यह विद्रोह कहाँ से आया ?


बात यही कोई बीस बरस पहले की है । गाँव में प्रधानी का चुनाव जोरों पर था । यह चुनाव अपना विशेष रुतबा लेकर आया था । इस बार पिछले दस सालों से लगातार रह चुके प्रधान महेश सिंह के बरख्श दो और कंडीडेट मैदान में थे । एक तो मेरे पिता जी और एक वर्तमान प्रधान महेश सिंह के सगे बहनोई रामपाल सिंह । तीनों प्रत्याशियों को यह विश्वास था कि जगतियापुर के अगला प्रधान वही होंगे । महेश सिंह चूँकि दस सालों से प्रधान थे और उनकी सबसे मज़बूत बात यह थी कि वह गाँव के लगभग सभी घरों में बैठकर चिलम और शराब पी लिया करते थे, इसलिए वह अपने आप को जनता के अधिक निकट मानते थे । रामपाल सिंह जगतियापुर ग्राम पंचायत से संबद्ध गाँव ककरौवा के रहने वाले पैसे वाले व्यक्ति थे और उन्हें लगता था कि वह अपने पैसे और राजनीतिक पकड़ के चलते चुनाव जीत लेंगे । तीसरे मेरे पिता जी, जिन्हें यह विश्वास था कि वह गाँव में सबसे अधिक इज्जतदार व्यक्ति हैं, उन्होंने कई बार गाँव के चुनाव का निर्धारण किया है तो वह तो चुनाव जीत ही जायेंगे । खैर ! सभी प्रत्यासी अपने-अपने विश्वास और तरकीबों से चुनाव का परिणाम अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे । यही सब होते-होते चुनाव का दिन भी आ गया और जिस घटना को मैं लिखने का प्रयास कररहा हूँ वह इसी चुनाव के दिन की है । पोलिंग बूथ पर चुनाव अधिकारियों की टीम आ चुकी थी, जिनके साथ दो पुलिस वालों की भी ड्यूटी थी । प्रत्यासियों ने पूरी टीम की खूब आव-भगत की । शराब लो, मीट लो, चिलम लो . . . । जो मन में आए वह हाजिर । चुनाव अधिकारियों और साथ में आए पुलिस वालों ने भी जब देखा कि फ्री कामाल है तो बे हिसाब खीचते चले गए । फलश्वरूप सुबह होते न होते दोनों पुलिस वालों का पेट गुड़गुड़ाने लगा । जगतियापुर के प्रधान का हरकारा बुद्धा दोनों को लेकर मेरे घर लाए दवाई दिलाने को । सबको पता था कि इस स्थिति में राजनैतिक खीचातानी होने के बावजूद भी सबको वहीं वैद्य जी के घर जाना होगा । पिता जी और बड़े चाचा बाहर बैठे चाय पी रहे थे । चुनाव की सरगर्मी थी ही । किस प्रकार अधिक से अधिक वोट अपने पक्ष में डलवाए जाएं, इस विषय की चर्चा गंभीर थी । इसी समय बुद्धा दोनों पुलिस वालों को लेकर हमारे घर आ गया । उस समय घर में बंटवारा नहीं हुआ था । सभी साथ ही रहते थे । प्रेम-व्यवहार भी खूब था । सगे थे तो सगे लगते भी थे । खैर ! पिता जी ने दोनों पुलिस वालों को दवा दी और विश्वास दिलाया कि जल्द ही ठीक हो जायंगे । साथ ही मुरव्वत बस अथवा कहूँ कि चुनाव के प्रत्यासी होने के नाते चाचा ने हमें आवाज देकर चाय लाने को कहा । चाय लाने के लिए कहते हुए पिता जी ने हमें एक विशेष प्रकार का इशारा किया तो मैंने दोनों पुलिस वालों की नेमप्लेट पर नज़र डाली । इससे मैं यह समझा कि ‘पुलिस वाले अछूत जाति से हैं और इनके लिए अलग कपों में चाय लानी है ।’ इस तरह की ब आतें उस समय हमें दिए जाने वाले संस्कारों का हिस्सा हुआ करती थीं । मैंने अंदर जाकर पूरी बात बताई तो थोड़ी ही देर में हमें एक प्लेट में चाय के चार कप, जो दिखने में लगभग एक से लग रहे थे, थमा दिए गए । मैं चाय की प्लेट लेकर बाहर की ओर चल दिया । अचानक न जाने मुझे क्या शरारत सूझी कि मैंने वहाँ जाकर अपने हाथ ही सी ‘अछूतों के लिए निर्धारित कप’ चाचा और पिता जी को पकड़ा दिए और घर के सामान्य कप जो चाचा और पिता जी के लिए आए थे उन दोनों ‘अछूत’ पुलिस वालों को थमा दिए और दूर खड़े होकर वस्तु-स्थिति पर गौर करने लगा । चूँकि दोनों पुलिस वालों को इस बात का कोई संज्ञान नहीं था कि क्या हुआ है लेकिन पिता जी और चाचा जी का चेहरा देखने वाला था । उस वक्त वह न तो हम पर गुस्सा कर सकते थे और न ही संग-साथ में चुनाव के बोझ के कारण अपने हाथ में पकड़ी हुई चाय को छोड़ ही सकते थे । मैं दूर खड़ा उनको देखता रहा । उन्होंने चाय तो पी ली लेकिन जैसे आज उनका ब्राहमणत्त्व चूर-चूर सा हो रहा था । उनके संस्कार पिघल रहे थे । . . . और मैं ब्राह्मण समाज में अछूत-सा अपने कृत्य पर मन ही मन जश्न मना रहा था । मतदान का समय हो रहा था सो दोनों पुलिस वाले बुद्धा के साथ जल्द ही चले गए, लेकिन मेरे ऊपर उस कृत्य का गुस्सा भयंकर डाँट के रूप में उतरा । पर पता नहीं क्यों उस बारग-पन्द्रह वर्ष की उम्र में भी मैं अपनी इस जीत पर गर्व से उठा जा रहा था ।

सुनील मानव 26.01.2019 मानस स्थली

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