कांग्रेस बनाम कम्यूनिष्ट पार्टी : राजशाही बनाम जनशाही

एक बार फिर से त्रिपुरा में वाम सरकार बन गई और एक बार फिर से कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी।यह कोई अनहोनी या आकस्मिक बात नहीं है, बल्कि यह पहले से ही एक निश्चित नतीजा था।
            वास्तव में देखा जाए तो पूर्वोत्तर की चर्चा किसी न किसी हादसे को लेकर ही अधिक होती रही है। उसकी अच्छाइयों पर थोड़ा कम ही ध्यान जाता है।उसके जंगली स्वभाव की चर्चा ही अधिक होती है जबकिउसके वास्तविक कामों का आकलन नहीं के बराबर ही किया जाता है।
त्रिपुरा पूर्वोत्तर के राज्यों में क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे छोटा किंतु आबादी की दृष्टि से असम के बाद सबसे बड़ा प्रदेश माना जाता है।अगर सन्‍ 1988 से 1992 की कांग्रेस और टी.यू.जे.एस. की मिली-जुली सरकार को अलग करके देखें तोजब पहली बार सन्‍ 1977 में 60 सीटों के लिए हुए पहले आम चुनावों से लेकर अभी 2013 तक के आम चुनावों में लगातार वामपंथी सरकार ने अभूतपूर्व सफलता के मानक स्थापित किए हैं। कुछ तो अवश्य ही ऐसा है जिसके चलते वामपंथी सरकार यहाँ के जनमानस में अपना इतना अच्छा स्वरूप बनाये रखने में सफल है। वह कौन से कारण हैंजिनके चलते वामपंथी पार्टी ने त्रिपुरा के पहले आम चुनावों में साठ में से सत्तावन सीटें जीत कर सरकार बनाई तो बनाई ही इतने वर्षों के बाद भी वही स्थिति कायम रखते हुए 2013 में भी उसी औसत से सरकार बना ली। कुछ तो कारण अवश्य रहे होंगे जिसके कारण पूरे भारत से अलग-थलग इस छोटे से राज्य में वामपंथी पार्टी अपना वर्चस्व आज भी अनवरत बनाये हुए है। यहाँ पर एक बात ध्यान देने की यह है कि जब त्रिपुरा में पहली बार ‘वाम सरकार’ बनी थी तब तो केन्द्र में कांग्रेस की सत्ता थी ही आज भी केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार है। और तो और उस समय जहाँ कांग्रेस के स्टार प्रचारक राजीव गांधी थे तो आज उनके सुपुत्र राहुल गांधी कांग्रेस के स्टार प्रचारक है। साथ ही इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि पहली बार त्रिपुरा की वाम पार्टी के प्रचारक जमीनी नेता दशरथ देबवर्मा नामक एक जनजातीय नेता थे तो आज माणिक सरकार इस पार्टी के प्रचारक है, जो कि बंगाली जनसमुदाय से आते हैं। आइये इस कांग्रेस बनाम वाम पार्टी की कुछ पडताल करते हैं।
1947 में देश की आजादी के बाद सन्‍ 1949 में त्रिपुरा को भारतीय राष्ट्र का एक संघशासित राज्य बना दिया गया।इस समय तक यहाँ के शासन की बागडोर माणिक्य वंशीय सामंत शासकों के हाथों में थी। पहली बार सन्‍ 1978 में त्रिपुरा की बागडोर राजशाही से निकलकर जनसामान्य की प्रतीक यहाँ की कम्यूनिष्ट पाट्री के हाथों में आई। लेकिन यह ‘बदलाव’ आसान नहीं था। इसके पीछे एक लम्बे जनसंघर्ष के स्वर सुनायी देते हैं।
त्रिपुरा की राजशाही ने जो जनजातीय उपेक्षा का रवैया अपनाया उसके फलस्वरूप सन्‍ 1945 में जनजातीय समाज से कुछ जागरुक युवक निकलकर सामने आये। दशरथ देबवर्मा, सुधन्वा देबवर्मा, हेमंत देबवर्मा आदि ऐसे ही जनजातीय युवक थे जिन्होंने राजशाही के बरक्स खड़े होकर अपने जनसमुदाय को जागृत करने का काम किया था। सबसे पहले इन्होंने जनजातीय लोगों की शिक्षा पर ध्यान देते हुए त्रिपुरा के ग्रामीण और पहाड़ी इलाकों में तकरीबन 350 स्कूल खोले। इन लोगों ने ‘जनशिक्षा समिति’ नामक एक संगठन बनाकर त्रिपुरा में शिक्षा आंदोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन यहाँ की शाही सरकार के लिए यह स्थिति अनुकूल नहीं थी।