शाहजहाँपुर का रंगमंच : विचारधारा और व्यवसायिकता बनाम बालीवुड का आकर्षण
इक्कीसवीं सदी
में बाजारवाद, भूमंडलीकरण, बढ़ती हुई भौतिकता और पाश्चात्य मूल्यों के आत्मसातीकरण ने
साहित्य, कला और संवेदना के सम्मुख अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है।
जीवन मूल्यों के बाजार मूल्यों में परिवर्तन के कारण भौतिक लाभ ही किसी वस्तु की
महत्ता का मानक हो गया है। साहित्य और कला स्वयं को बौद्धिक कहलाने और भीड़ से अलग
दिखने-दिखाने का साधन भर बन गए हैं। जीवन में आ रहे यंत्रीकरण ने संवेदनाओं का
हृास किया। विचार और विचारधारा का मानो अंत हो गया है।
इधर के कुछ वर्षों में शौक और व्यवसाय के बीच का अंतर घटा है। चीजें तेजी से
व्यवसाय में बदली हैं। क्रिकेट जैसा खेल जो कभी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और शौक से
जुड़ा था ट्वेन्टी-ट्वेन्टी के रूप में एक व्यवसाय बनकर रह गया है। कला के स्थान पर
मनोरंजन का तत्व प्रधान हुआ है। यही नहीं आज तमाम रियलटी शो प्रतिभागियों की
प्रतिभा से ज्यादा एस.एम.एस. और उससे होने वाली आमदनी पर निर्भर हैं।
रंगकर्म भी इससे अप्रभावित नहीं है। वस्तुतः रंगकर्म अपनी कुछ विशिष्टताओं के
कारण इस खतरे के ज्यादा करीब है। ये विशिष्टताएं एक ओर उसे किंचित उपेक्षा का
पात्र भी बनाती हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षा के पैटर्न में यही विशेषता उसे साहित्य
से अलग ले जाकर खड़ा कर देती हैं। बल्कि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उसे साहित्य
के दायरे से ही बाहर कर देती है। नाटक सिर्फ पढ़ने - पढ़ाने तक सीमित रह जाता है।
उसकी रंगमंचीय विशेषताओं की चर्चा अकादमिक बातचीत और प्रश्नोत्तर टाइप लेखन तक
सीमित रह जाती है। ये विशिष्टताएं जहाँ नाटक को एक रूप में उपेक्षा का शिकार बनाती
हैं तो दूसरी ओर यही उसे सही ढंग से वैभव और आकर्षण भी प्रदान करती हैं।
वस्तुतः यही वह गैप है जहाँ आज की विज्ञापनी चकाचौध उसे सरलता से अपनी जद में
ले लेती है। साहित्य किन्ही मायनों में फिर भी अपनी प्रतिबद्धता बचाए रख पाता है -
एक खास वर्ग में ही सही। पर रंगमंच में बड़ी आसानी से फिल्मी ग्लैमर का शिकार बन
जाने की संभावनाएं हैं।
रंगमंच कहीं न कहीं रंगकर्मी को वॉलीवुड की एक सीढ़ी के रूप में आकर्षित करता
है। और यह झूठ भी नहीं है क्योंकि जिस रूप में टीवी चैनलों की भरमार हुई है उससे
यह सफर थोड़ा आसान जरूर हुआ है। लेकिन इस सफलता में स्थायित्व कितना है यह एक अलग
प्रश्न है, क्योंकि अनगिनत टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले असंख्य
सीरियलों में शायद ही कभी कोई चेहरा रिपीट होता दिखता है। जितने सीरियल,
उतने चेहरे। यह सही है कि प्रतिभावान नए कलाकारों की संख्या
बढ़ी है, अवसर भी बढे हैं, लेकिन भीड़ कहीं ज्यादा है। असफलता और गुमनामी का प्रतिशत भी
बढ़ा है, लेकिन आकर्षण में कहीं कोई कमी नहीं आई हैं।
छोटे शहर इन चीजों से ज्यादा प्रभावित होते हैं। एक तो वहाँ पर्याप्त सुविधाओं
के अभाव में पनपने के अवसर कम होते हैं तो दूसरी ओर दूर के ढोल का आकर्षण भी अधिक
होता है। छोटे शहर का युवा इन्हीं आकर्षणों के बीच पिस जाता है। अपर्यात्त
सुविधाओं और दुर्लभ अवसरों के चलते न तो उसे बेहतर ढंग से सीखने का मौका मिलता है
और न ही उसकी प्रतिभा को तराश मिल पाती है। फिल्मी ग्लैमर के दुर्निवार आकर्षण से
जब वह बाहर आता है, तब तक उसके हाथों से बहुत कुछ निकल चुका होता है।
राजपाल यादव की सफलता और रातों-रात मिलने वाले स्टारडम ने यहाँ के युवाओं की
सोच में बहुत बड़ा परिवर्तन किया है। अब उन्हें लगने लगा है कि फिल्मी दुनिया में
सफल होने के लिए सुंदर, सुडौल और अच्छी कद-काठी का होना अनिवार्य शर्त नहीं है।
सामान्य या औसत होकर भी सफलता कमाई जा सकती है। उनके मन में फिल्मी दुनिया में
