कथा एक कंस की

बहुत दिनों बाद एक शानदार रंगमंच प्रस्तुति देखने को मिली । स्थान था – ऋद्धिमा ऑडीटोरियम और प्रस्तुति थी – एकलव्य देहरादून की ‘कथा एक कंस की’ ।  

शाहजहांपुर से निकलने के बाद बंगाल में कुछ प्रस्तुतियां देखीं । उसके बाद दिल्ली एन एस डी में । बरेली में इतने दिनों से होने के बावजूद भी रंगमंच की यह मेरी पहली प्रस्तुति थी, जो मैंने आज देखी । देहरादून की एकलव्य संस्था, जिसके निर्देशक अखिलेश अलकाज़ी को ‘शाहजहांपुर रंग महोत्सव’ के बाद यहां पर देखना बेहद सुखद अनुभव रहा । उनकी अदाकारी ने नाटक के कथ्य के साथ जो तालमेल बनाया है, वह अद्भुत था । नाटक ने पूरे समय बांधे रखा । यह अच्छे कलाकारों की काबिलियत होती है । 

‘कथा एक कंस की’ नाटक मनोवैज्ञानिक ढंग का है । पौराणिक मिथकीय पात्रों को आधुनिक मनोविज्ञान की चासनी में साना गया है । एक विशेष प्रकार का मिथ बन चुके पात्र कंस को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बेहद सुंदरता के साथ व्याख्यायित किया गया है । कहानी कंस के बाल रूप की है जहां पर उसके पिता उसको मजबूत पुरुष बनाना चाहते हैं । कंस के पिता में पुरुषोचित अहंकार है और बालक कंस में स्त्रियोचित करुणा । पिता अपने पुत्र के अंदर स्वयं को भरना चाहता है । 

बालक कंस में बालकोचित भए है । वह जीवन की विभिन्नताओं से भयभीत होता है । वह कलाप्रिय है, लेकिन धीरे-धीरे उसका वातावरण है, जो उसके पिता के गर्व से आच्छादित है, कंस में स्वयं को आच्छादित करता है । पूरी कहानी इसी अंतर्द्वंद में चलती है । कंस अपने अंदर की करुणा को मिटाना चाहता है और उसको मिटाने के लिए वह दिन पर दिन क्रूर बनता चला जाता है । उसकी क्रूरता असल क्रूरता नहीं है । वह उसके अंदर के भए को छिपाने का माध्यम भर है । वह दिखावटी है । उसके अंदर की करुणा स्थाई है । पूरे नाटक में इस क्रूरता और करुणा की लड़ाई चलती रहती है । 

कंस के रूप में नाटक के निर्देशक अखिलेश अलकाज़ी का चरित्र अद्भुत सामंजस्य बिठाता है । अखिलेश को इतने सालों बाद स्टेज पर इस तरह के गंभीर चरित्र में देखना आश्चर्यचकित करने वाला था । रंगमंच में, नाटक में जो बिना मतलब के हाथ-पैर पटकना, आंख-मुँह फुलाना, यह सब चीजें उसके पास नही थीं । चरित्र के अनुरूप जो चाहिए था, अखिलेश ने प्रस्तुत किया । अपनी एक्टिंग में अखिलेश अत्यंत सहज नजर आए । एकदम ‘परफेक्ट कलाकार’ की माफिक । बहुत मेहनत लगती है इस सब में । इस प्रस्तुति में, इस चरित्र में अखिलेश ने जान डाल दी । लेखक की कल्पना से निर्मित, मिथकीय कहानियों हजारों सालों से बंधे चरित्र को आधुनिक वातावरण में एकदम जीवंत बना दिया । बस एक शब्द – अद्भुत । 

नाटक में कंस की जो प्रेमिका है – स्वाति (जागृति संपूर्ण), जिसको समाज बाद में पूतना के नाम से जानता है, उसकी भी यहाँ अपनी एक कहानी है । एक पौराणिक आख्यान के अनुसार पूतना अपने स्तन पान से कृष्ण को मारने की कोशिश करती है । इसी के लिए संभवत: उसको भेजा गया था । लेकिन नाटक उसकी एक दूसरी मनोदशा दिखाता है । उसके अंदर एक प्रेमिका को दिखाता है । वह पहले एक स्त्री है जो मातृत्व से भरी है । उसके अंदर कंस की प्रेमिका का भाव अधिक प्रबल है । वह कंस के करुणा और क्रूरता के युद्ध में बलि चढ़ जाती है । इस नाटक की पृष्ठभूमि के अनुसार वह एक अबोध बालक की हत्या नहीं कर पाती । नाटक दिखाता है कि वह जो क्रूरता का रूप लेकर आती है, जहर की पुड़िया खाकर अपना अंत कर लेती है । इस चरित्र के रूप में जागृति संपूर्ण ने अपनी एक अलग छाप छोड़ी है । 