वास्तव में राजतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी प्रजा की निरक्षरता ही होती है। अत: राजशाही द्वारा उक्त समिति को विद्रोही करार देते हुए उनका उत्पीड़न आरंभ किया लेकिन इन युवकों की जनसमुदाय में बढ़ रही लोकप्रियता के चलते राजतंत्र को उन्हें मुक्त करना पड़ा। त्रिपुरा के राजतंत्र की एक शोषक नीति ‘तितुन’ के नाम से जानी जाती थी जिसके चलते राजशाही द्वारा प्रजा से मनमाना ‘कर’ वसूल किया जाता था। इस प्रथा में जनसाधारण से ‘बेगार’ कराया जाता था। अत: यहाँ का जनसमुदाय इसके खिलाफ उठ खड़ा हुआ। फलस्वरूप राजशाही और जनसाधारण के मध्य टकराव की स्थितियां उत्पन्न हो गईं और राजशाही द्वारा हुई गोलीबारी में कई जनजातीय युवतियां मारी गईं। इस घटना ने जनसाधारण के मन में राजशाही के खिलाफ और भी ज्यादा आक्रोश भर दिया। राजतंत्र और जनतंत्र में टकराव की स्थितियां गंभीर से गंभीरतर होती गईं। फलस्वरूप सन्‍1950 में दशरथ देबवर्मा तथा अन्य लोगों ने कम्यूनिष्ट पार्टी की सदस्यता लेकर विधिवत तरीके से त्रिपुरा राज्य कम्यूनिष्ट पार्टी का गठन किया।सन्‍ 1952 में जब स्वाधीन भारत में पहली बार लोकसभा के लिए चुनाव हुआ तो जेल में बंद होने के बावजूद भी दशरथ देबवर्मा को जनसाधारण ने अभूतपूर्व मतों से विजयी बनाया। वास्तव में आम चुनाव प्रजा की सबसे बड़ी ताकत होते हैं। यह त्रिपुरा की प्रजा ने सिद्ध कर दिया।
त्रिपुरा में पहली बार हुई जनतंत्र की यह विजय ऐतिहासिक थी। यहाँ से त्रिपुरा की जनजातियों के जीवन स्तर में बदलाव का युग आरंभ हुआ। सन्‍ 1978 में बनी वाममोर्चे की पहली सरकार ने भूमि सुधार की योजना के तहत भूमिहीनों को भूमि आबंटित की तो सिंचाई, बिजली, यातायात, पेय जल आदि के क्षेत्रों में भी नई परिभाषाओं को जन्म दिया। सन्‍ 1945 की जनशिक्षा समिति के जननेता श्री दशरथ देबवर्मा, जो अब त्रिपुरा के शिक्षा मंत्री थे, ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुमुखी प्रयास तो किये ही यहाँ के लोक संगीत और संस्कृति को भी प्रोत्साहित किया।
सन्‍ 1984 में वामफ्रंट की द्वितीय सरकार के समय पहली बार त्रिपुरा में जो उपजाति स्वशासी जिला परिषद के लिए आम चुनाव कराये गये तो28 में से 27 सीटों पर वामफ्रंट के उम्मीदवार विजयी हुए। कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा आघात था।
सन्‍ 1988-1992  के दौरान कांग्रेस ने टी.यू.जे.एस. के साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन यह सरकार त्रिपुरा के जनसाधारण के लिए एक ‘फासिस्ट’ सरकार ही सिद्ध हुई। जगह-जगह कम्यूनिष्ट कार्यकर्ताओं की हत्या इस सरकार की नीति में शामिल हो गया। हद तो तब हुई जब12 अक्टूबर 1988  को वीरचंद मनु परिक्षेत्र में कम्यूनिष्ट पार्टी के दफ्तर पर हमला कर पार्टी के झंडे को पैरों तले रौंदा गया और वहीं पर तेरह कार्यकर्ताओं को बेरहमी से मार डाला गया।इनकी बर्बरता यहीं समाप्त नहीं हुई। सत्ता के दौरान ही सी.पी.एम. के 250 कार्यालयों पर जबर्जस्ती कब्जा भी कर लिया गया। त्रिपुरा के जनमानस पर इस बर्बरता के अमिट निशान पड़ गये। ऐसे में जनता के पास ‘मत’ से बड़ा कोई हथियार नहीं था।फलस्वरूप 1993 में त्रिपुरा विधान सभा में भारी मतों के साथ वाममोर्चे की सरकार ने एक बार फिर से प्रवेश किया और इस बार त्रिपुरा में राजशाही के विरुद्ध खड़े होने वाले शीर्ष नेता श्री दशरथ देबवर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया। त्रिपुरा में लोकतंत्र की यह एक बड़ी जीत थी। इसके बाद तो चौथी, पांचवी और छठी बार भी वाममोर्चे की सरकार बनी। अब तक त्रिपुरा से राजशाही का अस्तित्त्व तकरीबन समाप्त हो गया था।
