नकटोरा कैरी ऑन
नकटोरा
कैरी ऑन
(कहानी
बनाम रूपरेखा)
रात का पहला पहर अभी अपने प्रथम चरण में ही था
पर मानो लग रहा था कि जैसे पूरे वातावरण को सघन कालिमा ने ढक लिया हो। हां कालिमा
में कहीं-कहीं पर एक-आध नखत नीचे की ओर
झांकता हुआ अवश्य दिखाई दे जाता था। चारो ओर पसरा अंधेरा और सन्नाटा अपने ‘सायं-सायं’
की ध्वनि से सन्नाटे को और गहरा रहा था। वह लगातार अपने यौवन की ओर बढ़ा जा रहा था
तिस पर आस-पास ही अंधेरे से लुका-छुपी खेल रहे कुत्ते आपस में बातचीत कर रहे थे। सर्दी
की यह रात अपने चरमपथ पर थी। ऐसे में कहीं दूर से हल्की–हल्की सी रोशनी अंधेरे और
सन्नाटे की पथबाधक सिद्ध हो रही थी।
नेतराम अपने गोंड़े
में कुछ लोगों के साथ बैठे पोर की मद्धम–मद्धम आँच से शरीर को घुमा-घुमाकर सेंक
रहे थे। हुरिया, खलोली और रमचन्दरा नेतराम के पास उनसे सटे बैठे थे जबकि कल्लू पोर
में दबी शकरकन्दी को उलट-पलट कर जल्दी भूनने का प्रयास कर रहा था। नेतराम के
हमउम्र सुन्दर, इशुरी, रमल्ले और माखन अपने हाथों से घुटनों को दबाये हुए सर्दी से
अपने को बचाने का प्रयास कर रहे थे तो धीरे–धीरे सुलग रही पोर की आग घुप्प अंधेरे
और सन्नाटे के हजारों हजार अस्त्र-शस्त्रों से एक साथ जूझ रही थी। नेतराम ने सही शाम को ही सड़े हुए भूसे के नीचे सुलगती
हुई कन्डी रख दी थी सो उसने पूरे भूसे को चमचमा दिया था। इसके सहारे ही नेतराम और
उनका मित्र मण्डल बैठा हुआ किस्से-कहानियों का आनंद ले रहा था। कोई राग सुनाता तो
कोई परी कथा में खो जाता, कोई राजा निरवंसिया को ले चलता तो कोई आल्हा के दो बंध
सुना देता। रात का अंधेरा और सन्नाटा इस पोर की सुन्दरता और रस परिपक्वता को
बहुगुणित कर रहा था।
हमारे इन नायक भाई
नेतराम का पूरा नाम नेतराम यादव है लेकिन गाँव-गिराँव से लेकर घर-परिवार और समूची
रिस्तेदारी में ये ‘नेता’ के नाम से ही प्रसिद्ध हो चुके थे। इनका किसी प्रकार का
कोई राजनीतिक जीवन नहीं था। यहाँ तक कि नेता ने आज तक गाँव की प्रधानी तक में
एक-आध वोट ही डाले होंगे, पर नाम का क्या करें एक बार चल निकला सो चल निकला।
वैसे नेता जी का
गोंड़ा भी कुछ इन्हीं के नामानुरूप था। अगर उसे आज ज्यों का त्यों सुरक्षित कर दिया
जाए तो आगे के बीस-तीस सालों में कोई भी राजनेता इस गोंडे को ‘संग्रहालय’ घोषित
करने में अपने आपको गौरवान्वित महसूस करेगा। सामने की ओर एक खपरैल का घर है,
जिसमें नेतराम का भरा-पूरा परिवार रहता है। उसके बाद गाँव का मुख्य चकरोट है, जहाँ
से गाँव के तकरीबन सभी लोग दिन भर गुजरते रहते हैं। इसके बाद है अपना यह गोड़ा, जो
मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारों पर घास का छप्पर डाल के बनाया गया है। इस गोड़े में
