होली




रद ऋतु की शीतलता अब कुछ कम हो चली थी। जबसे सूर्य मकर रेखा से उत्तरायण हुए थे, भास्कर महराज की उर्जा सीधे तौर पर पृथ्वी की ओर उन्मुख हो चली थी। इस पर दो-तीन बार हुई बारिश ने मौसम को और भी साफ कर दिया था। ‘माह’ महीने की कपकपाहट से रजाई में दुबक चुके किसना ने जब रजाई से बाहर मुँह निकाला तो सूर्य नारायण उसके चेहरे पर दीप्तमान हो उठे। बावजूद इसके हवा के झखोरों ने उसे रजाई में ही कुछ देर और दुबके रहने पर मजबूर कर दिया। अब वह रजाई में ही दुबके हुए बदलते हुए मौसम का जायजा लेने लगा।
किसना के बरोठे के सामने ही उसका बाग था। अत: अनायास ही उसका ध्यान सीधे बाग में भ्रमण करने लगा। उसने देखा कि तमाम सारे पेड़ों के पत्ते पीलापन ले चुके थे, शरदी की शीतलता से भरी हुई बयार से वह ऐसे डोल रहे थे जैसे किसी बिरही का हृदय प्रिय-मिलन को डोलता है। पीले हो चुके पत्तों का पेंड़ों के साथ उनका जुड़ाव अब टूटा कि तब टूटा वाली स्थिति को बयाँ कर रहा था। वह कभी भी डालियों का साथ छोड़ सकते थे।
बाग में भ्रमण करता हुआ किसना का मन प्रफुल्लित हो उठा। अब वह रजाई से निकलकर पूरी तरह से प्रकृति के इस मनभावन वातावरण का अंग बन गया। उसका आलस घर पर ही रजाई में दुबका रह गया।
बाग में टहलते हुए उसकी नजर आम के एक छोटे से बूटे पर ठिठकी। यह अभी ‘पारसाल’ ही तो पुवायाँ के राजा साहब के बाग से लाकर लगाया गया था। राजा साहब से इस एक पेड़ को माँगने के लिए कितनी हिम्मत जुटाई थी उसके दादा ने। तब जाकर कहीं इसे अपने बाग में लगा पाया था किसना के दादा ने। तब यह एक नन्हा शिशु जैसा था लेकिन आज देखो कैसे अपने से बड़े और बुजुर्ग पेड़ों पर इतरा रहा है। जहाँ बड़े और बुजुर्ग पेड़ अभी अपने पुराने पत्ते गिराने की सोच भर रहे हैं, वहीं यह महोदय हैं कि नई कोंपल से अपना शृंगार करने में मस्त हैं। बात अगर कोपलों से शृंगार तक रहती तो भी ठीक था, यह तो अपनी कोंपलों में बौर के पैबंद भी लगा चुके हैं। किसना का मन इस छोटे से आम के पेड़ की ठिठोली देखकर झूम उठा। उसकी बुद्धि मौसम का विश्लेषण करने लगी।
वैसे तो बसंतपंचमी से पेंड़-पौधे और वनस्पतियों में बदलाव आरम्भ हो जाता है और होली आते-आते वह पूरी तरह से खिल जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद भी कुछ ऐसे वृक्ष हैं जो सबसे अंत में अपना शृंगार करते हैं। किसना को अपने दादा याद हो उठे। वह सोचने लगा कि प्रकृति कितना सिखाती है।
होली का त्यौहार सबसे मौज-मस्ती भरा होता था। इसके साथ ही बच्चों, क्या सभी के लिए यह नये कपड़ों की सौगात लाता था। गरीबी ने पूरे समाज को बुरी तरह से अपने आगोश में ले रखा था। ऐसे में साल में केवल एक दफा ही कपड़े बन पाते थे। इस कारण बच्चों को तो सबसे ज्यादा इंतजार रहता था होली का। सबके मन में उल्टी गिनतियाँ आरम्भ हो जाती थीं, जैसे-जैसे होली पास आती जाती थी। किसना अपने बचपन के वह दिन सोच के प्रफुल्लित हो उठता।
दादा सबसे पहले घर के सभी बच्चों के लिए कपड़े बनवाते थे, फिर घर की औरतों के लिए। उसमें भी पहले बहुओं के लिए, उसके बाद बहुओं की सास, अर्थात् अपनी पत्नी और किसना की दादी के लिए। इसके बाद नम्बर आता था किसना के चाचा, ताऊ और पिता का। जब इन सबके लिए कपड़े बन जाते तो अगर व्यवस्था होती तो अपने लिए एक कुरता-धोती ले लेते। वो भी दादी और अपने लड़कों के बार-बार कहने पर।
‘. . . अरे! अइसे थोरउ होति कि पूरे घर के ले कपड़ा बनवाइ दे. . . और अपने आपु सालु भरिके तियुहारम अइसेइ रहउ. . .’ दादी झिड़कते हुए दादा को अपने लिए कपड़े बनवाने का आग्रह करतीं। लेकिन दादा महज मुस्कुराकर उन्हें टाल देते थे। सबके कपड़ों के बाद दादा के मन में दूसरी गणित शुरू हो जाती थी। गेहूँ कटने हैं। इसके लिए भी तो व्यवस्था करनी पड़ेगी।
जब वह किसी प्रकार से अपने लिए कपड़े लाने को तैयार नहीं होते तो बड़े ताऊ या पिता जी में से कोई जाकर चुपचाप उन्हें बताये बिना उनके लिए कपड़े ले आता था।
किसना ने अपने सामने नई कोंपलों और निकलना आरम्भ होते हुए ‘बौर’ की मस्ती में इठला रहे आम के इस छोटे पेड़ की तुलना अपने आपसे और बड़े दरख्तों की तुलना अपने दादा से करके प्रकृति एवं मानव जीवन में सामंजस्य स्थापित कर लिया।
यह सब सोचता हुआ किसना आगे बढ़ गया। आगे बढ़ते हुए उसका ध्यान बाँस की ‘झोंत’ में चारो ओर से लिपटी हुई ‘घुँघची’ ने अपनी ओर आकर्षित किया। किसना ने देखा कि ‘घुँघची’ बाँस के चारो ओर ऐसे लिपटी हुई थी जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रेमी से लिपटी हो। वह उसे देखकर मुस्कुरा उठा। किसना को अपने पर इस तरह से मुस्कुराते हुए देखकर कुछ लज्जाबस और ज्यादा लाल हो उठी। उसने मारे सरम के अपने काले पलक ‘मूँद’ लिए। इस पर किसना को बड़ी तेजी से हँसी आ गई। वह इतनी जोर से हँसा कि पूरा का पूरा बाग उसके साथ खिलखिला उठा। अपने चारो ओर आनंद को साकार पाकर किसना का मन मयूर की माफिक नाच उठा। वह इतना आनंदित हो गया कि वहाँ से आगे बढ़ते हुए होली का एक धमार गीत गुनगुना उठा –
‘मुरली धुनि बाजति एक सुरू – २
बाँके तिरभंग की बंसी बजइ, पगु नइकु हिलइ ना बजइ घुँघरू।
बाजत बेन पखाबज आमंद, अमृत कुंडल बेन डमरु।
राजा इंद्र की नइका ने नृत्य करो, मंघबा छहिराने छत्तीसउ कुरू।
ब्रह्मा अरु सुखसारद नारद, सनकादिक अरु सहदेव गुरू।

* * *
हालाँकि हवा में अभी काफी शीतलता थी, फिर भी सूर्यदेव की तपिश ने जनमानस को बाहर निकलने की ताकत तो दे ही दी थी। बावजूद इसके अभी भी सुबह-शाम को होने वाली सर्दी बिना पोर तापे दूर नहीं होती थी। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता था काम-धंधे में, लेकिन शाम होते-होते सर्दी की गलन बढ़ने लगती थी। सूखा पाला गिरने से हाथ-पैरों की अंगुलियाँ सुन्न पड़ जाती थीं, जो बिना आग तापे सामान्य नहीं होती थीं। पाले भरी इन रातों में रजाई इतनी ठण्डी हो जाती थी कि उसके अंदर का जीव अंकगणित का ‘आठ’ बन जाता था।
दिन के दो पहर बीत चुके थे और तीसरा पहर चौथे के माफिक लग रहा था। कुछ ही देर में शाम घिरने को तैयार खड़ी थी। किशनपुर की औरतें-बच्चे बाग में सूखे पत्ते और लकड़ियाँ इकट्ठा करने में लगे थे। कोई पत्ते बटोर रहा था तो कोई पेंड़ से सूखी लकड़ियाँ बटोरने में मग्न था। कुछ लोग सुबह को छोले गये गन्ने के खेत से सूखी पताई का बोझ बाँध रहे थे। कुल मिलाकर सभी शाम की ‘पोर’ का इंतजाम करने में लगे थे। इसके साथ ही गाँव की कुछ लड़कियाँ ‘होलिका’ पर डालने के लिए फूल चुन रही थीं।
बसंतपंचमी ने होली के आगमन की सूचना दे दी तो प्रकृति से लेकर जन-मानस तक सभी अपनी-अपनी तरह से उसके स्वागत की तैयारी करने लगे। ‘फुलहरी द्विइज’ की तिथि को निकले दो-तीन दिन बीत चुके थे। लड़कियाँ अपने भाइयों की लम्बी उम्र और उनके लिए एक सुन्दर ‘बहुटिया’ की प्रार्थना में होलिका–पूजन की तैयारियों में मस्त होने लगी थीं।
किसना के मस्तिष्क में होलिका पर लड़कियों द्वारा फूल डालने का बिम्ब सजीव हो उठा। कितना रोचक होता था यह सब। कितना आनंद होता था इसमें।
गाँव की तकरीबन सभी लड़कियाँ दिन में फूल चुनकर लाती थीं। बड़े मजे की बात यह थी कि होलिका पर चढ़ाए जाने वाले यह फूल गेंदा, गुलाब, कमल, बेला, चमेली, कनेर, गुड़हल आदि पारम्परिक फूल नहीं होते थे। यह फूल होते थे टेंसू, कचनार, भटहरिया, सरसों अर्तात् लाही, चमरौधा अर्थात् विसइंधा, बिलइया आदि के। टेंसू लालिमा से भरा हुआ होता था तो कचनार बैंगनी चुनरी ओढ़कर इतराता था। सरसों अपने पीले रंग से बसंत के पूरे वातावरण को अपने में समाहित कर लेती थी तो चमरौधा और बिलैया के फूल अपने सफेद और नीले रंगों के मिश्रण से जमीन में बिछ जाते थे। सब के सब गर्व से इतराते हुए एक-दूसरे को अपने आगोश में लेने को मचलने लगते थे।
यह सभी फूल इसी समय अर्थात् केवल बसंत के मौसम में ही खिलते थे और इनका प्रयोग गाँव की कुँवारी कन्याओं द्वारा होलिका-पूजन में ही किया जाता था। किसना अक्सर सोचा करता कि हो न हो लेकिन बसंत को इन फूलों से ही विशेष प्रेम रहा होगा। यही फूल जमीन की असली उपज लगने लगे उसे। मन विचारवान हो उठा। वास्तव में यहीं फूल हमारी आस्था के असली प्रतीक हैं। वरना तो सब हमारी विलासिता को ही अधिक दर्शाते हैं।
गाँव की इन कुँवारी लड़कियों द्वारा ‘होलिका-पूजन’ की विधि भी बड़ी रोचक होती थी।
पहले लड़कियाँ अपने-अपने घरों में शाम ढलने से पहले एक ‘चौक’ पूरती थीं। इस चौक में एक भाई का प्रतीक बनाया जाता था और उसकी बहूं के प्रतीक स्वरूप एक चाँद बनाया जाता था। इसके साथ ही अर्धचन्द्राकार आकृति में कुछ तारे आदि बनाए जाते थे, जिन्हें ‘जुगियां’ कहा जाता था। जब ‘चौक’ पूरी तरह से बन जाता था तो घर की सभी कुंवारी लड़कियाँ मिलकर उस चौक का पूजन उक्त फूलों से करती थीं। इसके बाद घर से लेकर गाँव तक की तमाम सारी लड़कियाँ एक साथ मिलकर अपने-अपने हाथों में फूलों से भरी ‘डलियां’ लेकर होलिका-पूजन के लिए कुछ गाती हुई चलती थीं। लड़कियों के हाथ की इस ‘डलिया’ में फूलों के साथ गाय के गोबर की कंडी, आटा, फूल चुके गेहुओं की एक-दो बालियाँ और खेत के गन्ने से बनाया गया ताजा गुड़ आदि होता था।
होलिका-पूजन के लिए जाता हुआ लड़कियों का यह समूह गाँव की जिस गली से निकलता था, लोग बड़ी उत्सुकता और आनंद के साथ उनके इस विशेष पूजन को देखने लगते थे।
गाँव में होलिका का स्थान रामचन्दर प्रधान के घर के पास उत्तर की ओर होता था। सभी लड़कियाँ अपने घरों से होलिका तक का यह सफर एक विशेष होली गीत गाते हुए तय करती थीं। सुमना गाने में बड़ी फरचट हुआ करती थी। और हो भी क्यों ना, उसकी अम्मा भी तो बड़ी गवैया थीं। अम्मा ने अपने सभी गीत बड़ी मेहनत से सुमना को याद कराये थे और गाने का तरीका भी सिखाया था। फूल डालने जाते हुए सभी लड़कियाँ जब सुमना की ओर गाने के लिए निगाह उठातीं तो सुमना अम्मा द्वारा सिखाया गया एक गीत गा उठती थी।
सुमना इन लड़कियों में सबसे बड़ी थी। सोलह बसंत देख चुकी थी और बप्पा उसका बियाह भी पास ही के गाँव कनेगापुर से तय कर आये थे। होली बाद की किसी तिथि को वह इस गाँव से विदा होने वाली थी। अम्मा-बप्पा के गाँव का यह होलिका-पूजन सुमना का अंतिम होलिका-पूजन था।
सुमना ने अपना सबसे प्रिय होली गीत गाना आरम्भ किया तो साथ की सभी लड़कियों ने उसका साथ पूरी तन्मयता से दिया –

