कॉमेडी किंग का ज़मीनी सफर  सुनील ‘मानव’

शाहजहाँपुर का नाम अगर उसके समृद्ध इतिहास तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में  क्रांतिकारी भूमिका के लिए जाना जाता है तो वर्तमान में उसकी एक पहचान अत्यंत समृद्ध रंगमंच के कारण भी है। वैचारिक प्रखरता, समाज से संपृक्तता, जनपक्षधरता तथा अल्पसाधनों के बावजूद तकनीकि समृद्धता ने यहाँ के रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्रदान की है। शाहजहाँपुर में 100 वर्षों से भी अधिक पुराने रंगमंच का इतिहास नौटंकी, लोकनाट्य तथा पारसी नाटकों से लेकर वर्तमान आधुनिक नाटकों तक की अविरल एवं समृद्ध परंपरा से पूर्ण है। शाहजहाँपुर की इस परंपरा को नवीन ऊँचाइयों पर पहुँचाने में कमेडी किंग राजपाल यादव का विशेष स्थान है।भारतीय फिल्मों में ‘एक सौ पचास’ का आंकड़ा पार करके अब ‘हॉलीवुड’ में भी अपना परचम फैलाने वाली श्री यादव का रंगमंचीय सफर गाँव और कस्बे की गलियों और नुक्क्ड़ों से आरंभ होकर अभिनय के शिखर तक भले ही जा पहुँचा हो अथवा आज वह भले ही कमेडी किंग बन चुके हों लेकिन उनके कदम आज भी अपने गाँव, घर और ज़मीन से उसी प्रकार जुड़े हुए हैं।  
वास्तव में राजपाल यादव का नाम स्मृति में आते ही हमारे मस्तिष्क में दो छवियां अनायास ही उभर आती हैं - एक, कुण्डरा गांव के उस छोरे की जिसका अंदाज शाही नहीं, शक्ल हीरो जैसी नहीं, कद-काठी मॉडल जैसी नहीं, कुल मिलाकर एक आदर्श हीरो जैसा कोई लक्षण नहीं। ऐसे ठेठ यू.पी. के इस छोरे राजपाल यादवमें से जो हर वक्त छलक पड़ता दिखाई देता है वह अभिनय ही है। सुंदरता की प्रतिमा ऐश्वर्या राय के साथ कोक के विज्ञापन में जितनी निगाहें ऐश्वर्या पर टिकी थीं उतनी ही रामूपर भी। वह कभी चांदनीबारमें इकबाल चमड़ी नजर आता है तो कम्पनीमें जोजफ; ‘चोर मचाए शोरमें छोटू दिखता है तो रोडमें भंवर सिंह; ‘कल हो न होमें गुरु की भूमिका निभाता है तो मुझसे शादी करोगीमें राजपुरोहित की; ‘नेता जी सुभाष चन्द्र बोसमें भगतराम तलवार को जीवित करता है तो मालमाल वीकली में बाजबहादुर को ......। न जाने कितनी भूमिकाएं और सब में अलग-अलग अदाकारी।
राजपाल यादव की दूसरी छवि शाहजहाँपुर रंगमंच के उस छोटे से कलाकार के रूप में उभरती है जहाँ वह कृष्णा, दिलीप आदि दोस्तों के सहारे अभिनय करने के लिए छटपटाता है, रामलीला में अंगदकी भूमिका से लोगो को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है। यहां वह नितांत अपना है, जहाँ उसके कंधे पर दोस्ती भरा हाथ रखकर उसे अपने हृदय के करीब पाया जा सकता है। राजपाल ने शाहजहाँपुर रंगमंच की रामलीला में अंगदकी भूमिका से लेकर आज वॉलीवुड की एक से एक सुपरहिट फिल्मों तक का सफर तय किया है, इसके पीछे उनकी प्रतिभा, लगन और जी-तोड़ मेहनत की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है।
शाहजहाँपुर जिले के गांव कुण्डरा में सन् 1973 में पिता श्री नौरंगसिंह यादव के घर में जन्में श्री राजपाल अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में करके इण्टरमीडियट के लिए शाहजहाँपुर आए तथा स्नातक तक शिक्षा प्राप्त की। इसी दौरान कृष्णा व दिलीप आदि दोस्तों ने कोरोनेशन के डायरेक्टर ज़रीफ मलिक आनन्द से मिलाया और यहीं से राजपाल के जीवन ने एक नया मोड़ लिया। ज़रीफ ने सर्वप्रथम एक छोटी भूमिका दी। उसके बाद विभा मिश्रा द्वारा थियेटरवर्कशाप के माध्यम से थियेटर को समझा तथा रंगमंचीय दुनियाँ के सपने देखने लगे।