वाममोर्चे की सरकार ने अपना पूरा ध्यान जनसामान्य के विकास में लगा दिया।सन्‍ 1976 में कांग्रेस की सरकार तक जहाँ त्रिपुरा की तीस प्रतिशत आबादी ही शिक्षित थी वहीं इस समय यह औसत 90 प्रतिशत के आस-पास है।तमाम महाविद्यालय और मेडिकल और तकनीकि कॉलेजों की स्थापना हुई है तो खाद्यान्न, यातायात आदि के क्षेत्र में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है।
अगर देखा जाय तो त्रिपुरा की राजनीति में चल रहा ‘राजशाही बनाम जनशाही अर्थात्‍ कांग्रेस बनाम वामपंथ’ का द्वंद्व आज भी चल रहा है। एक ओर राजतंत्र की प्रतीक कांग्रेस के ‘राजकुमार’ राहुल की हवाई यात्रायें हैं तो दूसरी ओर माणिक सरकार की जनपक्षधरता।एक ओर कांग्रेस की जनसाधारण से ‘दलितीय’ दूरी है तो दूसरी ओर माणिक सरकार की जनसाधारण के साथ स्नेहमय मैत्री।
अभी 2013  के विधान सभा चुनाव में निवर्तमान मुख्यमंत्री श्री माणिक सरकार लगातार चौथी बार बिजयी हुए हैं, जनपक्षधरता की इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है।एक बड़े मजे की बात है कि बंगाली समाज में वैसे तो अपने से बड़े के लिए ‘दा’ संबोधन प्रचलित ही है लेकिन किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री को वहाँ की आम जनता अगर ‘माणिक दा’ के संबोधन से संबोधित करती है तो यह उनकी जनसामान्य के साथ गहरी आत्मीयता का ही बोधक है। बड़े मजे की बात है कि जहाँ देश के अन्य मुख्यमंत्री पद पर आने के बाद रोडपति से करोड़पति-अरबपति-खरबपति बन जाते हैं वहीं त्रिपुरा के मुख्यमंत्री के पास अपने तीन कार्यकाल पूरे करने के बावजूद भी केवल ‘दस हजार’ रुपये का बैंक वैलेंस निकलता है। वह मुख्यालय तक पैदल जाते हैं और मुख्यालय के बाद अपने व्यक्तिगत जीवन में मुख्यमंत्री की गाड़ी से न निकलकर रिक्शे या पैदल ही निकलते है।यह होती है असली जनपक्षधरता। और यह होता है जनता का असली विश्वास जिसने उन्हें लगातार मुख्यमंत्री बनाये रखने के नये मानक रचे हैं।
चलते-चलते एक बात पर और ध्यान डालना चाहिए। केन्द्र में राजशाही की प्रतीक कांग्रेसी सरकार की जब यहाँ से लगाता मुंह की खानी पड़ रही है तो अब उसका गुस्सा निकलना भी लाजिमी है। इसका जीता-जागता उदाहरण अभी-अभी निकला भारतीय ‘बजट’ है जिसमें त्रिपुरा के लिए क्या स्थान है, कहने की आवश्यकता नहीं।

यहाँ का सामाजिक माहौल भारत के सभी राज्यों से कहीं ज्यादा सभ्य और सम्मानित है।किसी प्रकार की कोई छेड़-छाड़ नहीं, किसी प्रकार की कोई गुण्डागिरी नहीं। न्याय-व्यवस्था सबके लिए बराबर है। एक रिक्शेवाला तक जाकर सीधे मुख्यमंत्री से मिल सकता है। स्त्रियों की स्वतंत्रता का तो यह हाल है कि वह हर क्षेत्र में बड़े सुरक्षित माहौल में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करतीहैं।

सुनील मानव, शाहजहाँपुर

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)