सबसे पीछे की ओर भूसा भरा है और उसके बराबर से लेकर आधे से ज्यादा जगह में
पन्द्रह-बीस जानवर बंधे हैं।
जानवरों के बाद
नेतराम की चारपाई पड़ी है जो नेतराम ने अपने आप ही बगिया से बांस काटकर बना ली थी।
जानवर चराने के दौरान मूज के बान बट-बट कर यह खटिया पूरी गई थी। खटिया पर पड़ा
बिस्तर भी अपनी ऐतिहासिक जीवन-गाथा बयान कर रहा था। इसमें इतने ज्यादा पैबन्द लगे
थे कि बुनाई के धागों के बीच में ही ऊपर का कपड़ा दिख रहा था वर्ना उस बिस्तर के
अंदर क्या–क्या भरा है सब निरीह आँखों से बाहर झांक रहा था। गाँव में इसे ‘कथरी’
कहा जाता था। इस कथरी को नेतराम ने बड़े जतन से सम्हाल कर रखा था क्योंकि इससे इनका
तकरीबन बीस-पच्चीस सालों का स्नेहिल संबंध बन चुका था। दोनों एक दूसरे से अंत तक
साथ-साथ रहने की कसम में बंध चुके थे।
नेतराम की इस
चारपाई के दाहिनी ओर दीवार में निकली एक खूँटी पर टंगी लालटेन घुप्प होते जा रहे
अंधेरे और सन्नाटे से संवाद कर रही थी। लेकिन नेतराम और पोर के अन्य साथी लोगों की
बैठकी अभी अपने आरम्भ पर ही थी।
“. . . अरे देखउ .
. . हाँ . . . चोदी खाइ नाइं सकति सहीसि. . . जाधा चरबी चढ़ि गइ हइ का. . . उठे ता
अबहें निकरि जइही सब . . ” – पोर पर हो रही चुहल के बीच-बीच में जब कोई जानवर आपस
में लड़ता या मच्छर लगने से आपस में एक-दूसरे को अपने सींगों से खुजलाता तो इस
प्रकार के स्वत: स्फूर्त संवाद नेतराम के मुँह से स्वमेव निकल पड़ते। लेकिन इस
प्रकार के संवादों से पोर की बैठकी पर कोई असर नहीं पड़ता था, बल्कि यह कहें कि यह
सब पोर की चुहलबाजी या किस्से-कहानियों का ही एक हिस्सा था, सो चुहलबाजी अथवा
किस्सा-कहानी अपनी गति से चलता रहता।
माखन दउआ की कहानी
आज पूरी तरह से जम नहीं पा रही थी और रमल्ले दद्दा केवल सुनने में ही माहिर थे।
हाँ पर जब नेतराम बब्बा कहानी सुनाते तो उनकी कहानी सुनाने की शर्त को वही पूरा कर
पाते थे। शर्त यह थी कि जब नेतराम बब्बा कहानी सुना रहे हों तो ‘हूँ – हूँ’ करते
रहना अनिवार्य होता था नहीं तो जो गालियाँ मिलतीं कि पूछो मत। खलोली बहुत हरामी
था। वह अक्सर नेतराम को कहानी के लिए उकसाकर निकल लेता था या सोने का बहाना कर
देता था। फिर क्या था बब्बा उसे जो गालियाँ सुनाते, वह अपने आप में ही एक किस्सा
बन जाता था।
खैर पोर की आग कुछ
तेज हो चुकी थी और इसुरी दउआ बच्चों के मनुहार भरे आग्रह पर अपना वही चिर-परिचित
सा गीत सुनाने पर मजबूर हो गये थे। चाहते ना चाहते हुए इसुरी दउआ सुनाने ही लगे–“पहिने
कुरता पइ पतलून, आधा साबन आधा जून।”
सुन्दर चच्चा ने
भी एक गीत-कथा सुना ही डाली लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी अभी पोर चौपाल में वह
