शाहजहाँपुर रंगमंच के नाट्य प्रयोग
शाहजहाँपुर रंगमंच की एक पहचान नवीन नाट्य प्रयोगों को लेकर
भी है क्योंकि यहाँ का रंगमंच बनी-बनाई लीक पीटने की प्रक्रिया मात्र नहीं है
बल्कि नवीन प्रयोगों से उसका स्वरूप नित नवीन रहा है। शाहजहाँपुर रंगमंच पर नवीन
प्रयोग के रूप में पहले-पहल सन् 1995 में ‘परिक्रमा’ संस्था द्वारा डॉ. आकुल की काव्य कृतियों के दर्शन होते हैं। प्रमोद प्रमिल के
निर्देशन में डॉ. आकुल की कुणाल, पाषाणी,
अग्निशिखा आदि का सफल मंचन किया गया। पर इन मंचनो से नवीन
प्रयोगों का महज आगाज ही माना जा सकता है क्योंकि वास्तविक प्रयोग आगे चलकर राजेश कुमार
इंजीनियर के निर्देशन में ही सामने आए।
राजेश
इंजी. ने नाटक की बनी-बनाई लीक को तोड़ते हुए कहानियों, कविताओं, संस्मरणों,
लेखों आदि का भी सफल मंचन किया। एकल नाटकों पर प्रकाश डालते
हुए श्री इंजी. कहते हैं कि ‘‘यह विधा काफी पुरानी है। आज से सैकड़ो वर्ष पूर्व के नाट्य-साहित्य पर दृष्टि
डालें तो हर प्रान्त में एकल जैसी विधा किसी न किसी रूप में मिंलेगी। अलग-अलग
नामों से। संस्कृत व लोक नाटकों में भी इसकी खूब चर्चा है। ‘एकल नाटक’ नुक्क्ड़ नाटक की ही एक कड़ी है, बल्कि उसके आगे की भी कह सकते हैं। इस विधा के लिए न किसी प्रकार के तामझाम की
जरूरत है न अधिक खर्च की। कहीं भी किसी रूप में नाटक किया जा सकता है। जरूरत है तो
केवल धारधार सोंच की, जो समाज के
लोगों के बीच हो और करने वाले कलाकार के पास हो व्यापक दृष्टि,
स्पष्ट लक्ष्य।’’
वर्तमान
में यदि देखा जाए तो आप पाएंगे कि उपन्यास, कहानी और कविता को प्रचुरता के साथ नवीन प्रयोगों के तहत
मंच पर प्रस्तुत किया जा रहा है। शाहजहाँपुर रंगमंच पर ‘लेखों’ के मंचन का सर्वथा नवीन प्रयोग देखने को मिलता है। यह प्रयोग भी इंजी. राजेश
कुमार की प्रयोगवादी दृष्टि की देन है। लेखों के मंचन के संबंध में वह कहते हैं कि
‘‘किसी भी विधा को किसी चैखटे से बांधना संभव नहीं है। बांधने
से उसकी स्वभाविकता समाप्त हो जाती है। जितना अधिक खुलापन रहेगा,
संभावना उतनी ही ज्यादा होगी। नाटक ने अपनी कई सीमाओं को
तोड़ा है। उपन्यास, कहानी व कविता
का रंगमंच इसी ‘खुलेपन’ का परिणाम है और इसी रास्ते से लेख ने भी प्रवेश किया है। कहने को कोई कह सकता
है कि कहानी,
उपन्यास आदि में ऐसे तत्व हैं जो नाटक में होते हैं लेकिन
लेख में तो न कोई कथानक होता है, न कोई आकर्षक भाषा और न ही कोई महत्वपूर्ण घटनाएं। फिर इसका मंचन कैसे संभव है?
