मलिखान मास्टर


मलिखान सिंह मास्टर साब बोलें तो मेरे पहले अकादमिक गुरू । साथ ही गाँव-गिराँव के रिश्ते से मेरे बाबा भी लगते थे । मेरे पिता जी के साथ खूब उठना-बैठना होता था उनका । घर से बाहर जब पहली बार गाँव की पाठशाला में कदम रखा तो उन्होंने ही पाटी पर खड़िया से ‘अ आ इ ई’ लिखना सिखाया था । ककरौआ हमारे ही गाँव की पंचायत का एक गाँव है जहाँ मलिखान बाबा का घर था । कुछ पढ़ने-लिखने के बाद जब वह प्राथमिक पाठशाला में मास्टर बन गए तो कुछ दिनों बाद उनका तबादिला हमारे ही गाँव के स्कूल में हो गया, जहाँ वह अपनी ‘बिना मेडीगाट की साइकिल’ से आया करते थे । यह साइकिल वर्षो बरष उनके पास देखी जाती रही थी । उनके संगी-साथी मजाक उड़ाते हुए अक्सर कहते थे कि ‘इनके मरने के बाद इस वाहन को संग्रहालय में रखकर सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया जायेगा ।’ सो यह मास्टर मलिखान सिंह हमारे पहले अकादमिक गुरू बने ।

मलिखान सिंह मास्टर साब के साथ मेरी जो यादें जुड़ी हैं, वह उनकी जीवनी नहीं बल्कि मेरे बालमन पर खिची कुछ धुँधली रेखाएँ ही हैं । कुछ मीठी तो कुछ नटखटपन लिए हुई सी ।

चूँकि मलिखान सिंह मास्टर साब गाँव-गिराँव के रिश्ते से मेरे बाबा लगते थे और जब मैं उनके स्कूल में पढ़ने गया तो उनका मुझ पर कुछ अधिक ही स्नेह था । बावजूद इसके उनकी बच्चों को पीटने की आदत से मैं और मेरे साथ के बच्चे उनसे भयाक्रांत ही अधिक रहते थे । यह उनका भय ही था जिसके कारण हम सब प्रतिदिन समय से स्कूल पहुँच जाया करते थे । घर के लिए दिया गया कार्य घर पर हमारी प्राथमिकता होती थी । उनके स्कूल आने से पहले ही पूरा स्कूल साफ हो जाय़ा करता था और दूर से ही उनकी आने की आहट हम सबको अनुशासित कर अपनी-अपनी फट्टी पर कायदे से बिठा देती थी । मलिखान बाबा का यह भय कई बार विद्यार्थियों में विद्रोह के बीज भी बोने लगता था । कुछ आगे आकर इस विद्रोह को मैंने भी अपने अंदर महसूस किया था ।

कक्षा एक में गाँव के स्कूल में पढ़ने के बाद मैं जोगराजपुर ‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ में पढ़ने चला गया जहाँ मैं कक्षा पाँच तक रहा । उसके बाद कक्षा छ: में जोगराजपुर के ही एक अन्य स्कूल ‘राजू वाले स्कूल’ में चला गया । यहाँ मैं दो साल रहा और आठवीं में वापस ‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ में आ गया ।

