आजादी मेरा ब्रांड : अनुराधा बेनीवाल

कुछ किताबें गहराई तक उतरती चली जाती हैं । पढ़े गए को आपकी अनुभूति में उतारती चली जाती हैं । अनुराधा की किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ ऐसे ही अहसास को मजबूत बनाने वाली किताब है । 

यह एक ‘ट्रैवलॉग’ है । बोलें तो यायावरी को सिनेमा की रील की तरह हमारे सामने बिंबित करने वाला यात्रा वृत्तान्त । भले ही हिन्दी आलोचना के पितामह नामवर जी ने यात्रावृत्तांत लिखने वालों के क्रम में लेखिका अनुराधा बेनीवाल को राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय और निर्मल वर्मा के बाद चौथा स्थान दिया हो लेकिन एक स्त्री लेखन के रूप में यह अपनी तरह का अनूठा ‘ट्रैवलॉग’ है । 

यहाँ स्त्री-विमर्श का बौद्धिक वाग्विलास या कहें कि दिखावटी जुगाली मात्र नहीं है । यहाँ स्त्री की आजादी का सहज, सरल और जीवंत सा जिया और भोगा हुआ जीवन है । 

लेखिका अकेली निकलती है और यूरोप के एक के बाद एक शहर को घूमती चली जाती है । यूं कहें कि पूरी दुनिया खुद ब खुद चली आती है उसके बेचैन पैरों के तले । उसकी निर्भीक और स्वच्छंद उड़ान को और अधिक गति देने के लिए । वह अपनी हिम्मत के बल पर दुनिया को अपने पैरों तले ले आती है । इस पूरी यात्रा के दौरान लेखिका देश-दुनिया की उन हजारों-लाखों लड़कियों के सपनों को पंख लगाती है जो केवल मन के अंदर के सपनों में ही जीवन गुजार देती हैं । 

दुनिया की रंगीन राहों पर बेतहाशा इठलाकर दौड़ते हुए लेखिका वहाँ की तस्वीर को हूबहू पाठक ई नज़रों के सामने बिंबित कर देती है । लेखन शैली इतनी सहज कि सामान्य से सामान्य पाठक भी अनायास ही लेखिका की इस यात्रा का सह-यात्री बन जाए । 

लेखिका यूरोप के जीवन को जितनी सहजता से उकेरती है, स्त्री-स्वतंत्रता को भी उतनी ही मजबूती से प्रस्तुत करती है । वह स्त्रियों के बंधन के रूप में रूढ़ हो चुके मानकों को तोड़कर उनके लिए स्वप्नों का एक नवीन दरवाजा खोलती है । 

... और अंत में लड़कियों के लिए बेहद खूबसूरत-सी चिट्ठी लिखती है । एकदम गाती-गुनगुनाती हुई कविता-सी । एक-एक शब्द जैसे सामुद्रिक लहरों से उत्पन्न संगीत सा सुंदर और मजबूत । अपने कहन को पाठकों की अनुभूति में उतारता हुआ सा । अपने साथ की, आगे की लड़कियों के अंदर फौलाद-सी दृढ़ता भारता हुआ सा । 

‘‘*सबके बाद, हमवतन लड़कियों के नाम*

मेरी ट्रिप यहीं ख़त्म होती है। यहाँ से पेरिस और फिर वहाँ से वापस लंदन, बस! लेकिन मेरी यात्रा अभी शुरू हुई है और तुम्हारी भी। तुम चलना। अपने गाँव में नहीं चल पा रही तो अपने शहर में चलना। अपने शहर में नहीं चल पा रही तो अपने देश में चलना । अपना देश भी मुश्किल करता है। चलना तो यह दुनिया भी तेरी ही हैं, अपनी दुनिया में चलना । लेकिन तुम चलना। तुम आज़ाद बेफ़िक्र, बेपरवाह, बेकाम, बेहया होकर चलना। तुम अपने दुपट्टे जला कर, अपनी ब्रा साइड से निकाल कर, खुले फ्रॉक पहनकर चलना। तुम चलना ज़रूर !

तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी, और मेरी बेटी भी। फिर हम सबकी बेटियाँ चलेंगी। और जब सब साथ चलेंगी तो सब आज़ाद, बेफ़िक्र और बेपरवाह ही चलेंगी। दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जाएगी। अगर नहीं होगी तो आदत डलवानी पड़ेगी, लेकिन डर कर घर में मत रह जाना। तुम्हारे अपने घर से कहीं ज़्यादा सुरक्षित यह पराई अनजानी दुनिया है। वह कहीं ज़्यादा तेरी अपनी है। बाहर निकलते ख़ुद पर यक़ीन करना। ख़ुद पर यकीन रखते हुए घूमना। तू ख़ुद अपना सहारा है। तुझे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। तुम अपने-आप के साथ घूमना। अपने ग़म, अपनी ख़ुशियाँ, अपनी तनहाई—सब साथ लिए लिए इस दुनिया के नायाब ख़जाने ढूँढ़ना। यह दुनिया तेरे लिए बनी है, इसे देखना ज़रूर। इसे जानना, इसे जीना। यह दुनिया अपनी मुट्ठी में लेकर घूमना, इस दुनिया में गुम होने के लिए घूमना, इस दुनिया में खोजने के लिए घूमना। इसमें कुछ पाने के लिए घूमना, कुछ खो देने के लिए घूमना। अपने तक पहुँचने और अपने-आप को पाने के लिए घूमना; तुम घूमना !’’

सुनील मानव 

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