शाहजहाँपुर में होने वाली पारम्परिक रामलीला में चन्द्रमोहन महेन्द्रूद्वारा रावणके चरित्र से प्रभावित होकर उनके साथ काम करने की इच्छा हुई। खैर किसी प्रकार से आपको रामलीला में अंगदका चरित्र मिल गया, जिसकी शहर में आज तक खूब प्रशंसा होती है। वास्तव में यहीं से राजपाल के पैर अभिनय में जम गए। घर वालों के सहयोग और दिलीप आनन्द, कृष्णा, सुदर्शन सलिलेश आदि दोस्तों के साथ ने राजपाल के मन में एक नया जोश भर दिया।  ज़रीफ मलिक आनन्द का राजपाल के जीवन में विशेष सहयोग रहा। उन्होंने अभिनय के प्रशिक्षण के लिए लखनऊ व दिल्ली भेजने में बहुत सहयोग किया।
शाहजहाँपुर के रंगमंच पर राजपाल ने पर्दाफाश’, ‘अंधेर नगरी’, ‘भुवनेश्वर की कहानियाँ’, ‘दीमकआदि तमाम नाटकों में अभिनय किया तथा प्रशंसा बटोरी। लखनऊ में भारतेन्दु नाट्य अकादमीमें प्रवेश किया, जहाँ जुगल किशोर, चित्रा मोहन, अरुण त्रिवेदी आदि निर्देशकों से रंगमंच के गुर सीखे। भारतेन्दु नाट्य अकादमीसे प्रशिक्षण प्राप्त करके राजपाल ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्लीकी राह ली।
वर्ष 1997 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्लीसे निकलकर श्री यादव ने मुम्बई पहुँचकर वही किया जो मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँमें अंतरामाली ने किया था और नौरंगीलाल वाला सपना देखने लगे। स्टूडियो के आसपास चक्कर लगाते हुए राजपाल को ब्रेक दिया रामगोपाल वर्मा ने और 1999 में उनकी फिल्म जंगलमें सह-खलनायक की भूमिका का सर्वश्रेष्ठ अवार्ड प्राप्त किया।
इस प्रकार शुरु ही से राजपाल ने फिल्मी सफर में अद्भुत सफलता प्राप्त की और शाहजहाँपुर के साथ-साथ पूरे उ.प्र. का नाम राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने के लिए माननीय मुख्यमंत्री द्वारा यश भारतीपुरस्कार से सम्मानित किए गए। इसके अतिरिक्त भी सैकड़ो सम्मान राजपाल ने अपने हिस्से दर्ज कराए। वास्तव में राजपाल शाहजहाँपुर और उ.प्र. का ही नहीं अपितु पूरे देश का एक ऐसा सितारा है, जिसने अपनी कला से गांव, जनपद, प्रदेश और देश का नाम विश्व पटल पर अंकित किया है।
राजपाल की सफलता ने शाहजहाँपुर के रंगमंच को निश्चित तौर पर प्रभावित किया है किंतु प्रश्न यह उठता है कि राजपाल यादव की इस सफलता से शाहजहाँपुर रंगमंच पर कैसा प्रभाव पड़ा है। वह और भी अधिक विकसित हुआ है अथवा उसने अपने उद्देश्यों को खो दिया है? प्रश्न थोड़ा असहज दिखने पर भी उत्तरकी मांग करता है।
शाहजहाँपुर रंगमंच का एक समृद्ध इतिहास रहा है। सन् 1914-15 के आसपास से यहाँ रंग-संस्थाओं का उदय देखने को मिलने लगता है। उस समय बाहर की संस्थाएं भी यहाँ पर आकर नाट्य-मंचन किया करती थीं। यह वह समय था जब नाटकों में वैचारिकता केवल मंच पाश्र्व से ही ध्वनित हो सकती थी; अन्यथा नाटकों मे फूहड़ता के दृश्य ही अधिक हुआ करते थे। बाहर से आने वाली ये संस्थाएं पूर्णतया व्यवसायिक थीं, इनके लिए सामाजिक प्रतिबद्धता वैचारिकता का कोई मूल्य भी नहीं था। ऐसे में यहां के रंगकर्मियों की आदर्शदृष्टि ने उन्हें अस्वीकार कर खुद रंगमंच पर कदम रखा और फलस्वरुप हनुमत परिषद’, ‘कृष्णा क्लब’, ‘रामाक्लबतथा रामाशंकर ड्रामेटिक क्लबआदि संस्थाओ का उदय हुआ। इन संस्थाओं के नाटक भले ही आगे के नाटकों की भाँति वैचारिक न रहे हों पर वह उन व्यवसायिक कम्पनियों की तरह फूहड़ भी नहीं होते थे। अतः वह पूरे मनोयोग से (भले ही उन में मनोरंजकता की प्रथानता हो) कार्य करते थे। इस बात की पृष्टि इसी से हो जाती है कि उन कम्पनियों ने कई बार शाहजहाँपुर के रंगकर्मियों को अपने साथ मिलाने का प्रयास किया, पर असफल रहे।