‘अरे थोरी सी पिरीति करउ मेरे बालम,
मैं हूँ धना अलबेली हो – २

अरे ईंट को सिंधुरा, कोयल को कजरा
अरु उपरी(कंडी) की बिंदिया लगाबउ मेरे बालम
मैं हूँ धना अलबेली रे. . .

अरे धरती की अंगिया, बादर को रुपट्टा
कउंधा की अंगिया सिआंउ मेरे बालम
मैं हूँ धना अलबेली रे. . .

अरे साँप के नारा, बिछुन के फुंदना
हर्रइं की बर्रइं डराउ मेरे बालम
मैं हूँ धना अलबेली रे. . .

लड़कियों द्वारा गाए जा रहे होली गीतों के साथ एक जुमला बार-बार दोहराया जाता था। सभी लड़कियाँ एक स्वर में और ऊंची आवाज में कहती थीं – ‘अटहरि फूली, भटहरि फूली, मेरे बिरन की बगिया फूली।’
किसना भावुक हो उठा इस प्रसंग को याद करते हुए। उसकी आँखों के सामने होलिका पर फूल डालने जाती हुई लड़कियों की छवि नजर आने लगी।
गाना गाते-गवाते हुए लड़कियाँ जब उस स्थान पर पहुँच जाती थीं जहाँ होलिका को स्थापित किया गया है तो वहाँ पर भी होलिका-पूजन की एक विशेष रीति निभाई जाती थी।
गाँव में होलिका को स्थापना की भी बड़ी विशेष रीति हुआ करती थी। बसंतपंचमी के दिन गाँव के सद्धू बुड्ढे, जोकि गाँव में आयोजित होने वाले सभी सांस्कृतिक कार्यों के मुखिया हुआ करते थे, ‘अंडौवा’[1] की जड़ को एक स्थान पर स्थापित करते थे। इसके बाद गाँव के लड़के उस स्थान पर फूस इत्यादि एकत्र करते रहते थे होली जलाए जाने के दिन तक।
पूरे गाँव की तकरीबन सभी छोटी-बड़ी लड़कियाँ होलिका के पास एकत्र हो चुकी थीं। सभी लड़कियाँ दो-दो, चार-चार के गुटों में होलिका के चारो ओर बैठ गईं। फूल इत्यादि पूजा सामिग्री से भरी हुई डलिया अपने पास में रखी। पहले सबने अपनी-अपनी डलियों से गाय की एक कंडी निकाली। इस कंडी पर चौक पूरा गया। इस चौक पर ही अपने भाई और चाँद जैसी उसकी दुलहिन का प्रतीक बनाया गया। फिर सबने एक साथ मिलकर कोई होली गीत गाया। होलिका के सात फेरे लगाए। हर फेरे के साथ बसंत के प्रिय फूल होलिका को अर्पित किए। इसके बाद सभी लड़कियों ने एक साथ खड़े होकर, हाथ में चौक-पूरित कंडी लेली। और अब सबने एक साथ ऊँचे स्वर में ‘. . . मेरे भइया की बहुटिया इत्तीऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ बड़ी आबइ. . . ’ कहते हुए कंडी को ऊपर आसमान में चाँद की ओर तेजी से उछाल दिया। लड़कियों के साथ पूरा गाँव कुतूहल से भर उठता था इस समय।
मारे रोमांच के सिहरन से भर उठा किसना का पूरा शरीर। माटी की गंध ने उसका रोम-रोम महका दिया। बहुत देर तलक वह गाँव की उन लड़कियों के द्वारा होलिका-पूजन के बारे में सोचता रहा।
होली के समय जहाँ एक ओर लड़कियों द्वारा इस प्रकार से होलिका का पूजन किया जाता था, वहीं दूसरी ओर गाँव के लड़के होलिका पर फूस, लकड़ी आदि डालने की आड़ में इन लड़कियों से छेंड़-छाड़ करने की भी जुगत बना लेते थे। इस काम में सबसे आगे होता था जीनू पतरिया और उमराय। सभी लड़के इनकी ही अगुवाई में सारे काम करते थे। किसी के यहाँ से लकड़ी या फूस आदि चुराना हो या फिर फूल डालने जाती हुई लड़कियों को तंग करना हो, जीनू पतरिया और उमराय सबसे आगे होते थे।
यह सब मिलकर रोज-रोज कोई न कोई नया तरीका बना लेते थे लड़कियों को तंग करने का। आज भी इन्होंने एक नया तरीका ईजाद कर लिया था।
सबसे पहले तो उमराय कुछ लड़को के साथ नन्हेंलल्ला के घर के सामने वाली बाँसी में कुछ अन्य लड़को के साथ छुपकर बैठ गया। जब लड़कियों का समूह वहाँ से गाते हुए निकला तो यह सब लड़के एक साथ अपने शरीरों पर पताई बाँधे हुए ‘हूऽऽऽऽऽऽ’ करके अचानक उनके सामने आ खड़े हुए। सभी लड़कियाँ एकबारगी सहम कर रह गईं। लेकिन जब उन्हें पता चला कि यह हरकत उन्हें डराने के लिए उमराय और उसके साथियों ने की है तो लगीं गाने के सुर में ही गालियाँ देने।
सुमना जिस तरह से गाने में उस्ताद थी उसी तरह से गालियों में भी उसका कोई जोड़ नहीं रखता था। उसने गाना बीच में ही छोड़ दिया और जो भी मुँह में आईं सभी गालियाँ इन लड़को पर बक डालीं।
गालियाँ देने में सुमना के साथ रामबती, रिम्मी, चन्दो, सुखरानी, सोमबती, उमिया आदि भी बड़ी फरचट थीं। सबने लड़कों को वो गालियाँ सुनाईं कि उन्हें वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई नजर आई।
‘. . .  अरे हइजा परइ तुम पर जरिगेउ. . . दहिअरचोदेनक अउरु कोई कामइ नाइं . . . कुत्ता कहूंकि. . . हरामिनकि मुँहनम कीरा परइं. . . हाथी कहूंकि. . .’
लेकिन यह लड़के भी थे बड़े जमूरे। रोज गालियाँ खाते थे और रोज छेड़ने आ जाते थे। और तो और बड़ी बेहयाई से कहते जाते थे ‘. . . बुरा ना मानों होरी है गुइयां. . . ’।
किसना लड़कियों द्वारा सुनाई जा रही इन गालियों को याद करते हुए अपने आप में ही हँस पड़ा। सब लड़के वहाँ से भाग लिए। जिसको जिधर जगह मिली छिप गया।
लड़कों के इस समूह में कई लड़के ऐसे भी हुआ करते थे, जिनकी बहनें भी सुमना के साथ गले से गला जोड़कर उन्हें गालियाँ दिया करती थीं। अब कोई इस तरह की बत्तमीजी थोड़ो ना पसंद करेगा। भाई के लिए पूजा, प्रार्थना अपनी जगह और इस तरह के गलत काम पर गाली देना अलग बात है।
अब लड़कियाँ गाने की जगह लड़को को कोसते-गरियाते हुई होलिका की ओर बढ़ गईं। होलिका पर पहुँचने के बाद जैसे ही लड़कियों ने पूजा कर-कराके कंडी ऊपर की ओर उछाली वैसे ही एक बार फिर जीनू पतरिया और उसके कुछ साथी होलिका पर पड़ी पताई में से ‘हरहराकर’ बाहर निकल पड़े। सभी लड़कियाँ मारे डर के एकबारगी ‘हक्की-बक्की’ रह गईं। लड़के तो वहाँ से निकलकर भाग लिए लेकिन लड़कियाँ उन्हें गालियाँ देती रहीं।   
कुल मिलाकर कहा जाए तो बड़ा ही मोहक दृष्य हुआ करता था यह होलिका-पूजन का।
होलिका-पूजन के इस हुड़दंग से किसना की स्मृतियाँ वापस गाँव की ओर उन्मुख हो चली थीं। रात का अंधेरा बढ़ चला था। गाँव के अधिकांश लोग खा-पीकर अपने-अपने बिस्तरों पर जा चुके थे। हाँ! कुछ लोग अभी भी सुलग रही ‘पोर’ पर बैठे बतिया रहे थे। किसना जल रही एक पोर पर जा बैठा। ‘पोर’ पर इस बार की धमार की चर्चा चल रही थी।
‘. . . तउ दद्दा अबकी दाउँ परकास धमहरि नाइं बंधिहीं. . .’ उमाशंकर ने बात उठाई।
‘. . . नाइं बंधिहीं ता लउंड़िया चुदाबइं . . . उनइं का लगति. . . बइ धमहरि नाइं बंधिहीं ता गाँवुम धमारि नाइं बाँधी जइही. . .’
‘अउरु का दद्दा. . . भोंसड़ीकि समझत हइं कि उन्हेंकि गाँड़ि तरे गंगा बहति हइ. . .’
‘. . . बउता कहउ बंधू चच्चानि उनके दुआरे धमरिकि पिरथा डारि दइ. . . तबसे बेहेइ ढर्राप चले आउत. . . नाइंत का उनइं गाउनोउ आउति एकउ धमारि . . . ’
‘. . . लेकिनि चच्चा धमहरि की ढ़ोलकइं औरु मोरछाला ता सब के सब उन्हेंकि तीर धरे हइं. . . बहिता दिहीं नाइं. . .’
‘. . . बहकी अम्माकु भोंसड़ा सारेकि . . . उनकी लउंड़िया चोदिकि रक्खि दिहीं. . . अगर एकउ दाउं मना कद्दो . . . मोरछाला अउ ढोलकइं देनक . . . ’