लेकिन नाटक का मतलब केवल कहानी, घटना, पात्र नहीं होता। केवल इन्हीं तत्वों से ही दर्शक को बांधा नहीं जा सकता। आज
हम देखते हैं कि लोग अपने ओजस्वी वचनों से श्रोताओं को घंटो बांधे रख सकते हैं।
राजनेता,
धर्मगुरु आदि अपने प्रभावशाली भाषणों,
उद्धरणों एवं चुटीले संवादों के माध्यम से दर्शकों को अपनी
तरफ आकर्षित किए रहते हैं। इसकी कोई वजह तो होगी। यदि तलाशें तो सारी वजह अभिनय
में है। अगर अभिनेता के पास सशक्त वाचिकता हो, भावपूर्ण आंगिक, सामाजिक आहार्य व सात्विकता हो तो वह भी किसी विधा को प्रभावशाली ढ़ंग से
प्रस्तुत कर सकता है।
कभी-कभी
ऐसा वक्त आता है जब लगता है कि दर्शक और अभिनेता के बीच कोई दीवार न हो। जो हो साफ
हो। सातवें-आठवें दशक के समय नुक्कड़ नाटक का नया व्याकरण रचा गया। उस पर सपाटबयानी,
भाषणबाजी व राजनीतिक प्रतिबद्धता का आरोप लगाया गया। पर जिस
उद्देश्य को लेकर जनता के बीच उतरा था वह सफल रहा। ‘लेख का मंचन’ भी इसी क्रम की अगली कड़ी है। जो लोग नाटक में पूर्ववत रूपों को देखने के आदी
हैं,
उन्हें जरूर झटका लगेगा। पर अभिनेता अगर जनता के बीच लेख के
असली तथ्य को ले जाने में सफल हुआ तो वह उतना ही सफल माना जाएगा जैसा कि दूसरे
नाटक। सम्प्रेषणीयता जरूरी है और इसी को ध्यान में रखकर लेख का मंचन करना होगा। इस
संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात बताना चाहता हूँ कि एक बार एक ही दिन दस मिनट के
अंतराल में एक कहानी का मंचन किया और एक लेख का। दोनों का विषय साम्प्रदायिकता पर
था। पर आश्चर्यजनक परिणाम यह मिला कि दर्शकों को गोधरा के मुद्दे पर लिखे लेख के
मंचन ने जितना गहराई से झकझोरा उससे कहानी के मंचन ने जरा कम ही। यह घटना भविष्य
में रंगकर्मियों को इस तरफ आने के लिए जरूर आकर्षित करेगी और नए-नए प्रयोगों की
संभावनाओं को बल देगी।’’
एकल
नाटक-जिनकी प्राशंगिकता पर सदैव से बहस रही है। इस विधान में केवल अभिनेता और
निर्देशक की ही प्रतिभा का प्रकटीकरण नहीं होता बल्कि प्रेक्षक भी इससे सीधा जुड़ाव
महसूस करता है। शाहजहाँपुर रंगमंच पर ‘शताब्दी की परछाइयां’ के अन्तर्गत ‘वैष्णव की
फिसलन’,
‘भेड़िए’, ‘पूस की रात’,
‘रसप्रिया’, ‘मुगलों ने सल्तनत बख़्श दी’ के साथ-साथ ‘टोबा टेक सिंह’,
‘एक अधिकारी की मौत’, ‘पेशावर एक्सप्रेस’, ‘निराश पीढी’,
‘पागल की डायरी’, ‘एक क्लर्क की मौत’ तथा ‘हन्नू हठेला से लड़की सेट क्यों नहीं होती’
आदि कहानियों के एकल नाट्य प्रस्तुत किए गए।
‘वैष्णव की
फिसलन’
हरिशंकर परसाई की कहानी पर आधारित एकल है,
जिसका निर्देशन किया राजेश कुमार ने और अभिनीत किया कृष्ण
कुमार श्रीवास्तव ने। इसमे अभिनेता ने मौजूदा समाज में व्याप्त धर्म के नाम पर चल
रहे धंधे को परत-दर-परत बेनकाब किया है।
‘भेड़िए’ को मंच पर प्रस्तुत किया अभिनेता शमीम आजाद ने और इसे इस योग्य बनाया राजेश
कुमार ने। आज समाज में भेड़िए हजार रूपों में अपने शिकार की तलाश में घूम रहे हैं।
वे लगातार बिना थके जिन्दगी के ‘गड्ढे’
का पीछा कर रहे हैं। अभिनेता के सधे अभिनय ने कहानी को
