वॉइट टाइगर की तलाश


‘वॉइट टाइगर’ की तलाश तो महज उस रोमांचक सफर का प्रेरणा बिन्दु बना, असल किस्सा तो पिछले सात-आठ सालों से पक रहा था । अचानक प्रोग्राम बना और हम निकल पड़े ।

बात उन दिनों की है जब मैं शाहजहाँपुर में रहता था । पोस्टग्रेजुएट के समय जब शाहजहाँपुर के रंगमंच पर किताब लिखने का कार्य आरम्भ किया तो सामग्री और बिखरे पड़े इतिहास की खोज के दौरान मेरी मुलाकात डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री से हुई । वह शाहजहाँपुर के ही दूसरे महाविद्यालय ‘स्वामी सुकदेवानंद महाविद्यालय’ में असिस्टेंट प्रोफेसर थे । पढ़ने-लिखने में गहरी रुचि वाले डॉ. प्रशांत से ज्यों-ज्यों मुलाकातें बढ़ती गईं, हमारे बीच एक रिस्ता बनता गया । उनकी रुचि गीत लेखन के साथ-साथ क्षेत्रीय इतिहास में खूब थी, जो मेरे रिस्ते की मज़बूत कड़ी बनी । हम कई बार क्षेत्र के सुदृढ़ इतिहास पर खूब देर तक बातें करते थे । इसी सिलसिले में एक बार मेरा उनसे जिक्र हुआ कि ‘मेरे घर के पास में एक स्थान है ‘माती’, जो ऐतिहासिक राजा बेन के नाम पर विख्यात है ।’ उनको पहले से इस स्थान की कुछ-कुछ जानकारी थी । जब उन्होंने मुझे उस क्षेत्र के पास का रहने वाला समझा तो उनकी वहाँ जाने की उत्सुकता और बढ़ गई । इस दिन के बाद जब भी उनसे बात होती, तब माती जाने की बात अवश्य ही सामने आती, लेकिन जीवन की आपाधापी और रोजगार के लिए पढ़ने की जद्दोजहद ने कभी मौका ही नहीं दिया कि मैं उन्हें लेकर वहाँ पहुँच पाता । समय बीतता चला गया । सात-आठ सालों में मैं और दुनियाँ सब बदल गए । मैं विद्यार्थी से ‘नौकर’ बन गया । समय और भी तीव्र गति से भागने लगा । कहीं जाने के लिए अब समय मिलना नामुमकिन लगने लगा ।

इसी दौरान मेरा विचार एक लोक पत्रिका निकालने का बना । इसके लिए सामग्री जुटाने के प्रयास में मैं लोगों से बात करने लगा । प्रशांत जी शहर छूटने के बाद लागभग विस्मृत से हो गए थे । एक दिन ‘शाहजहाँपुर रंग महोत्सव’ देखने शाहजहाँपुर जाना हुआ, जहाँ अचानक उनसे मुलाकात हो गई । इस बार महोत्सव की स्मारिका का संपादन उन्होंने ही किया था, दिखाने लगे । कलात्मकता, ऐतिहासिकता और बाज़ार के बोझ से दबी विवशता . . . सब दिखाने लगे । बोले ‘महज दो दिन में तैयार की है ।’ खैर ! बातों ही बातों में उनको पत्रिका के प्रकाशन की योजना बताते हुए उनसे क्षेत्र के लोक पर कुछ लिखने का आग्रह कर बैठा । कई विषय सामने आए । बोले जल्द ही कुछ लिखकर देता हूँ । इसके बाद मैं वापस नौकरी पर आ गया । समय और तेजी से भागा । करीब एक महीने बाद एक दिन उनका फोन आया कि ‘क्यों न माती पर ही कुछ लिखा जाए, लेकिन शर्त वही कि तुम मुझे वहाँ घुमाने ले चलो ।’ मैंने सकुचाते हुए फिर से उन्हें हर बार वाला आश्वासन दे दिया । जिंदगी फिर से भाग खड़ी हुई । एक महीना, दो महीना . . .

यह अप्रैल का महीना था । अचानक एक दिन के लिए मुझे विद्यालय से अवकाश मिल गया । कहीं जाने का विचार नहीं था । सोचा पूरा दिन घर पर रहकर सोऊंगा । अचानक मन में विचार आया कि क्यों न माती चला जाए और माती का विचार आते ही फोन हाथ में आ गया । दूसरी ओर से डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री बोल रहे थे । चूँकि मैंने अचानक उनसे कहा तो वह पूरी तरह से तैयार नहीं हो पा रहे थे, फिर भी उन्होंने दो घण्टे में बताने को कहा । मैं पूरी तरह से तैयार था और मुझे लग रहा था कि प्रशांत जी का फोन आना तय है । करीब तीन बजे उन्होंने फोन पर सहमति जताई । चार बजे मैं बरेली से शाहजहाँपुर के लिए अपनी मोटरसाइकिल से निकल पड़ा । अक्सर जब मैं बाइक पर अकेला होता हूँ तो कुछ तेज ही चलता हूँ । उस पर मेरी नई विक्रांत बाइक और ठीक-ठाक रोड । मैं एक घण्टे में शाहजहाँपुर पहुँच गया । चाचा के घर पर जाकर प्रशांत जी को अपने पहुँचने की सूचना दी तो उन्होंने माती चलने के लिए बाइक को ही प्रधानता दी, क्योंकि हम बाइक से अधिक घूम सकते थे । शाहजहाँपुर से मेरा घर जगतपुर पुवायां, खुटार, मैलानी होते हुए करीब नव्बे किलोमीटर बैठता है । इसके आगे माती का सफर । मेरे घर से करीब पाँच किलोमीटर । खैर ! रात को मैं चाचा के घर ही रुका । जब भी शाहजहाँपुर जाता हूँ तो मेरे रुकने का स्थान यहीं होता है । यहाँ चाचा-चाची के प्रेम के साथ उनके दोनों बेटों हर्ष और शिखर का मेरे साथ जो जुड़ाव है, वह मुझे कहीं और रुकने की अनुमति किसी भी स्थिति में नहीं देता है । देर रात तक चाचा-चाची के साथ बातें करते-करते हम कब सो गए पता नहीं चला । सुबह को भी जल्दी ही उठ गया । मुझे पता था कि जिस सफर पर हम निकलने वाले हैं, वह पास नहीं है । साथ ही वहाँ पहुँचकर हम जिस स्थान को देखने वाले हैं, वहाँ भी अच्छा समय लगना तय था । मैं सात बजे तैयार हो गया । जब तक मैं तैयार हुआ चाची ने नाश्ते में पोहा बनाकर टेबल पर लगा दिया । मैं नाश्ता कर ही रहा था तब तक प्रशांत जी का फोन आ गया । हमारा उत्साह और बढ़ गया । जिस स्थान पर हम बचपन से रहे, आज उसी स्थान को प्रशांत जी को दिखाने की मेरी आतुरता ने गर्व का स्थान ले लिया । मैंने बाइक उठाई और प्रशांत जी के घर आ गया । प्रशांत जी नाश्ते पर मेरा इंतजार ही कर रहे थे । यह बड़ी कठिन स्थिति थी । मना करना यहाँ भी संभव नहीं था ।