‘. . . तुमहूँ दद्दा बेकारकि बातइं कत्त हउ. . . उन्ने का मना करो देनकि ले. . . अउरु बइ भाई काहे मना करिहीं. . . धमहरिकु सारो सामानु ता गाँवुकि पंचाइतिकु हइ. . .’
‘पोर’ पर खड़े-खड़े किशना को नींद ने दस्तक दी तो उसका मन पोर की इन बिलामतलब की बातों से ऊबने लगा। वह वहाँ से सीधे आकर बिस्तर पर पड़ गया। मारे नींद के उसे खाने की भी सुध नहीं रही, लेकिन अम्मा की कौन कहे. . . जब तक खिला नहीं देतीं . . . उन्हें ‘कल’ नहीं पड़ती।
अम्मा ने नींद के आगोश में जा चुके किशना को जबरदस्ती जगा दिया और परोसी हुई थाली उसके सामने रख दी।
‘. . . अम्माऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ . . . नींद आइ रही हइ . . .’
‘. . . हाँ . . . हमहूँक पता हइ कि नींद आइ रही हइ. . . पूरी राति परी हइ सोउन कि ले. . . रोटी खाइ लेउ. . . फिरि सोउनेइं हइ. . .’ कहते हुए अम्मा घर के अंदर पानी लेने चली गईं।
किशना ने नींद से भरे हुए ही जैसे-तैसे खाना खाया। उसे पता था कि जब तक वह खायेगा नहीं. . . अम्मा उसे सोने नहीं देंगी।
किशना के साथ अक्सर यही होता था। देर रात को नींद से भरा हुआ घर आता था और अम्मा उसकी नींद को झकझोरकर भगा देती थीं। खाना खा-पीकर जब वह वापस सोने चलता तो नींद उसे ठेंगा दिखा देती थी। इसके बाद तो ‘खटिया’ पर पड़ा हुआ किशना इधर से उधर और उधर से इधर करवटें बदलता रहता था। आधी से ज्यादा रात तक उसे नींद नहीं आती थी।
अम्मा द्वारा जबर्दस्ती खाना खिलाये जाने के बाद किशना नींद के आगोश में जाने के लिए रजाई में ‘गुडमुड़ा’ गया। पर नींद थी कि एक बार उससे दूर हुई तो अब आने का नाम नहीं ले रही थी।
रजाई में दुबके हुए किशना के कानों में अमिलिया तीर हो रही धमार के अभ्यास में ढोलक पर पड़ने वाली डंके की चोट टकराई। किशना के सामने बंधूसिंह ढोलकिया की छवि सजीव हो उठी। हर कोई पहचानता था उनके डंके की गमक। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि जब बंधूसिंह ढोलकिया ढोल पर होते हैं तो गंगा पार तक उनकी ढोल की गमक सुनाई देती है। वास्तव में उनके जैसा कोई अन्य ढोलक बजाने वाला इस पूरे इलाके में नहीं होता था।
किशना का मस्तिष्क धमार पर एकाग्र हो गया। उसकी कल्पना धमार का अभ्यास कर रही मण्डली में जा बैठी।
बंधूसिंह ढोलक बजा-बजाकर लोगों को एकत्र कर रहे थे। धीरे-धीरे गाँव के तकरीबन बीस-पच्चीस बूढे और अधेड़ लोग वहाँ इकट्ठे हो गये। कुछ नौजवान भी जो धमार के गीत और ढोलक सीख रहे थे। बंधूसिंह इन्हें अगली पीढ़ी के लिए तैयार कर रहे थे।
बंधूंसिंह के हमउम्रों में एक-आध लोग ही थे जो धमार की ढोलक बजा पाते थे। चूँकि बंधूसिंह को धमार और खासकर ढोलक से बड़ा लगाव था, इसलिए वह चाहते थे कि गाँव में उनके बाद भी यह परम्परा बनी रहे। इसके लिए उन्होंने कुछ लड़के चुने थे, जिन्हें वह नियमित अभ्यास कराते थे। असुवा, बड़े भइया, छुटकइया आदि काफी कुछ सीख भी चुके थे। बंधूसिंह आरम्भ करने के बाद ज्यादातर इन्हीं लड़कों से ढोलक बजबाया करते थे।
बंधूसिंह के इन चेलों में एक था रामकिसुन। बड़ा सुआंगी था। नचकैया कहीं का। जब वह धमारा की ढोलक अपनी कमर में बाँधता था तो पूरा गाँव उसे देखने के लिए इकट्ठा हो जाता। वह धमार के गानों की तर्जों पर डंकों की चोट तो करता ही था, साथ ही गवैयों के बीच ऐसे लहराता था जैसे बीन की धुन पर कोई साँप लहराता है।
किशनपुर की धमार पचास गाँवों में मसहूर थी। माती के मेले में जब पूरे इलाके की धमारे अपना-अपना करतब दिखाती थीं तो सबसे बाद में प्रसन्न होकर राजा धर्मेंद्र सिंह इनाम दिया करते थे। जबसे किशनपुर की धमार की कमान बंधूसिंह के हाथों में आई थी तबसे राजा साहब से मिलने वाला यह इनाम किशनपुर कुड़रा की ही धमार पाती चली आ रही थी। दूर-दूर से खिंचे चले आते थे लोग बंधूसिंह की इस धमार को देखने।
एक बार राजा धर्मेंद्र सिंह जी के एक अंग्रेज मित्र उनसे मिलने आये। होली का ही समय था तो राजा साहब ने उन्हें धमार दिखाने का मन बनाया। राजा साहब ने पूरे इलाके से तकरीबन बीस धमारों को अपनी हवेली में बुलाया और उनके बीच प्रतियोगिता रख दी। उस दिन तो धमारों के बीच वह होड़ लगी कि राजा साहब के साथ उनका अंग्रेज मित्र मारे खुशी के गद्‍गद्‍ हो गया। अंग्रेज ने सभी धमारों को अलग-अलग ईनाम दिया तो राजा साहब ने बंधूसिंह को अपने पास बुलाकर अपने गले में पड़ी हुई मोती की माला उनके गले में डाल दी और प्यार से उन्हें गले लगा लिया। बंधूंसिंह मारे खुशी के आँसुओं से सराबोर हो गये। उस दिन राजा साहब से जो सम्मान मिला था, आज भी उनके अंदर उर्जा का आधार बना हुआ था। यही कारण था धमार से उनका इतना लगाव हो गया था।
आज भी जब वह ‘पोर’ पर बैठकर गाँव के लड़के-बच्चों को किस्से-कहानियाँ सुनाते थे तो अनायास ही राजा साहब द्वारा सम्मान पाने वाली उस घटना को भी सुना जाते थे। और तो और जब उनके मस्तिष्क में वह घटना चल रही होती थी तो उनका चेहरा चमक उठता था। उनका सारा गर्व आस-पास बैठे सभी जनों को महसूस होने लगता था।
काफी देर तक बंधूसिंह द्वारा ढोलक बजाने पर तमाम लोग इकत्र हो गए तो बंधूसिंह ने ढोलक असुवा को थमा दी और हरिपालसिंह की ओर गाने की उम्मीद से देखा।
असुवा ने जानबूझकर एक गीत की तर्ज अपनी ढोलक पर गमका दी तो हरिपाल सिंह वही गीत गा उठे –
दीजो ग्यान बताय सुरसुती मात भवानी – २

अउ पहिलै मैं सुमिरौं गुरु अपने, गुरु लइ-लइ नाम ...
दूजे मैं सुमिरौं भवानी, तीजे भगवान, सुरसुती माता भवानी।
दीजो ग्यान बताय सुरसुती मात भवानी – २’

भवानी के इस भजन के बाद उधुमसिंह ने आल्हा पर आधारित गीत का मुखड़ा प्रस्तुत किया –
‘रनबउरे बिना पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे–२

ठोंकि भुजा बल फाँदि परे, तब हेरि रहे मलिखान के डेरे ॥
रनबउरे बिना पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे–२’

हरदुआरी लाला ने अपनी चिर-परिचित होरी गाई – ‘ तेरी सेवा हइ कठिन-कठोर भवानी की सेवा।’
राजबहादुर सिंह गुपली पर आ गए तो असुवा ने गुपली पर ढोल बजाने के लिए ढोल बड़े भइया को सौंपी। गुपली पर ढोल बजाने के लिए बड़े भइया ज्यादा मशहूर थे। बड़ा मजा ले-लेकर बजाया करते थे।
बड़े भइया ने जब ढोल को गुपली के सुर में साधा तो कई नौजवान एक के बाद एक गुपलियाँ गा उठे –
जसुदा तेरो बारो हइ लाल, सखी रस रंग भरो खेलइ होरी–२

पूरब से राधे चाले हो पूरब से राधे चाले
पच्छिम से नंदलाल, सखी रस रंग भरो खेलइ होरी – २
जसुदा तेरो बारो हइ लाल, सखी रस रंग भरो खेलइ होरी–२
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मेरे उठी हइ पसुरिया मा पीर, हो बलमा बिनु बइदु कहा जानइं-२

गलिन गलिन बइदा घूमइ हो गलिन गलिन बइदा घूमइ
कोई अउसधि लीयउ मोल, हो बलमा बिनु बइदु कहा जानइं–२
मेरे उठी हइ पसुरिया मा पीर, हो बलमा बिनु बइदु कहा जानइं-२
***
मेरी देखि अरवरी देह बलम गउनेक नाहीं करि आये – २

