सवर्णेतर जातियों का ‘ब्राह्मणवाद’ : सुनील मानव

आज बुद्धिजीवियों द्वारा सबसे अधिक चर्चा ‘जातियों’ को तोड़ने, उनसे मुक्ति पाने को लेकर की जाती है बावजूद इसके उन्हीं द्वारा इन ‘जातियों’ का सबसे अधिक पोषण भी किया जा रहा है । सवर्ण से लेकर दलित तक सब अपने-अपने ढंग से दूसरे की ‘जाति’ को गालियाँ देते हुए अपनी-अपनी ‘जातियों’ के इतिहास को खंगाल रहे हैं, लिख रहे हैं और प्रत्येक स्तर पर उसको मज़बूत बनाने के लिए कार्य कर रहे हैं । तब यह झूठा वितंडावाद किस लिए कि जाति नहीं होनी चाहिए ! 

अभी पिछले दिनों हमारे एक मित्र का एक लिखित संदेश आया और उस पर मेरी राय मांगी । तो पहले उनका यह संदेश देख लेना चाहिए । यह संदेश एक संवाद के रूप में है जो हमारे एक मित्र और दलित चिंतक के मध्य हुआ । बाद में मैं भी उसमें सम्मिलित हुआ ।

“मेरे मित्र : सर नमस्कार ! आज फेसबुक पर आपका भी ‘जय भीम’ का अभिवादन पढ़ा । मैं इस अभिवादन या नारे के मनोविज्ञान को बहुत नहीं जानता । कब, किसने और क्यों शुरू किया ? लेकिन जानना चाहता हूँ । क्या यह ‘जय श्री राम’ के विरोध में शुरू किया गया है या कोई और कारण है ?

दूसरे मैंने सामान्यत: किसी बड़े बुद्धिजीवी या साहित्यकार के मुँह से यह अभिवादन नहीं सुना है । हाँ ! आम लोगों से जरूर सुना है । दरअसल मेरी चिंता यह है कि कहीं यह नारा सामाजिक न्याय के मिशन को केवल एक नारे तक ही न सीमित कर दे ! जैसे ‘जय श्री राम’ वाले केवल नारा लगाते हैं, ‘श्री राम’ से उनका कोई लेना-देना नहीं है ।

दलित चिंतक : नमस्कार ! ‘जय भीम’ का प्रारम्भ किसी योजना के तह नहीं हुआ । बाबा साहब अम्बेडकर के परिनिर्वाण के बाद उनके अनुयायियों ने सभाओं में इसका प्रयोग करना शुरू किया । जैसे हम किसी नेता के जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं । उसी तरह से ‘जय भीम’ का नारे के रूप में प्रयोग शुरू हुआ । ‘जय भीम’ का अर्थ होता है ‘भीम जिन्दाबाद’ । बाद में धीमे-धीमे अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग, वामपंथियों, उदारवादी आदि लोगों द्वारा इसे अभिवादन के रूप में और भीमराव अम्बेडकर के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाने लगा । इसका धार्मिक अर्थ नहीं है । जहाँ तक ‘जय श्री राम’ नारे का संबंध है यह राममंदिर आंदोलन के समय 90 के दशक में प्रचलित हुआ ।

मेरे मित्र : धन्यवाद सर, लेकिन मेरी जिज्ञासा कुछ और है । यह संबोधन चलन में आ गया, यह तो ठीक है । परन्तु क्या इस पर हमारे दलित चिंतकों ने गहराई से विचार किया है ?

मेरी चिंता यह है कि आने वाले पचास-सौ साल में कहीं लोग बाबा साहब  को भी देवता मानकर पूजने तो नहीं लगेंगे ? और उनके सिद्धांतों को दरकिनार कर व्यक्ति पूजा में निमग्न हो जाएं !
क्योंकि पहले बाबा साहब की मूर्तियाँ स्थापित करना । फिर ‘जय भीम’ का अभिवादन करना । अगला कदम बाबा साहब की प्रतिमा का पूजन हो सकता है !