नाश्ते के दौरान ही प्रशांत जी ने कहा ‘मोनू (उनका बेटा) भी साथ चलने की जिद कर रहा है, क्या तुम गाड़ी चला सकते हो, नहीं तो किसी ड्राइवर को बुलाऊँ ? मोनू जंगल देखना चाहता है । उसने कभी जंगल नहीं देखा है और मैं भी चाहता हूँ कि वह यह सब देखे । किताबों से पृथक उसका अनुभव बढ़ेगा ।’ कक्षा छ: में पढ़ने वाले मोनू की उत्सुकता ने मेरे अंदर और उत्सुकता बढ़ा दी । मैंने गाड़ी चलाने की हामी भरी और मैं, मोनू और प्रशांत जी माती की यात्रा पर शाहजहाँपुर से करीब आठ बजे निकल पड़े । शहर के बाहर निकलकर हमने कार में पेट्रोल डलवाया और आगे बढ़ गए ।

प्रशांत जी से यह मेरी काफी दिनों बाद की ऐसी मुलाकात थी, जब हमारे बीच इतनी सारी बातें हुई हों । हम जब भी मिलते थे तो कई मुद्दों पर बातें होती थीं । चूँकि इस यात्रा में पहले वाले प्रशांत जी आज नहीं थे । आज उनके विचारों में बड़ा बदलाव मैं देख रहा था । बातों ही बातों में उनसे तत्कालीन राजनीति से लेकर उत्तर प्रदेश और खासकर हमारे क्षेत्र के आस-पास की लोक कलाओं पर काफी गंभीर चर्चा हुई । उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण विषय हमारे सामने रखे जिन पर काम किया जा सकता है । जैसे सिमरा-सिमरिया का विवाह, गोबर से जो लीपा जाता है उसकी चित्रकारी, उपलों की डिजाइन आदि । इसी दौरान मैंने उन्हें बताया कि इधर मैंने धमार पर काम किया है । दूर-दूर गाँवों में जा-जाकर मैंने करीब दो सौ धमार गीतों का संकलन किया है । साथ ही उस अनुभव से उत्पन्न एक चरित्र को आधार बनाकर कुछ कथात्मक लिखने का भी प्रयास किया है ‘बन्धूलाल’ । उनके चेहरे पर गंभीर चमक आ गई । वे बड़े प्रसन्न हुए । वास्तव में धमार पर काम करने का विचार उन्हीं का था, जो मुझे उनसे करीब दस साल पहले मिला था । मेरे मन में वह विचार जीवित रहा और एक वर्ष की बेरोजगारी के दौरान जब मैं गाँव में रुका तो मैंने अपने कुछ मित्रों की सहायता से यह कार्य पूरा कर लिया था । वास्तव में यह कार्य ही ऐसा था जिसने मुझे बेरोजगारी के दौरान ‘फ्रस्टेशन’ से बचाया था ।

हमारी कार खुटार को पार कर हमारे गाँव की ‘इंटीरियर’ रोड पर आ चुकी थी । कुछ देर चलने के बाद हमने रास्ते में पड़ने वाले जंगल में प्रवेश किया । मोनू का चेहरा खिल उठा । वह वास्तविक रूप से पहली बार जंगल में प्रवेश कर रहा था । उसके मनोमस्तिष्क में जंगल का जो चित्र था, संभवत: वह सजीव हो उठा था । उसकी उत्सुकता देखते हुए हमने एक साइड में कार रोक दी और बाहर आ गए । करीब सत्तर किलोमीटर चलने के बाद हम भी कुछ रुकना चाहते थे । मोनू अभी कार में ही था । प्रशांत जी ने उसे बाहर आने को कहा तो वह बोला ‘पापा यहाँ टाइगर भी तो होगा ! यदि वह आ गया तो ?’ उसके चेहरे पर हल्का सा भय स्पष्ट दिख रहा था । तब हमने उसे समझाया कि ‘बेटा यह वह जंगल नहीं है । यह जंगल आबादी से लगा हुआ छोटा सा जंगल है । यहाँ गाड़िया और लोग आते-जाते रहते हैं, इसलिए यहाँ टाइगर नहीं आते हैं ।’ उसके अंदर से डर निकला तो वह बोला ‘. . . तो टाइगर वाला जंगल कहाँ है ? हमें तो टाइगर देखना है ।’ उसकी जिज्ञासा बढ़ चली । हमने हँसते हुए उसको आश्वासन दिया कि आगे के घने जंगल में हम आपको टाइगर दिखायेंगे । यहाँ हमने कुछ फोटो लिए और घर की ओर बढ़ चले ।

