'पार्टनर तुम्हारी पालीटिक्स क्या है ?’


भूल-गलती
                                                                                    आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
                                                                                    तख़्त पर दिल के ;
                                                                                    चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक
                                                                                    आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज़ पत्थर-सी;
                                                                                    खड़ी हैं सिर झुकाये
                                                                                                            सब क़तारें
                                                                                                बेज़ुबाँ बेबस सलाम में,
                                                                                    अनगिनत खम्बों व मेहराबों-थमे
                                                                                                            दरबारे-आम में।
                                                                                                                                    -मुक्तिबोध                     
          13 जनवरी को लखनऊ के 'संत गाडगे जी महराज प्रेक्षागृह में 'सत भाषे रैदास’ नाटक का मंचन अचानक रोक दिया गया । इंजी. राजेश कुमार द्वारा लिखित एवं निर्देशित इस नाटक के मंचन की लगभग सभी तैयारियाँ हो चुकी थीं, तभी संस्कृति विभाग की उपनिदेशक श्रीमती इन्दु सिन्हा ने आकर फरमान सुनाया कि नाटक नहीं हो सकता । अब नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता, सरकारी फरमान है । कारण बताया जाना आवश्यक नहीं है ।
          ज्ञात हो कि यह नाटक शाहजहाँपुर की 'अभिव्यक्ति नाटय संस्था’ द्वारा देश के श्री राम सेन्टर नर्इ दिल्ली इत्यादि प्रसिद्ध स्थानों पर 18 बार मंचित हो चुका था । नाटक तमाम पुरस्कारों के साथ ही 'मोहन राकेश सम्मान’ से सम्मानित भी किया जा चुका है । 'कानाफूसी’ पर ध्यान दें तो नाटक का मंचन इस कारण रोक दिया गया कि इस में ब्राह्राणों का अपमान किया गया है । यहाँ पर यह भी बताता चलूँ कि इस मंचन के मुख्य अतिथि श्री सुभाष पाण्डेय, माननीय मंत्री संस्कृति विभाग उ0प्र0 के साथ ही अवनीश कुमार अवस्थी, निदेशक एवं सचिव संस्कृति एव पर्यटन उ0प्र0 एवं नीलम अहलावत, अपर निदेशक संस्कृति उ0प्र0 आदि थे ।
          इस घटना के बाद मुक्तिबोध के वह उद्‍गार अनायाश ही स्मरण हो आये जो उन्होंनें नेहरू जी की मृत्यु पर व्यक्त किये थे - 'पार्टनर ! अब फासीवाद आया समझो ।’ आखिर कब तक लगाये जाते रहेंगें अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध ! अखिर कब तक यह फासीवादी ताकतें सच के सामने दीवार उठाती रहेंगी...!!
          जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि इस नाटक का मंचन देश के विभिन्न स्थानों पर 19 बार हो चुका है । हर जगह सराहा गया, पुरस्कृत किया गया, इतनी हौसला अफ़जार्इ की गर्इ कि हर बार कलाकारों ने अगली प्रस्तुति के लिए नये जोश का परिचय दिया ; लेकिन लखनऊ, जो दलितों - पिछड़ों की हिमायती सरकार की राजधानी है, नाटक का मंचन रोक दिया गया....! 'आश्चर्य की बात है.....?’ अब अगर इस सरकार में भी अम्बेडकर और रैदास की बात नहीं की जायेगी तो क्या भगवा सरकार के सामने की जायेगी.....!
          'दलितों की हिमायती सरकार....’ कहीं यह भी तो फासीवाद नहीं, जो आज नये रूप में रचनाकार के सामने खड़ा हो गया है । अब सोचने की बात है कि ऐसा किस कारण हुआ ? इसमें वर्तमान सरकार की राजनीति के बडे़ निहितार्थ तो नहीं छुपे हुये हैं ?
