छायावाद


छायावाद एक ऐसा कालखण्ड था जिसमें भारतीय जनसामान्य स्वतंत्रता के लिए अकुला रहा था । हर क्षेत्र से – राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक – ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हुंकारें भरी जा रही थीं । इस कालखण्ड में जहां एक ओर भारतीय संस्कृति की विवेक-परंपरा का तेज व्याप्त था तो वहीं दूसरी ओर विश्वचेतना से सम्पन्न ज्ञान-विज्ञान को पाने और पचाने की असीम ललक विद्यमान थी । ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति घृणा और क्रोध से भारतीय मानस खौल रहा था और देश के बुद्धिजीवी पराधीनता की वेड़ियों से देश को मुक्त कराने में रात-दिन एक कर रहे थे ।’ रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, राजाराम मोहनराय, स्वामी दयानन्द, बालगंदाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अरविन्द योगी, गांधी आदि व्यक्तित्व छायावाद की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को सींच रहे थे । तत्कालीन सामाजिक पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालते हुए रमेशचन्द्र शाह कहते हैं – “अपनों और परायों के सदियों से चले आ रहे शोषण और उत्पीड़न से, अनेकानेक रूढ़ियों की दलदल से रुंधा हुआ हमारा सामूहिक जनजीवन एक तरफ और उस लोकचित्त से कटे हुए, मुठीभर अंग्रेजियत के रंग में रंगे बुधिजीवियों के प्रगतिस्वप्न दूसरी तरफ । यह थी वह अस्तित्वगत परिस्थिति, जिस पर इन महापुरुषों ने और इसके साथ उस युग के अन्य प्रतिभा पुरुषों ने भी अपने समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व का वज़न डाला और वह निहायत जरूरी आध्यात्मिक ख़मीर पैदा किया, जिसमें हमारे जीवन्मृत देश में एक नई संजीवनी का संचार हुआ ।”
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में वस्तुत: भारतीय साहित्य की मुख्य आधुनिकता ने प्रखर सामाजिक चेतना के रचनात्मक भावबोध में ही विकास पाया था । इसके पीछे विदेशी विचारान्दोलन ही नहीं, भारत की ऐतिहासिक चेतना के मोड़ भी उत्तरदायी थे । इसीलिए राजनीतिक संघर्ष में भी सामाजिक सुधार-भावना का केन्द्रिय स्थान रहा है । भारतीय प्रगतिशील आंदोलन में कुछ लेखक भी मौजूद थे, जो मानते थे कि सुधारवाद या प्राचीन संस्कृति की पुन: स्थापना का ही प्रयत्न ही सब कुछ नहीं है, इस दृष्टि से आगे बढ़ना होगा । इसी बोध को लेकर एक प्रगतिशील दृष्टि विकसित होती गई और इसके प्रभाव से पंत और निराला जैसे रचनाकर्मी भी अछूते न रह सके ।
छायावाद में जागृति के पीछे सांस्कृतिक प्रेरणा भी कम न थी । साहित्य की सांस्कृतिक विकास चेतना-प्रक्रिया ने आधुनिक हिन्दी साहित्य में सांस्कृतिक अनुसंधान को प्रोत्साहित किया ।
छायावाद वस्तुत: अपने आप में एक नए प्रकार का काव्य था, जो नवीन चित्तवृत्तियों का संचय था । अगर हम इसकी तुलना द्विवेदी युगीन काव्य से करें तो इसकी विशेषताएं स्पष्ट रूप से प्राप्त हो जाएंगी ।
वास्तव में, द्विवेदी जी की नैतिकता व व्याकरणों के बंधन के कारण तत्कालीन काव्य नीरस सा प्रतीत हो रहा था । अत: इसी नीरसता व इतिवृत्तात्मकता के कारण ही वैक्तिकता, भावुकता तथा सौंदर्य के प्रति जो नवीन सौंदर्य सृजित हुआ, उसे ही छायावाद का नाम दिया गया ।
प्रत्येक ‘काल’ अथवा ‘वाद’ अपनी एक विषेश परिस्थिति के कारण बंधा होता है । अत: इन्हीं स्थितियों / परिस्थितियों के कारण ही उसे किसी ‘काल’ अथवा ‘वाद’ विशेष का नाम दे देते हैं । चाहें यह ‘काल’ अथवा ‘वाद’ प्रवृत्तिवाचक रहा हो अथवा व्यक्ति वाचक । ‘छायावाद’ भी अपने काल की विशेष परिस्थितियों , अमूमन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक के माध्य पल्ल्वित हुआ एक विशेष प्रकार का काव्य है ।
यह वह समय था, जबकि इसके मध्य दो महान विश्वयुद्ध हुए थे (1914-18, 1939-45) । कुल मिलाकर समस्त विश्व उथल-पुथल की स्थिति में था । यदि भारत के संदर्भ में तत्कालीन परिस्थितियों का विवेचन करें तो ज्ञात होता है कि उस समय भारत ब्रिटिश शासन की जकड़ में था । जाहिर है कि ब्रिटिश की स्थिति अत्यंत पुष्ट और भारतीयों की अत्यंत दयनीय होगी । वास्तव में भारत राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक तीनों स्थितियों में दयनीय था ।