यह हमारा क्षेत्र था, लेकिन हमें ऐसा लग रहा था कि हम किसी विशेष आंचलिक यात्रा पर हों, उस पर मोनू का साथ और उसके तरह-तरह के प्रश्न और उन प्रश्नों पर मेरा और प्रशांत जी का विश्लेषण यात्रा को रोचकता से भर रहा था ।
अब हमारी कार हमारे गाँव ‘जगतपुर’ में प्रवेश कर रही थी । हमारे अतिपिछड़े गाँव में प्रवेश करते हुए हमें पहली बार एक विशेष प्रकार की प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था । गाँव और क्षेत्र की एक-एक चीज पर गर्व अनुभव हो रहा था । गाँव में हमारे सामने पड़ने वाली एक-एक चीज व एक-एक व्यक्ति मेरे उत्साह और गर्व को बढ़ा रहा था । गाँव के छप्पर, उपले, कच्ची दीवारों पर की गई चित्रकारी आदि सब हमारे अंदर के कलाकार से बातें करने लगी थीं । वास्तव में आज पहली बार मैंने अपने गाँव को एक ऐतिहासिक और कलात्मक रूप में देखा था । यह सब मन में चल ही रहा था कि सामने से हमारा घर दिखने लगा । बापू (हमारे पिता जी) आयुर्वेद के अच्छे जानकार हैं, इसलिए उन्हें पेड़-पौधों से विशेष लगाव रहता है । उन्होंने न जाने कहाँ-कहाँ से लाकर तरह-तरह के पेड़-पौधे घर के ही बाहर एक छोटे से स्थान में लगाए हैं । उनका एक नियमित समय इन्हीं के साथ बीतता है । हमारे घर पहुँचने पर भी वह अपने इन्हीं पौधों की सेवा करते हुए मिले । दूसरी ओर बड़े चाचा मंदिर के चबूतरे पर बैठे किसी से बातें कर रहे थे । हमने कार ले जाकर उन्हीं के पास रोक दी । बापू और चाचा कार की ओर बढ़ आए । हमने कार से उतरकर उनका अभिवादन किया । प्रशांत जी और मोनू ने भी बापू और चाचा का मेरी ही भाँति अभिवादन किया तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ हमारा स्वागत किया और अंदर चलने को कहा । उनके चेहरे पर प्रशांत जी और मोनू को जानने की जिज्ञासा जानकर हमने प्रशांत जी का उनसे परिचय करवाया और घर आने का पूरा मन्तव्य बताया तो उनका चेहरा भी गर्व से भर उठा ।
घड़ी में करीब साढ़े दस बज रहे थे । चाय-नाश्ता हो चुका था । हमने राश्ते से ही अपने प्रिय मित्र यशपाल को फोन पर अपने आने की सूचना के साथ यह कह रखा था कि हमारे आने से पहले ही आप हमारे साथ चलने के लिए तैयार मिलें । सो यशपाल भी आ चुके थे । यशपाल को क्षेत्र की जानकारी अधिक थी और हमारी मित्रता भी खूब है । इसलिए हमने उन्हें अपने साथ ले चलने में अधिक रुचि ली । बेचारे यशपाल उस दिन अपने एक रिश्तेदार के साथ कहीं बाहर जाने वाले थे, लेकिन हमारी यात्रा के आगे उनकी यात्रा को विराम सहना पड़ा । खैर ! कुछ देर घर पर रुकने के बाद ग्यारह बजे हम आगे के सफर पर निकल पड़े । कार में अब हम चार लोग हो गए थे । हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जा रहे थे, मोनू की जिज्ञासा और भी प्रबल होती जा रही थी ।

गाँव की कच्ची-पक्की सड़कों से होते हुए हम माती की ओर बढ़े जा रहे थे । महादेवा गाँव से निकलते ही माती के टीले व खण्डहर आरम्भ हो जाते हैं । पहाड़ों की सड़कों की भाँति ऊँची-नीची सड़कों पर हिचकोले लेते हुए हम आगे बढ़ रहे थे । मैंने और यशपाल ने प्रशांत जी को माती के प्राचीन इतिहास के बारे में बताना आरम्भ किया । वह इतिहास जिसको हमने अपने दादी-बाबा आदि बुजुर्गों से सुना था अथवा बचपन से जिसे हमने देखा था । इस समय हम जिस रास्ते पर थे, वह काफी ऊँचा-नीचा था । इस समय इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों ने वर्तमान कृषि यंत्रों के माध्यम से गन्ना बो रखा था । प्लास्टिक के पाइपों के अविष्कार ने ऊँचे-ऊँचे टीलों तक पानी पहुँचा दिया था । इस कारण इस क्षेत्र का वास्तविक स्वरूप, जो हमने अपने बचपन में देखा था, वह समाप्त हो गया था, लेकिन कोई भी अनुमान लगा सकता है कि यहाँ पहले टीले रहे होंगे । यहाँ की मिट्टी हल्की लाल है । साथ ही पुरानी ईंटें व कंकड़ों की भी भरमार है । बचपन में हम जब बुआ, दादी आदि के साथ जब माती में प्रत्येक अमावस्या को लगने वाले मेले में आते थे तब यह स्थान ऐसा नहीं था । हमने अपनी आँखों से यहाँ दूर-दूर तक मनुष्य तथा तरह-तरह के जानवरों की तकरीबन एक-एक फीट अथवा कुछ छोटी-बड़ी अस्थियाँ देखी थीं, जो काफी समय तक यहाँ रहीं । जब भी कभी अधिक तेज़ बरसात हुआ करती थी, चारो ओर ऐसा लगता था कि प्राचीन अस्थियों की ही बरसात हुई हो । अब सब बदल चुका था । आस-पास के लोगों ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के आधार पर इस जमीन को हथिया लिया है और आधुनिक एवं अधिक विकसित हो चुके कृषि यंत्रों की सहायता से ज़मीन को फसल उगाने के लायक बना लिया था, लेकिन आज भी जब खूब तेज़ी से बरसात होती है और उसके बाद ट्रेक्टरों से जुताई की जाती है तो पुरानी अस्थियां, पुरानी ईंटें तथा अन्य भी तमाम प्रकार की प्राचीन वस्तुएं निकल आती हैं, लेकिन इतिहास की जानकारी और प्राचीन वस्तुओं के प्रति उदासीनता के कारण लोग उनको नष्ट करते चले जा रहे हैं ।

प्रशांत जी ने पुरातत्व की जानकारी के आधार पर अनुमान लगाया कि संभवत: इस प्रकार की ईंटें करीब तीन हजार वर्ष पहले की रही हो सकती हैं । वह समय कुषाण काल था । साथ ही प्रशांत जी ने प्रश्न किया कि ‘यहाँ जो अस्थियाँ पाई गई हैं अथवा वर्तमान में पाई जा रही हैं उसके पीछे का इतिहास क्या रहा होगा ?’ मैं और यशपाल अपने क्षेत्र की अधिक से अधिक जानकारी प्रशांत जी को देने के लिए उत्सुक थे । अपने अनुभव और बड़े-बूढ़ों द्वारा प्राप्त जानकारी के आधार पर बताने लगे ।