          हम वस्तुत: अभी तक जिस फासीवाद की बात करते आ रहे हैं आज उसका स्वरूप बदल चुका है, यह 'फासीवाद एक प्रकार मात्र है ।’ आज के संदर्भ में विचार किया जाये तो हम पायेंगे कि जिसके हाथ में ताकत है, सत्ता है वही नये फासीवाद की परिभाषा गढ़ रहे हैं । यह फासीवाद किसी भी वर्ण, धर्म अथवा सत्ता का फासीवाद हो सकता है ।
          खैर ! यह तो विमर्श का विषय है । हम बात करते हैं नाटक 'सत भाषे रैदास की ।’ किस कारण से इस नाटक का मंचन रोक दिया गया, इसका पता तो नाटक की पृष्ठभूमि में जाकर ही चल सकता है ।
          आज राजनीति का क्षेत्र हो या साहित्य का, दलितों की मुक्ति और उनकी स्वतंत्रता और समानता के संघर्ष की चर्चा हर तरफ है । जितना नजर अंदाज पहले किया जा चुका, अब सम्भव नहीं है । सवाल यह भी है कि आजादी के इतने वर्षो के बाद भी यह सवाल बरकार हैं, इसका हल नहीं हो सका, बल्कि यह मुख्य मुददा बन गया है । कहीं ऐसा तो नहीं कि इसे कोर्इ हल करना ही नहीं चाहता ! बल्कि चालाकी से किसी सोंची - समझी योजना के तहत घालमेल कर हाशिए पर डाल देना चाहता है, क्योंकि जो लड़ार्इ आजादी के पूर्व निरंतर लड़ी जाती रही है, उसका हल न हो पाना कदाचित इसी ओर इशारा करता है । लेकिन कोर्इ सवाल कब तक दबाकर रखा जा सकता है ? आप दबाएगें तो वह कहीं और से उठेगा, आप जवाब नहीं देंगें तो कोर्इ और देगा और आज एक नहीं देश की कर्इ जगहों से यह सवाल एक साथ कर्इ लोग उठा रहे हैं और हल के प्रयास में लगे हैं ।
          राजेश कुमार ने यही प्रश्न उठाकर दर्शकों की जागृत बेचैनी में उसका जवाब तलाशने का प्रयास किया है और कहानी न कहकर भी वे इसमे पूर्ण सफल रहे हैं । वास्तव में यह नाटक रैदास की केवल जीवनी नहीं है । कहाँ जन्म हुआ, कहाँ पले, कौन इनके माता-पिता हैं, इन सब बातों को सुनाना, दिखाना इस नाटक का उद्‍देश्य नहीं है । यह नाटक रैदास के जीवन की कुछ घटनाओं का, लोक - कथाओं का कोलाज है जिसमें से उनकी वैचारिकता का स्पष्ट आभास मिलता है । वे अपनी जिन्दगी में वर्णवादी व्यवस्था, धार्मिक कट्टरता, आर्थिक विषमता से किस तरह से जूझते रहे , यही दिखाना नाटक का परम उददेश्य है ।  और इस उददेश्य को प्राप्त करने के लिए राजेश जी किंवदंतियों, लोककथाओं, जीवनी परक ग्रन्थों तथा रैदास के साहित्य की धुँधली, स्पष्ट और चटख रेखाओं से एक ऐसा नाटय - चरित्र रचते हैं, जो न केवल मध्यकालीन बलिक वर्तमान में फैले वर्ण-श्रेष्ठता के दंभ और उससे उपजी अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ एक आंदोलनकारी के रूप में खड़ा होता दिखार्इ देता है और जाने - अनजाने हमारे परम्परा - प्रथित मिथकों को खण्ड - खण्ड करता चलता है ।
          यह सत्य है कि मध्ययुगीन समाज की बर्बर और अमानवीय वर्ण - व्यवस्था के खिलाफ भक्ति कालीन निर्गुण सन्तों ने जो आंदोलनकारी साहित्य - सर्जना की, उसकी एक सामाजिक भूमिका को छिपाकर उसे उदार मानवतावादी धार्मिक विचारों का नाम दे दिया गया । और एक सोंची - समझी साजिश के तहत किवदंतियां उनके साथ ऐसी जोड दी गर्इं जो उन्हें वर्ण - व्यवस्था का पोषक न सिद्ध कर सकें तो विरोधी भी न कहने दें । पाठय - पुस्तकों में भी इन समाजिक आंदोलनकारियों के लिए ऐसे वृत्तांत रचे गए जो उन्हें महिमा - मण्डित तो करते हैं पर असल सच्चार्इ को पर्दे के पीछे ढ़क देते हैं । उनके आध्यात्मिक पक्ष को बड़ी गहरार्इ से विश्लेषित करके उन्हें वेद - सम्मत प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है और सामाजिक दृष्टिकोण को या तो उठाया ही नहीं जाता या फिर उसे इस प्रकार व्याख्यायित किया जाता है कि वह उनकी तथाकथित आध्यात्मिक्ता को ही पुष्ट करता प्रतीत होता है । उनके विप्लवी कथनों पर सर्वभूत समभाव और मानवतावाद का मुलम्मा चढाकर आध्यातिमकता और वेद सम्मतता की वाहवाही में उनकी तीव्रता कुंद कर दी जाती है और इस तरह एक क्रांतिकारी साधक,चिंतक यथस्थितिवादी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है । शायद ऐसी ही परिसिथतियों में 'पाश ने कहा होगा - ''क्यों मेरे चीखने कोबार-बार कविता कह दिया जाता है ।”