रंगत नहीं आ पा रही थी जो हमेशा रहती थी। काफी देर की इस चुहलबाजी के बाद जब माहौल
में नीरसता छाने लगी और अभी तक नेतराम बाबा ने जमुहाई तक नहीं ली तो बच्चों ने
उन्ही के पैर पकड़ने में भलाई समझी। पूरी महफिल में एक नेतराम ही ऐसे किस्सागो थे
जो किस्से को पूरी तन्मयता के साथ सुनाया करते थे। हाँ! उनमें एक बात तो थी कि जब
तक उनसे कोई दो–चार बार किस्सा सुनाने का आग्रह नहीं करता था वह चुप ही रहते थे,
लेकिन जब एक बार सुनाने पर आ गये तो फिर रात और सन्नाटे की क्या मजाल जो बिना उनसे
पूछे वहाँ से हिल भी सके।
नेतराम की उमर यही कोई पैंसठ–सत्तर
के बीच की हो चली थी, लेकिन उनके हृदय की तरंगे किस्से-कहानी सुनाते समय बीस–बाइस
पर जा पहुँचती थीं। एक आँख से तिरछे देखते हुए और हर बात में कंधे उचका-उचका कर
किस्से सुनाते हुए वह अपने में ऐसे खो जाते कि आस–पास क्या हो रहा है, पास-पड़ोस
में कौन बैठा है आदि सब कुछ भूल जाते थे। इसके साथ ही उनके आस–पास बैठे श्रोतागण
उनके किस्सों में ऐसे खो जाते थे जैसे आज के जमाने का कोई सिनेमा–बिनेमा देख रहे
हों। ना रात की फिकर ना खाने–पीने की फिकर। बस नेता बाबा किस्सा सुना रहे हैं और
सब उसका रसपान कर रहे हैं।
“तो नेता
बब्बा वह कैसे दो पैग दारू ने आपकी बरात तुड़बा दी थी” – काफी देर से हिम्मत जुटा
रहे रामासरे ने नेता बब्बा के उँगली कर ही दी। वैसे यह बहुत कठिन काम था नेता से
किस्सा सुनाने की बात कहना। शुरू-शुरू में तो कहने वाले को बिना गरियाये छोड़ते ही
नहीं थे। पर एक बार किसी ने हिम्मत करके कह दिया तो वहाँ बैठे और लोग भी हाँ में
हाँ मिला देते। फिर क्या था ना-नुकुर करते-करते नेता बब्बा राजी हो ही जाते।
“... का
उरे तुइ बेहइ कहानी बेरि–बेरि लइके बइठि जाति... कोई औरु नाइं अच्छी लगति... जब
देखउ दु पइग दारू... जब देखउ दुइ पइग दारू... तुम्हारी गांड़िम घुसि जइही दुइ पइग
दारू ... जहि दिन मुंह मा लगाइ लइ... ”
कहते–कहते नेतराम अपनी सैकड़ों–हजारों बार सुनाई जा चुकी वही कहानी एक बार
फिर से आरम्भ कर देते।
वास्तव में
इस कहानी में नेतराम को अपने आप में भी काफी आनंद आता था। इसलिए भी वह इसको बड़े रस
ले-ले कर सुनाया करते थे। ऊपर-ऊपर से भले ही वह किसी के आग्रह को झिड़क देते हों पर
अंदर-अंदर से वह खुद भी यही कहानी सुनाने का मन बना रहे होते हैं।
इस प्रकार
एक बार फिर नेतराम की कहानी और संभवत: आज एक हजारवीं बार, फिर एक रात के अंतहीन
सफर पर निकल पड़ी और नेतराम उर्फ नेता बब्बा एक बार फिर पैसठ–सत्तर साल की उम्र से
वापस पैतालिस–पचास साल पीछे बीस–बाइस साल पर आ गये।
कट टू फ्लेशबैक
नेतराम
उर्फ नेता बब्बा ने जब से होश सम्हाला, तबसे उनके जिम्मे जो सबसे बड़ी जिम्मेवारी
