कोई है खरीददार ! 'यह गाँव बिकाऊ है'

यह गाँव बिकाऊ है
लेखक : एम.एस.चन्द्रा
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : डायमंड बुक्स, नई दिल्ली
संस्करण : 2019

उपन्यास की संरचना और विषय-वस्तु पर प्रकाश डालते हुए राल्फ फाक्स ने लिखा है कि ‘उपन्यास का विषय है व्यक्ति, वह समाज के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध व्यक्ति संघर्ष का महाकाव्य है और यह केवल उसी समाज में विकसित हो सकता है, जिसमें व्यक्ति और समाज के बीच सन्तुलन नष्ट हो चुका हो और मानव का अपने सहजीवी साथियों अथवा प्रकृति से युद्ध ठना हो ।’

राल्फ फाक्स का उक्त कथन एम.एस.चन्द्रा के उपन्यास ‘यह गाँव बिकाऊ है’ पर बखूबी लागू होता है । अपनी अतिशय वैचारिक पृष्ठभूमि पर रचा गया यह उपन्यास समय के साथ कुछ इस अंदाज में संवाद करता है कि एक बारगी दिमाग को झकझोर के रख देता है ।

इस उपन्यास ने व्यक्ति के संघर्ष को स्वर प्रदान किया है, जो दो स्तर पर इस उपन्यास में दिखाई देता है - बाह्य और आंतरिक । अघोघ इन दोनों स्तरों पर संघर्ष करता है । अघोघ पूँजीवादी सभ्यता के विकास से उत्पन्न चरित्र है जो पूँजीवाद द्वारा उत्पन्न सामंती समाज के भावुकतापूर्ण संबंधों को ध्वस्त करके नए मेहनतकश समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है । इस उपन्यास का जन्म इसी संघर्ष में हुआ है । पूँजीवादी जीवन-सत्यों के बहुमुखी और बहुफलकीय यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए ही इसकी उत्पत्ति हुई है। अपने स्वरूप में कथात्मक होते हुए भी यह कहानी मात्र नहीं है । इस उपन्यास की कथा या कहानी तो एक माध्यम भर है, मूल वस्तु है - वर्तमान जीवन का जटिल यथार्थ । जीवन - मूल्यों का संक्रमण, नए संबंधों की निर्मिति, उनके बीच उठते प्रश्नों को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने की आकुलता, नवीन भौतिक सत्यों के बीच बनती हुए मानव चरित्र की नई दिशाएं आदि धाराएँ इस उपन्यास का विषय बनती हैं ।

सामंती समाज में दो ही वर्ग होते हैं – धनी और निर्धन अथवा उच्च और निम्न। मगर पूँजीवाद के आगमन ने एक नया वर्ग पैदा किया – मध्यवर्ग । इस वर्ग की अपनी आशाएं-आकांक्षाएं थीं, अपने विश्वास-अविश्वास, अपने सत्य और अपने झूठ थे, जिसे व्यक्त करने के लिए परम्परागत विधाएं छोटी पड़ रही थीं । मध्यवर्गीय जीवन-यथार्थ में जो नए स्वर, नए आयाम और भौतिकवादी चिंतन, मूल्य और प्रश्न उभरे उन्हें व्यक्त करने के लिए परंपरा से चली आ रही कलाएं पूर्ण-रूपेण समर्थ नहीं थीं । इस मध्यवर्ग का एक नवीन स्वरूप भी इस उपन्यास के चिन्तन का आधार बनता है ।

वास्तव में यह उपन्यास अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि में किसान और मज़दूर के संघर्ष और नवीन चेतना के उदय की कहानी प्रस्तुत करता है ।

उक्त के अतिरिक्त एक और दृष्टि है, जिससे इस उपन्यास का आकलन किया जाना चाहिए । वह है इस उपन्यास का शैल्पिक विन्यास । यहाँ पर आकर कुछ ऐसा भी दिखाई देता है जो एक कथा को पढ़ने में अखरता-सा है । इस ‘अखरता-सा है’ पर भी बिना दृष्टि डाले इस कृति का मूल्यांकन मेरी नजरों में अपूर्ण ही होगा । तो एक दृष्टि इधर भी । 

