#आ_जा_रे_कन्हैया_तोहे_राधा_बना_दूँ
रामानन्द सागर के धारावाहिक ‘श्री कृष्णा’ में एक दृश्य देखा था कभी । दृश्य था कि कृष्ण और राधा यमुना किनारे बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे हैं । उनमें बातचीत हो रही है ।
कृष्ण : राधा उस दिन होली पर तुम वहाँ से चली क्यों गई थीं ...
राधा : तुम इतना बरजोरी जो कर रहे थे ...
कृष्ण : बरजोरी ! ... मैं ... मैं तो केवल रंग लगा रहा था तुम्हें ...
राधा : तुम सभी मर्यादा भूल जाते हो कान्हा ... कितने लोग थे वहाँ ...
कृष्ण : तो क्या हुआ ... प्रेम में काहे की मर्यादा ... मेरा मन किया तो मैं रंग लगाने लगा ... इसमें मर्यादा हीनता की कौन सी बात है ...
राधा : काश ! तुम राधा होते ...
कृष्ण : अच्छा ! तो क्या होता ...
राधा : तो तुम समझ पाते कि ‘राधा होना’ कितना मुश्किल होता है ...
कृष्ण : मुझे तो इसमें कोई मुश्किल नहीं लगती राधा ...
राधा : क्योंकि तुम राधा नहीं हो ना
कृष्ण : तो बन जाता हूँ मैं राधा ...
राधा : (राधा हँसती है) ... तुम राधा बनोगे !
कृष्ण : तो ... इसमें हंसने की क्या बात है ... मैं राधा बन जाता हूँ और तुम कृष्ण बन जाओ ...
राधा : कैसे ...
कृष्ण : ... कैसे क्या ... तुम्हारा लहंगा, चोली, ओढ़नी मैं पहन लेता हूँ और तुम मेरे वस्त्र पहन लो ... मोर पंख लगा लो और मुरली थाम लो ...
राधा : अच्छा ...
(... और दोनों एक दूसरे के कपड़े पहने लगते हैं । राधा, कृष्ण को अपने कपड़े पहनाती है और कृष्ण, राधा को ... )
कृष्ण : देखो ! मैं बन गया राधा और तुम कृष्ण ... अब बताओ ...
राधा : (विचारों में खोई सी) ... कान्हा तुमने तो केवल राधा के वस्त्र पहने हैं ... उसका हृदय कहाँ से लाओगे !
(राधा का यह वाक्य सुनकर कृष्ण गंभीर हो जाते हैं । सोचमग्न हो जाते हैं और दृश्य का पटाक्षेप होता है ।)
वास्तव में बड़ा मुश्किल है स्त्री बनना । #शब्द’ पिछले पन्द्रह-बीस दिन से अपनी मम्मी, बुआ, मौसी आदि से बार-बार कह रहे थे कि #मुझे_लड़की_बना_दो_प्लीज ... मुझे लड़की बना दो प्लीज ...’ आज सब ने मिलकर ‘#शब्द’ को कुछ इस तरह से लड़की बनाया ।
चूँकि इससे पहले भी इस तरह के प्रयोग होते रहे हैं #शब्द’ के साथ । अंतर बस इतना रहा कि पहले #शब्द’ की बुआ, मौसी आदि अपनी प्रसन्नता के लिए लड़कियों के कपड़े पहनाती थीं लेकिन आज #शब्द’ स्वयं अपनी इच्छा और जिद से #लड़की’ बने । और अपने चाचा की लड़की ‘#अन्वी’ को लड़का बनबाया ।
‘शब्द’ को इस रूप में देख कर बड़ी प्रसन्नता हुई आज, लेकिन दिमाग में सहज ही एक बात घर कर गई कि ‘क्या शब्द बड़े होकर भी इस स्वरूप के प्रति सकारात्मक भाव रखेगा ?’ बस यहीं से मन विचारवान हो गया ।
हर पुरुष के अंदर कोमल भावनाए हैं । जो कि उसके अंदर के स्त्रीयत्त्व की बोधक हैं लेकिन धीरे-धीरे यह भावनाएं समाप्त होती जा रही हैं या उन्हें जबरन दबा दिया जाता है । कई बार मुझे लगता है कि पूरी प्रकृति ही स्त्रीमय है, जिससे मनुष्य धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है । स्त्री-चेतना ही हमारी खूबसूरती है जो हम कहीं पीछे छोड़ते जा रहे हैं । अहंकार बहुत तेजी से हमें अपने आगोश में लेता जा रहा है ।
वास्तव में यदि दुनिया को खूबसूरत देखना है तो अपने अंदर स्त्रीभाव की कोमलता को सहेजना होगा । आप ‘शब्द’ में यह जो स्त्रीयत्त्व का भाव है, क्या आगे भी बना रहेगा ? उसके अंदर की यह कोमल भावना पुरुषोचित अहंकार में न बदले, इसकी सुखद कामना करता हूँ ।
13.08.2020
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