थी वह थी गाय, बछड़े, भैंस, पड्डे, पड़ियाँ आदि बीस–पच्चीस जानवरों की देखभाल करना। नेता
बब्बा सुबह तड़के ही उठ जाते और अपने इन दोस्तों की देख–रेख में पूरी तन्मयता से लग
जाते थे। सबसे पहले सभी जनवरों को गोड़े से बाहर बाँधते फिर गोंड़े की साफ–सफाई करने
में तकरीबन एक–सवा घण्टा बिता देते। फिर सबकी चरनी साफ करते और रात का बचा हुआ
खाना, खली, चोखर आदि मिलाकर सबको लादी करते, जिससे दूध ज्यादा और आसानी से उतरे।
कुछ देर बाद दूध वाले जानवरों से दूध निकालकर वहीं पर बैठे–बैठे एक लोटा पी लेते
और बाकी बचा दूध आवाज देकर अम्मा को सौंप देते। इसके बाद अम्मा नेता को रात की रखी
हुई दो–चार रोटियाँ सरसों के तेल और लहसुन–प्याज से चुपड़कर दे देतीं। इस प्रकार
सुबह की इस दिनचर्या से निपटने के बाद नेतराम सभी जानवरों को लेकर गोमती की तलछटी
की ओर रवाना हो जाते जहाँ से खूब धूप चढ़े तक वापस आते थे। फिर नहाना–धोना और खा–पीकर
गोड़े में अपनी चारपाई पर जाकर पड़े-पड़े ढोला, आल्हा, बिरहा आदि गुनगुनाते-गाते दोपहरी
बिता देना। दोपहर ढले फिर जानवर लेकर गोमती किनारे निकल जाते और शाम ढले लौटते।
रोज का यही नियम बन गया था नेतराम उर्फ नेता बब्बा का।
रोज की ही
भाँति आज भी नेता काफी धूप चढ़े जानवरों के पीछे–पीछे घर की ओर मस्ती में कंधे पर
डण्डा रखे हुए अपनी विशेष प्रकार की चाल में झूमते हुए घर की ओर चले आ रहे हैं।
अपनी दिनचर्या के चलते आज नेता यह भूल गये कि आज उनकी बरसों की मुराद पूरी होने का
दिन था। वह तो जानवरों के पीछे से ही जब उन्होंने घर से लेकर गोड़े तक लाल, हरी,
पीली झंडियाँ और आम के पत्तों की वंदनवारी लगी देखी तो मन में मोर की ध्वनि होने
लगी लेकिन वह बाहर ना आकर महज होठों तक आकर ही रह गई।
“कम से कम
आज तो जानवरों से निजात पा लेते . . . कि आज भी तुम्हारा ही जाना जरूरी था . . . तुमने
इन जानवरों का ठेका ही ले रखा है कतइ . . . और तुम नहीं करोगे इन जानवरों का
लिदकुर तो करेगा कौन . . . घर में तुम्हारे सिबा है ही कौन . . . जो . . . जो
इन्हें देखे. . . अरे कम से कम आज तो . . . सब औरतें बैठी है उबटन लगाने को और जे
हैं कि जानवर . . . हे भगवान कुछ तो अकल दे देते जह नितउना का . . .” - गोड़े के
पास पहुँचकर नेता जानवरों को उनके-उनके खूँटे से बाँध ही रहे थे तभी अम्मा की
स्नेह और गुस्से से सनी हुई आवाज उनके कानों से टकराई।
“. . . अरे
अम्मा जइ सब बिचारे हमारे ही भरोसे हैं ना . . . किसी के हाथ का खाना इन्हें अच्छा
ही नहीं लगता . . .।” नेता ने अम्मा को हँसते हुए छेडा तो अम्मा का पारा और चढ़
गया। फिर तो वह बड़े बेटों और बहुओं को खरी-खरी सुनाने लगीं।
“. . .
