चोरी और पिटाई बनाम कुंडल चोरी का आरोप …

मैं अपनी पीढ़ी का पहला जीवित बच्चा था अपने परिवार का । ऊपर से लड़का । घर के लोगों का कहना था कि मुझसे पहले एक-दो बच्चे मर चुके थे, और मैं बड़ी मिन्नतों बाद बचा था । कर्मकाण्डी ब्राह्मण परिवार द्वारा जितने जतन हो सकते थे बचाने के, सब किए गए थे । तुलादान से लेकर जन्मते ही दलित दादी के हाथों बिक्री तक । जन्मदिन भी नहीं मनाया गया कभी । घर के लोगों का मानना था कि मुझसे पहले के लड़के का मनाया गया था, वह न रहा । इसलिए मेरा जन्मदिन नहीं मनाया गया । बावजूद इसके मुझे अत्यधिक लाड़, प्यार, स्नेह, अधिकार और छूटें मिलीं जो पुरुष प्रधान परिवारों में ‘लड़कों’ को आज भी मिलती हैं । 

जिया-बाबा से लेकर अम्मा-बापू, चाचा-चाची, बुआ और अन्य सभी । कारण एकमात्र मेरा लड़का होना था, क्योंकि बाद में घर में जो लड़की पैदा हुई वह उन अधिकारों और छूटों से, लाड़, प्यार और स्नेह से वंचित रही । यदि मेरी पीढ़ी में मुझे छोड़ दिया जाए तो मेरे तथाकथित ब्राह्मण परिवार में यह स्थिति अब तक बनी ही हुई है । आज चौथी पीढ़ी के लड़का और लड़की में ‘दूरी’ को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है । खैर ! यह तो बड़ी रामकथा है । कभी न खत्म होने वाली । वास्तविक मुद्दे पर आता हूँ । 

पहले ही कह चुका हूँ कि ‘लड़का’ होने के नाते मुझे घर से सब कुछ मिल रहा था । जो कहता था खाने को, खेलने को या सौक को मिल ही जाता था । जिस एक बात का (छोटे बच्चों को किसी भी कार्य के लिए नकद पैसे नहीं दिए जाने चाहिए) मैं आज सख्त विरोधी हूँ, मेरे साथ खूब हुई । अक्सर मुझे पिता जी से लेकर घर के तमाम सदस्यों द्वारा ‘चीज’ खाने के लिए ‘नगद पैसे’ दे दिए जाते थे, जिनसे मैं गाँव की दुकान पर जो चाहता, खाता था । स्कूला जाने वाला हुआ तब भी मेरे पास नगद पैसे हुआ करते थे । धीरे-धीरे मुझमें पैसों को लेकर ‘अति मोह’ बढ़ गया । अब मुझे जो पैसे घर से मिलते थे, अपनी बढ़ती हुई जरूरतों के हिसाब अत्यंत कम लगने लगे थे । दिमाग इस जुगत में रहने लगा था कि कहाँ से अधिक पैसे मिल सकें ! इस समय उम्र यही कोई पाँच-सात साल के बीच ही रही होगी, जब अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए मैं घर से पैसे चुराने लगा ।

मेरे पिता जी डॉ. हैं । सो उनके कुर्ते की जेब या दवाखाने के किसी डिब्बे में पैसे बने ही रहते थे । वह शाम को पूरे दिन की कमाई जिया को सौंप देते थे, जिसे जिया घर के कामों में खर्च करती थीं । मैं यह देखता रहता था । ... तो सबसे पहले मैंने बापू के कुर्ते की जेब से एक या शायद दो रुपए का सिक्का चुराया । किसी को पता ही नहीं चला । अब मेरे पास घर से दिए जा रहे पैसों के अतिरिक्त भी कुछ पैसा था । हिम्मत और लालच बढ़ गया । अगली बार पाँच रुपए चुराए । फिर किसी को पता न चला । और धीरे-धीरे यह छोटी-छोटी छोरियाँ मेरी आदत में आ गईं । अब तक घर में कुछ बच्चे और हो गए थे । लेकिन उनको उतने पैसे नहीं मिला करते थे । कुल मिलाकर मैं इस बात में खूब ईमानदार था कि अपने पैसों से जो भी खाने की या खेलने की चीज लाता था, घर के अन्य बच्चों और मोहल्ले के साथियों, स्कूल के मित्रों के साथ बाँट लेता था । 