कबहून पीसी चाकीया हो कबहून पीसी चाकीया
अउ कबहुन बाटे बान, बलम गउनेक नाहीं करि आये – २
मेरी देखि अरवरी देह बलम गउनेक नाहीं करि आये – २
***
दिउरा मेरे ललइ खिलाउ तले पानी भरि लाबइं सागर से – २

जो तेरे ललइ खिलाबाईं हो जो तेरे ललइ खिलबाईं
तुम का खिलबउनी देउ, तले पानी भरि लाबइं सागर से।
दिउरा मेरे ललइ खिलाउ तले पानी भरि लाबइं सागर से – २
***
होली गाने का जो समा बंधा तो ऐसा लगने लगा कि खतम ही नहीं होगा। एक के बाद एक, एक के बाद एक, कोई ना कोई, कोई ना कोई मुखड़ा ‘उन्सार’ ही देता था। और जब एक बार मुखड़ा ‘उन्सार’ दिया गया तो पूरा हो ही जाता था। गुपली में यह असकर होता था।
गुपली एक प्रकार का शृंगारिक गीत हुआ करता था। लड़के बड़ा मजा लेते थे इसमें। बूढ़े भी अपनी जवानी को याद कर आते थे और दो घण्टे का अभ्यास कब पाँच-छ: घण्टे तक पहुँच जाता था पता ही नहीं चलता था।
होली गाते-गाते रात का करीब एक बज गया था तो अहिबरसिंह ने अब बंद करने का आदेश दिया। बैठे-बैठे पीठ दर्द करने लगी थी। आँखों में नींद भी दस्तक देने लगी थी तो अन्य सबका मन भी उठने को करने लगा।
धमार की रीति के अनुसार अंत में एक भजन गाया जाना अनिवार्य होता था, इसलिए बंधूसिंह एक भजन गुनगुनाने लगे –

बहुरि नहिं आबना यह देश – २

जो-जो गये बहुरि नहिं आये, पठबत नाहिं संदेश
सुर-नर-मुनि अरु पीर औलिया, देवी-देव गनेश
धरि-धरि जनम सबइ ही भरमें, ब्रह्मा-विसुन-महेस
जोगी-जंगम अरु सन्यासी, दीघाम्बर दरबेश
चुन्डित-मुंण्डित-पण्डित लोई, स्वर्ग-रसातल शेष
ग्यानी मुनि चतुर कवि दाद, राजा-रंक नरेश
कोई राम कोई रहीम बखाने, कोई कहे आदेश
नाना भेष बनाइ सबइ मिलि, ढूंड़ि फिरे चहुँ देश
कहइं कबीर अंत नहिं पइहउ, बिन सतगुरु उपदेश
बहुरि नहिं आबना यह देश – २
बंधूसिंह द्वारा गाए गए इस भजन के साथ ही आज की यह सभा समाप्त हुई तो सब अंगड़ाइयाँ लेते हुए अपने-अपने घरों की ओर निकलने लगे।
***

होली का दिन जैसे-जैसे पास आता जा रहा था, उसकी सरगर्मी अपने चरम की ओर तेजी से उन्मुख होने लगी थी। होलिका का आकार लगातार बढ़ता जा रहा था। गाँव के लड़कों ने होलिका पर पताई, पयार आदि फूस-फक्कड़ का पूरा ‘अम्बार’ लगा दिया था। बावजूद इसके अभी उनकी अभिलाषा पूरी नहीं हुई थी, क्योंकि ‘पारसाल’ होलिका पर कम से कम चार ‘डल्लप’ लकड़ी इकट्ठी हो गई थी। और इस साल अभी तक दो-चार ‘बोटों’ के अतिरिक्त लकड़ी का नाम-निशान तक नहीं था। इस कारण गाँव के लड़कों की इज्जत दाँव पर लग गई थी, जो उन्होंने अपने आप लगाई थी। लड़कों ने होलिका पर ज्यादा से ज्यादा लकड़ी इकट्ठा करना अपनी प्रतिष्ठा का सूचक बना लिया था। होलिका दहन को केवल दो दिन बचे थे। इन्हीं दो दिनों में इन लड़कों को होलिका पर लकड़ी एकत्र करनी थी।
आज तेरस की रात थी और रामचरन महात्मा गाँव के तकरीबन पन्द्रह-बीस लड़कों को होलिका के पास इकट्ठे किए बैठे थे। सब के सब एक से एक सातिर। उस पर रामचरन महात्मा की सागिर्दी। सोने पर सुहागा वाली बात हो गई थी।
रामचरन महात्मा गाँव के इन सभी लड़कों का सरदार था। वैसे रामचरन महात्मा का अपना एक विशेष व्यक्तित्त्व था गाँव में। सात-आठ बच्चों का पिता और एक पगली-सी औरत का पति यह व्यक्ति बड़ा सातिर प्रजाति का प्राणी था। इनकी हालत यह थी कि घर में बामुश्किल एक फूस का छप्पर था लेकिन दबदवा पूरे गाँव पर था। पूरा गाँव इनसे बचता रहता था। इस कारण नहीं कि यह बड़े तकतबर थे, बल्कि इस कारण कि यह बड़े लफड़ेबाज आदमी था। जिससे उलझ जाता उसका कचूमर ही निकाल लेता था। चोरी से लेकर दलाली आदि जितने भी गलत काम हो सकते हैं, सब में उस्ताद थे यह। लेकिन कभी पुलिस द्वारा पकड़े नहीं गए थे।
एक बार तो रामचरन महात्मा ने वह कहानी रची कि पूरे गाँव के साथ-साथ इलाके तक में मशाहूर हो गई। हुआ यह कि गाँव में ही रहने वाले चन्दरभाल लोहार का विवाह नहीं हो रहा था। तो बैठे-बिठाए रामचरन महात्मा का शराररती जीव अकुलाने लगा। महात्मा चन्दरभान से मेल-जोल बढ़ाने लगा।कुछ दिनों बाद महात्मा ने चन्दरभान के सामने कोई औरत खरीद लाने का प्रस्ताव रखा। चन्दरभान तो पहले से ही औरत के लिए ‘उताने’ बैठे थे सो रामचरन महात्मा के प्रस्ताव से खिल उठे। बोले – ‘. . . चच्चा जहु कामु ता तुम्हें कराइ सकत हउ. . ., रुपिया-पइसा कि फिकिर कतइ ना करिअउ. . .’। फिर क्या था। रामचरन ने पहले से ही बनाई गई अपनी योजनानुसार जुगाड़ फिट कर दिया। दस-पन्द्रह दिन के अंदर ही चन्दरभान के आँगन में हरियाली लहराने लगी। चन्दरभान की बरसों की मुराद पूरी हो गई। पूरे गाँव का न्योता किया और रामचरन महात्मा. . . वह तो उनके लिए किसी भगवान से कम ही नहीं रह गए। खूब पुजने लगे चन्दरभान के घर में रामचरन महात्मा।
चन्दरभान के घर में इस औरत को आए अभी छ:-सात दिन ही हुए होंगे। एक दिन शाम को वह औरत पास ही की एक लड़की सरवतिया को साथ लेकर ‘पाखाना’ के लिए घर से बाग की ओर रवाना हुई। और कुछ ही देर में सरवतिया भागती हुई वापस गाँव में आई। चन्दरभान और रामचरन महात्मा घर के बाहर चिलम सुलगा रहे थे बैठे। हाँफती हुई सरवतिया से पूछा क्या हुआ। सरवतिया ने जो बताया, उससे चन्दरभान के तो जैसे प्राण ही निकल गए। वह औरत भाग गई थी। इतना सुनना था कि रामचरन महात्मा अपने घर की ओर भागे और चन्दरभान को कुछ लोगों के साथ बाग की ओर जाने को कहा।
इधर चन्दरभान गाँव के दस-पन्द्रह लोगों के साथ बाग की ओर औरत को सरबतिया द्वारा बताई गई दिशा में तलाशने लगे तो दूसरी ओर रामचरन महात्मा अपने घर से ‘ठुकउवाँ देसी बन्दूक’ लेकर बाग के पास जा पहुँचे। गाँव के लोग जिस ओर औरत को तलाश रहे थे, रामचरन ने ठीक उनकी विपरीत दिसा में एक फायर झोंक दिया। साथ ही चिल्लाते हुए लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया – ‘ . . . अरे इंघ्घे गइ हइ रेउ. . . इंघ्घे. . . हमने जाति देखी. . . वह देखउ अभइ दूरि नाइं जाइ पाई हुइही ससुरी. . .’
औरत तो पूर्व की ओर भागी थी लेकिन रामचरन महात्मा ने लोगों का ध्यान पश्चिम की ओर भटका दिया। इस प्रकार से वह औरत गई. . . गई . . . और वापस अपने ठिकाने को भाग गई. . . चन्दरभान को रुपयों-पइसों की चपत लगाकर।
काफी देर की खोज-बीन के बाद भी जब औरत का कुछ पता-ठिकाना नहीं लगा तो लोग गाँव की ओर वापस लौट आए।यह तो बाद में पता चला कि यह सारी करतूत महात्मा रामचरन की ही थी। उसने उस औरत को कहीं और बेच दिया था और उसे यहाँ से भगाने के लिए यह सारा का सारा स्वाँग रचा था। बाद में जब गाँव वालों को सच्चाई पता लगी तो रामचरन महात्मा की बड़ी छीछालेदर मची। लेकिन रामचरन महात्मा पर इसका कोई असर नहीं होने वाला था। कुत्ते की पूछ को बारह बरस तक भी फुकनी में रखा जाए फिर भी वह निकलेगी टेंढ़ी ही।
होली पर एक बात बड़े मजे की हुआ करती थी। तमाम सारे लड़के होलिका के लिए लकड़ी का प्रबन्ध करते थे लेकिन सभी अपनी-अपनी लकड़ी बचाने का हर संभव प्रयास करते थे। सभी इस बात से चौकन्ने रहते थे कि कहीं कोई लड़का हरामीपन ना दिखा दे। इसके बावजूद भी किसी न किसी की लकड़ी पड़ ही जाया करती थी। पिछले साल तो पिर्रा ने पिमई की ‘लढ़िया’ का एक पहिया ही डाल दिया था होलिका पर। पिमई का लड़का साथ ही में बना रहा और उसकी लढ़िया का पहिया होलिका पर पहुँच गया। बड़ा बवाल मचा बाद में। खैर! यह तो यह तो हर साल की कहानी थी।
आज रामचरन महात्मा की ही अगुवाई में रात की लकड़ी-होली खेलने प्लान बना था। सभी लड़के होलिका पर डालने के लिए कहीं से लकड़ी चुराने की जुगत बना रहे थे। रामचरन महात्मा चुप बैठे हुए अन्य लड़कों की बातें सुन रहे थे।
‘. . . दद्दा इत्ती ता लकड़िया हुइ गइ हइ. . . अब का करिउ औरु जाधा. . . ’ पिर्रू गंठा ने जीनू पतरिया से कहा।
‘. . . अभइ ता झाँटउ भरि नाइं भइ हइं. . . पास्सालकि मुकाबिले अबकी ता कछू नाइं हइ. . .’
‘. . .अउ चच्चा हमने ता जह सुनी हइ कि कनेगापुर वाले अबकी हमसे जाधा बड़ी होरी जरबइया हइं. . .’
‘. . . सुनी ता हमहूँनि हइ. . . लेकिनि हमारे जियति भे ता हमसे बड़ी होरी नाइं जराइ पइहीं. . .’
‘. . . तउ दद्दा लइअउ कहाँसि अबकी लकड़िया. . . जह दाउँता कहूँ एक ‘चुफुरिअउ’ नाइं दिखाति. . .’
‘. . . दिखाति का . . . अब बह बात थोरउ रही कि लोग अपनेसि दइ देइं लकड़िया-कंडा. . . होरी आउति खन छुपाइ लेत घर के भीतर. . .’
‘. . . अब छुपाबइं या कछू करइं. . . होरी ता बड़ी किसनापुरकिय जरिही. . . भले अपनी बगिया डान्नक परइ काटिकि. . .’
‘. . .दद्दा हम बताबइं. . . एक जघा हइ लकड़िया. . .’ बड़ी देर से चुप बैठा छुटक्का ने सभा में अपनी बात रखी।
‘. . . तउ भोंसड़ीकि अभइ तक का अपनी अम्मा चुदाउत बइठे रहउ. . . बोलि नाइं सकत का. . .’
‘. . . हमने सोंची कि तुमइं लोगनक पता हुइही. . .’
‘. . . का पता हुइही. . .’
‘. . . नकटा पर की सिसइया कि बारेम . . .’
‘. . . भोंसड़ीकि . . . पूरो लउंड़ो कद्दिही तुम्हारे मुँह मा . . . पता हइ बह सिसइया कहिकी हइ . . .’
‘. . . अरे किसहूकि होइ. . . होरीप डान्नकि ले लाउने हइ . . . कोई अपने घर थोरउ लइ जानक हइ किसहूक . . .’
‘. . . तुम्हारी गांड़िम गुदा होइ ता तुम काटि लाबउ जाइ. . . ता जानइं तुम अपने बापकि असली अउलादि हउ . . .’
‘. . . देखु उरे बाप पा ना जा. . . मिन्ट भरेम अम्मा चोदि दिहीं तुम्हारी. . . ’
लड़कों की आपस में मुँहचभ्भर बढ़ गई। जब नौबत उठा-पटक पर आ गई और गाली-गलौज की आवाज दूर तक जाने लगी तो अभी तक चुपचाप लड़कों की बातें सुन रहे रामचरन महात्मा बीच-बराव में उतर आए। किसी तरह से उनकी लड़ाई को शांत किया।
‘. . . तुमसे सान्नसि कछू होति ता हइ नाइं. . . अइसेइ एक-दुसरे कि गाँड़ि मारिकि मरिजइहउ. . . औरु हुआँ. . . हुआँ कनेगापुर वाले हाँथु मारि लइ जइही. . .’
रामचरन के मुँह से कनेगापुर वालों का नाम सुनते ही सब किसी उम्मीद से रामचरन की ओर उन्मुख हुए।
रामचरन उन्हें बताने लगे – ‘. . . आजु बजारम हमने सुनी रहइ. . .  कनेगापुर वाले आजु रातिम रामचन्दर प्रधान कि बगियाम चुरइही लकड़िया. .’
‘. . . अरे दद्दा. . . जहता किसहूकि दिमागम नाइं आई. . . कि रामचन्दर परधानकि बगियाउ कटी हइ. . .’
‘. . . धन्नि होइ होलिका माई. . . सब तुम्हारोइ परतापु हइ. . . हस्साल कुछू ना कुछू जुगाड़ु करवाइ देतीं हउ. . .’
‘. . . जय होइ होलिका महरानीकि. . .’
लकड़ी की व्यवस्था होती देख लड़के भाव में भर उठे। उन्हें लगा जैसे कि होलिका के प्रभाव से ही रामचन्द्र प्रधान का बाग काटा गया हो। सबके चेहरों पर प्रशन्नता मिश्रित मक्कारी झलक आई।
‘. . . भोंसड़ीकि होलिका कि जइ-जइकार बादिम करिहउ, पहिले जह सोचउ कि लकड़िया उठइअउ कइसे. . .’ रामचरन ने भावना में बहे जा रहे लड़कों को थामने का प्रयास किया।
‘. . . अरे चच्चाऽऽऽऽऽऽ . . . जब होलिका माईनि इत्ती मददि करि दइ हइ ता का हमइ लकड़िया उठाउनउम कोई परेसानी हइ. . .’
‘. . . भोंसड़ीकि तुम्हारो मुँहु हइ कि बबासीरकु पुटारा. . . ठेकेदारनि हुआँ आदमी का तुम्हारी अम्मा चोदनकि ले लगाए हइं. . .’ रामचरन ने लड़के को हकीकत बताई तो लड़कों का उत्साह कुछ थम-सा गया।
‘. . . तउ कइसे बनिही चच्चा. . . उमराय ने रामचरन को प्रश्न और उसके निराकरण, दोनों भावों से एक साथ देखा।
‘. . . अभइ हम मरिता गे नाइं. . . रुकउ. . . सोचन देउ . . .’ रामचरन महात्मा इस प्रकार से विचारवान हो गए जैसे कि कोई साधू समाधि में जाने की तैयारी कर रहा हो। उनके चेहरे और मस्तिष्क पर आ-जा रहे भावों के साथ लड़के तालमेल बिठाने का प्रयास करने लगे।
सभा में एकदम सन्नाटा हो गया कुछ देर के लिए। कुछ देर बाद इस सन्नाटे को तोड़ते हुए रामचरन महात्मा के चेहरे पार प्रशन्नता के भाव दिखाई दिए और मुँह से शीतल वचन प्रवाहित हुए।
‘. . . देखउ लउंड़उ. . . हम बताबइं बेहेइ करिअउ. . .’ लड़के एकाग्रता के साथ रामचरन की बातों को सुनने की मुद्रा में आ गए।
‘. . . देखउ घरके सब अलग्ग-अलग्ग रत्तनसि जइहीं. . . जब बगियाकि तीर पहुँचि जइहउ सब लोग ता होनइं कहूँ छुपि जइअउ. . . तलेलि हम पहिले पहुँचिकि ठेकेदार के आदमिनक कहूँ बरगलाइ लइ जइहीं. . . उत्तीय देरम तुम लोग बहुतु साबधानीसि हाथु साफु करि दिअउ. . .’ रामचरन ने सबको अपनी योजना सलीके से समझाई और कई प्रकार के निर्देश देते हुए सभी लड़कों को अपने-अपने टास्कों पर पहुँचने को कहा।
जब सब लड़के वहाँ से निकल गए तो रामचरन बेहयाई से ऐसे मुस्कुराया जैसे उसने लड़कों को जान-बूझकर फँसाया हो। खैर! जो भी हो भगवान ही जाने रामचरन के कुटिल विचारों में क्या पनप रहा था। उसने कुरते की जेब से बीड़ी निकाल के सुलगाई और सुट्टा लगाता हुआ एक ओर को निकल गया।
जब सब लोग मोर्चे पर निकल गए तो वहीं एक कोने में दुबका बैठा किशना बाहर निकल आया। उसे बड़ा मजा आ रहा था इन सबकी बातों और योजनाओं में। वह देखना चाहता था कि आगे क्या होगा। इस कारण किशना अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उनके पीछे-पीछे चल पड़ा।