इन्हेंनि सबने तुमइ नौकर बनाइ रख्खो हइ. . . सब मेहरुअनकि गुलाम हुइगे कतइ . . . ”
दूर खड़ी बड़ी बहुयें अम्मा की गालियाँ सुन-सुनके मुँह बनाती रहीं और अम्मा दोहे
सुनाती रहीं। तब तक अंदर से नेता की बड़ी बहन पार्बती आकर अम्मा को अंदर ले गई और
नेता को जल्दी से हाथ-मुँह धोकर अंदर आने को कह गई। अंदर औरते खम्भ के पास बैठी
नेता को उबटन लगाने का इंतजार कर रही थीं।
नेता घर के
अंदर बहुत कम ही जाते थे सो अंदर घुसते ही खपरैल की उलाती वाली बल्ली उनके सर से
टकराई तो नेता एकदम से सर पकड़कर वहीं पर बैठ गये। सबने दौड़ के देखा तो खैर! सर
फूटा नहीं था बस चोट लग गई थी। जैसे-तैसे करके उन्हें खम्भ के पास पड़ी पटली पर
उबटन लगाने के लिए बिठाया गया।
“ . . .
अरे भउजी धीरे-धीरे लगाबउ . . . रोमा उखत्त हइं . . .” नाइन ने उनके पैर पर जब
उबटन मसला तो नेता के रोयें उखड़ने लगे। इससे नेता एकदम उचक पड़े।
“धीरे-धीरे
का लगाबइं . . . इत्ते बड़े-बड़े जो हइं . . . ” नाइनि भौजी ने नेता की नाक पर थोड़ा
सा उबटन लगाते हुए नेता से मसखरी की तो नेता मारे शरम के लाल-पीले हो गये और आस-पास
में बैठी औरतें भी ठट्ठा मारकर हँस पड़ीं।
“. . . अरे
भौजी थोड़ा लाड़ से करो. . . नहीं तो हमारी देबरानी आने तक एक भी रोया नहीं रह जायेगा
इनके . . . ” नेता की भाभी नाइन से चुहल करती हुई अम्मा की ओर देखकर कुटिलता से
मुस्कुराई तो अम्मा ने भी कई दोहे सुना दिये।
इसी
हँसी-ठट्ठे के बीच नेता के उबटन लग गया, तेल लगाया गया और नहला-धुला कर जामा-ऊमा
पहनाया गया। अब नेता दूल्हा बनकर, मौर लगाये हुए कुँये की ओर बढ़ चले थे जहाँ अम्मा
एक पैर कुयें में लटकाये बैठी हुई थीं। खम्भ के पास से कुये तक बहनोई साहब उनके
साथ ही थे।
इधर नेता,
बहनोई का हाथ पकड़े हुए कुँये की ओर अम्मा को उठाने बढ़ चले तो दूसरी ओर कुछ अलग-अलग
लोग अपनी-अपनी तरह से नेता की बारात में जाने की तैयारी करने में व्यस्त थे।
नेता के
पिता जी ने सालों से जंग खा रहा कुर्ता-पाजामा पहना और गाँधी टोपी लगाई तो बड़े ताऊ
जी ने कुर्ते के नीचे घुटनो तक की धोती पहनी। पास ही में रहने वाले रामखिलावन
दद्दा ने लाल गमछा सर में पगड़ी के समान बांधा तो बहनोई साहब की वेष-भूषा कुछ अलग
ही छटा बिखेर रही थी। राजकपूर साहब जैसी पतलून को किसी तरह से कमर पर रोका गया था,
जिसमें ऊपर से डाली गई शर्ट घुसाई गई थी। पैरों में पम्प शू और रामलीला से खरीदा
हुआ काले रंग का चश्मा। इस चश्में को बहनोई साहब ने रात में भी ना उतारने की कसम
ही खा ली थी। कुल मिलाकर एक अजीबो-गरीब रंग-ढंग में ढले हुए बहनोई साहब की छटा
अपना अलग ही अंदाज पेश कर रही थी।
इसी प्रकार
से बारात में जाने वालों में अन्य जितने भी लोग थे सबका अपना एक अलग रंग-ढंग, अपना
एक अलग अंदाज, अपनी एक अलग फिजा। सब पर नेता की बारात का खुमार चढ़ा हुआ था।
“. . .
