समाज की मानसिक विकृति का चित्रण है ‘गंठी भंगिनियाँ’ : संतोष कुमार 

‘गंठी भंगिनियाँ’ कृति में वर्णित कथा का एक छोर यदि ग्रामीण भारत के उस सामन्ती सोच वाले समाज की मानसिक विकृति का चित्रण करता है जो दलित समुदाय को पीढ़ी दर पीढ़ी अपना गुलाम बनाए रखता है तो उन दलितों में भी दलित परिवार की मनोदशा का चित्रण करता है जो भूख के लिए दूसरों के घरों की जूठन खाने को भी अति संघर्ष करता है । अति दलित समुदाय की सामाजिक उपेक्षा को स्वर देना ही इस कथा-पटकथा का उद्देश्य है । सामाजिक उपेक्षा का शिकार यह दलित समुदाय न तो उपेक्षा के दलदल से निकलने का प्रयास करता है और न ही अपने मानवीय अस्तित्व की पहचान के लिए कटिबद्ध होता है । प्रतिदिन सवर्णों की गालियाँ खाना जैसे उनकी नियति ही बन गई है ।

 धार्मिक अंधविश्वास वाले इस समाज में हर अवसर पर दादी (गंठी) और बाबू की जरूरत पड़ती है – चाहें शादी हो, जन्मोत्सव हो या फ़िर गाँव की पूजा हो । लेकिन पारिश्रमिक के रूप में उन्हें कुछ अनाज, कुछ पैसे, बताशों का भुरकुन ही मिलता है, क्योंकि यह उनकी गुलामी का प्रतीक है न कि उनके श्रम से जुड़ा हुआ व्यवसाय । इसीलिए उन्हें तरह-तरह की उपाधियाँ मिलती रहती हैं । “तुम नीच जाति के लोगों की नीयत ठीक नहीं, रहोगे नीच के नीच ही ।” वास्तव में यह दलित समुदाय को गुलाम बनाए रखने का मंत्र है जो उन्हें बार-बार याद दिलाया जाता है । मनुष्य द्वारा मनुष्य की ऐसी उपेक्षा समाज पर एक प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है । क्या वास्तव में मनुष्य इतना कठोर हृदय हो गया है जो कि दूसरे मनुष्य को भूखा देखकर, मैला उठाते देखकर, दया-भाव नहीं दिखाता है बल्कि उपेक्षा भरी दृष्टि से व्यंग्य करता है ।

 इस पटकथा का एक दृश्य तो हृदय झकझोर देता है । जब एक ब्राह्मण पात्र ‘सत्यनारायण’ के लड़के के जनेऊ में दादी सूप लेकर जाती हैं, साथ ही दादी के बच्चे भी कुछ खाने की लालसा से उनके साथ पहुँचते हैं । ऐसे में सत्यप्रकाश द्वारा दादी को फ़टकारना एवं मेहमान द्वारा गालियाँ देना दादी के लिए असहनीय हो जाता है । उनकी आँखें डबडबा आती हैं । धर्म के ठेकेदारों का चरम अंधविश्वास दृश्य पच्चीस में देखने को मिलता है जहाँ ‘देवी !’ को खुश करने का अन्धविश्वास पूर्ण प्रहसन होता है । लेकिन मनुष्य के हताश, दवे, कुचले हृदय पर किसी का हृदय द्रवित नहीं होता है । हजारों रूपए का सामान पूजा में चढ़ाया जाता है किन्तु इस उपेक्षित मनुष्य को सुअर के बच्चों की पूरी कीमत पाने के लिए गालियाँ और खरी-खोटी सुनने को मिलती हैं । समाज की छुआछूत वाली भावना से ग्रसित यह परिवार हरेक मौके पर उपेक्षा और बेइज्जती का सामना सिर झुकाकर करता है और मन में यह सोच लेता है कि कभी बाबा साहब के प्रयासों से हमारी भी स्थिति सुधरेगी ।

 इस कथा में निश्चय ही लेखक ने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी जमीदारी प्रथा वाले परजीवी को महसूस किया जो आज भी समाज में जीवित है । इसके सूत्र प्रेमचन्द की ‘ठाकुर का कुआँ’ कहानी में मिलते हैं । यह वह समाज था जिसमें दलितों के लिए कोई स्थान नहीं था । कुछ सामन्तवादी सोच वाले अपने बचाव में इस समाज के संविधान को मनु द्वारा निर्मित बताते हैं, जिसमें शूद्र के लिए सेवा का कर्य निर्धारित है । लेकिन आज तो उसका अतिवाद हो गया । उसे सेवा करने के साथ, गालियाँ खानी पड़ती हैं । भूखे भी रहना पड़ता है । ठीक ही लिखा है प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने “मनु के संविधान में अम्बेडकर के लिए कोई स्थान नहीं लेकिन अम्बेडकर के संविधान में मनु का पूरा स्थान है ।”

 इस कथा में कुछ प्रसंग ऐसे भी हैं जहाँ पर जिंदगी का बोझा ढोते हुए दादी और बाबू की क्षुब्द शृंगारिक हँसी से अपना मन हल्का कर लेते हैं किन्तु उसी क्षण जब दादी द्वारा बाबू की बहिन के पेट में पल रहे बच्चे का जिक्र आता है तो माहौल विद्रोहमय हो जाता है और बाबू कहता है – ‘‘अच्छा है साला पण्डित की औलाद होकर टट्टी साफ़ करेगा लोगों की ।” यह दृश्य प्रेमचन्द के गोदान में पं. मातादीन और सिलिया की याद दिलाता है । इस कथा की पतकथा का विस्तार लेखक द्वारा पत्नी और मित्रों के बीच हुई चर्चा के द्वारा होता है । निश्चय ही एक लेखक द्वारा महसूस की गई दलित परिवार की पीड़ा की अभिव्यक्ति है । जिसमें लेखक अपनी सम्वेदनाओं को इस कथा के माध्यम से प्रस्तुत करता है ।

 कथा में लेखक के पुस्तकालय, लैपटाप और पत्नी का दृश्य कई बार आया है जो कि लेखक की दादी के प्रति आत्मीय भावनाओं को इंगित करता है । इस पटकथा के संवाद पात्रानुकूल, स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक हैं । प्रत्येक पात्र अपने वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व करत है । जिसमे लेखक भी गौण पात्र के रूप में सामने आता है । अंतत: शिल्प और भाव दोनों ही दृष्टियों से यह रचना आज के ग्रामीण परिवेश का जीता-जागता चित्र है । इस कृति की कथा न तो पूर्ण कहानी है, न संस्मरण और न ही रेखाचित्र है; जैसा कि लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है लेकिन देखा जाय तो इन विधाओं से बाहर भी नहीं है । पटकथा के दृश्य और संवाद दो समाजों के बीच की मन:स्थिति को प्रकट करन में पूरी तरह से सक्षम हैं । मानस स्थली 18.08.2019

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