मैंने गाँवों में ‘भीमकथा’ के आयोजनों के बारे में पढ़ा है । यह कथा बिलकुल ब्राह्मण कथावाचकों की तर्ज पर उसी विधि विधान से होती है । 
अभी कुछ दिन पहले किसी अनुयायी ने बाबा साहब की प्रतिमा का दुग्ध से अभिषेक भी किया था । युवा लेखक सुनील मानव ने उस पर प्रतिक्रिया भी की थी ।

संक्षेप में मेरा आशय है कि कहीं हम अनजाने में उन्हीं ब्राह्मणवादी तौर-तरीकों के शिकार तो नहीं होते जा रहे हैं जिनसे बाबा साहब आजीवन लड़ते रहे ।

मेरे मित्र : सुनील बाबू, यह दलित चिंतक जी से संवाद है । आपका क्या विचार है ?

सुनील मानव : सर मेरा बहुत स्पष्ट मत है इस बात को लेकर । मैं केवल एक बात ही देख रहा हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति / बुद्धिजीवी ‘दूसरे की जाति’ को गाली देकर विविध तर्कों के साथ ‘अपनी जाति’ का पोषण कर रहा है । ‘बुद्धिजीवी’ जिस ‘ब्राह्मणवाद’ का विरोध कर रहे हैं, वह स्वयं भी उसी ‘ब्राह्मणवाद’ का हिस्सा बड़ी तेजी से बनते जा रहे हैं । रहा ‘दलित बुद्धिजीवियों’ का सवाल तो वह वर्तमान में ‘जाति’ के पोषण में सवर्णों से कहीं आगे हैं । मैं ‘दलित बुद्धिजीवियों’ को केवल ‘सवर्णों’ को गाली देकर उनकी अपनी जाति का पोषण करते हुए ही देख और समझ रहा हूँ । ‘जय श्री राम’ का विरोध और ‘जय भीम’ के पोषण में तर्क इसी बात के सबूत के रूप में देख सकते हैं ।

इतिहास में, यदा-कदा आज भी सवर्णों द्वारा दलितों पर अत्याचार होते रहे हैं । आज भी इसके अनेक उदाहरण मिल जाते हैं । इसका डटकर विरोध होना चाहिए, पर आम तौर पर केवल गाली देकर क्या आप इस जाति को बराबर कर सकते हैं ! मेरी समझ में तो बिलकुल ही नहीं । ऐसा करके आप जाति की नफ़रत को बढ़ावा ही दे रहे हैं । इससे अवर्ण-सवर्ण की दूरी कम होने के स्थान पर और बढ़ेगी ही ।

आज दलित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले 99% स्वयं ब्राह्मणवाद के पोषक हो रहे हैं । जबकि अधिकांश ब्राह्मण या सवर्ण कहे जाने वाले लोग ब्राह्मणवाद के धुर विरोधी हैं । कहीं अधिक प्रगतिशील हैं । आज का दलित चिंतक ब्राह्मणवाद का विरोध न करके केवल सवर्ण जातियों का विरोध अपनी जाति को श्रेष्ठ साबित करने के लिए ही कर रहा है।

तो निष्कर्ष यह सर कि मुझे ये दलित चिंतक हों या सवर्ण चिंतक, किसी भी रूप में ‘जाति’ की बात करते हैं तो वह ब्राह्मणवाद के पोषक ही अधिक लगते हैं । पढ़े-लिखे और पद-प्रतिष्ठा एवं संपत्ति से ओत-प्रोत दलित कहीं अधिक ‘खतरनाक ब्राह्मण’ हैं । वह ब्राह्मणवाद अथवा कहूँ कि सवर्णों का विरोध केवल ब्राह्मण अथवा सवर्ण बनने के लिए ही कर रहे हैं ।

अब ये ‘जय श्री राम’ हो, ‘जय भीम’ हो या अन्य किसी प्रकार के नारे जो जाति के पोषण में, प्रतिक्रिया स्वरूप लगाए जाते हैं, केवल नफरत ही फैलाते हैं ।

मेरे मित्र : आपका विचार बहुत सही है । आज जो दलित या पिछड़ा सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक या सांस्कृतिक रूप से ऊपर उठता है तो वह अपने ही वर्ग में ‘वर्चस्ववाद’ (मुझे ‘ब्राह्मणवाद’ के स्थान पर यह शब्द ज्यादा उपयुक्त लगता है) का शिकार है । वह अपने वर्चस्व और श्रेष्ठता के लिए सारे वही उपाय अपनाता है जिसके लिए वह सवर्णों को पानी पी पीकर कोसता और गरियाता भी है । पर अपने वर्ग के अन्दर उसी का पोषण  करता है ।
अपवाद स्वरूप एक-दो को छोड़ दें तो आज कितने दलित या पिछड़े राजनेता हैं जो अपने वर्ग (समस्त समाज तो छोड़ ही दीजिए) के अन्दर जातिवाद समाप्त करने हेतु प्रयासरत हैं ?