* * *
रामचन्द्र जी पिछले पन्द्रह सालों से लगातार किशनपुर-कुण्डरा के प्रधान बनते चले आ रहे थे। पुस्तैनी अमीर थे ही। खेती-पाती भी मतलब भर को थी। उस पर चार बड़े-बड़े बाग। इतना आम आता था कि पूरा गाँव क्या पूरा बंड़ा क्षेत्र ‘अफर’ जाता था आमों से। दूर-दूर से लोग उनके यहाँ अचार-मुरब्बे के लिए कच्ची अमियाँ लेने आया करते थे।
रामचन्द्र जी के दो लड़के थे। एक नम्बर के आलसी। खेती-बारी को छोड़कर उनसे जो चाहें करवा लो। इस कारण खेती-बारी का सारा बोझ उनके ही सिर आ गया था। उस पर प्रधानी। अब क्या-क्या देखे। खेत देखें, बाग-बगीचा देखें या प्रधानी देखें। सो मन में विचार आया कि भूड़ वाला बाग कटवा दिया जाए। वैसे भी उससे कोई खास फायदा नहीं हो पाता था। चूँकि बाग दूसरे गाँव की हद में आता था, सो उसकी अमियाँ भी इन्हें नहीं मिल पाती थीं।
रामचन्द्र प्रधान जी अपना भूड़ वाला बाग कटाने का विचार बना रहे हैं, ऐसा जानकर लकड़ी के कई ठेकेदार उनके घर का चक्कार लगाने लगे। इन ठेकेदारों में इसहाक़ बड़ा अनुभवी था। उसने किसी प्रकार से प्रधान जी को पटा लिया और बाग काटने का ठेका ले लिया। यह सब होते-होते होली के दिन नजदीक आ गए थे। प्रधान जी ने कई बार इसहाक़ को समझाया कि अभी बाग मन कटबाओ। होली का माहौल है, लड़के लकड़ियाँ उठा ले जायेंगे। किस-किस को रोकोगे और कहाँ तक रखवाली करोगे। क्योंक बाग से बंड़ा लकड़ी पहुँचाने में तीन-चार दिन तो लग ही जायेंगे। पर इसहाक़ नहीं माना। उसने बाग कटवा ही डाला। कहता था – ‘. . . अरे चच्चा. . . ना जानइं कित्ती बगियाँ कटबाइ डारीं. . .ऐसेइ उठाइ लेइ कोई लकड़ियाँ ता जेहेइ भरेक. . .।’
प्रधान जी ने भी सोचा कि ‘. . . जाओ कटवाओ बाग। हमसे क्या. . . मैं तो बेंच ही चुका हूँ. . . जो भी नुकसान होगा तुम्हारा होगा. . . लड़ाई-दंगा होगा तुम निपटोगे. . .।’
इसहाक़ ने बाग की कटी हुई लकड़ी की सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर दिया था। गंगा पार कटरी से चार मुस्टंडे लठैत बुला लिए थे चार दिन के लिए। सो वह लठैत दो दिन से कटे हुए बाग की रखवाली कर रहे थे। इसहाक़ ने उनके लिए खाने और पीने का पूरा प्रबन्ध करवा दिया था। वैसे थे भी पूरे शैतान की आत्मा। रोज एक बकरा और चार बोतल कच्ची शराब तान जाते थे।
खैर! इसहाक़ ने लकड़ी की रखवाली के जो प्रबन्ध किए थे वह तो अपनी जगह पर बड़े ही पुख्ता थे, लेकिन गाँव के लड़कों को रामचरन महात्मा की कुटिलता पर भी पूरा भरोसा था। एक से एक बड़े-बड़े कारनामें कर दिखाए थे रामचरन ने अब तक। सो आज भी किसी न किसी प्रकार से दाँव रामचरन के पक्ष में ही रहेगा।
सभी लड़के अंधेरे की ओट में छुपते-छुपाते बगिया के इर्द-गिर्द आ जमें। दूसरी ओर रामचरन महात्मा हाथ में लोटा लिए हुए पाखाना के बहाने बगिया के पास जा बैठे।
लकड़ी के रखबाले खा-पीकर टुन्न थे। कुछ देर की शांति के बाद एक रखबाल ‘मूतने’ के लिए उठा तो उसने टॉर्च लगाकर इधर-उधर देखा। टॉर्च की रोशनी एक स्थान पर ‘हगने’ की मुद्रा में बैठे रामचरन पर पड़ी तो रखबाल गरज उठा – ‘. . . कौन हइ. . .’
‘. . . अरे चच्चा हम हइं. . . रामचन्न. . . आजु जबसे कलिया खाई तबसे पता नाइं काहे पेटम जुलाबु हुइगो. . . बेरि-बेरि भजन पत्ति पाखानाकि ले. . .’ उसी मुद्रा में ज्यों का त्यों बैठा हुआ रामचरन रखबाले को अपनी बातों में फँसने का प्रयास करने लगा।
रखबाले ने उसकी बात का कोई सटीक उत्तर नहीं दिया और वह भी वहीं एक ओर खड़े होकर ‘मूतने’ लगा।
एक ओर रामचरन महात्मा ‘हगने’ की मुद्रा में बैठा है और दूसरी ओर रखबाला खड़ा-खड़ा पेशाब कर रहा है।
‘. . . अरे चच्चा एक बीड़ी होइ ता देते. . . ससुरी निकरिय नाइं रही. . .’ रामचरन ने ‘मूतने’ के बाद पागामे का नाड़ा बाँधते हुए रखबाले से कहा।
‘. . . तुम्हारी गाँड़िम ता डंडा डान्न वालो हइ महात्मा. . . ’ रखबाले ने गाली देते हुए भी एक बीड़ी और माचिस रामचरन की ओर फेंक दी और अपनी चारपाई की ओर चला गया।
रामचरन ने बीड़ी सुलगाई एक-दो सुट्टे लिए और कुछ ही देर में पाखाने से उठकर अपना पाजामा सम्हलते हुए रखबालों की ओर चले।
रखबालों के पास पहुँचकर रामचरन ने उन्हें लड़कों द्वारा लकड़ी उठाने की सारी योजना बता दी। रखबाले मारे क्रोध और शराब की तीव्रता के कारण काले साँप की माफिक फुनफुना उठे। एक रखबाला रामचरन के साथ गाँव की ओर चला गया और बाकी तीन लट्ठ फटकारकर आस-पास छुपे लड़कों को बेतहासा गालियाँ देने लगे।
इधर लड़कों ने अपनी योजना असफल होते देखी तो पहले तो उनकी कुछ समझ में  नहीं आया फिर धीरे-धीरे वह रामचरन की सारी करतूत समझ गए।
एक-एक करके सभी लड़के बाहर निकल आए और रखबालों से भिड़ गए। दोनों पक्षों में अंधाधुंध गालियाँ बरसने लगीं।
‘. . . आबउ सारेनकि एक-एक कि अम्मा चोदि देइं. . . उठाइकि दिखाबउ एकउ चुफुरिया अगर अपनीय अम्माकु दूधु पिओ होइ ता. . .’
‘. . . भोंसड़ीकि बिना कछु करे गरिअइअउ ता तुमारी लउंड़िया चोदि डरिहीं. . . फिरि तुम कित्तेउ बड़े हरामी काहेन होउ. . . हमने एक लकड़िया उठाई होइता कहउ. . .’
‘. . . तउ तुम लकड़ियाँ उठाउन नाइं आये रहउ. . . बताबउ. . . ’
‘. . . होरी हइ ता लकड़ियाँ उठाउनक ले ता हम निकरेइ हइं लेकिन तुम्हारी लकड़ियाँ हम नाइं उठाउन आए रहइं. . .’
‘. . . तउ रामचन्न महत्मा का झूठी बताइगो हमइं. . .’
‘. . . बहकी अम्माकु भोंसड़ा चोदइं सारेकि. . . महात्माकि गाँड़ि बनो फित्ति सारो. . . खाली-मूलिम हमइं फंसाइ देनकि चक्करम हइ. . .’
इधर बाग में लड़कों और रखवालों में भिड़ी पड़ी थी उधर रामचरन एक रखवाले को लेकर रामचन्द्र प्रधान के घर जा पहुँचा। प्रधान का दरवाजा खटखटाया। जब प्रधान जी बाहर निकले तो रामचरन उन पर ऐसे बरस पड़ा जैसे कि स्वयं उसकी लकड़ी उठाई जा रही हो।
‘. . . देखउ रामचन्दर अइसे कतइ नाइं बनिही. . . तुम परधान हुइअउ अपने घरके. . . हमारे लउंड़ेप. . . लेकिन जह थोरउ हुइही कि बिचारेनकि लकड़ियाँ उठाबाइ देउ. . .तुम हियाँ सोउत परे अउरु हुआँ लउंड़ा सब लकड़ियाँ उठाये लै जात. . .’
रामचन्द्र प्रधान को रामचरन महात्मा पर एकबारगी गुस्सा तो बहुत आया लेकिन पी गए। दौड़कर घर के अंदर से बंदूक उठा लाए और दोनों लड़कों को साथ लेकर रामचरन महात्मा और रखबाले के साथ बाग की ओर चल दिए।
जब यह लोग बाग में पहुँचे तो दोनों पक्षों में तना-तनी बनी हुई थी। दोनों  पक्ष एक-दूसरे को दनादन गालियाँ देने पर लगे हुए थे। प्रधान जी के बड़े लड़के ने आव देखा ना ताव और हवा में एक फायर झोंक दी। एक मिनट के लिए सन्नाटा छा गया वहाँ पर। गन्ने के खेतों में छिपे बैठे सियार हुआ कर भाग खड़े हुए तो गाँव से कुत्तों ने अपना सुर भी उनके साथ मिला दिया।
खैर! जैसे-तैसे करके दोनों पक्षों में सुलह हुई तो लड़कों को वहाँ से गाँव की ओर भगाकर प्रधान जी अपने घर की ओर लौट चले। रामचरन महात्मा चुपचाप लड़कों के पीछे हो लिया।
अभी लड़के कुछ ही दूर चले होंगे कि उन्हें साथ में पीछे-पीछे रामचरन के होने का आभास हुआ। उनका क्रोध वापस उनके चेहरों पर खिल उठा। लड़कों ने आव देखा ना ताव जो मुँह में आया उन्हें सुनाने लगे।