वर्ष 1939-45 के दौरान जब संसार द्वितीय विश्व युद्ध की मार झेल रहा था तब भारतीय रंगमंच की दुनिया के बेताज बादशाह पृथ्वीराज कपूर यहाँ आए। वर्तमान मैजेस्टिक टॉकिज में उन्होंने पांच नाटकों का मंचन किया, जिसमें स्थानीय रंगकर्मियों ने भी भाग लिया। यहाँ के रंगकर्मियों के अभिनय से पृथ्वीराज कपूर इतने प्रभावित हुए कि उनको अपने साथ फिल्म नगरी मुम्बई चलने का न्योता दिया, पर इस बार भी रंगकर्मियों ने इसे नहीं स्वीकारा।
शाहजहाँपुर के रंगकर्मियों का रंगकर्म के प्रति यह समर्पण आधुनिक नाटकों की शुरुआत और तमाम प्रसिद्ध निर्देंशकों के निर्देशन में आयोजित कार्यशालाओं के आयोजन से और भी मजबूत हुआ। रंगकर्मियों ने रंगकर्म को एक कला के रूप मे स्वीकारा और उसके उद्देश्य को और भी मजबूत बनाया। वर्ष 1996 से इंजी. राजेश कुमार ने शाहजहाँपुर रंगमंच को वैचारिक प्रतिबद्धता प्रदान की, जिसके फलस्वरूप यहाँ एक आंदोलन सा नजर आने लगा। रंगकर्मियों में एक विशेष स्फूर्ति नजर आयी। उन्होंने (रंगकर्मियों) नाटकों को रंगमंच के वैचारिक पक्ष पर ध्यान देना आरम्भ किया। बुद्धि की कसौटी पर कसना आरम्भ किया। उसके उदे्श्यों को तलाशना आरम्भ किया और इसी के चलते राजपाल यादव, मोअज़ज़्म बेग, रौनक अली, तौकीर वारसी, गुलिस्तां, मुकेश आदि तमाम रंगकर्मी भारतेन्दु नाट्य अकादमीसे लेकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्लीमें चयनित हुए। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।
यह समय एक प्रकार का टर्निंग प्वाइन्टथा। क्योंकि अब तक यहाँ रंगमंच की जो परम्परा चली आ रही थी उसके स्वरूप मे परिवर्तन आना आरम्भ हो गया।
राजपाल यादव को जो सफलता मिली उसने यहाँ के रंगमंच में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया। यह हस्तक्षेप हमें दो रूपों में दिखता है- एक तो उस रूप में जहाँ उसने (हस्तक्षेप ने) रंगकर्मियों को एक हीरोइक छविप्रदान की; दूसरे उसने रंगकर्मियों में एक नए प्रकार का उत्साह भर दिया।
पहले जहाँ लोग रंगकर्म को एक कला मानकर उससे जुड़ते थे और रंगकर्म को अपने  व्यक्तित्व के साथ विलय करने का प्रयास करते थे; वहीं अब लड़के-लड़कियां राजपाल यादवबनने के लिए रंगमंच को महज एक सीढ़ी की भाँति प्रयोग करने लगे। उन्हें लगता है कि रंगमंच से जुड़कर ही उनको सेल्यूलाइट की सतरंगी दुनिया में जाने का टिकट मिल सकता है। वर्ष 2000 अथवा कुछ बाद में यहाँ के रंगकर्मियो में जो हीरोइक छविका विकास हुआ है, उससे यहाँ के रंगकर्मियों ने मुंगेरीलाल के सपनेदेखने आरम्भ किए हैं। इस प्रकार के अभिनेताओं में न तो वैचारिकता है और न ही रंगमंच की समझ। उनके समक्ष तो महज सिने नगरी का आकर्षण ही जगमगाता है। रंग-संस्थाओं को जहाँ अभिनेता-अभिनेत्रियों की तलाश रहती थी, अब भरमार है और इस भरमार के पीछे केवल एक ही उदे्श्य है कि वह कैसे और कितनी जल्दी सहज मार्गसे रूपहले पर्दे पर छा सकें। इस प्रकार की मनोवृत्ति को विकसित करने के पीछे मीडियाका भी महत्वपूर्ण सहयोग रहा है।