कहा जाता है कि यहाँ का राजा बेन था, जिसकी सात लड़कियां थीं । उसका राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था । माती में उसके महल से लेकर नेपाल के पास शारदा नदी तक एक सुरंग गई थी, जिसमें से होकर बेन की रानी अपने रथ पर सवार हो नहाने जाया करती थी । एक बार किसी अन्य राजा द्वारा बेन पर आक्रमण किया गया । दोनों में खूब लड़ाई हुई । राजा बेन के पास एक चमत्कारिक ताकत वाला बेना (हाथ से चलाने वाला पंखा) था । इस बेने की खासियत यह थी कि राजा बेन इस बेने के जिस भी कोने को तोड़ता था, सामने की सेना का वह हिस्सा स्वयं ही परास्त होकर ज़मीदोज हो जाया करता था । ऐसे ही राजा बेन व दूसरे राजा के बीच खूब लड़ाई हुई, जिसमें लाखों सैनिक, घोड़े, हाथी आदि मारे गए । बुजुर्ग कहते हैं कि खून की नदियां बह निकली थीं । खैर !
प्रशांत जी बीच-बीच में प्रश्न करते जा रहे थे और हम पूरे उत्साह के साथ उनके प्रश्नों के उत्तर दिए जा रहे थे । इस बीच हमार ध्यान मोनू से बिलकुल विस्मृत सा हो गया था, जो हमारी बातों को बड़ी ही उत्सुकता से सुन रहा था । वह इस समय ग्रामीण प्रकॄति को निहार रहा था ।

इस प्रकार की बाते करते हुए हम महादेवा गाँव से होते हुए राजा बेन के उस तालाब पर पहुँच चुके थे जिसे ‘भुवनई ताल’ के नाम से जाना जाता था । हमने कार एक खेत में खड़ी की और कैमरा आदि लेकर ताल के किनारे आ गए । इस ताल की लम्बाई आठ किलोमीटर बताई जाती है, जो हम महसूस ही कर रहे थे । वर्तमान में यह माती और महादेवा के बीच से होते हुए चतीपुर गाँव तक फैला हुआ था । पुराने लोग बताया करते कि राजा बेन की रानी अक्सर इसी तालाब पर नहाने आया करती थीं । इसके अतिरिक्त राजा को जब घुड़सवारी करने का मन होता था तो इस तालाब की मज़बूत किनारी पर वह अपने घोड़े की सवारी किया करता था । हम देख रहे थे कि इतिहास की इन बातों में कुछ न कुछ सच्चाई अवश्य थी । तालाब के किनारे-किनारे बिखरी पड़ी पुरानी ईंटें अपने इतिहास की गुम हो चुकी कहानी बयां कर रही थीं कि कभी यहाँ भी रौनक हुआ करती थी । कभी इस तालाब की किनारियां भी पक्की और साफ-सुथरी हुआ करती थीं, लेकिन वर्तमान में इस तालाब की स्थिति अच्छी नहीं रही । अब यह आस-पास के लोगों की कमाई का जरिया बन गया है । लोग इस तालाब में कमलगट्टे, सिघाड़े तथा मछलियां पालने लगे हैं । इस तालाब में आज भी कमल अपने प्राकृतिक रूप में देखे जा सकते हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि कई बार इसमें ‘नीलकमल’ भी देखने को मिलते हैं । प्रशांत जी ने अनायाश ही कहा कि इसे तो प्राकृतिक धरोहर के रूप में पर्यटन स्थल बनाया जा सकता है । हमने उन्हें बताया कि यह हमारे राजनेता नहीं चाहते हैं । चूँकि कई बार स्थानीय नेताओं को इसके लिए अर्जियां दी जा चुकी हैं ।

मोनू की उत्सुकता का ठिकाना नहीं था । वह पहली बार इतना बड़ा तालाब तो देख ही रहा था साथ ही उसमें खिले कमल और सिघाड़ों के साथ मछली पालन को भी देख पा रहा था । इसके अतिरिक्त उसकी जिज्ञासा तरह-तरह के प्रश्न कर रही थी, जिसका हम अपनी सामर्थ्य के आधार पर उत्तर दे रहे थे । हमने तालाब में थोड़ा अंदर घुसकर कुछ फोटो खिचवाए । अब हम वापस अपनी कार की ओर चल दिए जिसे यशपाल ने खेत से निकालकर हमारे पास लाकर रास्ते पर ला खड़ा किया था । हम कार में बैठने वाले ही थे कि तब तक महादेवा का एक लड़का एक साइकिल पर बोरी में कुछ लाते दिखा । यशपाल ने अंदाजा लगा लिया कि इसमें ‘भसीड़े’ (कमलगट्टा) हैं । चूंकि भसीड़े हमारे पिता जी को बेहद पसंद हैं साथ ही प्रशांत जी को भी शहर में इतने तरोताजा नहीं मिल पायेंगे, इसलिए हमने उससे दो किलो भसीड़ें खरीदकर कार में रख लिए । लड़का समझ रहा था कि हम बाहरी हैं और उसके क्षेत्र को देखने आए हैं, इसलिए उसने बिना मोलभाव किए जो भी हमने उसे दिया रख लिया ।

‘भुवनई ताल’ से वापस आने पर हम महादेवा गाँव के बाहर ही बने एक शिव मंदिर पर रुके । उस शिवमंदिर में जो शिवलिंग है वह ऊपर से थोड़ा कटा हुआ तथा मोटाई में सामान्य शिवलिंग से काफी बड़ा है । इसके अतिरिक्त वह शिवलिंग ज़मीन में बहुत नीचे तक गड़ा भी है । इस शिवमंदिर का धरातल आस-पास की ज़मीन से करीब दस-बारह फीट की ऊँचाई पर है । मैं प्रशांत जी को बताने लगा कि इसी प्रकार के शिवमंदिर व शिवलिंग यहाँ पन्द्रह-बीस किलोमीटर की रेंज में करीब आठ हैं । सभी का आकार-प्रकार एक ही प्रकार है । मैंने उन्हें आगे बताया कि एक बार मैंने अपने बाबा से यह प्रश्न किया था कि इस प्रकार के आठ शिवमंदिर व शिवलिंग क्या किसी विशेष संकेत दे रहे हैं तो बाबा ने अपने अनुभव और अंदाजे से हमें बताया कि ‘मेरी समझ में तो यह शिवलिंग हैं ही नहीं । वर्तमान में जिन्हें आप शिवलिंग अथवा शिवमंदिर कह रहे हैं वह राजा बेन की राज्य की सीमा के स्तंभ हैं, जो उसके राज्य की सीमाविस्तार की कहानी कहते हैं । इन स्तंभों को मध्य में रखकर बनाए गए यह मंदिर बहुत बाद हैं ।’ बाबा की इस बात को हम स्पष्ट महसूस कर रहे थे । शिवलिंग अथवा स्तंभ प्राचीन थे जबकि मंदिर आधुनिक थे । बाबा ने हमें जो बताया था, वह विचारणीय था । उनका कहना था कि सभी आठ के आठ शिवलिंग समान आकार-प्रकार व समान लंबाई के हैं । प्रशांत जी हमारी बातों को सुन रहे थे, समझ रहे थे और बीच-बीच में कई बातें नोट भी करते जा रहे थे ।

