॥ जल, जंगल और ज़मीन को बचाने की जद्दोजहद : सुनील मानव ॥

॥ नदी ॥

आज हमारे सामने सबसे बड़ा संकट जल, जंगल और ज़मीन को बचाने का है । मज़े की बात यह कि बावजूद इसके भी हमारे समाज का बड़ा वर्ग इसके प्रति चिंतित नहीं है । उच्च्य मध्य वर्ग इसको सबसे अधिक नुकशान पहुँचा रहा है, ऐसा कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है । जबकि निम्न वर्ग एवं निम्न मध्य वर्ग इसको लेकर अन्यों की अपेक्षा कहीं अधिक चिंतित हो रहा है, इसको भी स्वीकारना पड़ेगा ।
मेरी ननिहाल शाहजहाँपुर से पुवायाँ रोड पर सिंधौली के पास एक गाँव ‘कठपुरा’ में है । बड़ा मज़ा आता था जब लोग कहते थे कि मेरी ननिहाल नदिया के पार है । जी हैं यह सच है । मुझे अपनी ननिहाल जाने के लिए ‘खन्नौत नदी’ पुल न होने की बजह से घुसकर पार करनी होती थी । यह बड़ा रोमांचक अनुभव होता था मेरे लिए । बचपन में नाना के यहाँ जाने पर उनके साथ जानवरों को लेकर नदिया नहलाने जाना, आज भी मन को प्रफुल्लित कर जाता है । घण्टों नदी की धार में हमउम्र मित्रों के साथ खेलना आज भी याद है । आज यह नदी भी अपना वह स्वरूप खो चुकी है ।
मेरे गाँव के पास दो प्रसिद्ध मेले लगा करते थे । एक माती का मेला और एक शारदा का मेला । माती में मेला प्रत्येक अमावस्या अथवा पूर्णिमा को लगा करता था और शारदा नदी पर साल में एक बार यानि कि कार्तिक मास की पूर्णिमा पर, जिसे हमारे यहाँ ‘कतिकी का मेला’ कहा जाता था । बचपन में कई बार बैलगाड़ी आदि से शारदा पर लगने वाला मेला देखने गया । गाँव से पास ही था । यही कोई चार-पाँच किलो मीटर पर । अब शारदा कटान करके पन्द्रह-बीस किलो मीटर पर जा पहुँची है । जाना करीब-करीब बंद ही हो गया है । अंतिम बार तब गया था जब मेरे घर पर नया ट्रैक्टर आया था । यानि कि कोई पन्द्रह साल पहले । आज शारदा ने अपना वह स्वरूप खो दिया है । बावजूद इसके यह नदी आज जीवित है । इसको अधिक नुकसान जंगल के कटान ने पहुँचाया । खैर !
बचपन में दादी बहुत-सी कहानियाँ सुनाया करती थीं । इन कहानियों में एक कहानी गोमती नदी की भी हुआ करती थी । कहानी सुनाने के बाद दादी कहतीं कि गोमती तो हमारे पड़ोस से ही निकली हैं । हम सब आश्चर्य से भर जाते । कई बार हमने दादी से वहाँ ले चलने को कहा । एक बार वह मौका आन पड़ा जब हम पिता जी और दादी के साथ गोमती के उद्गम स्थल अर्थात् ‘फुलहर टांडे’ गए । जोगराजपुर से पूरनपुर तक ट्रेन से फिर किसी अन्य साधन से । याद नहीं पड़ रहा । बचपन में देखा हुआ वह रास्ता हल्का-हल्का याद है । दोनों ओर से पेड़ों से ढ़का हुआ । सुंदर । सुरम्य । मनोहर ।
वहाँ पहुँचा तो मेले में खो गया । बापू ने बताया ‘देखो यही है आदि गंगा गोमती का उद्गम स्थल ।’ मैंने कहा ‘ये . . .’ संभवत: कुछ मुँह भी बिचकाया होगा । याद नहीं पड़ रहा । मेरी समझ में नहीं आया होगा कि कही तो आदि गंगा जा रही हैं ! यहाँ से निकली बताई जा रही हैं ! विश्वास इसलिए नहीं हो रहा, क्योंकि वहाँ उद्गम के नाम पर केवल एक तालाब था । जिसके आगे कोई धार नहीं थी । वह बचकाना दौर था । गुजर गया । आज उसकी सच्चाई सामने है । दु:ख से लबरेज हो जाता हूँ ।
आगे चलकर आज जब उस आदिगंगा गोमती को स्थान-स्थान पर मृतप्राय-सी देखता हूँ तो कलेजा मुँह को आ जाता है । शाहजहाँपुर और खुटार के बीच से लेकर लखीमपुर परिक्षेत्र और इधर पूरनपुर से लेकर बरेली-पीलीभीत के दायरे में कई स्थानों पर मृतात्मा-सी ‘गोमती’ को देख रहा हूँ ।
अभी करीब दो महीने पहले बरेली से घर जाना हुआ मोटर साइकिल से । रास्ते में कई नदियाँ पड़ीं । सब की सब सूखती जा रही हैं । सब की सब खनन की शिकार हो रही हैं । माफियाओं के फावड़ों से आहत नदियों की आत्माएँ चीख रही हैं । मुझे साफ सुनई देती है उनकी यह चीत्कार ।
बचपन में गाँव में एक व्यक्ति को देखा था, जो गाहे-बगाहे अपनी माँ को मारने लगता था । मृत होती जा रही नदियों को देखकर वह चित्र जीवंत-सा हो उठता है । उस समय तो वह व्यक्ति ऐसा करने वाला अकेला था और उसके सामने डटकर खड़े होने वाले सैकड़ों, लेकिन आज इस ‘गोमती’ जिसे हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग ‘माँ’ संबोधित करता है, को बचाने के लिए उस क्रूरतम पुत्र के सामने खड़ा नहीं हो पा रहा है ।