दर्शकों के समक्ष मूर्त कर दिया।
‘पूस की रात’ चन्द्रमोहन महेन्द्रू द्वारा अभिनीत नाटक है। नाटक को वर्तमान से जोड़ने का
प्रयास निःसंदेह प्रशंसनीय है। इसका संदेश दर्शकों के मन में दूर तक अपना प्रभाव
छोड़ता है। आज हल्कू की लाठी में इतना दम नहीं है कि वह समाज में फैली ‘नीलगायों’ से मुठभेड़ करके अपने खेत-खलिहानों की सुरक्षा कर सके। 1957 में जिन इलाकों के हल्कुओं ने विदेशी साम्राज्यवाद के
खिलाफ जोरदार संग्राम किया था वे आज आत्महत्या करने के लिए विवश हो गए हैं। हल्कू
की इसी विवशता को अभिनेता चन्द्रमोहन महेन्द्रू ने एकल ‘पूस की रात’ में उतारने का प्रयास किया है।
‘रसप्रिया’ एकल में राजेश कुमार के तीनों रूप-लेखक, निर्देशक एवं अभिनेता-एक साथ देखने को मिलते हैं। मिथिलांचल
की उत्सवधर्मिता आज किस प्रकार केवल ‘थेथरई’
बनकर रह गई है इसे अभिनेता ने अपने अभिनय के माध्यम से
मूर्त कर दिया है।
‘शताब्दी की परछाइयां’ का अंतिम एकल है ‘मुगलों ने सल्तनत बख्स दी’। आज मल्टीनेशनल कम्पनियाँ किस तरह देश के उत्पादन को निगलती जा रही हैं,
इस भाव को अभिनेता संजीव सारांश ने राजेश कुमार के निर्देशन
में जीवन्त कर दिया।
‘टोबा टेक सिंह’ कहानीकार मंटो की एक प्रसिद्ध कहानी है, जिसका एकल
रूपान्तरण एवं निर्देशन किया राजेश कुमार ने एवं एकल अभिनय किया कलाकार
मनीष मुनि ने। मंटो ने जो सवाल उठाये थे वह आज भी अनुत्तरित हैं। सत्ता के लिए
जहाँ राजनीतिज्ञयों ने लोगों को हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में बाँटा था। रातो-रात
दिलों के दो टुकड़े कर दिए थे, आज भी वह सिलसिला थमा नहीं है। सत्ता की राजनीति करने वाले आज वोट के लिए
उन्हीं लोगों को फिर प्रांत, जाति और भाषा के अधार पर बांट रहे हैं, आदि तमाम प्रश्नों को बखूबी इस एकल के माध्यम से प्रस्तुत
किया है।
मनीष ‘मुनि’ ने ‘टोबा टेक सिंह’ में एक पागल का चरित्र किया वहीं सुधीर विद्यार्थी के संस्मरण-‘मेरा राजहंस’-को ज्यों का त्यों स्व-निर्देशन में बाप की पीड़ा के साथ जिया। उम्र के साथ-साथ
पल-पल बढ़ती जिंदगी और उसके साथ पलती-बढ़ती संवदेनाओं की एक बारीक सी डोर से बंधे
दुनियावी रिश्ते सचमुच बड़ा ही अजब बंधन होता है। शायद इसीलिए सुधीर विद्यार्थी ने
जो पीड़ा भोगी वही उनके शब्दों मे ‘मेरा राजहंस’ के रूप में
अभिव्यक्त हुई। पूरा संस्मरण एक पिता की पीड़ा है। आज जिस तरह लोग व्यक्तिवाद के
खेल में घुसे संवदेनहीनता का लबादा ओढ़े हैं । उन्हें बताया जाए कि अन्तर्द्वन्द्व
नहीं बल्कि क्रूर व बनैल होते समाज के लोगों से लड़ रहे एक पिता का संघर्ष भी
दर्शाया गया। कलाकार ने जिस प्रकार से संस्मरण को मंच पर प्रस्तुत किया है। उससे
दर्शकों के आंसू खुद व खुद निकलने पर मजबूर हो जाते हैं ।
‘पेशावर एक्सप्रेस’ मनीष मुनि अभिनीत एक अन्य एकल है । कृश्न चन्दर की इस कहानी के जरिए कलाकार
मनीष ने दर्शकों को स्वतंत्रता के साथ उपजे विभाजन के दर्द को वर्तमान परिप्रेक्ष
में उजागर किया है। इस कहानी का भी एकल नाट्य में रूपान्तरण राजेश कुमार ने किया