          नाटककार जब इस सच्चार्इ को हमारे सामने लाता है तो मनोमस्तिष्क में संजोए हुए पवित्र मिथक रेत की भीत की तरह भरभरा जाते हैं । हमारी संस्कृत और सुखमय रूचि पर जबरदस्त आघात लगता है पर जब नाटककार अपने पक्ष में सबल तर्क और इतिहास के गहन विश्लेषण के पश्चात कुछ सर्वमान्य अवधारणाएं प्रस्तुत करता है तो सच्चार्इ को स्वीकारने के अलावा रास्ता ही नहीं बचता ।
          यह नाटक स्वयं को रैदास के जीवन की घटनाओं पर केन्द्रित नहीं करता बल्कि उसके आस - पास के समाज और प्याज के छिलकों जैसे ढ़के - छुपे यथार्थ को परत – दर - परत उघाडता चलता है । नाटककार का कथासार इस प्रकार है कि रैदास की प्रतिष्ठा जैसे - जैसे स्थापित होती जाती है, वर्णवादी सत्ता के साधकेां में बैचेनी बढ़ने लगती है । उन्हें अपनी धार्मिक और सामाजिक श्रेष्ठता संकट में पड़ती दिखार्इ देने लगती है । जब वे सारे प्रयास करके हार जाते हैं तो अघोरनाथ उन्हें नया रास्ता सुझाता है - लोहे से लोहे को काटने का । वे निर्गुण काव्यांदोलन के बरखिलाफ उस सगुण भक्ति का प्रचार करते हैं जो निराकर ,निरंजन और निर्विकार निर्गुण का खण्डन करके मठ, मंदिर और मूर्तिपूजा को महिमा - मंण्डित करे । यहाँ नाटककार मुक्तिबोध की इस मान्यता से प्रभावित दिखार्इ देता है कि भक्ति आंदोलन मूलत: उच्च वर्गीय जातियों के खिलाफ निम्न वर्गीय जातियों का एक आवश्यक विद्रोह था । मुक्तिबोध यह स्थापना देते हैं कि यद्यपि ''भक्ति आंदोलन मे ऊंच और नीच दोनों प्रकार के संतों का योगदान रहा, पर जहाँ तक सामाजिक भेदभाव था मानव की मूलवर्ती एकता का सवाल है, निम्न कहे जाने वाले संतों का योगदान अधिक भास्वर है”  और भक्ति आंदोलन के बिखरने और वास्तविक ताप खो देने के सवाल पर वे कहते हैं ''सामाजिक, संस्कृतिक क्षेत्र में निम्नवर्गीय भक्ति मार्ग के जनवादी - संदेश के दांत उखाड़ लिए गये । संतों को सर्ववर्गीय मान्यता प्राप्त हुर्इ किन्तु उनके संदेश के मूल स्वरूप पर कुठाराघात किया गया और जातिवादी पुराण धर्म पुन: नि:शंक भाव से प्रतिषिठत हुआ और इस तरह उच्च वर्ग का प्रभाव बढ़ने के साथ ही भक्ति आंदोलन की धार कुंद होने लगी ।”
          अंतत: काशी के पण्डे अघोरनाथ के नेतृत्व में काशी नरेश के दरबार में पहुंचते हैं और सनातन धर्म और शास्त्रों की दुहार्इ देकर रैदास को रोकने की गुहार करते हैं । रैदास को बुलाया जाता है । रैदास और अघोरनाथ में परस्पर लम्बी बहस होती है । अघोरनाथ शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखता है । इस पर रैदास जवाब देता है कि पूरा – का - पूरा शास्त्र तो शूद्रों के विपक्ष में रचा गया है, वह किस आधार पर शास्त्रार्थ करे । अंतत: बहस का हल निकलता न देख काशी नरेश घोषणा करते हैं कि वास्तव में जो सच्चा प्रभु भक्त है अपनी भक्ति से दरबार में रखी कृष्ण की मूर्ति को अपनी गोद में बिठा कर दिखाए । इस मुकाबले में रैदास की विजय होती है ।
          यहाँ पर नाटककार कहानीपन बनाए रखने के लिए रैदास के सम्बंध में प्रचलित किवदंतियों और चमत्कार पूर्ण घटनाओं का भी प्रयोग करता दीखता है । शालिग्राम को गंगा मै तैराना भी ऐसी ही घटना है । समस्त प्रयासों के बावजूद जब वर्णवादी वर्चस्वता के समर्थक रैदास के प्रभाव और मनोबल को तोड़ पाने में समर्थ नहीं होते तो वे 'कटार के स्थान पर कहानी’ का प्रयोग करते हैं और रैदास को पूर्व जन्म का ब्राहमण घोषित कर देते हैं । इसी प्रसंग में नाटककार कबीर और रामानंद को मंच पर प्रस्तुत करता है और यह मिथक कि - कबीर जैसे निम्न वर्ग के भक्त को उदारवादी रामानंद ने अपनी शिष्यता प्रदान की थी - खण्डित कर देता है । यहाँ कबीर रामानंद को चेतावनी देने वाले,  वर्णवाद के जबरदस्त विरोधी भक्त के रूप में प्रदर्शित किए गए हैं । जो गंगा - घाट की सीढि़यों पर इसलिए लेट गया था कि वह खुद का स्पर्श करा रामानंद के वर्णवादी दंभ को तोड सके और यह नयी सूझ नाटककार की कल्पना की उड़ान मात्र नहीं है । इसके लिए वह भक्तमाल की उस घटना का आधार ग्रहण करता है जहाँ रामानंद और कबीर की भेंट के समय उनके बीच में एक पर्दा रखे जाने की बात की गर्इ है ताकि कबीर की छाया पड़ने से रामानंद अपवित्र न हों ।