भारतीय गाँवों को सदा से किसी न किसी चश्में के माध्यम से ही देखा जाता रहा है । प्रेमचन्द, रेणु आदि पहले के कुछ लेखकों को छोड़ दें तो वर्तमान में कम ही ऐसी ‘गाँव कथाएँ’ देखने को मिलती हैं, जहाँ गाँव अपने वास्तविक रूप में आया हो । लेखकों ने गाँव का चित्रण न कर उसको किसी न किसी फ्रेम में ही बाँध दिया है ।  अतिशय बौद्धिकता के मायाजाल में फँसा यह उपन्यास वर्तमान में गाँवों को काफी हद तक चित्रित तो करता है लेकिन उसकी शैली कथापन से इतर आलेखगत-सी होने लगती है ।

प्रस्तुत उपन्यास के मुख्य चरित्र गाँव आते हैं, जिनमें भी लेखक का प्रतिरूप-सा लगने वाला चरित्र अघोघ ही प्रमुख रूप से कथा का पल्लवन करता है । गाँव में आने के बाद उसकी जिज्ञासाएँ और प्रश्न बौद्धिक स्तर पर तमाम ग्रामीण समस्याओं और अंधविश्वासों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं पर शैली की बौद्धिकता उसे सहजता से इतर कुछ नाटकीय अधिक बना देती है ।

उपन्यास में मज़दूरों और किसानों के हितों की बात की गई है । उनके लिए संघर्ष स्पष्ट दिखाई देता है, लेकिन इस सब में चित्रात्मकता छूटती-सी नज़र आती है ।
लेखक को उसके विचारों से जितना मैं जान सका हूँ, वहाँ चित्रण कम और आलोचना अधिक है और उपन्यास में लेखक का यह अस्वभाव बखूबी दिखाई पड़ रहा है । पूरे उपन्यास में विचार और बौद्धिकता ठूँसी हुई सी जान पड़ती है जिसके कारण उपन्यास का प्रवाह बाधित हुआ है । संभवत: इसी कारण उपन्यास पढ़ते हुए लगने लगता है कि ‘पाठक कथा से इतर कोई फीचर आदि पढ़ रहा हो ।’

उपन्यास के प्रमुख पात्र अघोघ के प्रश्न शहर, मीडिया और सोशल मीडिया की बहसें अधिक जान पड़ती हैं जिससे ‘कथा कृति’ की सहजता कम हुई है, ऐसा मुझे लगा है ।

किसी कथा में चित्रात्मकता उसका प्रमुख गुण होता है । वहाँ समस्या अथवा बौद्धिकता भी उसी चित्रण का ही एक हिस्सा होना चाहिए । आज भी गाँवों में संवेदनात्मक जुड़ाव है । वहाँ मानवीय सहजता आज भी अधिक है, लेकिन उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगता है जैसे कोई राजनैतिक व्यक्ति ‘गाँव’ पर राजनैतिक भाषण दे रहा हो ।’

कुल मिलाकर इस उपान्यास का गाँव एक ऐसा फिल्मी गाँव है, जिसमें विचारों की चासनी में ‘गाँव’ की छौंक लगाई गई हो और कथानायक अघोघ कई ‘एंगिल’ से फिल्मी नायक-सा लगता है ।

पर हाँ ! इसके बावजूद भी इस उपन्यास को देखने की अपनी एक अलग दृष्टि है । वह है राजनैतिक पृष्ठभूमि आधारित दृष्टि । किसानों, मज़दूरों के शोषण से लेकर ग्रामीण अंधविश्वास और मज़दूर संगठन के प्रति लेखक का समारात्मक एवं संघर्षात्मक स्वरूप में ढला विषय-विन्यास उपन्यास को वैचारिक स्तर पर बड़ी ही गहराई से विषय की गंभीरता को हमारे समक्ष उकेर देता है । इस दृष्टि से यह एक बेहतरीन उपन्यास है जिसे पढ़ा ही जाना चाहिए ।   

सुनील मानव, 17.01.2019

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