सरहदें.......
दोनों देशों के मध्य पिछले तमाम दिनों से चले आ रहे युद्ध का परिणाम अनिर्णीत होते हुए भी विराम की स्थिति में आ चुका था । ‘नो मैन लैण्ड्स’ पर दोनों ओर से शख्त पहरा था । परिन्दा भी दूसरे की सीमा पर ‘पर’ नहीं मार सकता था । विपक्ष को घूरती सैनिकों की ‘यमराजी आंखें’ आग बरपा रही थीं । ट्रिगर था जो दबने के लिए बस बहाने की तलाश भर कर रहा था ...
ड़ा० अश्क पेशे से पत्रकार होते हुए भी साहित्यिक रुचि के पढ़ने-लिखने वाले व्यक्ति थे । इसी के चलते अपने एक साहित्यकार मित्र के साथ सरकारी सुरक्षा के बीच ‘सीमा’ की संवेदना को महसूस करने आए थे । दोनों मित्र युद्ध के वातावरण पर गहन बहस किए जा रहे थे ।
“... अरे-अरे अश्क जी उस गड़रिए की भेड़ें दूसरी ओर जाने का प्रयास कर रही हैं...” मित्र ने डर के साथ चौंकते हुए ड़ा० अश्क को झकझोरा ।
दोनों मित्र दौड़कर गड़रिए के पास पहुंचे ।
“...तुम देख नहीं रहे हो ! तुम्हारी भेंड़े सीमा के पार जा रही हैं...” ड़ा० अश्क करीब-करीब चीख से पड़े । गड़रिया अचानक हुए इस वाकए से पहले तो घबराया फिर कुछ सम्हलकर सहमते हुए बोला-“...साहब ! जानवर हैं ; ज़मीन पर सरहदें बनाना नहीं जानते ।” और डण्डा उठाए भेड़ों के पीछे दौड़ गया ।
दोनों साहित्यकार उसे जाते देखते रहे ।
सुनील ‘मानव’
शोध-छात्र
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्व-विद्यालय
सूर्यमणिनगर, अगरतला – ७९९०२२
मोबाइल – ०९८६२०९३५१०
ईमेल- manavsuneel@gmail.com
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