यहाँ से हम अपनी यात्रा के अगले पड़ाव की ओर रवाना हुए । अर्थात् अब हम माती के किले और वर्तमान माती मंदिर की सीमा में आ गए थे ।
सबसे पहले हम माती के उस किले में गए जो सबसे प्राचीन और राजा बेन का मुख्य किला कहा जाता है । कहा जाता है कि इसी किले से एक सुरंग शारदा नदी के नीचे से होती हुई नेपाल के राजघराने तक गई थी । जब पहली बार इस सुरंग के बारे में मैंने सुना था, विश्वास नहीं हुआ था, लेकिन आगे चलकर दो ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने सुरंग और माती के किले व राज्य की ऐतिहसिकता पर मुहर लगा दी थी ।

पहली घटना उस समय की है जब मेरे घर पर ट्रेक्टर आया था और पहली बार घर से ट्रेक्टर लेकर चाचा घर और गाँव के तमाम लोगों को लेकर कार्तिक पूर्णिमा पर शारदा पर लगने वाले मेले को दिखने गए थे । हम उस यात्रा में उनके साथ थे । हमारा ट्रेक्टर जब जंगल को पार करके शारदा नदी के रास्ते पर आया तो हमने देखा कि हमारा ट्रेक्टर एक गहरी खाईं में चल रहा था । रास्ते के दोनों ओर रेत के तकरीबन पाँच-पाँच सौ फिट ऊँचे टीले थे । हम उस समय महज उस सुरंगनुमा रास्ते को विस्मित होकर निहार रहे थे, लेकिन आगे चलकर उस रास्ते को सुरंग के रूप में महसूस कर पाया था ।

दूसरी घटना बापू (पिता जी) द्वारा सुनी हुई घटना थी । रिस्ते में एक दादी थीं । साध्वी थीं । मरने से पहले उन्होंने घर के सदस्यों से प्रण लिया था कि मरने पर उनका अंतिम संस्कार जलप्रवाह के रूप में किया जाए और उनको शारदा नदी में प्रवाहित कर दिया जाए । उनकी मृत्यु होने पर घर-परिवार के लोग उन्हें लेकर शारदा पर पहुँचे तब शारदा अपने पूरे उफान पर थीं । ऐसी स्थिति में सर्वसम्मति से उन दादी के शरीर को बड़े-बड़े टीले से नीचे फेकने का प्रस्ताव पास हुआ और बापू, चाचा के साथ दादी के पुत्र व हमारे एक मामा ने दादी को एक बिस्तर पर लिटाकर चार कोनों से पकड़कर उस चार-पाँच सौ फुट की ऊँचाई से नीचे शारदा के प्रवाह में फेक दिया । फेकने के बाद जैसे ही वह लोग वहाँ से पीछे हटे, वैसे ही वह उतना ऊँचा रेत का टीला भरभराकर खस गया । सभी लोग दूर से देखते रहे कि रेत के टीले से तरह-तरह गगरियाँ, बड़े-बड़े दरवाजे-चौखटें इत्यादि तमाम सारी चीजें शारदा में प्रवाहित हो गई थीं । रेत के उक्त टीले का गिरना करीब आधे-पौन घण्टे तक जारी रहा, जिसमें से तरह-तरह की बहुमूल्य राजकीय वस्तुएं गिरती चली गईं ।

वर्तमान में रेत के यह टीले उतने ऊँचे तो नहीं रहे, लेकिन अपने ऊँचे होने की कहानी आज भी कह रहे हैं । हमने जब प्रशांत जी को यह सब बताया तो वह बड़े प्रसन्न हुए । आस-पास के लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि अभी काफी पहले तक बरसात होने के बाद अक्सर लोगों को खेतों में टहलते हुए तमाम बहुमूल्य रत्न इत्यादि वस्तुएं मिलती रही हैं ।

सुरंग की हमारी संभावना पर वर्तमान खण्डहर के कई प्रतीकों ने मुहर लगा दी थी । हम यह भी विश्वास कर चले थे हो न हो कि इस बात में भी सच्चाई हो सकती है कि ‘राजा बेन की रानी नेपाल के राजघराने से ही ताल्लुक रखती हों और वह सुरंग के माध्यम से शारदा तक जाया करती हों ।’ शारदा को पार करके थोड़ी ही दूर चलने पर नेपाल की सीमा आरम्भ हो जाती है ।

हमने बचपन में माती के खण्डहर किले में स्थित इस सुरंग का मुहाना कई बार देखा था । दो-चार सीढ़ियों पर नीचे भी उतरे थे, लेकिन भय ने अंदर कभी नहीं जाने दिया । वर्तमान में इस टूटे हुए किले के अंदर ही एक छोटी सी मठिया बनवाकर देवी की एक मूर्ति स्थापित कर दी गई थी, जो प्रशांत जी के अनुसार हम जिस समय की बात कर रहे थे, उससे काफी आगे की थी । बड़े बुजुर्गों व उक्त मठिया के नौजवान पुजारी आधुनिक पुजारी के अनुसार यह मूर्ति राजा बेन की सबसे छोटी बेटी ‘गूंगा’ की थी जिन्हें सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं ने देवी का दर्जा दिया था ।