सुनील जी मुझे लगता है कि स्वार्थ के साथ इसका कारण मनोवैज्ञानिक भी है । आज पहचान, अस्मिता और महत्त्वाकांक्षा के चक्कर में आदमी अपने आस-पास एक छोटा घेरा बुनता है । (क्योंकि बड़ा घेरा बनाने में वह असमर्थ है) जाति या धर्म के आधार पर यह घेरा बनाना आसान है । इसलिए अपने से अलग जाति या धर्म के प्रति नफरत फैलाकर यह लोग अपनी आसानी से अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति करते हैं ।

सुनील मानव : आपने जो सवाल दलित चिंतक जी के समक्ष रखे उनका उन्होंने क्या उत्तर दिया ? संभव हो तो साझा करें !

मेरे मित्र : दलित चिंतक जी ने कोई जवाब नहीं दिया था । मेरा उनसे सवाल था कि – 

01. ‘जय श्री राम’ के विरोध या तर्ज पर शुरू हुआ ‘जय भीम’ का नारा केवल एक नारा बनकर तो नहीं रह जाएगा ? 

02. क्या नारा लगाने वाले लोग बाबा साहब के सामाजिक न्याय के संघर्ष को भूलकर केवल उनकी प्रतिमा ही तो नहीं पूजने लगेंगे ?
इस पर उनका संक्षिप्त जवाब था कि “ऐसा नहीं होगा” ।

“क्यों नहीं होगा ?”
 इस पर वह कुछ नहीं बोले ।”

तो यह था पूरा संवाद । अब हम आते हैं उस बात पर जो मैं विस्तार से कहना चाहता रहा हूँ । सबसे पहले दो बातों को स्पष्ट कर दूँ जो मेरे मित्र के प्रश्न के उत्तर में दलित चिंतक जी ने कहीं । एक है ‘जिन्दाबाद’ और ‘जय’ की समानता तथा दूसरी ‘परिनिर्माण’ ।

एक : सबसे पहले तो यह कि ‘जिन्दाबाद’ और ‘जय’ शब्दों के भाव को समानता की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है । जिन्दाबाद में आलम्बन के विचारों को विस्तार देने का भाव निहित है जबकि ‘जय’ आस्था से प्रेरित है । यहाँ कोई तर्क काम न करके केवल मानने / स्वीकारने की भावना प्रवल है जो काफी हद तक ‘ईश्वरत्त्व’ के स्वरूप को प्रबलता प्रदान करती है । 

दो : मेरी समझ में तो जो यह ‘परिनिर्वाण’ शब्द है, ये ‘ईश्वरत्त्व’ के ही भाव से ओत-प्रोत है । क्यों नहीं सीधे-सीधे ‘मृत्यु’ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए ! यदि इसका संबंध ‘बुद्धत्त्व’ से जोड़ा जा रहा है तो आज ‘बुद्धत्त्व’ विचार में कम बल्कि ‘पूजन’ में, ‘आस्था’ में अधिक अपनाए जा रहे हैं । मैं अपने संपर्क के सैकड़ों ऐसे मध्यम वर्गीय पढ़े-लिखे दलित लोगों के नाम गिना सकता हूँ जो ‘बुद्ध’ एवं ‘आंबेडकर’ के विचारों को किनारे करके उनकी पूजा एक ‘पुरोहित’ की ही तरह कर रहे हैं । तो इस शब्द का प्रयोग आंबेडकर के साथ महज इसलिए करना कि वह अंत में बौद्धिस्ट हो गए थे, कम से कम मुझे उचित नहीं लग रहा है । 

कुछ बातें और स्पष्ट की जानी चाहिए । 

एक : आज अधिकांश मंचों से दलित और पिछड़े वर्ग के चिंतक ‘रोटी और बेटी’ के स्तर की समानता का रोना रोते देखे जा सकते हैं । क्या एक यादव किसी कुर्मी के यहाँ यह संबंध बना रहा है ? क्या एक जाटव यह संबंध किसी मेहतर के यहाँ बना रहा है तो जिस पूरे सवर्ण समाज को आप ब्राह्मणवाद के नाम पर गालियाँ दे रहे हैं वह आपके साथ ये संबंध कैसे बना सकता है ? विचार कीजिए।

