, विशेषकर मालती पर हावी है । वह छाया लेखक को बार-बार दिखाई पड़ती है, वह कहता है - “यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है... और विशेषतया मालती पर...।”
लेकिन यह छाया सिर्फ लेखक को ही क्यों दिखाई पड़ती है ? मालती का पति माहेश्वर लगातार साथ रहते हुए भी उस छाया को क्यों नहीं देख पाता ? यह एक बड़ा सवाल है । माहेश्वर, जो कि संबंद्ध के लिहाज से मालती के सबसे निकट का व्यक्ति है, वह मालती की रोजमर्रा की घुटन और दारुण तकलीफ को नहीं देख पा रहा है । दूसरी तरफ लेखक को इसकी अनुभूति घर में पैर रखते ही हो जाती है । ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लेखक मालती को मित्रता की दृष्टि से देखता है । मित्रता में बराबरी, समानता और सहधर्मिता का भाव होता है । मित्र की दृष्टि वस्तुत: एक जनतांत्रिक दृष्टि होती है । लेखक कहता है -“मालती मेरे दूर के रिश्ते की बहिन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर संबंध सख्य का ही रहा है। ...
“... ‘रोज’ वस्तुत: सामंती समाज व्यवस्था द्वारा नियंत्रित उस एकल परिवार की कहानी है जो भारत के नवीन सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में संयुक्त परिवार के टूटने से अस्तित्व में आया । इस एकल परिवार को संयुक्त परिवार की भीड़-भाड़ या कि अति सामाजिकता से छुटकारा मिला, व्यक्ति स्तर पर जीने की सुविधा और स्वतंत्रता हाशिल हुई । परन्तु साथ ही इसने सामूहिक जीवन-पद्यति में प्रवाहमान सामाजिकता और उत्पादनशीलता खो दी । दूसरी तरफ जीवन-प्रणाली के स्तर पर उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया । संयुक्त परिवार से अलग होकर उसकी अच्छाइयां तो उसके साथ नहीं आ सकीं, लेकिन सामंती समाज और परिवार-तंत्र की सारी बुराइयां उसके साथ लगी रहीं । ज्ञान, पैसा और सुविधा के स्तर पर जिन्दगी में काफी बदलाव आ जाने पर भी, संस्कार, सोच और व्यवहार के स्तर पर वह पहले जैसा ही बना रहा । तीसरे, औपनिवेशिक पश्चिमी शिक्षा ने उस पारंपरिक श्रम और उत्पादन से अलगाकर मूलत: असामाजिक और सृजनहीन बना दिया । दूसरे शब्दों मे कहें तो वह औपनिवेशिक औद्योगिक तंत्र के एक उत्पादनहीन मशीनी पुर्जे (गुलाम) में बदल दिया गया । औपनिवेशिक अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने यही नहीं कि केवल भारत के पारम्परिक घरेलू उद्योग को अपने फायदे के लिए तहस-नहस कर दिया, बल्कि इसके साथ ही उसने यहां की श्रम-संस्कृति को भी एक शिरे से ध्वस्त कर दिया । अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार भी उसने इसलिए किया, ताकि अपने लिए सस्ते मूल्य पर बौद्धिक मजदूर तैयार कर सके । आजादी के साठ साल बाद भी, हमारे देश का पढ़ा-लिखा तबका, व्यावहारिक स्तर पर वस्तुत: वही बौद्धिक मजदूर है, जो  अपेक्षाकृत सस्ते मूल्य पर पश्चिमी देशों के लिए काम करता है । फिर चाहे वह  डाक्टर हो कि इंजीनियर, स्कालर हो कि टेक्नीशियन या कि वैज्ञानिक, अंतत: उसकी स्थिति मजदूर गुलामों जैसी ही है । वह पढ़ता तो है देश और देश की जनता के खर्चे पर, लेकिन अपनी सेवाएं देता है पश्चिमी देशों को । भारत में अपने समस्त आधुनिक प्रयत्नों के बावजूद, औप्निवेशिक फायदे के लिहाज से अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दिलचस्पी कभी इस ओर नहीं रही, कि भारत की जनता, अपने पारंपरिक सामाजिक गतिरोधों को पार करे । उल्टे कभी छिपे तौर पर, तो कभी खुलकर उन्होंने यहां के सामंती-तंत्र क पोषण किया और जमीदारी प्रथा को औप्निवेशिक शोषण के स्थानीय औजार में बदल दिया ।” (इंटरनेट से साभार)