है । इस एकल ने 1947 की
आजादी के सपने तथा उससे पैदा हुए नासूर को आज के समय-समाज के साथ दर्शकों के सामने
रखा। इसी कड़ी में गुजरात के दंगों पर अधारित आई.ए.एस. अफसर हर्ष मंडेर की रिर्पोट ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आँख में भर लो पानी’ का ‘साबरमती एक्सप्रेस’ शीर्षक से एकल मंचन कर दर्शकों को यह आभास करा दिया कि ‘‘धर्म की बैसाखी के सहारे राजनीति की गाड़ी खीचने वाले लोग इन
एक्सप्रेस गाड़ियों को कभी नहीं रुकने देंगे। ये जानते हैं, ये चलती रहेंगी तभी इनकी राजनीति भी चलती रहेगी। इसलिए ये
लोगों को इन गाड़ियों में धर्म के अलावा अलग डिब्बों में बिठाते हैं। फिर अपने-अपने
स्टेशनों पर धर्म के नुकीले डंडे लेकर आते हैं और नारे बुलन्द करते हुए चुन-चुन कर
प्लेटफार्म पर उतारते हैं और बलि देते हैं।’’
गुजरात
के दंगें में किस तरह निर्ममता पूर्वक लोगों को धर्म के हवनकुंड में झोंका गया।
धार्मिक कट्टरता किसी आदमी की संवेदनशीलता को किस प्रकार पत्थर बना देती है,
इसका बर्बर नमूना था गुजरात का महीना भर से ऊपर चलने वाला
सुनियोजित दंगा। गुजरात के इस दंगे के बारे में हर्ष मंदार ने अपनी रिर्पोट में
कहा है कि “मैं ऐसे किसी दंगे के बारे में नहीं जानता जिसमें महिलाओं की यौन
परवशता का इतने व्यापक पैमाने पर हिंसा के हथियार के बतौर इस्तेमाल किया गया हो
जितना कि गुजरात में हाल में प्रदर्शित सामूहिक बर्बरता में नजर आया। हर जगह से
सामूहिक बलात्कार की खबरें मिली हैं, चाहे वे कम उम्र की लड़कियों के साथ की गई हों अथवा वयस्क महिलाओं के साथ।
अक्सर उनके परिवार वालों के सामने उनसे बलात्कार किए गए और उसके बाद उन्हें जिंदा
जलाकर मार डाला गया। आप उस महिला के बारे में क्या कहेंगे जिसकी कोख में 8 माह का बच्चा पल रहा था। उसने गिड़गिडाकर जान बख्श देने की
भीख मांगी थी। पर हत्यारों ने बदले में उसका पेट फाड़ दिया, उसके भ्रूण को खींचकर बाहर निकाल लिया और उस महिला की आंखों
के सामने इस अजन्में शिशु की गर्दन काट डाली। अहमदाबाद में जिन लोगों से मैं मिला,
चाहे वे समाजसेवी हों, पत्रकार हों अथवा दंगें से बच निकलने वाले लोग हों,
उनमें से अधिकांश ने मुझे बताया कि गुजरात में जो कुछ हुआ
वह कोई दंगा नहीं था, आतंकवादी हमला
था। सबसे पहले एक ट्रक आता था, उससे उत्तेजक नारे प्रसारित किए जाते थे। इसके फौरन बाद एक के बाद एक और कई
ट्रक आते थे और उनसे नौजवानों की एक बाढ़ सी उतरती थी, अधिकांश खाकी हाफपैंट पहने और केसरिया दुपट्टा लपेटे हुए।’’
इस
वेदना,
इस संवेदना और क्रूरता की सच्चाई को कलाकार ने दर्शकों के
सामने बड़ी ही संजीदगी से पेश किया। इस रिर्पोट का एकल रूपांतरण एवं निर्देशन किया
इन्जीनियर राजेश कुमार ने, जो शाहजहाँपुर रंगमंच की भीड़ में अपनी जनवादी सोच और नए-नए प्रयोगों के कारण
सबसे ऊपर नजर आते हैं और अपने प्रयोगों से विरोधियों के दिल में आग लगा देते हैं।
‘हन्नू
हठेला से लड़की सेट क्यूँ नहीं होती?’ का एकल अभिनय भी कलाकार मनीष ‘मुनि’
