बाल साहित्य क्या और क्यों



साहित्य को लेकर ‘क्यों’ और ‘क्या’ का प्रश्न नया नहीं है; किन्तु बदले हुए परिवेश एवं संचार क्रांति के इस दौर में बच्चे की मानसिक स्थितियाँ बदल गई हैं । मनोरंजन के बदले साधन एवं मनोरंजन के इन उपकरणों के व्यापारिक रणनीतियों ने बालमस्तिष्क पर अपना अलग प्रभाव डाला है । बच्चों के पास आज मोबाइल, आईपैड, लैपटॉप जैसे साधन उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से वे मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान के विविध अनुशासनों से परिचित हो सकते हैं और अपनी जिज्ञासा का अधिकतम समाधान पा सकते हैं । समाधान की प्रामाणिकता को लेकर कुछ प्रश्न अवश्य खड़े होते हैं किंतु यह प्रश्न लिखित साहित्य में भी पीछा नहीं छोडता । थोड़ी-बहुत समस्याएँ वहाँ भी रहती ही हैं । इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है । बालसाहित्य का विधिवत लेखन भले ही बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक से आरम्भ होता है और सातवें-आठवें दशक में जोर पकड़ता है । किंतु इसका इतिहास पुराना है । पंचतंत्र, हितोपदेश आदि की कहानियाँ बच्चों को प्रौढ़ ज्ञान कराने के उद्देश्य से लिखा गया साहित्य है । बालसाहित्य के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करते समय परिवेश को भी दृष्टिपटल पर रखना होगा, क्योंकि इस प्रश्न का अपेक्षित उत्तर भी बहुत कुछ उसी पर निर्भर है । इसी से जुड़ा एक प्रश्न यह भी है कि बालसाहित्य का आयतन क्या हो ? उसके अंतर्गत किन-किन तत्त्वों का समायोजन आवश्यक है और इन तत्त्वों की आवश्यकता का औचित्य क्या है ? यह भी महत्त्वपूर्ण व दिलचस्प सवाल है । साफ तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसे प्रश्नों के उत्तर कुछ सीमा तक दीर्घकालिक भले ही हों, सर्वकालिक नहीं हो सकते । अत: इस तथ्य के आलोक में ही इन प्रश्नों पर विचार करना उचित होगा । इस नई सदी के बच्चे से वही आशा नहीं की जा सकती जो अर्धशताब्दी पूर्व के बच्चों से की जाती थी । अत: कुछ नई उर्जा के साथ बालसाहित्यकारों की एक नई पीढ़ी हमारे सामने आ रही है । अपने युगबोध के साथ नया शिल्प लेकर वे साहित्य जगत में प्रवेश कर रहे हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि नवीन होने से कोई तथ्य अग्राह्य नहीं होता । ठीक उसी प्रकार जैसे प्राचीन होने मात्र से प्रत्येक तथ्य ग्राह्य ही । बालसाहित्य के नवीन अभिव्यक्ति कौशल के कारण कुछ पुराने लोगों के गले यह बात न उतरना कि कुछ सार्वकालिक मूल्य या दीर्घकालिक मूल्य को छोड़कर तात्कालिक मूल्य परिवेश के अनुरूप बदल जाते हैं, साहित्य के लिए अहितकर है । अत: परिवेश ने परिस्थितियों के साथ-साथ साहित्य के प्रतिमानों को भी प्रभावित किया है ।
आज का बालक गुरु-शिष्य की गुरुकुल पद्यति के स्थान पर सहज, सरल और सह-संवाद को अधिक पसंद करता है । ज्ञान-विज्ञान के नए अविष्कारों एवं सहज उपलब्ध साधनों के कारण आज के बालक अपेक्षाकृत कम समय में ही प्रौढ़ता की दुनिया की ओर अग्रसर होने लगते हैं । ऐसे में चंदा मामा की कहानी या सपनों की परी की कहानी के स्थान पर उन कहानियों को अधिक पसंद करते हैं, जिनके तार्किक आधार हों । इसके साथ ही साथ यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि साहित्य में कथ्य को जितना सूक्ष्म बनाकर प्रस्तुत किया जाता है, उसका प्रभाव