कहानी में मालती का पति एक डाक्टर है – स्थानीय डिस्पेंसरी का सरकारी नौकर । और इसीलिए वैज्ञानिक सृजनशीलता, स्वतंत्रता और स्वत: स्फूर्त सामाजिक प्रतिबद्धता से दूर उसका काम मूलत: क्लर्कों जैसा है ।
मूलत: यह कहानी आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए व्यक्तिवादी जीवन की विसंगतियों की ओर संकेत करती है । आधुनिक जीवन - व्यवस्था ने मनुष्य को मनुष्य से दूर कर दिया है । आधुनिक मध्यवर्गीय मानव एकाकी जीवन जीने को विवश है । इस एकाकी जीवन की अपनी समस्याएं हैं – ऊब, एकरसता, हताशा, संबंधों का ठंडापन । जीते रहना उसकी मजबूरी है । वह स्पीडोमीटर की भांति जीवन-पथ को मापने का भाव-शून्य यंत्र मात्र रह गया हो –‘‘अब कोई मर-मुर जाए तो ख्याल ही नहीं रहता, पहले रात-भर नींद नहीं आती थी।’’
नैरेटर रिश्ते की बहन मालती के घर जाता है । घर पहुचते ही उसे आभास होता है – “मानो उस घर पर किसी शाप की छाया मंडरा रही हो । उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य किंतु फिर भी बोझिल और प्रकंपमय और घना-सा फैल रहा था ।”
कहानी में यह ‘घना-सा’ जो ‘फैल रहा था’ विभिन्न संदर्भों मे पांच स्थानों पर दिखाई पड़ता है और पूरे वातावरण को एक विषाद से भर-सा देता है । पूरे वातावरण को बोझिल-सा बना देता है । हर वाक्य में ‘नीरसता’ और भी सघन होकर सामने आती है –
१.खाने पर देरी होने पर – ‘रोज ही ऐसा होता है’, ‘मेरी कौन बात है’
२.टिटी के रोने पर – ‘हमेशा ही ऐसा होता है’
३.पानी न आने पर – ‘रोज ही होता है’
४.गजर खड़कने पर – ‘रोज ही इतने बजते हैं’
५.शिशु के गिरने पर – ‘रोज ही गिर पड़ता है’
हर बार मानों ‘रोज’ शब्द की और भी व्यापक संदर्भों में अभिव्यक्ति होती है । और साथ ही पूरी कहानी में फैला सन्नाटा भी विभिन्न पांच संदर्भों में टूटता है, ऐसा लगता है जैसे नीरव श्मशान में कीई डरावनी-सी आवाज रह-रहकर अचानक गूंज उठती हो । जैसे -२ सन्नाटे पर दस्तक होती है एक ‘धक्क’ सा हृदय में हो उठता है जो कहानी के परिवेश को और भी विषादता से भर देता है । जैसे –
१.मालती का कहना – ‘उहूं उहूं उं...’
२.गजर का खड़कना – ‘तीन खड़्के’
३.बरतन की – ‘खन-खन’
४.नल की – ‘टिप-टिप’
५.शिशु का गिरना – ‘खट्‍’
लेखक सोचता है कि मानों पूरे वातावरण में ‘फैला हुआ सा कुछ’ उसे अपने वश में कर रहा हो –“छाया अज्ञात रहकर भी मानों मुझे भी बस में कर रही हो ।’ और यह भयंकर छाया है गैंग्रीन, जो मनुष्य की संवेदना को लगातार आपने आगोश में लेती जा रही है ।
नैरेटर और मालती का जीवन शरारतों से पूर्ण रहा है । उनकी शरारतों ने खूब गुल खिलाए हैं । बचपन की उन्हीं स्मृतियों को सहेजे जब नैरेटर उस घर में कदम रखता है तो बदले वातावरण में उसकी स्मृतियों को धक्का लगता है । स्वभाव से वाचाल नैरेटर भी उस छाया से घिर जाता है । वार्तालाप के लिए उसे शब्दों की कमी महसूस होने लगती है – “मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है वह अज्ञात रहकर मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस और निर्जीव-सा हो रहा हूं ।”
मालती के जीवन में कोई उमंग नहीं, कोई चाह नहीं । जीवन को जैसे वह जीती नहीं काटती – “मानो इस अनैच्छिक समय गिनने में ही उसका मशीन तुल्य जीवन बीतता हो । वैसे ही जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यंत्रवत फासला नापता जाता है, और यंत्रवत विश्रान्त स्वर में कहता है(किससे ?) कि मैंने अपने अमित शून्य पथ का इतना अंश तय कर लिया है ...।”