ने ही किया, जिसे निर्देशित किया, राजेश कुमार ने। नाटक के जरिए यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि वैश्वीकरण के
दौर में प्यार की परिभाषा बदल गई और अब प्रेम बाजारवाद की वस्तु बन गया है।
इसके
अतिरिक्त मनीष ‘मुनि’ का एक और एकल है नाटककार अग्निदूत का ‘निराश पीढ़ी’, जिसका अनुवाद बंगला से हिन्दी में विश्वभावन देवलिया ने तथा निर्देशन खुद मनीष
ने किया है। नाटककार ने वर्तमान भारतीय परिवेश का रूप दर्शाते हुए इस नाटक को ‘निराश पीढ़ी’ के नाम से सम्बोधित किया है। निराशा तत्कालीन समय में चारों ओर व्याप्त है।
चाहे वह सामाजिक अथवा राजनैतिक हो या फिर आर्थिक। इसी से उपजी है निराश पीढ़ी।
इसके
अलावा लू शुन की रचना पर आधारित एकल है ‘पागल की डायरी’। इसका
रूपान्तरण किया राजेश कुमार ने एवं अभिनय तथा निर्देशन किया विजय सिंह ने। एक
व्यक्ति जिसे सारे लोग पागल समझ रहे हैं, उसके लिखे डायरी के पन्नों के माध्यम से सामंती व्यवस्था की परत-दर-परत खुलकर
सामने आती हैं। विजय सिंह ने पागल की भूमिका से एकल को जीवन्त बना दिया।
‘एक क्लर्क की मौत’ एन्तोन चेखव की प्रसिद्ध कहानी का राजेश कुमार द्वारा रूपान्तरित एवं
निर्देशित एकल है, जिसको अभिनेता
शमीम आज़ाद ने अभिनीत किया है। इस एकल में बाबू नामक एक क्लर्क की मनोदशा का वर्णन
है,
जिसके तहत अंत में उसकी मुत्यु हो जाती है।
एक और
जबरदस्त एकल जो शाहजहाँपुर के प्रसिद्ध लेखक चन्द्रमोहन दिनेश की प्रसिद्ध कहानी ‘एकदा विकास खण्डे’ पर आधारित है। चन्द्रमोहन महेन्द्रू द्वारा रूपान्तरित एवं निर्देशित इस एकल
को ‘एक अधिकारी की मौत’ शीर्षक से मंच पर प्रस्तुत किया अभिनेता हंसराज ‘विकल’ ने।
शाहजहाँपुर
के रंगमंच को अगर ‘रंगमंच की
प्रयोगशाला’
कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। यहाँ नित नए प्रयोग
होते रहे हैं। कभी काव्य रूपक का मंचन, कभी कहानी का एकल मंचन, तो कभी ‘कविता’ का मंचन।
कविता
के मंचन पर काफी हद तक लोक-संगीत की पंडवानी शैली का प्रभाव देखा जा सकता है।
जिसमें एक कलाकार किसी कथा को अपने हाव-भाव से लोगों को सुनता है। लेकिन ‘पंडवानी’ और इस ‘एकल पद्धति’ में अन्तर यही है कि इसमें एक कलाकार विभिन्न चरित्रों को एक साथ जीता है।
महाकवि
निराला कृत ‘राम की शक्ति-पूजा’ एक ऐसी ही कविता है। जिसको राजेश कुमार ने एकल नाट्य में
रूपांतरित किया और कलाकार रफी़खान ने उसको दर्शकों के समक्ष अपने अभिनय की विभिन्न
मुद्राओं द्वारा प्रस्तुत किया। एक पूर्ण नाटक के तत्त्व इस कविता में मौजूद हैं। ‘‘इसकी ‘एपिक क्वालिटी’ का भरपूर
न्याय ‘एकल’ रूप में ही सम्भव है। एक ओर जहाँ कथावाचक की तरह समस्त कविता को कभी सूचना कभी
वर्णन तो कभी संवादों के माध्यम से सम्प्रेषित किया गया है।’’
इस
प्रकार शाहजहाँपुर रंगमंच पर अनेकानेक एकल समय-समय पर हुए और हो रहे हैं। एकल के
माध्यम से कलाकारों ने कहानी की संवेदना को पात्रों के माध्यम से मंच पर सजीव रूप
दिया,
जिससे वह समाज से आमने-सामने रूबरू हो सके। उनको सोचने पर