मेरे गाँव का एक प्रसिद्ध अड्डा था, जिसे सब इमली का पेड़ लगा होने के कारण ‘अमिलिया तीर’ कहा करते थे । यह स्थान गाँव के सांस्कृतिक आयोजनों के साथ-साथ हर प्रकार की बाहियात का भी एकमात्र अड्डा था । यहाँ रामायण, महाभारत, आल्हा, धमार और भजन मंडली का आयोजन होता था तो नौजवानों में चोरी-चकारी, जुआँ, ताश, शराब, अश्लील गालियों आदि की भी ट्रेनिंग का यह महत्वपूर्ण स्थल रहा है ।  

इसी ‘अमिलिया तीर’ ‘मोलवाली बड़ीअम्मा’ की एक ‘परचून की दुकान भी हुआ करती थी । उनकी हत्या के बाद भी वहाँ दुकाने बनी रहीं । तो मैं दिन में कई-कई बार दुकान पर चीज लेने जाया करता था । संभवत: उस दौरान मैं गाँव का ऐसा अकेला बच्चा था जो गाँव की दुकान से इतनी अधिक ‘चीज’ खरीदता था । धीरे-धीरे गाँव के कुछ अनुभवी लोगों को इस बात का शक होने लगा कि ‘कहीं मैं घर से पैसे चुराकर तो नहीं लाता हूँ ।’ और उन लोगों के माध्यम से यह आशंका मेरे घर की दहलीज तक जा पहुँची । 

संभवत: पहले तो किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था लेकिन शिकायत पहुँचने पर एकायक सबका ध्यान मेरी इस बात पर गया । और सबकी निगाहें एक साथ मेरी निगहबानी करने में जुट गईं । अच्छा पहले के संयुक्त परिवारों में एक पिता नहीं होता था, जबकि जितने चाचा, चाची और बुआएं होती थीं, सब के सब माँ-बाप की भूमिका में रहते थे । सबका स्नेह एक साथ मिलता था तो सबके क्रोध का भाजन भी बनना ही होता था । तो यही मेरे साथ भी हुआ । फिलहल मैं पकड़ में आ गया । किस-किस से बचता । 

समझाया-बुझाया गया लेकिन घर का ‘प्रिय लड़का’, ‘कुल दीपक’ आदि-आदि होने के नाते ‘पिटाई के स्तर’ का क्रोध मुझ पर न उतरा । लोग खूब समझाते जा रहे थे । रुपए=पैसे छिपाते भी थे । बावजूद इसके मेरी यह आदत कम होने के वजाय बढ़ती ही जा रही थी । 

कुछ और बड़ा होने पर गाँव से बाहर जोगराजपुर के ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ में नाम लिखा दिया गया लेकिन चोरी की आदत कम न हुई । जब भी और जहाँ भी मौका मिलता, हाथ साफ कर लेता था । समय बढ़ने के साथ चातुर्य भी तो बढ़ रहा था न तो चोरी के सभी थिकाने भी मेरे संज्ञान में आ गए थे । बापू के कुर्ते की जेबें, दबाखाने के बदल-बदलकर रखे जाने वाले डिब्बे, प्रमोद चाचा की गुल्लक, बुआ की पर्स और जिया का बक्सा तक... सभी खुफिया खजानों की जानकारी थी मुझे । 

समय गुजरता गया और चोरी की मेरी आदत बढ़ती गई । यह कक्षा पाँच या छह के आस-पास का समय था जब मैं चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया और जमकर ठुकाई हुई । 