राजपाल की सफलता से शाहजहाँपुर के रंगकर्मियों में जिस हीरोइक छवि का विकास हुआ उससे रंगकर्म का उदे्श्य गायब हो गया; पूर्णरूप से ऐसा कहना संभवतः उचित न होगा। यदि यह कहा जाए कि उद्देश्य में कुछ परिवर्तन आ गया अथवा वह कुछ आधुनिक हो गया है अधिक सही होगा। भले ही यहाँ के रंगकर्मियों में सिने नगरीके प्रति मोह बढ़ा है अथवा मुंगेरीलाल के सपनेदेखने की रंगकर्मियों में रंगकर्म के प्रति प्रतिबद्धता ने जुनून का स्वरूप ग्रहण किया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तमाम लड़के रंगकर्म के प्रशिक्षण के लिए शाहजहाँपुर से 50-50 किलोमीटर दूर से प्रतिदिन यहाँ आते हैं। जिस प्रकार से लड़के-लड़कियां डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, अध्यापक आदि बनने के लिए पढ़ाई करते हैं उसी प्रकार से रंगकर्मी भी भारतेन्दु नाट्य एकेदमी’, ‘श्री राम सेन्टर’, ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालयमें चयन के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे है। प्रतिदिन समय से रिहर्सल प्लेसपर एकत्र होकर प्रतिबद्धता के साथ प्रशिक्षण लेना, निर्देशक की डांट-फटकार और तमाम सारी परेशानियों के बावजूद रंगमंच का दामन न छोड़ना (अथवा राजपाल यादव बनने का सपना देखते रहना) आदि ऐसी बाते हैं, जिन्होंने नवीन नाट्य परंपरा का विकास किया है।
शाहजहाँपुर रंगमंच पर वर्तमान में कोरोनेशन, अभिव्याक्ति, संस्कृति, विमर्श आदि ऐसी संस्थाएं हैं जो प्रतिबद्ध रंग-संस्थाओं की भाँति रंगमंच को नवीन स्वरूप प्रदान करने में कृत संकल्प हैं।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि वॉलीवुड स्टार, कमेडी किंग राजपाल यादव की सफलता ने रंगमंच के उदे्श्य में परिवर्तन अवश्य किया है उसे खोयानहीं है। रंगकर्मियों में भले ही हीरोइक छविका विकास हुआ हो पर उनकी रंगकर्म के प्रति प्रतिबद्धता और भी अधिक मजबूत हुई है। भले ही उनके वैचारिक स्तर में कम-ज्यादा परिवर्तन आया है, पर उसने एक नया स्वरूप भी ग्रहण किया है। हो सकता है कि रंगमंच के स्वरूप की ठेस लगी हो, परन्तु रंगकर्म आजीविका का साधन भी बना है। पहले जहाँ लोग महज मनोरंजन के लिए रंगकर्म से जुड़ते थे अब उसके साथ-साथ आजीविका के कारण भी जुड़ते हैं।

आज राजपाल शाहजहाँपुर की पहचान बन चुके हैं। जनपद का हर छोटा-बड़ा व्यक्ति अपने को राजपाल से जोड़ता है। कोई कहता है कि ‘वह तो मेरा चेला है, मैंने ही उसे नाटक के गुर सिखाए हैं’ तो कोई कहता है कि ‘वह मेरा बहुत अच्छा दोस्त है, मेरे साथ अमुख खोखे पर पान खाया करता था’। हर कोई राजपाल को किसी न किसी रूप में अपने से बड़ी गहराई से जोड़ता है। उनकी सफलता में अपनी सफलता को महसूस करता है। यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति अगर उनसे अपना जुड़ाव महसूस करता है तो यह राजपाल का व्यवहार ही है जो छोटे-बड़े सबको एक समान रूप से गले लगाता प्रतीत होता है। आज राजपाल इतने बड़े हो चुके हैं फिर भी उन्होंने अपनी ज़मीन से हटने का प्रयास नहीं किया है। आज भी वह अपनी ज़मीन से उतना ही जुड़े हुए हैं जितने कि पहले थे। आज के समय में ऐसे व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। आज शाहजहाँपुर के लिए राजपाल व्यक्ति से समष्टि में परिवर्तित हो चुके हैं। हर कोई राजपाल की सफलता में अपने को तलाशता और गर्व करता है।

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)