बरेली में रह रहा हूँ आज कल । आस-पास कुछ नदियाँ हैं । नकटिया नदी, रामगंगा आदि। सब सूख रही हैं । रामगंगा कुछ बड़ी है तो प्रवाह बना हुआ है थोड़ा-थोड़ा । नकटिया तो किसी स्तर पर नदी लगती ही नहीं । बताया न जाए तो कोई भी उसको गंदे नाले के अलावा कुछ न समझेगा । बरेली में कई मंत्री और बड़े-बड़े नेता हैं । सब इन्हीं रास्तों से रोज गुजरते हैं । देखकर भी अनदेखा करके चले जाते हैं ।
वास्तव में हम जहाँ भी हैं उस पूरे परिक्षेत्र में जो नदियाँ हैं, सूख चुकी हैं, गंदे नाले में बदल चुकी हैं, मर चुकी हैं अथवा मरने की कगार पर हैं । बड़े-बड़े मंत्रालय बन रहे हैं इनके उद्धार के लिए । बड़ी-बड़ी रकमें डकारी जा रही हैं । मीडिया में बाहवाही भे खूब लूटी जा रही है । कसमें खाई जा रही हैं, लेकिन जो हो रहा है, वह सबकी निगाहों में है ।
कई बार तो इस स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि अब कुछ हो नहीं सकता । सबकी आत्माएँ भी इन नदियों के साथ मर चुकी हैं । ..... लेकिन पूरी तरह से ऐसा कहना भी ठीक न होगा । लोगों ने सरकारों से आस छोड़ दी है । अब वह खुद उठ खड़े हो रहे हैं । अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समूहों में ।
ऐसा ही एक स्थान है मोहम्मदी । लखीमपुर जिले का छोटा-सा रकबा । और जो समूह है वह है ‘गोमती बचाओ अभियान’ । यहाँ पर मेरी मुलाकात विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त फोटोग्राफर श्री सतपाल जी से हुई । आपने ‘गोमती’ को बचाने के लिए अपने स्तर पर एक बड़ी मुहिम छेड़ रखी है । आपके साथ श्री मंदीप जी, अजय बाजपेयी, बक्शीश सिंह, ओ.पी मौर्या, अनुभव, प्रशांत मिश्रा, इशरत खान परवेज जी, अनुभव गुप्ता जी, रईश अहमद,प्रियांशु त्रिपाठी आदि लोगों से मिलकर बना कारवाँ आज लगातार बढ़ रहा है ।
आप सब गाँव-गाँव जाते हैं । जल, जंगल और ज़मीन को बचाने को लेकर लोगों से बाते करते हैं । गोमती के घाटों की साफ-सफ़ाई करते हैं । तरह-तरह के सम्मेलन आयोजित करते हैं । कुल मिलाकर अपने स्तर पर जो भी हो सकता है, यह कारबां कर रहा है ।
आज एक दु:खद सूचना मिली कि इस क्षेत्र में रेत माफिया जबरन गोमती से जेसीबी मशीनों से रेत निकाल रहे हैं । प्रशासन की इन लोगों को पूरी सपोट है । ऐसे में ‘गोमती बचाओ अभियान’ ग्रुप का मनोबल कम ही होगा । पर ऐसा नहीं है । यह एक लहर है नदियों को बचाने की । लोग खड़े हो रहे हैं और खड़े होते जायेंगे । ज़मीनी स्तर पर बिना सरकार के सपोट से हम अपने हाथों से नदियों को बचाने की इबारत रचेंगे । मुझे याद आती है निर्मला पुतुल की कविता ‘आओ मिलकर बचाएं’ । अभी बहुत कुछ बचा है हमारे बचाने को । इसे हम ही बचा सकते हैं । हम खड़े होंगे और लड़ेंगे भी । तब तक जब तक है जान ।
‘आओ मिलकर बचाएँ / ठंडी होती दिनचर्या में / जीवन की गर्माहट / मन का हरापन / भोलपन दिल का / अक्खड़पन, जुझरूपन भी / भीतर की आग / धनुष की डोरी / तीर का नुकीलापन / कुल्हाड़ी की धार / जंगल की ताज़ा हवा / नदियों की निर्मलता / पहाड़ों का मौन / गीतों की धुन / मिट्टी का सोंधापन / फसलों की लहलहाहट / आओ मिलकर बचाएं ’ अभी भी बहुत कुछ बचा है बचाने के लिए हमारे पास । पर इसके लिए चाहिए एक सच्चा हृदय, हृदय की ताकत, मज़बूत आत्मा और मरने की हिम्मत । इसलिए लिए चाहिए कभी न खत्म होने वाली संवेदना और सहनशक्ति । कभी न हार मानने वाली एक मज़बूत आत्मा ।
प्रिय ‘गोमती बचाओ अभियान’ के साथियों .... हर मत मानना तब तक जब तक विजय न हो । हम साथ हैं । हर पल हर स्थिति में । आगे बढ़ो । हम चलेंगे तो और भी लोग साथ आयेंगे । रुकना नहीं, झुकना नहीं । बस चलते जाना है । हमेशा याद रखना कि – ‘वेदना में हम विचारों की गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे’ ।
04.06.2018

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