‘राजू वाले स्कूल’ में आने के बाद पिता जी और बड़े चाचा को ऐसा लगा जैसे हमारी (मैं और चाचा की बेटी) पढ़ाई कुछ कमजोर-सी होती जा रही है । इसमें भी खासकर गणित अत्यंत कमजोर हो रही थी । सातवीं में आ गया था और अभी सोलह तक का पहाड़ा याद नहीं हुआ था । सो पिता जी और बड़े चाचा ने इसका उपाय मलिखान सिंह मास्टर साब के रूप में निकाला । मलिखान बाबा इस समय ‘प्रमोशन’ पाकर जोगराजपुर के ही सरकारी माध्यमिक विद्यालय में आ चुके थे । घर से फ़रमान हुआ कि ‘राजू वाले स्कूल’ से छुट्टी होने के बाद हम दोनों मलिखान सिंह मास्टर के पास जाया करें और एक घण्टा रोज गणित का अभ्यास करें । वास्तव में यह एलान हमारे बालमन के एकदन प्रतिकूल था । इधर मलिखान बाबा का ‘मारतू हाथ’ और भी मज़बूत हो चुका था । अब वह बच्चों को पढ़ाते कम और मारते अधिक थे । उनका गणित का ज्ञान उनकी मार का सबूत होता था । हम न चाहते हुए भी मलिखान बाबा के पास गणित पढ़ने जाने लगे और यहाँ से बचपन में अंकुरित हो चुका विद्रोह का बीज पल्लवित होने लगा ।
मलिखान बाबा में इधर कुछ परिवर्तन और आ चुए थे । यह परिवर्तन थे शराब पीने और भाँग खाने की लत । इसके कारण उनके अंदर के शिक्षक का विकास धीमा होने लगा था और मानुसिक दुर्गुण कुछ बढ़ने लगे थे । बाबा का रोज का ही नियम बन गया था कि स्कूल से निकलने के बाद जोगराजपुर की ‘ठेका देशी शराब’ की दुकान से एक पन्नी ले लेते और शाम को घर पहुँचते-पहुँचते टुन्न हो जाया करते थे । उनकी आँखें अब कुछ लाल सी रहने लगी थीं । जिस दिन उन्हें शराब की पन्नी नहीं मिलती थी उस दिन वह मेरे घर आ जाते और मेरी जिया या माँ से भाँग का गोला पिसवाकर राब के शरबत के साथ खा जाते थे । चूँकि मेरे बाबा आयुर्वेद के डॉक्टर थे, सो भाँग और मिश्री दवाई बनाने के लिए रखी ही रहती थी । जब मलिखान बाबा भाँग खाने आ जाते तो बाबा, जिया अथवा मेरे पिता जी आदि की कुछ भी न चलती थी । उन्हें भाँग का एक गोला पीसकर देना ही होता था । हमारा ध्यान मलिखान बाबा की इस आदत पर बना ही रहता था ।
मलिखान बाबा के पास गणित पढ़ने जाते हुए हम लोग इधर एक विशेष परिवर्तन महसूस कर रहे थे । मलिखान बाबा जितने भी बच्चों को पढ़ाते थे उनमें सबको किसी न किसी गलती पर ‘टिपियाते’ रहते थे लेकिन हमें वह अन्य बच्चों से अधिक ही ‘टिपिया’ दिया करते थे । बाबा के गणित शिक्षण के बाद हमारे अंदर गणित की समझ खूब बढ़ रही थी । हम अपनी कक्षा में विशेष योग्यता वाले विद्यार्थी बन गए थे लेकिन मलिखान बाबा की मार ने हमारे अंदर के विद्रोह बीज को धीरे-धीरे वृक्ष बना दिया था । बस हमारा विद्रोह कभी ‘फट’ न सका क्योंकि घर में पिता जी, चाचा आदि का भय उस विद्रोह से कहीं बढ़कर था । हमारे समय में शिक्षक के प्रति अनादर अथवा विद्रोह बड़े अपराधों में गिना जाता था । जिसका परिणाम हमारे ‘चूतरों’ की सूजन हुआ करती थी ।

हम सब दबे-सहमें हुए मलिखान बाबा से गणित सीख रहे थे । मन में विद्रोह था पर मस्तिष्क में उसका परिणाम अधिक प्रबल हुआ करता था । खैर ! समय अपनी गति से चल रहा था । अब हम आठवीं में आने वाले थे । एक दिन घर से काम नहीं करके ला पाए तो मलिखान बाबा का कोप हम पर खूब बरपा । साथ ही उस दिन हमारा एक साथी पढ़ने नहीं आ पाया था । कुछ पैसों के लालच में गन्ना छीलने चला गया किसी के खेत में । मलिखान बाबा ने हाजिरी ली तो वह बच्चा ‘अपसेंट’ मिला फिर क्या था ! बाबा ने खोज करवाई तो सच्चाई सामने आ गई ।
वास्तव में उस दिन मलिखान बाबा ने पच्चीस तक के पहाड़े सुनने को कहा था । याद न होने पर परिणाम सबको पता था । बेचारा घर से स्कूल के लिए ही निकला था लेकिन मलिखान बाबा की मार की कल्पना उसे गन्ने के खेत में ले आई । गन्ना छीलकर आते हुए किसी व्यक्ति ने बता भी दिया कि उक्त विद्यार्थी को उसने अमुक के खेत में गन्ना छीलते हुए देखा है । फिर क्या था ! मास्टर साब के चार मुस्टंडे खेत में जाकर उसे पकड़ लाए और मास्टर साब ने उसकी वह पिटाई लगाई की हम सबकी रूह तक काँप गई । आज हमने ठान लिया कि कुछ भी इनको सबक तो सिखाकर ही रहेंगे ।

यह इत्तेफाक ही था कि शाम को ही मलिखान बाबा घर पर भाँग खाने आ गए । पिता जी से भाँग निकलवाई और अंदर को मुँह करके जिया को आवाज लगाई ‘अरे भौउजी शरबतु पठइयु गिलासु भरि . . . अउरु हाँ तनिकु मठा होइ त डारि लिहउ . . .’ और पिता जी के साथ बतियाने में व्यस्त हो गए । पिता जी ने बाबा की दबाइयों में से कुछ भाँग लेजाकर अंदर दे दी और वापस आकर मलिखान बाबा के पास बैठ गए ।

