रियलिज़्म को ज़मीन से जोड़ने वाली फ़िल्म है ‘चकल्लसपुर’



भारत को विश्व में सबसे अधिक फ़िल्म निर्माण करने वाले देशों में रखा जाता है । जितनी फ़िल्में भारत में बनती हैं, बहुत कम ही देशों में इतनी फ़िल्मों का निर्माण साल भर मे होता है । इधर पिछले दशक से भारतीय फ़िल्मों का ट्रेंड बदला है । फ़िल्ममेकरों के शब्दों में कहें तो वह ‘रियलिस्टिक’ अधिक हुई हैं । रियलिस्टिक बोलें तो ‘ज़मीन’ से जुड़ी हुई अर्थात् ज़मीन से जुड़े यथार्त् को कहने वाली फ़िल्में । न जाने कितनी ही फ़िल्में अलग-अलग रूपों में आईं और अपने-अपने तरीके से ज़मीन की हकीकत कहती हुई चली गईं, लेकिन शायद ही कोई फिल्म ऐसी आई हो जो ज़मीन के लोगों की जुबां पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर पाने में सफल हो पाई हो ! सबमें फ़िल्मोनिया ही अधिक रही । गाँव का चित्रण हुआ, लेकिन गाँव करीब-करीब गायब ही रहा । यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि फ़िल्मों में ‘गाँव की छौंक’ ही अधिक देखने को मिली है । पहले की कुछ फिल्मों (नदिया के पार इत्यादि) को अपवाद श्वरूप छोड़ दिया जाए तो गाँव पर केन्द्रित ‘रियलिस्टिक’ फ़िल्मों से गाँव करीब-करीब गायब ही रहा है ।
इधर गाँव की मिट्टी में पले-बढ़े तमाम लड़के-लड़कियाँ थियेटर व सिनेमा की विधिवत पढ़ाई करके फ़िल्मिस्तान पहुँचे तो संभवत: ‘रियलिस्टिक’ फ़िल्मों में ‘गाँव’ के असल श्वरूप ने कुछ और गहराई तक प्रवेश पाया है । अब तक फ़िल्मी रायटर / डायरेक्टर पाँच सितारा होटलों में बैठकर, रेड वाइन के गिलास की चुस्कियां लेकर गाँव की कल्पना किया करते थे । फ़िल्ममेकर हीरोइक छवि वाले नायकों को ‘गाँव’ का ‘लुक’ देते थे । इसी कल्पना के गाँव को फ़िल्म में उतारने का प्रयास होता था । उन्हें गाँव के असल ‘रियलिज्म’ का भान नहीं होता था ।
असल में वास्तविक ‘रियलिज़्म’ की व्याख्या के रूप में प्रेमचंद के नायक होरी को देखा जा सकता है । ‘वह नेम-धरम को सब कुछ मानता है लेकिन भाई के हिस्से के बाँस बेचने से पीछे नहीं हटता है ।’ वास्तव में ‘रियलिस्टिक’ गाँव वह है जहाँ अबोधता के साथ-साथ धृष्ठता भी है, कोई सज्जन नहीं है और कोई विलेन नहीं है । सब जी रहे हैं अपने आप से ही कटे हुए । वर्तमान के कई रायटर / डायरेक्टर / एक्टर गाँव की इस असल पहचान को समझ पाने में सफलता पा रहे हैं । इसका एक महत्तवपूर्ण कारण इन लोगों का गाँव से भुक्तभोगी होना भी है । इन्होंने गाँव को जिया है, इसलिए वह फ़िल्मों में उस गाँव को प्रस्तुत कर पा रहे हैं । अन्यथा निरा मुम्बैया फ़िल्मों में तो महज गाँव की छौंक ही देखने को अधिक ही मिलती है ।
यथार्थ को गहराई तक अंगीकृत करने के रूप में देखें तो आने वाली फ़िल्म ‘चकल्लसपुर’ वास्तविक यथार्थ की खोज में काफी आगे तक जाती है । इसका एक कारण चरित्रों का गाँव के वातावरण के अनुरूप होना है । फ़िल्म की कहानी एकदम नवीन भले ही न कही जाए लेकिन उसका प्रस्तुतिकरण अवश्य नवीन छाप छोड़ता है । फ़िल्मिस्तान में प्रकाश झा को मूव्मेंट और यथार्थ का चित्र करने वाला फ़िल्म मेकर माना जाता है । उनके साथ कई वर्षों तक काम करने वाले रजनीश जयसवाल ने ‘गाँव’ के यथार्थ को गहराई से पकड़कर पात्रों को उसके अनुसार गढ़ा है । फिल्म में मुकेश के अतिरिक्त जितने भी पात्र हैं, वह कोई बड़ा नाम भले ही न हों लेकिन फ़िल्म की विषय-वस्तु के अनुरूप अपनी गहरी छाप छोड़ते हुए अवश्य दिखाई देते हैं । फ़िल्म में मुकेश का नायकत्त्व को तोड़ता हुए नवीन नायकत्व के प्रतिमान गढ़ता हुआ स्वरूप फ़िल्म को एक नवीन आयाम देता है । गाँव की अल्हड़ नायिका के रूप में असम की उर्मिला महन्त ने अपने आपको बखूबी प्रस्तुत किया है ।
गाँव की एक और खास विशेषता होती है कि वह एक ऐसे नायक को स्वीकारता है, जो उनसे मिलता-जुलता हो । मुकेश का चेहरा इस अर्थ में अच्छा तालमेल मिलाता है ।
वास्तव में देखा जाए तो फ़िल्म गाँव और शहर, नवीन और पुरातन, कल्पना और यथार्थ, मुम्बैया रियलिज़्म और क्षेत्रीय यथार्थ के संघर्ष को ‘चकल्लस’ के रूप में बड़ी ही सूक्ष्मता से प्रस्तुत करती है । फ़िल्म की सफलता के लिए असीम शुभकामनाएँ ।

सुनील मानव
+919307015177
manavsuneel@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)