दो : हमारे एक अभिनेता मित्र (?) हैं । यादव हैं । एक बार उनके साथ कहीं टहल रहा था । उन्होंने अंतर्जतीय विवाह किया है । किसी ने उस विवाह के बारे में उनसे पूछा तो उनका उत्तर बड़ा हास्यास्पद था “देखउ भइया घरके हइं कंधइया जी के बंसज । तउ घरके हियां त कोई आइ जाइ, बह राधइ कहइही ।” अब बताइए आप क्या कहेंगे इस बात पर । बंदा है बहुत बड़ा बुद्धिजीवी । अपने सामने किसी को बोलने ही नहीं देता है । वास्तविकता यह कि वह स्वयं में धनवान है और जिससे उसने विवाह किया है वह उससे कहीं अधिक धनवान हैं । तो संबंध केवल धन का है भइया न कि जाति का । समझ जाइए । हाँ नहीं तो। 

तीन : ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द मुस्किल से बीस प्रतिशत लोगों द्वारा ही समझा जाता है । शेष के सामने वह केवल ‘ब्राह्मण जाति’ का ही अर्थ देता है । अच्छा मजे की बात यह कि जब भी कोई ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द के उच्चारण के साथ सवर्णों को गालियाँ दे रहा होता है तब वह केवल ‘ब्राह्मणों’ को ही गालियाँ दे रहा होता है । जबकि स्थितियाँ सच्चाई से पृथक हैं । ‘ब्राह्मणवाद’ का तात्पर्य है वर्चस्ववाद । अर्थात अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने का जो अहंकार है वहीं ‘ब्राह्मणवाद’ है जो एक ब्राह्मण से लेकर क्षत्रिय, यादव, कुर्मी, जाटव, मेहतर आदि सभी जातियों के लोगों में हो सकता है जो धन-धान्य और प्रतिष्ठा से पूर्ण है । अब आप रामविलास पासवान, मायावती आदि को दलित कहते रहिए । इसी में उनका हित है । वास्तव में वह ‘ब्राह्मण’ अर्थात ‘ब्राह्मणवादी’ हैं । 

चार : कोई जाति या धर्म किसी पर शासन नहीं करता है । शासन केवल सत्ता करती है । जिस जाति की सत्ता है उसी के अनुरूप इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्र चलता है । सत्ता में ब्राह्मण बैठा है तो वह अपने हित में इतिहास लिखकर सामाजिक नियम बनाएगा । क्षत्रिय बैठा है तो अपने हित में इतिहास लिखकर सामाजिक नियम बनाएगा । पिछड़े या दलित अथवा अन्य जनजाति के लोग सत्ता में हैं तो वह अपना इतिहास लिखकर अपने हित में नियम बनाएंगे । कांग्रेस ने अपना इतिहास लिखा-लिखवाया और अपने हित में कानून बनाए । सपा ने अपना इतिहास लिखा-लिखवाया और अपने हित में कानून बनाए । बसपा ने अपना इतिहास लिखा-लिखवाया और अपने हित में कानून बनाए । अब भाजपा अपने हित में इतिहास लिखबा रही है, अपने हित में कानून बना रही है । कल जो था उसने सत्ता का प्रयोग अपने हित में किया । कल जो होगा वह सत्ता का प्रयोग अपने हित में करता रहेगा । 