ऐसे ही जो कंस के दरबार के लोग हैं । उनकी वेशभूषा इतनी बेहतरीन थी कि पूछिए मत । चरित्र भावों के एकदम अनुकूल । इन सबका अभिनय इतना जीवंत था कि नाटक को मार्मिक बना दिया । पूरे मंचन के दौरान ऐसा लग रहा था कि कोई सजीव आख्यान आंखों के सामने चल रहा हो । प्रतिहारी - गौरव गुप्ता, प्रतिहारी - हिमांशु कोटनाला, बाहुक - चिराग बहल, प्रद्योत - अवधेष नारायण, देवकी - शालिनी चौहान, वसुदेव - शैलेष कुशवाहा, बाल कंस - हेमलता पांडे, उग्रसेन - सुमित ध्रुवा गौढ़ और प्रलंब - जय सिंह रावत की मजबूत टीम ने नाटक को दर्शकों के मस्तिष्क में अंकित कर दिया । 

किसी भी नाटकीय प्रस्तुति में संगीत का विशेष महत्व होता है । यहां पर जो ‘लाइव संगीत’ दिया गया, वह इतना बेहतरीन था कि उसने नाटक के कथ्य, अभिनेताओं के चरित्र को दर्शकों के मनोमस्तिष्क से सीधे जोड़ दिया । ऐसे ही लाइट बहुत अच्छी थी । इसमें कोई दो राय नहीं । 

सबसे अंत में रिद्धिमा थिएटर के बारे में । बेहतरीन ऑडिटोरियम है बरेली में यह । उसके बारे में काफी सुना था, आज पहली बार देखना हुआ । मैंने बहुत दिनों बाद प्रस्तुति का यह तरीका देखा । कोई फालतू की बात नहीं । दर्शक आ गए हैं । टिकट लेकर आए हैं । थिएटर में बैठ रहे हैं । पर्दा बंद है और परदे की दोनों साइड पर, बाहर की ओर छोटे-छोटे मंच हैं । एक पर एक तबला वादक है और दूसरी ओर सारंगी वादक । क्या ही जुगलबंदी चल रही है । दर्शक दीर्घा एकदम मंत्रमुग्ध-सी । एकदम चित्र लिखित सी । यह होती है कला की ताकत । संगीत की ताकत । 

अल्टीमेट है प्रस्तुति का तरीका । कहाँ होता है छोटे शहरों में । यहाँ हो रहा है । और बेहतरीन ढंग से हो रहा है । स्कूल के बच्चे भी हैं, बड़े भी । सभी कला प्रेमी हैं । जुगलबंदी ने सबको एक साथ बांध लिया है । मैं पूरे ऑडीटोरियम में किसी को मोबाइल चलाते हुए नहीं देख रहा हूं । इक्का-दुक्का कुछ फोटो खींच रहे थे, लेकिन कहीं कोई डिस्टरबेंस नहीं । ना ही कोई विशेष आतिथ्य वाला भाव ही है किसी के प्रति । सभी विशेष हैं । सभी सामान्य हैं । बस सभी दर्शक हैं । गंभीर दर्शक हैं । यह बात ऋद्धिमा ऑडीटोरियम को अपना-सा बना गई । 

बरेली में यहां पहली बार पहुंचा और मुझे बहुत अच्छा लगा । अगर अंत में एक में कहूं कि हर स्तर पर, शैली के स्तर पर, विषय के स्तर पर, प्रस्तुति के स्तर पर, वस्त्र और रूप सज्जा के स्तर पर, मंच सज्जा के स्तर, पर संगीत के स्तर पर, हर एक स्तर पर एन एस डी जैसी बड़ी संस्थाओं से कमतर प्रस्तुति बिल्कुल नहीं थी । कई मायनों में उससे भी कहीं आगे । पूरे रिद्धिमा ऑडिटोरियम के संचालकों को, एकलव्य के डायरेक्टर अखिलेश अलकाज़ी और उनके सभी साथियों को मेरी तरफ से बहुत-बहुत बधाई । आशा करता हूं ऐसी ही बेहतरीन प्रस्तुतियां हम आगे भी देखेंगे ।


सुनील मानव, बरेली 
9307015177

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