विवश कर सके।
शाहजहाँपुर
रंगमंच पर जहाँ राजेश कुमार ने यदि नवीन नाट्य प्रयोगों के अंतर्गत कहानी,
कविता, संस्मरण,
लेख आदि का मंचन किया वहीं उससे पहले प्रमोद प्रमिल ने
काव्य का मंचन कर प्रयोगों की इस परम्परा का आरम्भ कर चुके थे।
उन्होंने
वर्ष 1995 में शहर के प्रसिद्ध कवि डॉ. गिरिजानन्दन त्रिगुणायत ‘आकुल’ के प्रसिद्ध काव्य-रूपक-‘कुणाल’-का सशक्त और सफल मंचन कर अपनी निर्देशकीय प्रतिभा का परिचय
दिया। डॉ.‘आकुल’ ने अशोक की नवविवाहिता पत्नी तथा उसके छोटे पुत्र कुणाल-जिसने अपनी विमाता के
चरणों में अपने कमलवत नेत्र अर्पित कर दिए-की ऐतिहासिक कथा के माध्यम से समाज के
सामने आपसी वैमनस्य को दूर करने का उद्देश्य प्रस्तुत किया है।
‘कुणाल’
के मंचन की सफलता से उत्साहित होकर ‘प्रमिल’ ने पुनः डॉ.‘आकुल’
के ही खण्ड़काव्य ‘पाषाणी’
एवं महाकाव्य ‘अग्निशिखा’
का सफलता पूवर्क मंचन
किया। चूँकि ‘पाषाणी’
एवं अग्निशिखा’ अपने स्वरूप में ‘रूपक काव्य’
नहीं है, लेकिन इनमें संवाद इस प्रकार से हैं कि उक्त दोनों प्रबन्धकाव्य ‘रूपक-काव्य’ से जान पड़ते हैं।
‘पाषाणी’ खण्डकाव्य में अपने पति से श्रापित अहिल्या की करुण कथा है। उस अहिल्या की जो
पहले इन्द्र की वासना और बाद में अपने पति गौतम के क्रोध की शिकार बनी और लम्बे
समय तक पाषाण की जड़ता ढोती रही।
अगर
देखा जाए तो ‘पाषाणी’ का मंचन किसी ‘काव्यरूपक’
का मंचन न होकर डॉ.आकुल के खण्डकाव्य की मंच पर अभिनयात्मक
प्रस्तुति थी। ‘पाषाणी’ मुक्त छंद में लिखा गया काव्य है जिसमें संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ठ शब्दावली इस काव्य के मंचन में बाधा अवश्य बनी,
लेकिन काव्य की प्रवाहमयता इसकी एक बड़ी विशेषता भी थी।
निर्देशक प्रमोद ‘प्रमिल’
ने काव्य की इस विशेषता को पहचानकर इसका काव्य रूप में ही
नाट्य मंचन किया।
काव्य
में नारी की पीड़ा और संघर्ष को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करने में निर्देशक और
अभिनेताओं ने बड़ी सफलता पाई। गौतम द्वारा अहिल्या को शाप दिए जाने के दृश्य को जब
लाइट के साथ प्रस्तुत किया गया तो अहिल्या की विकलता का मंचन सजीव हो उठा।
कुल
मिलाकर प्रमोद ‘प्रमिल’ के निर्देशन में डॉ.प्रशान्त अग्निहोत्री(गौतम), कंचन भरद्वाज(अहिल्या) और निहारिका टंण्डन(गंगा) ने काव्य
मंचन में चार चांद लगा दिए। इस प्रकार डॉ.आकुल कृत ‘पाषाणी’ खण्डकाव्य का मंचन पूर्णतः सफल रहा।
इसी के
साथ श्री ‘प्रमिल’ ने एक और प्रयोग किया -‘अग्निशिखा’- महाकाव्य के मंचन से। इस
महाकाव्य में लिच्छिवि गणराज्य की नगरवधू ‘आम्रपाली’ की कथा है। पूरा महाकाव्य नौ सर्गों में विभाजित है। जिसको निर्देशक ने बड़ी
कुशलता के साथ चार दृश्यों में पिरोया है। काव्य को ‘एकल नाट्य’ के रूप में काव्यमय संवादों द्वारा प्रस्तुत किया गया। किसी विस्तृत ‘महाकाव्य’ का मंचन! वो भी सिर्फ एक ही पात्र द्वारा! और इसके साथ ही किसी सहायक कलाकार का
भी कोई सहयोग नहीं लिया गया, लेकिन काव्य की जर्बदस्त प्रस्तुति और सफलता निर्देशक और कलाकार की मेहनत और