वास्तव में आज के दलित चिंतक जिस ब्राह्मणवाद, सनातनवाद, जातिवाद, धर्मवाद, ईश्वरवाद आदि को पानी पी-पीकर गालियां दे रहे हैं, स्वयं भी उसी को तेजी से अपना रहे हैं । एक जाति के स्थान पर दूसरी जाति, एक ईश्वर के स्थान पर दूसरा ईश्वर, एक धर्म के स्थान पर दूसरा धर्म, एक आडंबर के स्थान पर दूसरा आडंबर, गाली के बदले गाली, घृणा के बदले घृणा, अंधभक्ति के बदले अंधभक्ति सब कुछ तो वही कर रहे हैं, जिसका विरोध करने का दंभ पाले हुए हैं । ‘ब्रह्मणत्व’ का विरोध करके स्वयं ‘ब्राह्मणत्व’ ही धारण कर रहे हैं । किस बात की समानता के लिए लडा जा रहा है ? किस नए समाज की स्थापना का स्वप्न संजोया जा रहा है ? जिस ‘रोटी’ और ‘बेटी’ की समानता की बात की जा रही है, वह क्या ‘घृणा’ और ‘गालियों’ से मिलेगी ? सब केवल कहना चाहते हैं । कोई सुनने और जानने को तैयार नहीं है । एक समय था जब सवर्ण कही जाने वाली जातियों ने अपने इतिहास को स्वीकारा था । वह समाज में समानता के नारे के लिए आगे भी बढ़े । दलितों से कहीं अधिक प्रगतिशील विचारक इन्हीं सवर्न जातियों से निकलकर सामने आए लेकिन दलित चिंतकों के सवणवादी हथियारों की चोट ने उस सिमटती हुई खाईं को और बढ़ा दिया । वर्तमान मनुवादी सरकार ने इस खाईं को चौड़ा करने में आग में घी का काम किया । सबसे मज़े की बात यह कि आज के दलित चिंतक इस बात को समझना ही नहीं चाहते । उनका यह ब्राह्मणवादी अहंभाव इस चौड़ी होती खाईं को और चौंड़ा रहा है । 

निष्कर्षता : 

01. दलितों के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि वह जिस ‘ब्राह्मणवाद से लड़ना चाहते हैं उसके लिए उन्होंने स्वयं कोई हथियार नहीं गढ़े । वह उन्हीं के हथियारों से इस विभीषिका से लड़ने का दंभ समाज में फैला रहे हैं । 

02. आंबेडकर को छोड़ दें तो अभी तक मेरी समझ से दलितों में कोई मौलिक चिंतक तक नहीं है जो अपने चिंतन से कुछ कह सका हो । जिन कबीर, ज्योतिबा फुले, पेरियार, ललई यादव, सन्तराम बी.ए. या शाहू जी महराज आदि के नारे लगाए जाते हैं; वह सब के सब तो पिछड़े वर्ग के हैं । क्या कारण है कि आंबेडकर के बाद अब तक कोई मौलिक चिंतक उक्त पिछड़े चिंतकों के समकक्ष नहीं खड़ा हो पाया है । 

03. वास्तव में आज दलित आंदोलन अपने ही अंतर्विरोधों में उलझकर रह गया है । यदि यह लोग परिस्थितियों और अवसर (आरक्षण और अन्य सुविधाएं व छूटें) का सही प्रयोग अपने सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान हेतु करते तो सामाजिक न्याय के मिशन को दूर तक ले जाया जा सकता था । परन्तु बदले की भावना और सत्ता के मोह ने इन्हें भटका दिया है । 

सही मायनों में राजसत्ता इनका अपने ढ़ंग से प्रयोग कर रही है । आप लड़ते रहिए । कुछ मुट्ठी भर लोग आपको लड़ाते भी रहेंगे, लेकिन आप समाज में समानता से चलने और उठने-बैठने के बारे में कभी मत सोचिए । यह खाईं कम होने की बजाय और अधिक बढ़ती जाएगी । 

प्रिय भाइयों चिंतन को गहरा कीजिए । राजनैतिक वितंडावाद को समझिए । जाति का पोषण करने की बजाय समाज में समानता की बात कीजिए । ब्राह्मणवादी हथियारों को उखाड़ फेकने का साहस जुटाइए । गाली देकर नहीं । कर्म से, व्यवहार से । मौलिक चिंतन से ऐसा बहुत ही आसानी से हो सकता है । ‘जय श्री राम’ के प्रतिरोध में ‘जय भीम’ बोलने के स्थान पर आंबेडकर जी के विचारों को आत्मसात करिए और उनको ज़मीनी लोगों को सहज भाषा में, सहज रूप में समझाने का प्रयास कीजिए, जिससे वह ब्राह्मणवाद के जटिल चंगुल से निकल सकें । कम से कम बोलिए । अधिक से अधिक करिए । पढिए, पढ़ाइए और आर्थिक संपन्नता के लिए मन से प्रयास करिए । तभी इस जाति से मुक्ति संभव है । अन्यथा सत्ता किसी न किसी जाति के रूप में हमारा दोहन करती रहेगी । हमें लड़वाती रहेगी । 

सुनील मानव
जगतियापुर, 
पीलीभीत(उत्तर प्रदेश)
9307015177

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