देखउ जाधा भाँग-ऊँग ना खइअउ।” रामखिलावन की पत्नी समझा रही थी।
“भोंसड़ीकि
अगर हमइ पता चलिगो कि तुमने शराब पी के बरातम कुछू उपद्दर करे . . . तउ
मात्ति-मात्ति चूतर सुजइ दिहीं . . .” हुरिया के बप्पा उसे नसीहत देते।
इधर नेता
के दोस्त अपने जुगाड़ में लगे थे। कहाँ से और कितनी शराब लेनी है। कच्ची लेनी है या
ठेका देशी . . . सब अपना-अपना मत दे रहे थे।
मनीराम
गाँव में कच्ची शराब निकालकर बेंचने के लिए प्रसिद्ध थे। इन्होंने अपने घर के पीछे
वाले गन्ने के खेत में ही शराब निकालने का प्रबन्ध कर रखा था। वैसे तो एक-दो बार
पुलिस इन्हें पकड़कर ले गई पर उन्हें भी तो मनीराम की निकाली हुई शराब पीनी थी सो
ज्यादा परेशान नहीं किया। हाँ! थाने में जब गोबर्धन वर्मा दरोगा आया, उसने अवश्य
ही मनीराम के डंडा कर दिया था। वह ठहरा एकदम ईमानदार और शराब का दुष्मन सो वह
जितने दिन तक थाने में रहा, मनीराम की कच्ची शराब की दुकान कुछ कम ही चल पाई।
चूँकि कुछ पुलिस वालों का संरक्षण मनीराम को प्राप्त था सो उनकी यह दुकान गोबर्धन
लाल वर्मा के जाते ही फिर से फूलने-फलने लगी थी।
आज तो
मनीराम ने यही कोई दस कनस्तर के आस-पास शराब निकाल कर रखी थी। उसे पता था कि
नेतराम की बारात में जितनी ज्यादा शराब निकाल ली जाये सब की सब खप जायेगी। उसका यह
विश्वास सही भी साबित हो रहा था। अकेले माखन ने ही दस थैली ली थीं तो सुन्दर क्या
किसी कम मूतते थे। उन्होंने भी दस-बारह थैली डाल लीं। इसुरी, रामखिलावन, बहनोई
साहब, बैण्ड वाले, नौटंकी वाले, नये पियक्कड़, पुराने पियक्कड़ सब के सब ने पूरी रात
की तैयारी के हिसाब से मनीराम से शराब की थैलियाँ खरीद ली थीं।
कुल मिलाकर
सब के सब पूरी तरह से बारात की तैयारी में थे। नौटंकी वाले अपनी तरह से, बैण्ड
वाले अपनी तरह से, बाराती अपनी तरह से और औरतें अपनी तरह से।
एक ओर
ट्रेक्टर-ट्रॉली बारातियों को ले जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। दो ट्रालियों में
नीचे पयार भर लिया गया है, जिससे ट्राली चलने में झटका ना लगे। बारात के साथ जाने
वाला सामान लेकर रमेसुर चच्चा पहले से ही बैठ गये हैं। सारे सामान की जिम्मेवारी
इन्हीं की है। वैसे पूरी बारात में अगर कोई गम्भीर व्यक्ति हैं तो यही रमेसुर
चच्चा हैं। हर समय मुँह में पान की गिलौरी रहने के कारण बोलते बहुत ही कम है। जब
कोई उनसे कुछ कहता या पूछता है तो हाँ-हूँ अथवा इशारों में ही उत्तर दे देते हैं। ट्राली