आज के गतिशील जीवन में जबकि हर अगले क्षण कुछ अनचाहा घट्ने की आशंका बनी रहती है, मालती और उसके पारिवारिक जीवन में अजब तरह की एकरसता है, जो किसी तरह नहीं टूटती । वातावरण में कहीं जीवंतता नहीं प्रतीत होती । नल की ‘टिप-टिप’ जैसी छोटी-छोटी ध्वनियां भी इस वातावरण में अपना महत्त्व रखती हैं, जो वातावरण की जड़ता को तोड़ती हुई प्रतीत होती हैं । ‘रोज’ ही होता है’ – यह वाक्य पूरी कहानी में बारम्बार प्रतीत होता रहता है । अपनी प्रत्येक प्रतिध्वनि के साथ यह वातावरण की एकरसता और अवसाद को और गाढ़ा करता जाता है । रोज-रोज होते रहने की यह भावना इतनी प्रभावशाली है कि माता और पुत्र के तीव्र भावनात्मक संबंधों में भी सपाटता भर देती है । पलंग से गिर पड़े शिशु के प्रति मालती का भाव-तटस्थ सा यह कथन –“ रोज ही गिरता रहता है।” नैरेटर के मन में तीव्र हलचल पैदा कर देता है । ऐसे गहन भावनात्मक और तरल संबंधों में भावशून्यता का आ जाना साधारण घटना नहीं है । आधुनिक मध्यवर्गीय जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है । नैरेटर इस पर निष्कर्षात्मक टिप्पणी करता है –“मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुंब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गई है, उनके जीवन के इस पहले यौवन में घुन की तरह लग गई है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गई है कि वे उसे पहचानते ही नहीं , मैंने उसको देख भी लिया ।”
कदाचित समाज का यही वह हिस्सा है जिसे ‘गैंग्रीन’ ने ग्रस लिया है ।
शिल्प की दृष्टि से वैसे भी अज्ञेय प्रयोगधर्मी रचनाकार रहे हैं । इस कहानी में शिल्प की नवीनता कहानी के प्रचलित मानदंडों को तोड़ती है । अपनी विषयवस्तु के समान ही कहानी विषादपूर्ण और एकरस सी प्रतीत होती है । कहीं कोई चौंकाऊ घटना नहीं, कहीं कोई मोड़ नहीं । सारा वृत्तांत एक नीरस चित्रावली के समान बेजान सा पाठक के सामने घटित होता रहता है । वस्तुत: सपाटता इस कहानी का प्राण है ।
कहानी में कथातत्व शून्य सा है । वही कथाशून्यता जिसे नई कहानी के दौर में ‘कथा का ह्रास’ कहा गया था । कथा में कोई आदि, मध्य या चरम जैसी पारंपरिकता नहीं है । कहानी में मध्यवर्गीय जीवन के एक दिन का विवरण मात्र है – उसी तरह एकरस और उबाऊ । नैरेटर की अतिथि उपस्थिति भी उस ठहरे हुए जीवन में हलचल नहीं उत्पन्न कर पाती । एक वाक्य में कहा जाए तो यह कहानी जीवन के महाकाव्य का एक पृष्ठ मात्र है – उतना ही अलग-थलग और अघूरा सा ।
भाषा की नीरवता, शैली का ठहराव, घटना क्रम की शिथिलता, पूरा रचना वितान नीरस-सा है । जहां पर रात्रि का वर्णन है, ऐसा लगता है, जैसे क्षण भर का विश्राम है, पर वहां भी शांति है । रचना वितान के स्तर पर कहानी परंपरागत ढ़ाचे को तोड़ती है – आरंभ, चरम और अंत नहीं है – कहानी सपाट है – ‘रोज ही होता है’
वस्तुत: कहानी कोई निष्कर्ष या समाधान दिए बिना ही समाप्त हो जाती है । वास्तव में चेखव की इस कला को आगे चलकर नई कहानी के आलोचकों द्वारा ‘कहानी के अंत को खुला रखना’ कहकर विशेषता के रूप में स्वीकारा किया गया ।
                                                                                                        सुनील कुमार अवस्थी
(शोध-छात्र)
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर, अगरतला-799022
ई-मेल : manavsuneel@gmail.com
मोबाइल : 09436982080

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