अब तक मैं छोटी-छोटी चोरियाँ करते-करते ऊब सा चुका था । बड़ा हाथ मारने की जुगत थी । मेरा ध्यान अब जिया के बक्से पर था, जो पूरे घर की कमाई की सबसे सुरक्षित बैंक थी । लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि जिया बक्से की चाबी अपने गले में पड़ी माला में पहने रहती थीं । कहने का तात्पर्य यह कि जिया का बक्सा जिया के अलाबा कोई भी नहीं खोल सकता था । यह इत्तेफाक ही था कि उस दिन जिया की माला टूट गई थी और जिया को बक्से के नीचे चाबी रखते हुए मैंने देख लिया था । अब बस मैं इस जुगत में था कि कैसे मौका मिले और मैं जिया के बक्से पर हाथ साफ कर सकूँ । ... और एक-दो दिन में ही वह समय आ ही गया । 

दोपहर बाद का समय था । जिया बरामदे में अपनी सहेलियों को रामायण का पाठ सुनाने में मग्न थीं । मुझे यह अच्छा मौका जान पड़ा । मैं सबकी नजर बचाते हुए कमरे में जा घुआ और पूरी सावधानी से बक्से के नीचे से चाबी निकालकर बक्सा खोला । सामने खजाना बिछा पड़ा था । मैंने स्कूल की हाफ पैंट पहन रखी थी । एक, दो, पाँच के जितने भी सिक्के सामने दिख रहे थे, मैं अपनी जेब में भरने लगा । दोनों जेबें करीब भर ही गईं थीं कि अचानक चोर पकड़ा गया । प्रमोद चाचा किसी काम से कमरे में आए और मुझे धर दबोचा । 

पहले तो वह डाँटते-फटकारते हुए मुझे बाहर लाए और फिर पिल पड़े । जिया भी संभवत: आज पहली बार मुझ पर इस कदर नाराज़ हो रही थीं । चाचा तो टिपिआए ही जा रहे थे । सभी औरतें भी उपदेश देने में लगी थीं । आस-पास से लेकर घर तक के वह सभी बच्चे जो मेरी चोरी के माल के हिस्सेदार हुआ करते थे, दूर खड़े मुस्कुरा रहे थे । पहली बार था जब मैं अपने आप को इस स्थिति में देख रहा था, जिसकी मुझे किंचित कल्पना न थी । 

एक प्रसिद्ध मुहावरा है । ‘कोढ़ में खाज होना’ । मेरे साथ भी हुआ । बापू ने किसी मरीज को पट्टी बाँधी थी, सो वह हाथ धोने घर के नल पर आए । बापू को अब तक मैंने कभी गुस्से में नहीं देखा था । पूरी स्थिति जानकर बापू का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा । जिया उनके स्वभाव को जानती थीं, सो वह शांत होकर बात को घुमाने लगीं । लेकिन अब स्थिति सामान्य न रही थी । बापू का क्रोध मुझ पर बरसने लगा । दो दिन पहले ही चमड़े की चप्पल पूरनपुर से लाए थे, मेरे ऊपर बरसने लगी । एक, दो, चार, आठ ... कुछ समय तक तो मार का अहसास होता रहा लेकिन कुछ देर बाद शरीर उस मार क आदी हो गया । जिया के साथ-साथ चाचा और उपदेशक औरतें बचाने में लगी थीं लेकिन बापू का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा था । अंतत: जिया को भी क्रोध आ गया । वह बापू पर बरसने लगीं और मुझे आगे कर चिल्लाने लगीं कि ‘लेउ मारि डारउ कतइ...’ । अब जाकर बापू ने मुझे छोड़ा ।