हमने अंदर जाकर उस पुराने किले में कई बातें नोटिस कीं । आज का हमारा यह अनुभव बिलकुल नवीन अनुभव था । इससे पहले हम कई बार इस स्थान पर आए लेकिन कभी भी इसको आज की नज़र से नहीं देखा था । यहाँ की दीवारों में मध्यम आकार की ईंटें लगी हुई थीं । यह दीवारें करीब तीन फिट चौंड़ी हैं । दरवाजों में जो चौखटें लगी हैं उन पर खूब बारीकी से लकड़ी की ही पच्चीकारी की गई है । दरवाजे करीब-करीब गल चुके हैं, लेकिन अपने वजूद की, अपने इतिहास की कहानी बखूबी बयां कर रहे हैं । प्रशांत जी ने बताया कि इस प्रकार की स्थापत्य कला ‘कुषाण कालीन’ है । मैं भी प्रशांत जी की बातों से कुछ-कुछ सहमत हो रहा था, क्योंकि हमने स्थापत्य का इतिहास पढ़ते हुए कई बार इस तरह की पच्चीकारी देखी थी । प्रशांत जी को स्थापत्य में काफी जिज्ञासा थी । हम बस आश्चर्य कर रहे थे कि इतने वर्षों से (करीब दो से ढाई हजार वर्ष) यह सब यूँ ही अपनी जिजीविषा के कारण जीवित है और एक पुरानी लेकिन बृहद राज्य और स्थापत्य की कहानी कह रहा है ।

लकड़ी के इतने पुराने चौखट-दरवाजे देखकर गाँव-गिराँव में ‘कोरों’ की लकड़ी के बारे में कही जाने वाली एक कहावत अनायास ही स्मरण हो आई ‘कोरों की लकड़ी जितनी पड़े, उतनी खड़े और उतनी ही दबे ।’ अर्थात् कोरों की लकड़ी का भविष्य जितना सजीव पेड़ खड़े होने पर होता है, उतना ही पेड़ के गिरने पर पड़े हुए होता है और उतना ही वस्तु बनने के बाद होता है ।

हमने पहले किसी से सुना था कि माती के ऊपर किसी ने कोई किताब लिखी है । हमारी जिज्ञासा उस किताब को देखने की होने लगी । यशपाल ने नौजवान पुजारी से हमारी बात रखी तो उसने अपने पास से वह किताब हमें उपलब्ध कराई । किताब हाथ में आने के बाद हमारी जिज्ञासा निराशा में परिवर्तित हो गई । किताब किसी ने धार्मिक प्रयोजन से लिखी थी । कहा जाता है कि देवी ने स्वयं उक्त लेखक के स्वप्न में आकर वह किताब लिखने की प्रेरणा दी थी । इस किताब में इतिहास के नाम पर महज वही था, जो हमने पहले से ही सुन रखा था । इसके अतिरिक्त किताब में भजन और आरतियों का संग्रह ही था । इस कारण वह किताब हमारे लिए अनुपयोगी सिद्ध हो रही थी ।

हम जब से मंदिर में पहुँचे थे, पुजारी बड़ी-बड़ी बातें किए जा रहा था । हमें एक बार को लगने लगा कि हो सकता है इसे कुछ अधिक जानकारी हो । हमने उससे माती के बारे में कुछ पूछने का प्रयास किया तो वह चारो खाने चित हो गया और अंतत: कहने लगा कि ‘हम तो बस यह चाहते हैं कि कोई यहाँ खुदाई करने आए और हमें भी कुछ आर्थिक लाभ हो ।’ हमने पुजारी की औकात समझ आगे बढ़ने का मन बनाया और किले से बाहर आ गए । बाहर आने पर मोनू जो काफी से समय से चुप था, एक प्रश्न पूछ बैठा ‘अंकल अंदर मंदिर में जो देवी थी वह क्या यहाँ के राजा की बेटी थीं ?’ करीब दो घण्टे से हमारी बातें सुन-सुनकर उसके मस्तिष्क ने काफी जानकारी अपने पास एकत्र कर ली थी, यह प्रश्न उसी जानकारी का एक अहम हिस्सा था । हम मोनू को बताने लगे कि हमारी दादी हमें इस संबंध में एक कथा सुनाया करती थीं कि जब राजा बेन की कीर्ति चारो दिशाओं में फैलने लगी तो उसे अपनी ताकत पर घमण्ड हो गया । उसके साथ लड़कियां थीं । दूसरे राजा से लड़ाई होने के बाद जब बेन के पास कुछ नहीं बचा तो उसको अपनी आजीविका तक चलाना मुश्किल हो गया । तब किसी ने उससे कहा कि अपनी लड़कियों को जंगल में छोड़ आओ तब तुम्हारा राज्य वापिस आ जाएगा । इस अंधविश्वास से भरा हुआ राजा बेन अपनी लड़कियों को लेकर जंगल की ओर चल दिया । जंगल में जाकर किसी बहाने से राजा ने अपनी सातों लड़कियों को एक स्थान, जो काफी घना था, वहाँ छोड़ दिया और स्वयं वापस अपने घर की ओर चल दिया । इधर जब काफी देर तक लड़कियों को अपने पिता का साथ नहीं मिला तो वह समझ गईं कि पिता ने उनका त्याग कर दिया है । इस बात से आहत होकर लड़कियों ने अपने पिता के राज्य को छोड़ने का मन बना लिया और अपने देवीय स्वरूप में आकर अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर देश के अन्य-अन्य स्थानों की ओर चली गईं । कहा जाता है कि बेन की लड़कियां ‘भुवनई ताल’ से होकर गई थीं, इसलिए उक्त ताल में उनके जाने के रास्ते बन गए जो आज भी संक्षेप में देखे जा सकते हैं । यहीं पर लोग कहते हैं कि सातों लड़कियों में सबसे छोटी वाली लड़की गूंगी, अर्थात् बोलने में सक्षम नहीं थी, वह यहीं रह गई और वापस घर लौट आई । आगे चलकर राजा बेन की यह छोटी पुत्री ‘देवी गूँगा’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं । इसका वाहन सियार बना । इसकी प्रामाणिकता के तौर पर स्थानीय लोग कहते हैं कि आज भी रात में सियारों को माती मंदिर के चारो ओर जागते और चिल्लाते हुए सुना जा सकता है ।
हमने क्षेत्र से प्राप्त जानकारी मोनू को कह सुनाई लेकिन तभी उसका एक और प्रश्न हमारी ओर कूद पड़ा । वह बोला तो जंगल में राजा बेन का क्या हुआ ? हम यशपाल की ओर देखने लगे तो यशपाल ने मोनू की जिज्ञासा शांत की । यशपाल ने बताया कि ‘अपनी लड़कियों को जंगल में छोड़ने के बाद जब राजा वापस अपने घर जाने लगा तो जंगल के खूंखार जानवरों ने उसको अपना भोजन बना लिया । इस प्रकार से अपनी लड़कियों को जंगल में छोड़ने वाले राजा बेन का अंत हो गया ।’