          रैदास की भक्तिधारा विरोधियों के रोडो़ं के बावजूद अविरल प्रवाह की भाँति विकसित होती जाती है । यहाँ तक कि मीराबार्इ उन्हें गुरू - दीक्षा हेतु राजस्थान आमंत्रित करती हैं । वहाँ वे श्री कुम्भश्याम मंदिर में आरती का पद गाते हैं, जिसे सुनकर ब्राहमण क्रोधित हो जाते हैं और उनकी हत्या कर देते है और इस हत्या को पूर्व जन्म के ब्राहमण रैदास के देह - त्याग और परलोक गमन और मोक्ष प्राप्ति के पाखण्ड़ से जोड़कर इतिहास को किस तरह बदल दिया जाता है, यही इस नाटक का अंत प्रदार्शित करता है ।
          नाटक अपनी वैचारिक ओजस्विता और पर्दो में छिपी सच्चार्इ को उभार कर दर्शक के  हृदय में बेचैनी पैदा करने में पूर्ण सफल कहा जा सकता है । पूरे नाटक में नाटककार की वैचारिक प्रतिबद्धता स्खलित नहीं होने पार्इ है । यहाँ तक कि मंच - सज्जा और पात्र - सज्जा में भी नाटककार ने प्रतिबद्ध दृष्टि का परिचय दिया है । आडंबरहीन वेश - भूषा और साज - सज्जा दर्शकों पर सफल प्रभाव पैदा करता है, पर यह प्रभाव कभी - कभी जड़ीभूत और पूर्वागृह मुक्त मानसिकता बालों के लिए उल्टा भी पड़ सकता है । जो लोग रैदास और कबीर की रूप - सज्जा के लिए, जप माला छापा तिलक, आवश्यक समझते हैं उनके लिए कबीर 'मुहल्ले टाइप नेता’ जैसे दिख सकते हैं ।
          पूरे नाटक में कहीं भी, कुछ भी ऐसा नहीं है कि उसे प्रतिबंधित किया जाये, फिर भी उस पर प्रतिबंध लगाया गया । है ना यह एक नये प्रकार का फासीवाद !
          वस्तुत: नाटक ना तो ब्राह्राणों के विरोध में लिखा गया और ना ही किसी वर्णगत - जातिगत राजनीति के वशीभूत होकर; अपितु नाटक को लिखने का उददेश्य महज रैदास कालीन उस असपृष्यता को नये संदर्भों में उदघाटित करना है, जो आज तक चली आ रही है । इसका जीता जागता सबूत नाटक के मंचन को रोका जाना है ।
          आज चाहे जितना भी कहा जा रहा हो कि सब बराबर हैं, सबको समानता का अधिकार है, लेकिन वास्तविकता तो यही है कि आज भी वर्णवाद का सिरमौर 'ब्राह्राणवाद (न कि ब्राह्राण) किसी न किसी रूप में राज कर रहा है, जो अभिव्यक्ति पर ताला लगा देना चाहता है । फिर भी इस राजशाही, सामंतशाही, ब्राह्राणशाही से लड़ना ही होगा और इन ताकतों से केवल एक रचनाकार ही लड़ सकता है, उसे चुनौती दे सकता है -
                                                ''अब अभिव्यकित के सारे खतरे
                                                उठाने ही होंगे।
                                                तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।”

Ø  सुनील 'मानव
                                                                                                                        शोध-छात्र
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर
अगरतला – 799022
मोबाइल – 09436982080
                                                                                                    ई.मेल : manavsuneel@gmail.com

Comments

  1. आपके सारे तर्क सही है। यही विचारधारा यदि सबके मन में हो तो तभी जाकर समाज नयी और सठीक दिशा में आगे जा सकेगा जो आजकल इन वादों और बाज़ारवाद में खो गया है।

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