वास्तव में उनका इतना क्रोध मेरी चोरी की ही हरकत पर न था । उसका और भी कुछ कारण रहा होगा । खैर ! किसी प्रकार से छूटा । मेरे शरीर पर हल्दी लगाई गई । और उस दिन घर में किसी ने खाना नहीं खाया । सबको लग रहा था कि ‘एक ब्राह्मण के घर में ऐसा कुलक्षणी बच्चा कैसे पैदा हो गया ।’ सवर्णीय अहंबोध को बड़ी चोट लगी थी उस दिन मेरे माध्यम से मेरे सनातनी घर को । खैर !
अगले दिन स्कूल न जा सका । दो-चार दिन और न गया । बावजूद इसके मेरे साथियों के माध्यम से मेरी चोरी की आदत का बढ़ा-चढ़ा बखान स्कूल में सबकी जुबाँ पर छा गया । स्कूल गया तो सबकी आँखें मुझे घूर रही थीं, सबके होंठ मुझ पर व्यंग्य में मुस्कुरा रहे थे, आवाजें ताने मार रही थीं । वास्तव में बापू की चप्पल से वह दर्द न हुआ था जो स्कूल के साथियों के इस व्यवहार से हो रहा था । कुल मिलाकर चोरी की वह आदत एक बार की ही ठुकाई में जाती रही लेकिन लोगों के अविश्वास ने मेरा पीछा न छोड़ा ।

इस घटना को करीब सात-आठ महीन गुजर गए थे । इस दौरान मैंने एक पैसे की चोरी न की थी । घर के अधिकांश सदस्य मेरे इस बदलाव से खुश थे । इसी दौरान एक ऐसा वाकया हुआ जिसने हृदय पर रिश्तों के अविश्वास की एक कभी न खत्म होने वाली रेखा खींच दी । 

मैं चोरी के बाद की उस पिटाई और स्कूल के साथियों के व्यवहार को भूल चुक था । एक दिन बगिया से खेलकर घर आया तो देखा बहुत शोरगुल मचा है । पता चला कि बड़ी चाची का सोने का कुंडल खो गया है । सब उसे ही तलाश रहे थे । चाची ने जैसे ही हमें देखा, चीख-चीखकर मुझ पर इल्जाम लगाने लगीं । ‘जेहे कुत्तानि मेरो कुंडलु चुराओ...’ और भी न जाने क्या-क्या ... ? जबकि घर के अन्य सदस्य उनकी इस बात का विरोध कर रहे थे । लेकिन पति-पत्नी मानने को तैयार न हुए । चूँकि मैम चोरी में विख्यात हो चुका था तो कोई पूरे विश्वास के साथ मेरा साथ भी नहीं दे पा रहा था । करीब आधे घंटे तप कुंडल की तलाश और मेरे ऊपर इल्जाम के सभी तरीके आजमाए जाते रहे । अचानक इस बड़े चाचा जो मुझ पर चीख-चीख कर प्राण निकाले जा रहे थे, को ही कमरे में वह कुंडल मिल गया । एकदम से पूरा वातावरण बदल गया । सबसे अधिक पक्षा छोटे चाचा ने लिया उस दिन मेरा । बापू ले नहीं सकते थे । उन पर ‘बड़े आए लड़के वाले’ का इल्जाम लग सकता था लेकिन जिया ने कुंडल चोरी का इल्जाम लगाने वाले चाचा-चाची की एक न छोड़ी । 

कुल मिलाकर एक बड़ा हादसा था यह जीवन में, जिसमें पहले शिक्षक की भूमिका निभई थी । आज जब पीछे मुडकर देखता हूँ तो विश्वास ही नहीं होता कि ‘वह चोर’ मैम स्वयं था । वह हादसा मेरे ही साथ हुआ था ।

आज मेरे अंदर एक विशेष प्रकार की मज़बूती है, जो बचपन की ऐसी ही तमाम घटनाओं से आई है । 
03.10.2020

Comments

Popular posts from this blog

आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल

भक्तिकाव्य के विरल कवि ‘नंददास’

पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)