सूझ-बूझ का ही परिणाम है। पूरे महाकाव्य का मंचन इस प्रकार से ‘प्रतीकात्मक ढ़ंग’ से किया गया कि दर्शकों को आभाष भी नहीं हुआ कि मंच पर एक पात्र है या उससे
अधिक और वह पात्र थी - निधि पोरवाल।
‘कठपुतली’, जो कि एक प्राचीन कला है। इसका विकास सामाजिक विकास के साथ-साथ ही हुआ है। यह
एक मनोरंजन कला होने के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अत्यन्त उपयोगी है। इसके
माध्यम से अशिक्षित लोगों को भी आसानी से अपने उद्देश्य को समझाया जा सकता है।
कठपुतली होती तो काठ की है, लेकिन जीवंतता और प्राणवत्ता इसके प्रमुख गुण हैं। इसका अंग-संचालन इसकी
भाव-भंगिमा,
इसकी अभिव्यक्ति कितनी सशक्त और मनोहारी है। इसका आभास तो
दर्शकों की त्वरित प्रतिक्रिया द्वारा ही लगाया जा सकता है।
शाहजहाँपुर
रंगमंच पर सन् 1982-83 के आस-पास ‘चित्रांशी सास्कृतिक परिषद’ द्वारा ‘कठपुतलियों’ के माध्यम से अनेक नाटक अरविन्द कुमार ‘हसरत’ द्वारा प्रस्तुत किए गए।
श्री ‘हसरत’ ने समाज की तत्कालीन समस्याओं पर कठपुतलियों द्वारा अनेकानेक नाटक जैसे -‘बिटिया चांद जैसी’, ‘चतुरा की चतुराई’, ‘मेहनत
का फल’,
‘श्रमेव जयते’, ‘जरा सम्भल कर’, ‘बात
पते की’
आदि-प्रस्तुत किए।
वर्ष 1990 को बालिका वर्ष घोषित किया गया था। इसी संदर्भ में ‘बिटिया चांद जैसी’ का कठपुतलियों के माध्यम से नाट्य-मंचन किया गया। इस नाटक में गर्भवती मां की
देख रेख,
साफ-सफाई और बच्चे के लालन-पालन जैसे विषय को उठाया गया। यह
नाटक जहाँ कठपुतलियों के माध्यम से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करता है,
वहीं शिशुओं के समुचित लालन-पालन और गर्भवती मां की देख-रेख
आदि बातों की भरपूर जानकारी भी देता है। ‘चतुरा की चतुराई’ के माध्यम से नारी जागरण और साक्षरता के लिए समाज को प्रेरणा दी है। महिलाओं
को साक्षर होना चाहिए, खाली समय का
उपयोग किस प्रकार करना चाहिए, बेकार पड़ी वस्तुओं का कैसे इस्तेमाल करना चाहिए -आदि तमाम छोटी-छोटी किन्तु
मोटी बातों की ओर दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया गया है।
‘जरा संभल कर’ नाटक ‘एड्स’ पर आधारित है, जो दर्शकों को
भरपूर मनोरंजन के साथ ‘एड्स’
से जुड़ी तमाम जानकारियाँ देता है। ‘एड्स’ के लक्षण,
उससे बचाव आदि के तरीके कठपुतलियों ने बडे़ ही
हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किए हैं। ‘बात पते की’ नाटक में ‘समय से शादी’, ‘समय से बच्चे’, ‘लड़का
हो या लड़की बच्चे दो ही अच्छे’ आदि जानकारियां मनोरंजक रूप से दी हैं। मां-बाप की जिम्मेदारी,
बच्चों की परवरिश आदि बातों की ओर कठपुतलियों ने दर्शकों का
ध्यान आकर्षित किया।
इसके
अतिरिक्त ‘मेहनत का फल’ और ‘श्रमेव जयते’ नाट्य मंचनों में मेहनत के महत्व को मनोरंजक तरीके से समझाया है।
उपर्युक्त
के अतिरिक्त शाहजहाँपुर रंगमंच पर तमाम ‘कठपुतली नाटक’ हुए हैं और इन
सारे नाट्य-मंचनों का श्रेय अरविन्द कुमार ‘हसरत’ को जाता है।
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