क्षेत्र में फैली राजा बेन की कहानी कहते-कहाते हम अपनी कार के पास आ चुके थे । हम कार में बैठ ही रहे थे कि मोनू का अगला प्रश्न अपने पापा से हुआ कि ‘आपने टाइगर तो दिखाया ही नहीं !’ प्रशांत जी ने उसको समझाने का प्रयास किया कि यहाँ टाइगर थोड़े ना दिखेगा, वह तो जंगल में होगा । ‘तो जंगल चलिए न पापा’ मोनू जिद करने लगा । हमें भी लगने लगा कि बच्चे को जंगल घुमाना चाहिए और हम जंगल की ओर चल दिए, जो यहाँ से बहुत दूर नहीं था । महज चार-पाँच किलोमीटर से आरम्भ हो जाता था ।

हम अभी मुश्किल से दस-पन्द्रर मीटर ही चल पाए होंगे कि अचानक से प्रशांत जी बोले ‘रोको . . . रोको . . . गाड़ी रोको . . . ’ हमने तेजी से ब्रेक लगाकर उनकी ओर देखा तो उनकी आंखे ऐसे चमक रही थी जैसे उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण देख लिया हो । हम कार से नीचे आए तो देखा मंदिर के बाहर एक किनारे को एक घड़ा रखा हुआ है बड़ा सा । मिट्टी से बने इस घड़े की ऊंचाई करीब चार-पाँच फीट तो रही ही होगी । हमे आश्चर्य हो रहा था कि हम इतनी बार यहाँ आए लेकिन हमने कभी इस घड़े को नहीं देखा । प्रशांत जी बताने लगे कि यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । हमने पढ़ा और फोटे देखे हैं इस प्रकार के घड़ों के । यह कुषाण कालीन हैं, इतिहास में इन्हें ‘मृदभांड’ कहा जाता है । इस घड़े की आयु लगभग तीन हजार वर्ष है । हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था कि हम तीन हजार वर्ष पुराने ‘मृदभांड’ के पास खड़े थे और यह हमारे क्षेत्र की वस्तु थी । अगले ही पल हम अफसोस करने लगे कि इतनी महत्त्वपूर्ण वस्तु की कदर नहीं है । इसे तो किसी संग्रहालय में होना चाहिए । हमने चारो ओर से घड़े के कई फोटो अपने मोबाइलों में कैद किए । घड़ा कितना मजबूत होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती थी । हमने बारी-बारी से उसे हिलाने का प्रयास किया, लेकिन हमारा प्रयास व्यर्थ रहा । चारो ओर से हल्का सा घिस चुका और बच्चों द्वारा बार-बार चोट करने से एक स्थान से फूट चुका यह घड़ा अपने स्वर्णिम इतिहास की गवाही सीना ताने हुए दे रहा था । साथ ही वर्तमान विज्ञान पुरुषों का मज़ाक भी बना रहा था । वर्तमान व्यवस्था की धज्जियां भी उड़ा रहा था । खैर ! हम कुछ प्रशन्नता और कुछ अफसोस के साथ टाइगर की तलाश में जंगल की ओर बढ़ गए ।
माती के इतिहास, उसके विश्वास व अंधविश्वास आदि तमाम पहलुओं पर बात करते-करते हमने माती से कुछ ही देर बाद जंगल में प्रवेश किया । मोनू की प्रशन्नता का कोई ठिकाना नहीं था । उसको तो ऐसा लग रहा थ जैसे कि पंख लग गए हों और वह झड़ रहे पत्तों के साथ जंगल में स्वच्छंद उड़ रहा हो ।
जंगल में करीब चार किलोमीटर चलने के बाद हमने एक स्थान पर कार रोक दी और नीचे उतरकर जंगल के साथ अठखेलियां करने लगे । प्रशांत जी मोनू को जंगल की काफी जानकरी दे रहे थे । सबसे पहले हम एक पेड़ की डाल, जो दूसरे पेड़ तक गई थी और काफी नीची भी थी, पर जा बैठे । फिर उस पर खड़े हुए, झूला झूलने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे कि बचपन वापस आ गया हो । हम चीख भी रहे थे और जंगल की प्रतिध्वनि के बारे में मोनू को बता भी रहे थे । मोनू भी बहुत मस्ती कर रहा था हमारे साथ । हमने तरह-तरह के पोज बनाकर खूब फोटोग्राफी की और वहाँ से आगे बढ़ चले । अभी हम कुछ ही दूर चले थे कि मोनू चीखा ‘पापा देखो वो क्या है ?’ उसका इशारा दीमकों की बांबी की ओर था । हमने कार रोक दी और उतरकर दीमकों की तमाम सारी बांबियों के पास आ गए । इस स्थान पर कई बांबियां थीं और खूब ऊँची-ऊँची भी । मोनू का प्रश्न निकला ‘पापा इन्हें किसने बनाया है ?’ प्रशांत जी बताने लगे कि ‘इन्हें दीमकों ने ही बनाया है । जिस प्रकार से हम अपने लिए घर बनाते हैं उसी प्रकार जीव-जन्तु भी अपने लिए घर बनाते हैं । सब दीमकों ने मिलकर इन्हें बनाया है ।’ मोनू का दूसरा प्रश्न ‘क्या दीमक इसके बारे में पढ़ते हैं ?’ ‘हाँ क्यों नहीं . . . दीमकों का भी अपना एक संसार होता है । उनमें भी इंजीनियर आदि होते हैं । उन्हीं ने इनको बनाया है ।’ तीसरा प्रश्न ‘ये दीमक इतनी ऊंचाई तक मिट्टी कैसे ले जाते होंगे, इनके पास तो कोई क्रेन भी नहीं होगी !’ प्रशांत जी बताने लगे ‘जैसे आपने इतिहास में बड़े-बड़े किलों के बारे में पढ़ा है ना । किले बनाने के लिए मनुष्य ही बड़े-बड़े पत्थरों को ऊपर तक ले जाते थे, ठीक उसी प्रकार इन दीमकों में भी बड़े-बड़े दीमक मिट्टी को ऊपर तक ले जाते होंगे ।’ हम लोगों को मोनू के तरह-तरह के प्रश्न सुन-सुन कर आनंद आ रहा था ।