आज मैं एक अलग कोने में खड़ा हुआ उन्हें अपनी ‘गुस्सैल आँखों से घूरे जा रहा था । कुछ देर में अंदर से जिया की आवाज आई कि ‘शरबतु मलिखानक दइ आवउ’ । मैं अंदर गया तो जिया ने मेरे एक हाथ में शरबत का गिलास और एक हाथ में भाँग के गोले की प्लेट पकड़ा दी । मैं दोनों चीजों को लेकर दवाखाने की ओर चल दिया । एक ऐसे स्थान पर जब देखा कि आस-पास कोई नहीं है मैंने शरबत के गिलास में पूरे क्रोध के साथ थूक दिया । जितना थूक सकता था । शरबत को हिलाकर थूक को उसमें अच्छे से मिला भी दिया । चेहरे पर एक मुस्कान लेकर मैं दवाखाने की ओर चल दिया । दवाखाने में पहुँचते ही मलिखान बाबा की स्नेह से पगी हुई आवाज सुनाई दी ‘लइ आबउ लल्ला . . .’ मैंने दोनों चीजें ले जाकर उन्हें पकड़ा दीं । हल्के से डर से अतिरिक्त आज मेरे मन में विशेष प्रकार का उत्साह था ।

भाँग का गोला और शरबत देने के बाद मैं वहाँ से थोड़ा हटकर एक कॉपी लेकर बैठ गया यह दिखाने के लिए कि मैं गणित पढ़ रहा हूँ, पर मेरा पूरा ध्यान मलिखान बाबा द्वारा घूँट-घूँट कर पिए जा रहे शरबत पर था । मलिखान बाबा के गले से नीचे उतरते हुए शरबत के घूँट मेरे अंदर प्रसन्नता भर रहे थे उस दिन । ऐसा लग रहा था जैसे आ कोई बड़ा युद्ध जीत लिया हो । मलिखान बाबा की सैकड़ों बार की पिटाई का बदला एक ही दाँव में ले लिया हो । वास्तव में यह एक युद्धा था जो बालमन के अंदर चल रहा था । उस दिन तो मैं उस युद्ध में जीत गया था लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया और जब-जब बाबा से मिलता मेरी उस दिन की विजय मेरे अंदर की आत्मग्लानि को और भी मज़बूत बनाती गई ।

समय तीव्रता से निकलता गया । मैं गाँव से निकलकर दूर तक गया । खूब पढ़ाई की । सभी विषयों में अच्छा विद्यार्थी न होने के बावजूद भी गणित पर आत्मविश्वास अन्य विषयों से कहीं अधिक ही रहा । जब-जब भी गणित में परेशानी आई मलिखान बाबा याद आए । साथ ही उनके साथ मेरे बालमन द्वारा किए गए बर्ताव से उत्पन्न आत्मग्लानि बढ़ती ही गई ।

आज भी जब मलिखान बाबा को देखता हूँ । पास में बिठाकर उनकी उत्साहवर्धक बातें सुनता हूँ तो मन में तमाम पुरानी बातें सजीव हो उठती हैं । मलिखान बाबा अब शिक्षण कार्य से सेवामुक्त हो चुके हैं । गाँव में ही रहते हैं । ट्रेक्टर ले लिया है । खेती-पाती देखते हैं । लेकिन अब घर पर आना कम होता है । अब घर पर मेरे बाबा जो गाँव-गिराँव के रिश्ते में उनके भाई लगते थे अब इस दुनिया में नहीं रहे और न ही मेरी जिया, जिनको वह बड़े स्नेह से ‘भउजी’ कहा करते थे ‘पैरालिसेस’ के बाद इस लायक रहीं कि उनको भाँग पीसकर दे सकें । घर की औरतों में वह बात कहाँ । एक चीज जो उनसे नहीं छूटी वह है शराब का पैक । वह रोज ही उनके मुँह लगती है । चाहें ट्रेक्टर खुद चलाकर ही जोगराजपुर क्यों न जाना पड़े ।

तमाम यादों के साथ एक बात जो आ मुझमें ताकत भरती है वह यह कि उनका बचपन में दिया हुआ ज्ञान अब भी मेरी संवेदनाओं में बचा हुआ है । हाँ ! बालमन का वह विद्रोह कबका आत्मग्लानि के माध्यम से पिघल गया है । अब तो मलिखान बाबा के लिए मन में केवल स्नेहिल संवेदनाओं की हिलोरें ही हैं ।

सुनील मानव
मानस स्थली, 01.01.2019

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