सफलता का परंपरागत मिथक खंडित हुआ है। किन्हीं अर्थों मे यह भी सही है कि सौन्दर्य
के पैमाने अब बदले हैं। सुंदर दिखाई देना,
सुंदरता का एक उपलक्षण मात्र रह गया है। सुंदरता के
प्रतिमानों में और भी बहुत सारे मानदंड जुड़ गए हैं। लेकिन राजपाल की सफलता ने
शाहजहाँपुर के रंगमंच की धारा को बड़े वेग से दूसरी और मोड़ दिया है। यह सही है कि
यहाँ के रंगकर्मियों मे व्यवसायिकता नाम मात्र की भी नहीं है,
लेकिन इसे प्रतिबद्धता का नाम भी नहीं दिया जा सकता। उनकी
यह अव्यावसायिकता एक बहुत बड़ी प्रत्याशा का परिणाम है। यहाँ का हर रंगकर्मी अपने
मन में राजपाल बनने के सपने संजोए है। बी.एन.ए. या एन.एस.डी. में प्रवेश उसका
लक्ष्य है। क्योंकि उसके सपनों की मंजिल का रास्ता यहीं से होकर आगे जाता है,
लेकिन यह सफलता सबको नहीं मिलती। हर कोई राजपाल हो भी नहीं
सकता। इन सपनों की सुनहली झील में डूबते - उतराते
जब उसके होश संभलते हैं तो वह स्वयं को टूटा,
बिखरा, हताश और ठगा-सा पाता है। सारे सपने मुट्ठी की रेत की तरह कब
फिसल जाते है, पता ही नहीं चलता। शहर में ऐसे रंगकर्मियों की संख्या कम
नहीं है जो आज ऐसे मोड़ पर आकर खड़े हैं जहाँ उनके पास बीती हुई सुनहरी यादों के सिवा
कुछ नहीं है।
रंगकर्म सिर्फ एक कला ही नहीं बल्कि एक सामाजिक कर्म है। अतः समाज के
पुनःनिर्माण का एक स्वस्थ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी बहुत आवश्यक है। मुक्तिबोध की
भाँति रंगकर्मी को स्वयं से पूछना ही होगा कि ‘तय करो किस ओर हो तुम।’
उसे अपना पक्ष स्पष्ट करना ही होगा। बिना किसी ठोस वैचारिक
दृष्टिकोण के भारत जैसे देश में कला का कोई मूल्य नहीं है।
यहाँ के शुरूआती दौर के नाटकों में कला की दृष्टि ही प्रधान रही लेकिन बाद में
यहाँ की संस्थाओं ने ‘जन नाट्य संघ’ और ‘जन संस्कृति मंच’ से जुड़कर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। सफदर की मृत्यु पर शहर
के रंगकर्मियों में जो उफान आया और सुधीर विधार्थी तथा जरीफ मलिक आनंद की अगुवाई
में जो नुक्कड़ नाटक मंचित हुए वे शहर के इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ की भांति
हैं। इंजीनियर राजेश कुमार के दौर में वैचारिकता का नया उभार आया। चूँकि वह स्वयं
नाटककार थे इसलिए उनकी दृष्टि और ज्यादा साफ और ज्यादा प्रासंगिक ढंग से उभरी।
उन्होंने स्थानीय समस्याओं और तात्कालिक मुद्दों को भी नाटकों में उभारा। घर वापसी,
गांधी ने कहा था, कह रैदास खलास चमारा आदि नाटक इसके उदाहरण हैं। इस दौर में
अन्य संस्थाओं ने भी कहीं प्रेरणा स्वरूप तो कहीं प्रतिस्पर्धा स्वरूप अच्छे नाटक
खेले। लेकिन इं. राजेश कुमार के जाते ही शहर के रंगमंच पर जैसे एक विराम लग गया।
आज भी ऐसे रंगकर्मियों की एक लंबी फेहरिस्त है जो वैचारिक रूप से समृद्ध और
प्रतिबद्ध हैं किंतु समय की मार ने उन्हें भी समझौता करने पर विवश कर दिया। ‘कह रैदास खलास चमारा’
को के.आर.के.सी. (डी.डी.एल.जे. की तर्ज पर) कहे जाने के दौर
में अब बहुत ज्यादा उम्मीद की भी नहीं जा सकती।
कई संस्थाओं ने अपनी शुरूआत ठोस वैचारिकता के साथ की लेकिन बाद में वे अपनी
सोद्देश्यता बचाए न रख सकीं। पुरानी प्रस्तुतियाँ दुहराई गईं। दो-चार मंचन हुए। पर
उसके बाद ठप। ऐसा विराम लगा जो उसके अंत का सूचक हैं। व्यक्तिगत अहं की तुष्टि ही
उनका ध्येय बन गया।
वॉलीवुड के आकर्षण से बुराइयाँ चाहे जो भी पैदा हुई हों,
एक आसानी जरूर हुई है। यहाँ के रंगकर्मियों में एक लगन,
एक जुनून दिखाई देने लगा है। कार्य के प्रति पूर्ण
समर्पणभाव, सीखने की लगन और समय की पाबंदियों जैसी कई अपरिहार्य
अपेक्षाएँ उनसे पूरी हुई हैं। यही वह जगह है जहाँ से बाजारवाद के घुप अंधेरे में
भी सुनहरी किरण फूटती दिखती है। जरूरत है तो इनके समुचित और सदिश उपयोग की।
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