हम लोगों को जंगल में मस्ती करते हुए और दीमक की बांबियों को निहारते हुए और मोनू को हमारे द्वारा दी जा रही जानकारी को एक पथिक दूर से देख-सुन रहा था । वह जंगल के पास के ही किसी गाँव का रहने वाला था । हम लोगों को जंगल में देख कुछ पल को वह रुक गया था । पास आ गया और बताने लगा ‘साहब दीमक की यह बांबियां दीमक सारी मिट्टी जमीन से लेजाकर नहीं बनाते हैं ।’ पथिक के इस तरह कहने पर हम उसकी ओर उत्सुकता और प्रश्नभरी निगाहों से निहारने लगे । वह हमें बताने लगा कि ‘साहब जब जंगल में कोई पेड़ पुराना होकर गिर जाता है अथवा सूख जाता है तो बरसात के महीने में सीलन आने पर उसमें दीमक लग जाती है । दीमक धीरे-धीरे उस पेड़ को मिट्टी में परिवर्तित कर देता है ।’ पथिक द्वारा दी गई इस जानकारी में एक तथ्य था । हमने कई बार किताबों में कई बार दीमक लगने पर किताबों को मिट्टी में परिवर्तित होते देखा था । हम सब बड़ी जिज्ञासा से पथिक की बात सुन रहे थे कि एकायक मोनू ने पथिक से पूछा ‘अंकल दीमक पेड़ की लकड़ी को मिट्टी में कैसे बदल देता है ?’ हम सब मोनू के इस प्रश्न पर एक दूसरे का मुँह देखने लगे, लेकिन निरक्षर पथिक ने बहुत ही सहजता से मोनू को उत्तर दिया ‘लल्ला जिस प्रकार से हम विभिन्न प्रकार की वस्तुए खाते हैं, लेकिन बिस्टा एक विशेष प्रकार की करते हैं ठीक उसी प्रकार दीमक भी जिस भी वस्तु को खाता है उसको मिट्टी के रूप में त्यागता है ।’ हम लोग पथिक की इस जानकारी और मोनू को समझाने के तरीके से बड़े प्रसन्न हुए ।

कुछ देर तक और दीमकों की बांबियों की संरचना तथा मोनू के सवालों से खेलने के बाद पथिक से राम-जुहार कर हमारी यात्रा आगे के लिए तत्पर हुई ।
यशपाल यहाँ अक्सर आते रहते थे । उनको इस बात का पता रहता था कि जंगल में टाइगर कहाँ मिलते हैं । उन्होंने ही बताया कि किशनपुर रेंज में एक तालाब है, जहाँ दोपहर में टाइगर पानी पीने आते हैं और सामान्यत: भी उस ठंडे स्थान पर लेटे रहते हैं । हम उस तालाब की ओर बढ़ चले, लेकिन वह तालाब हमारी वर्तमान लोकेशन से काफी दूर था । वहाँ तक जाकर वापस आने में करीब चार-पाँच घण्टा लग सकता था और हमारे पास इतना समय नहीं था । घड़ी दो बजा रही थी । हमें वापस शाहजहाँपुर से होते हुए बरेली आना था, इसलिए मन में वहाँ जाने का विचार थोड़ा कष्टप्रद लगने लगा, लेकिन मोनू की टाइगर देखने की जिज्ञासा को भी शांत करना हम सभी चाहते थे । यशपाल ने एक उक्ति निकाली । बोले ‘यहाँ दो-तीन किलोमीटर पर एक और तालाब है, जहाँ टाइगर होने की संभावना रहती है ।’ हम उस ओर चल दिए । वैसे इस समय हम एकदम घने जंगल में थे और कार से बाहर निकलने में हम सब संकोच कर रहे थे । यशपाल के अनुसार कहीं से भी कोई जानवर आ सकता था । हम एक लम्बे रास्ते पर चले जा रहे थे कि अचानक हमने देखा कि हिरनों एवं बारहसिंघों का एक बड़ा झुंड वहाँ बैठा हुआ है । हमने चारो ओर देखकर कार रोक दी और मोनू को दिखाने लगे । मोनू की प्रशन्नता का कोई ओर-छोर नहीं था । वह पहली बार हिरनों और बारहसिंघों को अपने खुली आंखों से निहार रहा था । हमने हिरनों के पास जाने का प्रयास किया लेकिन हमारी आहट पाते ही वह सब के सब वहाँ से भाग निकले । हम तब तक वहाँ खड़े रहे जब तक सारे जानवर हमारी आंखों से ओझल नहीं हो गए । मोनू बहुत खुश था । उसकी असली खुशी थी कि वह कल अपने स्कूल के साथियों को बतायेगा कि उसने क्या-क्या देखा । वह प्रशांत जी को सब बता रहा था । हमे लग रहा था कि आज मोनू ने वह सीखा था, जो उसके विद्यालय कभी सिखा नहीं सकते थे ।

घड़ी तेजी से शाम के करीब पहुँच रही थी । हमें प्यास भी तेज लग रही थी और टाइगर मिलने की संभवना भी पूरी नहीं थी । हम जंगल में करीब पन्द्रह किलोमीटर अंदर आ गए थे । हमने, यशपाल ने और प्रशांत जी ने सर्वसम्मति से वापस चलने का मन बनाया और मोनू को किसी प्रकार समझाया कि अब गर्मियों की छुट्टियों पर आपको वापस यहाँ लायेंगे । किशनपुर रेंज से होते हुए दुधवा पार्क तक चलेंगे और वहाँ खूब सारे टाइगर दिखायेंगे । मोनू मान गया, क्योंकि अब वह भी थक चुका था, लेकिन उसने फिर कहा कि ‘वाइट टाइगर दिखायेंगे ना !’ हम सब हँसने लगे और मोनू को बताया कि ‘यहाँ वाइट टाइगर नहीं मिलते ।’ पर हमने देखा कि मोनू की आँखों में जो चमक थी, आज की यात्रा का जो अनुभव था, अगली बार आने की जो आतुरता थी और स्कूल के अपने साथियों को आज का अनुभव सुनाने की जो आतुरता थी उसमें ‘वाइट टाइगर’ अपने पूरे रौब के साथ सीना ताने खड़ा था ।

21.05.2017



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पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)