रामचरन चुपचाप उनकी बातें सुनते रहे। कुछ देर के बाद जब लड़के शांत हो गए तो रामचरन अपनी सफाई में उन्हें समझाने लगे –
‘. . . एक-दुइ की मौत हुइ जाती आजु. . . अगर हम अइसो नाइं कत्ते ता. . .’
‘. . . अब भोंसाड़ीकि हमइ जह लण्डबाइ ना समुझाबउ. . . ’
‘. . . तुमइं ता ससुरिअउं सब लण्डइबाइ लगति. . . एकु-दुइ मरि जाते ता अबहें सब होरी-दिवरी धरीकि धरी रहि जाती . . . अगर हम हुआँ पहिले ना पहुँचते ता पतउ नाइं चलतो कि उनके तीर दुइ बन्दूकइं और चारि-पाँच कट्टा हइं. . . बहुता कहउ हमने सब मामिला सुल्टाइ लो . . . नाहींत पता चलतो . . . ’ रामचरन ने लड़कों को पूरा विश्वास दिलाने का प्रयास किया, लेकिन लड़कों को अब एक इंच भर उस पर यकीन नहीं हो रहा था। सभी लड़के रामचरन को गालियाँ देते हुए वहाँ से निकल आए।
आज होलिका पर बिलकुल लकड़ी नहीं पड़ पाई थी। सबका मूंड खराब था। रात भी ज्यादा हो गई थी सो सभी अपने-अपने घरों की ओर चले आए।
होरी में आग लगने का दिन आ पहुँचा था। सुबह जब लड़के गाँव में निकले तो पता चला कि बीती रात की घटना से पूरा गाँव बाकिफ हो चुका था। वह जिधर से निकलते लोग उन्हें व्यंग्यात्मक आँखों से निहारते। पूरे शरीर में आग लग जाती लड़कों के। रह-रहकर सबको रामचरन की करतूत पर गुस्सा आ जाता।
किसी तरह से दिन बीता और रात ने दस्तक दी। आज की ही रात में होरी में आग लगाइ जानी थी और होलिका पर लकड़ी के नाम पर सही से कुछ भी नहीं था।
गाँव के लड़कों की इज्जत दाँव पर लग चुकी थी। एक बार सब फिर होलिका के पास एकत्र हुए। आज रामचरन इस महफिल में नहीं थे। सबने बड़ी हिम्मत के साथ नकटा वाली सरकारी सिसइया काटने का प्लान बना लिया।
रातों रात आरा और कुल्हाड़ी की व्यवस्था की गई और अंधेरा गहराने का इंतजार होने लगा। जब रात का करीब बारह बज गया तो किशनपुर-कुंड़रा के इन लड़कों की टोली जोश में भरी हुई नकटा तालाब वाली सिसैया काटने निकल पड़ी।
उधर रामचरन महात्मा ने फिर एक खेल रच दिया। उन्हें लड़कों की इस योजना का आभास हो गया तो कलेलापुर जाकर खबर कर आए कि आज रात नकटा तालाब वाली सिसैया काटी जायेगी। सिसैया एकदम सूखी थी सो कलेलापुर के लड़कों के मन में भी उसे काटकर अपने गाँव की होलिका पर डालने का लालच बलबान हो उठा। ऊपर से कलेलापुर के लड़कों की किशनापुर के लड़कों से एक पुरानी खुन्नस भी थी। सो उन्होंने भी कसम खा ली कि कुछ भी हो नकटा वाली सिसैया तो अब कलेलापुर की होली पर ही पड़ेगी।
रामचरन महात्मा ने आग में घी डाल दिया और अपने आप अलग हो लिया। होलिका के सिपाही चल पड़े रण विजय करने को। दोनों गाँव के लड़के किसी भी कीमत पर उस शीशम को अपने गाँव की ही होलिका पर डालने की कसम खा चुके थे।
किशना इस पूरे प्रकरण का गवाह बन चुका था। उसके सामने युद्ध की पूरी बिसात बिछ गई। उसने देखा कि दोनों गाँवों के लड़के लकड़ी काटने को उतावले हो गये थे। उसकी आँखों के सामने ही पूरा प्रकरण सजीव हो उठा।
किशनापुर के लड़के जब नकटा तालाब पर पहुँचे तो कलेलापुर के रास्ते से वहाँ के लड़कों को आता हुआ देखा। उन्हें समझते एक पल भी नहीं लगा कि यह सारी करतूत रामचरन महात्मा की रची हुई थी। मन हुआ कि अभी जाकर खींच लाए उसे घर से बाहर और पूरे गाँव के सामने उसके मुँह में मूत दे और मार-मार के ‘गाँड़’ सुजा दे। पर दुश्मन को सामने देखकर वह विचार मन से निकल गया और पहले सामने के दुश्मन से निपटने का निर्णय सबने मन ही मन पक्का कर लिया।
सुल्ताना ने जीनू पतरिया की ओर देखा, जो कंधे पर कुल्हाड़ी रखे हुए था। पतरिया ने सुल्ताना के भावों को समझने मे एक पल का समय भी नहीं गँवाया। दौड़कर कलेलापुर के लड़कों से पहले ही शीशम की जड़ में कुल्हाड़ी द्वारा अपनी मोहर लगा दी और चिल्लाते हुए कलेलापुर के लड़कों को बिना नाम लिए ही ललकार उठा –
‘. . . अब देखइं कहिकी गाँड़िम गुदा हइ. . . एक-एककि अम्मा चोदिकि बरसीम बइदेइं. . .।’
जीनू पतरिया के इस युद्ध नाद से किशनपुर-कुंड़रा के सभी लड़कों ने हुंकारी मिला दी। पूरा वातावरण गरज उठा।
उधर कलेलापुर के लड़कों ने बाजी अपने हाथ से जाते हुए देखी तो उनका भी खून खौल उठा। सबने एक-दूसरे की आँखों में देखा। एक-दूसरे के भावों से सभी सहमत थे। सबने आज किशनापुर के लड़कों से पुराना बदला लेने के भाव से एक साथ हमला कर दिया -
‘. . . आजु चहइं खूनकि नदियाँ बहि जाइं. . . लकड़िया ता कलेलापुरइय जइही. . .’
कलेलापुर के लड़कों की लड़ाई किशनपुर के लड़कों से बंड़ा के मेले में दंगल में हुई एक कुश्ती को लेकर झगड़ा हो चुका था, जिसमें किशनापुर वालों ने कलेलापुर के लड़कों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा था।
खून उतर आया कलेलापुर के लड़कों की आँखों में। शीशम गई भाड़ में और होने लगा दोनों पक्षों में महासंग्राम।
इधर रामचरन महात्मा ने गाँव में आकर इस युद्ध की सूचना दे दी। पूरा गाँव लाठियाँ ले-लेकर नकटा तालाब की ओर दौड़ पड़ा। नकटा पर आधी रात में दो-तीन सौ आदमी इकट्ठे हो गए। किशनापुर के लोगों के अलावा कलेलापुर के लोग भी पता लगने पर वहाँ आ पहुँचे।
दोनों गाँवों से लोग लाठी, डंडा, तलवार, रायफल, बन्दूक जो सामने मिला लेकर आ गए थे। खूब लट्ठ चला दोनों गाँवों के बीच। किसी का पैर टूटा, किसी का हाथ, किसी का सर फूटा तो किसी के दाँत टूट गए। दोनों पक्षों के लड़के बुरी तरह से चोटिल हो गए।
इसी सबके बीच किसी ने पुलिस तक खबर पहुँचा दी तो घटना स्थल पर पुलिस भी आ पहुँची। जो भाग सके भाग गए और जो नहीं भाग पाए, पुलिस द्वारा पकड़े गए। देखते ही देखते इस साल की यह किशनपुर-कुंड़रा और कलेलापुर की होली खून की होली में बदल गई।
काफी देर बाद जाकर वातावरण शांत हुआ। तब दोनों गाँवों के प्रतिष्ठित लोगों ने पुलिस से किसी प्रकार से सिफारिस कर-कराकर और साल भरके त्योहार की दुहाई देकर पकड़े गए लोगों को छुड़ाया। पुलिस ने गाँव के प्रतिष्ठित लोगों की जिम्मेवारी पर बड़ी मुश्किल से पकड़े गए लोगों को छोड़ा।
इसके बाद दोनों गाँव के मुखियाओं के बीच आपसी सलाह-मश्विरे से लड़ाई की जड़ उस शीशम के पेंड़ को काटा गया और शीशम की लकड़ी को आधा-आधा बाँटने का फैसला हुआ।
जब तक शीशम काटकर बराबर-बराबर बाँट नहीं दी गई पूरा गाँव वहीं बना रहा।
इस पूरे प्रकरण में रात के तीन चुके थे। सब गाँव में आ चुके थे और रामचरन महात्मा को तलाशा जा रहा था। इसी ने आग लगई है। जो देखो उसे गालियाँ देने में लगा हुआ था।
खैर! जैसे-तैसे करके सब अपने-अपने घरों की ओर रवाना हुए लेकिन अब नींद किसी की आँखों में नहीं रही थी। पण्डित जी ने सुबह पाँच बजे का मुहूर्त निकाला था होलिका-दहन का।
सब अपने-अपने घरों में जा चुके थे। जिन लड़कों ने यह संग्राम किया था उन्हें कहीं-कहीं पर कोसा-गरियाया जा रहा था और कहीं-कहीं पर उनकी तारीफ की जा रही थी। हाँ! यह अलग बात थी कि रामचरन महात्मा को सभी एक सुर में केवल गालियाँ ही दे रहे थे।
‘. . . बल्ला डारि आबउ चलइ होउऽऽऽऽऽऽ . . . ’ सद्धू बुढ्ढे द्वारा बल्ले डालने और होलिका-दहन की हाँक के साथ ही यह प्रकरण समाप्त होता है और पूरे प्रकरण का साक्षात गवाह हमारा नायक किसना अपने घर की ओर रवाना होता है।
* * *