उतना ही स्थाई और उपयुक्त होता है । यही कारण है कि दक्षिण पंथी और वाम पंथी, दोनों ही खेमों के रचनाकार इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनका कथ्य केवल ‘स्टेटमेंट’ (कथन/विवरण) बनकर न रह जाए । प्रसाद और मुक्तिबोध जैसे बड़े साहित्यकारों की भी रचनाएं ऐसे ही प्रतिमानों से प्रेरित हैं । बालसाहित्य पर भी यह बात ठीक-ठीक लागू होती है । ‘बड़ों का सम्मान करो / इनका न अपमान करो’ जैसे सस्ती उपदेशात्मक, भद्दी तुकबंदी एवं अपनी अंत:संरचना में हास्यास्पद्‍ पंक्तियां न तो बच्चों को आकृष्ट कर सकेंगी और न ही उनके मस्तिष्क पर कोई स्थाई प्रभाव छोड़ सकेंगी । ठीक इसी तथ्य को शिल्प में ढ़ालकर और छंद व लय को ध्यान में रखते हुए सहज ढ़ंग से प्रस्तुत किया जाए तो रचना न केवल आकृष्ट करेगी बल्कि उसका प्रभाव भी अपेक्षाकृत स्थाई होगा । इस दृष्टि से बालसाहित्य के एक नवोदित रचनाकार शादाब आलम की कविता ‘उल्टा हो जाए’ अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद उल्लेखनीय हो सकती है । अपने नवीन शिल्प में यह कविता एक चुनौती की आकांक्षा लिए शुरू होती है । यह आकांक्षा किसी दिवास्वप्न की तरह न होकर संघर्षधर्मी चेतना से प्रेरित है । बहुत सहज ढ़ंग से छोटे कहे जाने अथवा लघु का ‘महा’ (महान) से संघर्ष दिखाया गया है । कविता की प्रारंभिक पंक्तियां इसे स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होंगी - 
काश ! कहीं उल्टा हो जाए
बिल्ली को चूहा दौड़ाए,
चूहा चौड़ा होकर घूमे
बिल्ली बिल में सिर खुजलाए ।
जिन चूहों की बड़ी तादात को बिल्ली क्रमश: अपना आहार बनाती चली आई है, उस स्थिति को उलट देने की आकांक्षा और उस आकांक्षा की रूपरेखा इस कविता की विशिष्टता भी है और उर्जा भी । यदि दूसरे बंध को छोड़ दिया जाए (गधा, शेर को आँख दिखाए, / शेर करे बस ढेंचू-ढेंचू / गधा दहाड़े व गुर्राए।) तो यह कविता बालसाहित्य की उपलब्धि कही जा सकती है । अंतर्वस्तु को उपदेश की शैली में ढ़ालकर प्रस्तुत किया गया है, जो साहित्य की आंतरिक संरचना का महत्त्वपूर्ण घटक है ।
उक्त संदर्भ में ‘बनास जन’ के संपादक पल्लव का कथन ध्यान देने योग्य है कि ‘किताब पढ़ना केवल किताब पढ़ना नहीं होता बल्कि पाठक के तौर पर खुद को विचार प्रकिया में शामिल करना भी है । इस लिहाज़ से बच्चों के लिए किताब एक मुश्किल मसला बन जाता है क्योंकि आप बहुत सघन वैचारिक खुराक देंगे तो वह पढ़ेगा ही नहीं और मनोरंजन से भर देंगे तो फिर विचार का क्या होगा ? रास्ता बनाया जा सकता है और वह रास्ता है भागीदारी का, यदि सुंदर प्रस्तुति के साथ लेखक पाठ-प्रक्रिया में नन्हें पाठक को शामिल कर सके तो निश्चय जी किताब असरदार होगी ।’ (आजकल, नवंबर-2016, अंक-7, पृ.-7)
कुल मिलाकर कहना यह है कि साहित्य के तात्कालिक मूल्य को निर्धारित करते समय सामाजिक संरचना एवं परिस्थिति को गंभीरता से आत्मसात करना होता है । शिल्प के निर्धारण में सामाजिक बोध प्रेरणा का कार्य करता है । यह बोध एक विकसनशील प्रक्रिया है । यही कारण है कि एक ही रचनाकार की अलग-अलग रचनाओं के रचनापक्ष और कलापक्ष के अलग-अलग स्तर होते हैं । एक रचनाकार को रचना करते समय इन तथ्यों का इसलिए भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके प्रथम समीक्षक भी वे ही होते हैं ।

सुनील मानव
+919307015177

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