तत्कालीन निम्नवर्ग की स्थिति अत्यंत दयनीय थी । जुलाहों व किसानों को अपना माल अंग्रेजों के हाथों अनापेक्षित दामों पर बेचना पड़ रहा था । उनसे अन्न के स्थान पर नील की खेती कराई जा रही थी । फलत: व्यक्तियों में हताशा, कुण्ठा आदि बढ़ती गई । अत: तत्कालीन व्यक्ति-परतंत्रता के प्रति स्वतंत्रता की इच्छा पनपने लगी । इससे यह हुआ कि व्यक्ति ‘स्व’ का स्वर भरने लगा या फिर पलायनवादी दृष्टिकोण अपनाने लगा । पलायनवादी दृष्टि का अर्थ ही था – शांति की प्राप्ति । यह शांति उन्हें अन्य स्थान पर ही मिल सकती थी । इस कारण कवि प्रकति के रम्य रूपों में रमने लगा और उसे ही आलंबन मानकर ‘अपनी अभिव्यक्ति’ दी ।
इस तरह हम कह सकते हैं कि आधुनिक कवि अत्यधिक भावुक और चिंतनशील होने के कारण ज्ञान के उच्चतम शिखार पर पहुंच गया । फिर क्रमश: उसने मूर्तन से अमूर्तन की स्थिति प्राप्त की और फिर अत्यधिक गहन चिंतनशील होने के कारण अमूर्तन की और भी सूक्ष्मतम स्थिति को प्राप्त करता गया । तत्कालीन कवियों को अत्यंत सूक्ष्मतम स्थितियों को प्राप्त करने के पीछे एक कारण और जोड़ा जा सकता है । वह यह कि उस समय प्रथम विश्वयुद्ध हो चुका था अथवा बस हुआ ही था । पूरे विश्व में आपाधापी की स्थिति विद्यमान थी । वैज्ञानिक सूक्ष्मतम कणों, अमूमन इलेक्ट्रान, प्रोटान के सूक्ष्म अध्ययन से बमों के निर्माण में जुटे थे । इसी मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध भी हो गया । वैज्ञानिकों का दॄष्टिकोण सूक्ष्मता की ओर बढ़ता गया जिसका असर जनसामान्य पर भी पड़ा ।
संभवत: इसी कारण तत्कालीन कवि अमूर्तन की सूक्ष्म और सूक्ष्मतम स्थिति में पहुँचता गया, जो महत्त्वपूर्ण विशेषता थी ।
इस तरह हम कह सकते हैं कि स्थूल व्यक्तिव के सूक्ष्म रूप, रंग, गुण की छाया का वर्णन होने से ही इसे ‘छायावाद कहा गया, जो क्रमश: सुदृढ़ होता गया ।
वस्तुत: सन्‍ 1918 से 1936 ई. तक की हिन्दी काव्यधारा को ‘छायावाद’ के नाम से जाना गया । इसके नामकरण को लेकर कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं । 1920 में ‘श्री शारदा’ पत्रिका में मुकुटधर पाण्डेय ने 4 अंको में ‘हिन्दी में छायावाद’ शीर्षक लेख लिखे । निश्चित है कि 1920 के पहले से ही एक विशिष्ट काव्यधारा को ‘छायावाद’ कह जाने लगा था । 1921 में, ‘सरस्वती’ में सूशील कुमार के लेख ‘छायावाद’ में इस काव्यधारा को टैगोर स्कूल की चित्रकला की अस्पष्ट छाप बताया ।
आ० महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सुकवि किंकर’ नाम से 1927 में ‘आजकल के हिन्दी कवि और कविता’ नामक एक लेख लिखा, जिसमें ‘छायावाद’ को एक अन्योक्ति पध्यति माना ।
इस तरह आरम्भ से ही ‘छायावाद’ और ‘रहस्यवाद’ को आपस में गड्ड-मड्ड करके देखा जाता रहा । पर बाद में जब महादेवी की प्रिय को संबोधित ढेर-सी कविताएं प्रकाश में आईं तो ‘रहस्यवाद’ शब्द ऐसी ही कविताओं के लिए प्रयुक्त होने लगा और यह धारा एक अलग काव्यधारा से होती हुई महादेवी तक पहुँचती है ।
वस्तुत: ‘छायावाद’ विविध, यहाँ तक कि परस्पर विरोधी सी प्रतीत होने वाली काव्य-प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और छानवीन करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आंतरिक संबंध दिखाई देता है ।
छायावाद के व्यक्तिनिष्ट दृष्टिकोण को समझने के लिए जरूरी है कि द्विवेदी युग के विषयनिष्ट और तथ्यपरक काव्य को ध्यान  में रखा  जाए । द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता की जगह रागात्मकता ने ले ली । निर्जीव तथ्यों की जगह सजीव तथ्यों को रागरंजित करके सत्य के रूप में उपस्थित किया गया । भावप्रबलता से प्रेरित कल्पना शक्ति का अभूतपूर्व वैभव दिखाई पड़ा । हां यह भी सही है कि कल्पना पहले भी थी पर ऐसी नहीं थी ।
कुल मिलाकर ‘छायावाद’ आधुनिक खड़ीबोली कविता के स्वाभाविक विकास की चरम परिणति थी ।
सुनील ‘मानव’
शोध-छात्र
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर
अगरतला - 799022
मोबाइल - 09436982080
ई.मेल : manavsuneel@gmail.com

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