अब प्रथम को परिबा पुरबइ, रामचंद्र भुअ[2] लेइं – ४
द्विज दमोदर पूजन चली हइं सकल बिजनारि – ४
तीनि रतनि मिलि नाचइं, गाबइं हरि जी के गीत – ४
चउथे चतुरभुज भारत, भइया लच्छन[3] साथ – ४
पाँचइं परम सनेही, कृष्न चबाये पान – ४
छठि हरि गबन बन कीन्हें, मात – पिता की आनि – ४
सातइं की साइति भइ, राम रहे रथु साजि – ४
आठइं पदुम अठासी, लइ दल उतरे पार – ४
नउमी कउ नारायन, लंका घेरी जाइ – ४
दसमी दसउ सुर रोये, जुज्झ भये संग्राम – ४
इकदसिया को बरतो, कुँवरु रहो मुरझाइ – ४
द्वादसिया के परने कुँवर कलेबा खाइं – ४
तेरसि तीनि भुवन मा, फिरि गइ राम दुहाइ – ४
चउदसि कउ नारायण, दओ भबीषन राज – ४
जइ तउ चइत सिराने, लेउ राम को नाँव – ४

जलती हुई होलिका के चारो ओर चक्कर लगाते हुए गाँव की धमार ने होली का यह प्रथम गीत, जो केवल होलिका के चक्कर लगाते हुए ही गाया जाता था, पूरा किया।
इस होली पर पारसाल वाला उत्साह नहीं रहा था इस बार। रात की घटना से घायल लोग होली के उत्साह से विहीन हो चुके थे। परम्पराएं तो सब निभाई जा रही थीं, लेकिन चेहरों पर वह चमक दिखाई नहीं पड़ रही थी जो होली के त्योहार पर हमेशा दिखती थी।
होलिका-दहन के बाद धमार द्वारा उसके चक्कर लगाए जा चुके थे। इसके साथ ही गाँव भर के लोगों द्वारा आखत भी डाले जा चुके थे।
होली में जिस दिन रंग खेला जाता था उस दिन शराब एक विशेष भूमिका निभाती थी। सो लगभग पूरा गाँव और खासकर लड़कों की टोली शराब से धुत्त होकर रंग खेलने के लिए निकल पड़ी। जैसे-जैसे लड़के और अन्य लोग शराब की गिरफ्त में जकड़ते गए रात की घटना अपना वजूद छुपाने लगी।
शराब और भाँग के नशे में झूमते हुए लड़कों की टोली ने पूरे गाँव में घूम-घूमकर खूब रंग खेला। अपने हमउम्र और खासकर रिस्ते में लगने वाली भाभियों से तो लड़कों की चुहल बड़ी मनमोहक हुआ करती थी किशनपुर-कुंड़रा की।
गाँव की गलियों से निकलती हुई लड़कों की टोली एक शृंगारिक गीत पूरी रौ में गा उठी –
चलउ होरी ता खेलइं दिल बोरि पिया – २

गाने को तान तुरंग फंदाने को,
खाने को पान अरु गाइ को घिया।
दुइ दतियाँ – बतियाँ मुख चूमति,
बांकुड़ि भइंसि[4] को दूधु पिया ।
गंगा हंदाइ उपटंट[5] किया,
उद्दकि दारि सुलज्ज त्रिया ।
सूर से मिंत्र सुदामा सी यारी,
सजन दुआरे की गारी पिया ।
चलउ होरी ता खेलइं दिल बोरि पिया – २
* * *

अपने बरोठे में बैठा हुआ किशना घर पर होली मिलने आने वाले लोगों से मिल-जुल रहा था। साल भरके इस त्यौहार पर गाँव के सभी लोग नए कपड़े सिलवाते थे। बच्चों के तो कहने ही क्या। नए कपड़े पहनकर ऐसे इठला रहे थे जैसे कि इन्हें किसी राजा की पदबी मिल गई हो। बड़े-बूढ़े भी धोती-कुर्ता और गाँधी टोपी में नए साल की अगुवाई कर रहे थे। किशना के दादा के लिए तो ताऊ जबर्दस्ती कपड़े ले आए थे। आने के बावजूद भी जब वह पहनने को तैयार नहीं हुए तो अम्मा ने उन्हें मीठी झिड़की लगाई – ‘. . . अब बनउ ना कतइ. . . एकुता अपने ले कबहूँ कछु लाउत नाइं. . . अउ जब कोई लाइ देइ ता पहिंननकि ले इत्ती नउटंकी काहे दिखाउत. . . लेउ पहिंनि लेउ. . . साल भरिको तियुहारु हइ. . . सब होरी मिलन आउत. . . अइसे थोरउ अच्छो लगति. . . हाँ नाहीं ता. . .।’
जब अम्मा ने इस तरह से उन्हें झिड़का तो दादा भी नए कपड़े पहनकर बरोठे में आ बैठे और होली मिलने को आने वाले लोगों के स्वागत में लग गए। पूरे गाँव में इसी प्रकार का स्वागत-सत्‍कार और होली-मिलन चल रहा था। साल भरके इस त्योहार का गिले-सिकबे मिटाते हुए स्वागत किया जा रहा था। सब मग्न थे।
किशना के बरोठे में बैठे हुए किशना के दादा और गाँव के कुछ लोग आपस में बतिया रहे थे। खेती-किसानी, घर-परिवार, गाँव-गिरावँ आदि की बातें उनकी बैठकी की मुख्य विषय-वस्तु थी। यह सब बातें चल ही रही थीं तभी गाँव का एक लड़का सोनपाल दौड़ता हुआ आया और दादा से बोला कि रामचरन महात्मा चौराहे पर खड़ा हुआ गाँव के बड़े-बूढ़ों को गालियाँ बक रहा है। किशना अपने पिता जी, ताऊ और अन्य लोगों के साथ उस ओर दौड़ पड़ा।
चौराहे पर पहुँचा तो देखा कि महात्मा रामचरन शराब के नशे में एकदम धुत्त रात में हुई लड़ाई को आधार बनाकर सबको गालियाँ दिए जा रहा था। नशा इतना अधिक था कि उसका शरीर और जुबान उसके बस में नहीं थी। लोग-बाग खड़े हुए तमाश देख रहे थे। जो कोई उन्हें शांत करने का प्रयास करता था स्वयं उनकी गालियों की भेंट चढ़ जाता था। इस कारण लोग केवल मजा ले रहे थे, रोकने का कोई नाम नहीं ले रहा था।
जब किसी प्रकार से रामचरन को शांत होते नहीं देखा गया तो दरबारी लाल आगे बढ़े और गुस्से में तमतमाकर एक ‘रहपटा’ उनके गाल पर जड़ दिया। रामचरन केबल जुबान का ही ताकतवर था, शरीर तो हवा में डोलता था, सो दरबारी का कसरती हाथ पड़ते ही वहीं जमीन पकड़ गया। पर भाई था बड़ा हिम्मती। एक पल के लिए शांत हुआ और अगले ही पल दरबारी लाल को बेतहाशा गालियाँ देने लगा।
दरबारीलाल फिर से उसकी ओर बढ़े तो किशना के ताऊ और पिता जी ने उनका हाथ पकड़ लिया – ‘. . . अरे छोंड़उ जहका सारेक. . . कहूँ मरि-मराइ गो ता पूरे गाँवउप जहकी हत्तिया लगिही. . . साल भरेकु तियुहारु खोंटो हुइ जइही. . . गरिआउन देउ सारेक. . .जब उतरि जइही ता अपने आपइ रत्ताप आइ जइही. . .’
किसी प्रकार दरबारी लाल ने अपने पर काबू पाया तो आस-पास खड़े चार-पाँच लड़कों से रामचरन को उठाकर उसके घर डाल आने को कहकर वहाँ से हट आए। लड़कों को तो इसी बात का इंतजार था जैसे। उन्होंने रामचरन को हाथ-पैरों से पकड़कर टाँग लिया और पूरे गाँव में उनका ‘स्वाँग’ बनाते हुए उनके घर के सामने डाल आए।
किशना की स्मृतियों में रची-बसी उसके गाँव की यह होली बड़ी अद्‍भुत थी। एक-एक घटना उसके दिमाग में चल रही थी। उसे ऐसा लगने लगा था जैसे कि बिना गाली-गलौज या मार-पीट के यहाँ का कोई काल पूर्ण नहीं होता था। यह सब यहाँ के रिबाज का एक हिस्सा बन गया था।
अपने ड्रॉइंगरूम में बैठे हुए किशना के दिमाग में तीस-पैंतीस साल पुरानी स्मृतियों की एक रेखा खिंच गई। वह अक्सर सोचा करता था कि काश! शिक्षा का वातावरण उस समय भी होता तो कैसा अच्छा होता। अगर ऐसा होता तो आज कुछ अलग ही वातावरण होता किशनपुर-कुंड़रा का। पर फिर वह सोचता कि यदि आज की भाँति यदि शिक्षा का प्रसार उस समय होता तो जो धमार गीत, लड़कियों का होलिका-पूजन, लड़को का लकड़ी आदि चुराने की परम्परा उसकी स्मृतियों में कैसे होती। वह एक पूरी की पूरी परम्परा से बिछुड़ जाता आज।
यह सब सोचते और स्मृतियों में देखते हुए दो पहर बीत चुके थे। तीसरे पहर ने किशना के मनोमस्तिष्क में दस्तक दी तो ‘दुआरे’ पर जाती हुआ धमारों की ध्वनि उसके कानों में पड़ी। किशना का विचारवान मन उस ओर उन्मुख हो गए।
होली पर ‘दुआरे’ का एक विशेष महत्त्व हुआ करता था। गाँव में जब किसी घर-परिवार में कोई मृत्यु हो जाती तो जब तक होली का त्योहार नहीं आता तब तक उस घर में कोई शुभ कार्य नहीं होता था। होली पर गाँव की धमार जब उस घर के सामने जाकर कुछ निर्गुणपरक अर्थात्‍ आत्मा-परमात्मा के मिलन और सांसारिक क्षणभंगुरता के गीत गाती थी। तब जाकर कहीं उस घर से ‘सूतक’ उठता था। घर शुद्ध माना जता था और फिर से उस घर में मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते थे।
धमार की यह टोली जब किसी के ‘दुआरे’ पर जाती थी तो इस टोली में गाँव के प्रत्येक घर का कोई न कोई सदस्य अवश्य हुआ करता था। धमार उक्त घर के बाहर जाकर दो-एक गीत गाती थी। इसके बाद घर का मुखिया धमार के साथ आए हुए सभी गाँव वालों के मस्तक पर ‘रंग का टीका’ लगाता था। इसके बाद सबको इसी साल बनी गुड़ खिलाता और पीने वालों को चिलम, बीड़ी और तम्बाखू इत्यादि दी जाती थी। और इस सबके बाद उस घर का मुखिया भी इस धमार-टोली का हिस्सा हो जाता था। यह उसका पहला मांगलिक कार्य हुआ करता था।
इस टोली में घर के मुखिया द्वारा जो ‘रंग का टीका’ लगाया जाता था, उसका एक विशेष महत्त्व हुआ करता था। यह रंग होली से पहले ही घर में बना लिया जाता था।
होली पर ‘टेंसू’ के फूल अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लड़कियों द्वारा होलिका-पूजन के काम ये आते थे, लड़कों द्वारा रंग बनाने के काम ये आते थे। बसंत के प्रिय फूल जो ठहरे।
टेंसू का फूल केवल बसंत में ही खिलता था और जब यह खिलता तो अन्य सभी फूल ईर्ष्या से भर जाते थे। और ऐसा हो भी क्यों ना। यह पेंड़ पर पूरी तरह से इतना ज्यादा लद जाता था कि लगता कि पेंड़ ने केशरिया कपड़े पहन लिए हों। और टेंसू का जंगल तो दूर से देखने पर ऐसा लगता था जैसे कि पूरे जंगल में आग लग गई हो।
गाँव के लड़के होली के पन्दर-बीस दिन पहले से ही जंगल से टेंसू के फूल एकत्र करने लगते थे। बड़ी मात्रा में फूलों को एकत्र करके, उन्हें सुखाकर एकदम बारीक पीस लिया जाता था। और लो भाई हो गया एकदम शुद्ध-देसी प्राकृतिक रंग। गाँव में होली खेलने के लिए इसी रंग का प्रयोग किया जाता था और घर पर आई धमार के लोगों के मस्तिष्क पर भी यही शुभ रंग लगाया जाता था।
इस साल गाँव में तीन मौतें हुई थीं। सुन्दर बुढ्ढे तो अपनी पूरी उम्र व्यतीत करने के बाद अभी होली के करीब दो महीने पहले ही मरे थे, लेकिन रामविलन तो पचास बरस की उम्र में दिवाली के अगले दिन ही चल बसे थे। और इनसे भी पहले पंचम दद्दा चले गए थे गाँव को छोड़कर। इस बार गाँव में यही तीन ‘दुआरे’ होने थे।
नए कपड़ों में सजे हुए लोगों से धमार गाँव के ‘धूरे’ पर के देवता ‘बरमबाबा महराज’ के पास से शुरु होकर सुन्दर बुढ्ढे के घर की ओर बढ़ी। मरने वालों में वही सबसे बुजुर्ग थे।
सुन्दर बुढ्ढे के ‘दुआरे’ पर पहुँचकर धमार ने एक निर्गुण गाया-

भाई नाहिं बरोबरि जात, सबइ दिन नाहीं – २

पानी के बूँदन प्राण प्रगट भये,
आबत मन पछितात, सबइ दिन नाहीं।।भाई नाहिं. . .
बलक रहे बलकन संग खेले,
पियत दूध अठिलात, सबइ दिन नाहीं।।भाई नाहिं. . .
ज्वान भये मसि[6] भीजनि लागी,
तिरिया देखि अठिलात, सबइ दिन नाहीं।।भाई नाहिं. . .
वृद्ध भये कर कंपन लागे,
घरहूँ के लोग घिनात, सबइ दिन नाहीं।।भाई नाहिं. . .

सुन्दर बुढ्ढे के ‘दुआरे’ की रीति पूरी करके धमार आगे बढ़ चली।
एक ‘दुआरे’ से दूसरे ‘दुआरे’ पर जाती हुई धमार द्वारा एक विशेष तर्ज का होली गीत गाया जाता था, जिसे ‘गुपली’ कहा जाता है। यह गुपली अलग-अलग मौंकों की अलग-अलग हुआ करती थीं।
जब स्वतंत्र रूप से गाई जाती थीं तो इनका स्वरूप शृंगारिक हुआ करता था और जब ‘दुआरे’ मंझाते समय गाई जाती थीं तो इनका स्वरूप ईश्वर के प्रतीक को अपने में समाहित कर लेता था। सो सुन्दर बुढ्ढे के ‘दुआरे’ से पंचम चच्चा के ‘दुआरे’ की ओर बढ़ती हुई धमार ने एक गुपली उठाई –
होरी हो जहु जीबनु दिन चारि को – २

काह लये लाला अउतारी, काह लये लाला जाइं।
लाला मुट्ठी बाँधे अउतारी, हाथ पसारे जाइं हो।
जब तक जीबें मइया रोबइ, बहिनी तीज तिउहार।
चारि दिना लउं तिरिया रोबइ, फिरि ढूंढइ घरबारु।
चारि जने मिलि लइय चले हइं, फूंकि देत बहिरारि।

होरी हो जहु जीबनु दिन चारि को – २

किशना के मनोम्स्तिष्क से सिनेमा की एक पूरी रील गुजर गई। होली का एक पूरा आख्यान उसकी स्मृतियों में जी उठा। देर रात तक धमार के साथ घूमती और मौज-मस्ती करती उसकी अंतस्चेतना जब घर आई तो अम्मा खाना परोसे हुए उसका इंतजार करती मिलीं। अम्म की इस तपस्या से मन द्रवित हो गया उसका। एकटक अम्मा का चेहरा निहारा और जाकर उनके गले लग गया। अम्मा ने भी दुलार के साथ उसे अपने सीने से चिपका लिया।


[1] . अरण्ड का पेंड़
[2] होली की राख जो लोग माथे पर लगाते हैं।
[3] लक्ष्मण
[4] अच्छी भैंस
[5] पूजा-पाठ / कर्मकांड / आडम्बर
[6] जवानी का रस, कामभावना

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पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)