में पालथी मारे अपनी जगह सुनिश्चित कर चुके हैं। नौटंकी वालों का साजो सामान भी दो
रंडियों के साथ रखा है। एक की उमर यही कोई सत्तरह-अट्ठारह साल की और दूसरी उसकी
गुरू तीस-पैंतिस साल की। रमेसुर चच्चा पान की गिलोरी करते हुए आस-पास खड़े लोगों से
नजर बचाते हुए कमसिन से नजर मिला ही लेते हैं। जिस पर इधर-उधर खड़े लौंडे तफरी ले
रहे थे।
प्रधान जी
और सरपंच जी अपने अलग-अलग ट्रेक्टरों पर बरात जाने को तैयार हैं। दोनों के साथ
चार-चार छ:-छ: हाँ में हाँ मिलाने वाले भी हैं। दोनों ने अपने-अपने ट्रेक्टरों को
अलग-अलग प्रतिस्पर्धात्मक रूप में सजाया हुआ है।
और ये देखो
ये साले छिछोरे भी अपने अलग अंदाज में जुगाड़ बनाने में मस्त हैं।
एक : . . .
उरे हमता नाइं जइहीं बरातम . . .
दो : काहे
एक : बरातम
का मजा हइ . . .
दो : तो
यहाँ क्या रक्खा है . . .
एक : जुगाड़ . . . भोसड़ी के बह
नाइं हइ . . . रिमिया
दो : रिमिया . . .
तीन :
जिसके पीछे तीन साल से गांड़ मरवा रहा है साला . .
कुल मिलाकर
ये चार-पाँच छिछोरे रात में नकटोरा देखने के बहाने अपनी-अपनी जुगाड़ को फिट करने की
जुगत बनाने में लगे हैं।
चारो ओर सब
अपने-अपने रंग में रंगे हुए हैं। सब मस्ती लूटना चाहते हैं।
. . . और
इधर नेतराम का कुआँबारा अपना ही रंग बिखेर रहा है।
एक कुयें
पर अम्मा एक पैर लटकाये बैठी है। एक हाथ में मूसल और दूसरे हाथ में एक गठरी लिए
हुए हैं। आस-पास सौ-पचास औरतें खड़ी गालियां गा रही हैं।
नेता बहनोई
का हाथ पकड़े अपने अंदाज में कुयें के चारो ओर घूम-घूम कर आटे की गोली में फँसाई
हुई सीक कुयें में डाल रहे हैं। औरतों द्वारा गाई जाने वाली गालियों के बीच कुयें
के सात चक्कर पूरे हुए और माँ को उठाने की कबायद आरम्भ हुई। नेता ने माँ को पीछे
से पकड़ा पर माँ थीं कि उठने का नाम ही नहीं ले रही थी।
“. . . अरे
नेता पहिले कसम तो खाओ . . .” चौधराइन आजी बोलीं।
“. . . हाँ
अउरु नाइं ता का बिना कसम लिए उठना मत नेता की अम्मा . . .” अमिलिया तीर वाली ने
चौधराइन की बात को और मजबूती प्रदान की।
“ . . .
अउरु का भइया कल्लिक कहूँ बहूनि आइकि अपने बस मा करि लो ता . . .” एक अन्य औरत ने
नेता की अम्मा का पक्ष लिया।
“. . . हाँ
नेता कसम ता खानइंक परिही. . .” बड़ी भाभी ने भी नेता को पीठ पर चुटकी काटते हुए
मजा लेने में कसर नहीं छोड़ी।
अब नेता
बेचारे इन चुहलबालियों के चक्कर में ये भी भूल गये कि आखिर बोलना क्या है। चुपचाप
धीरे से बहनोई के कान में मुँह लगाकर पूछा तो बहनोई ने कुछ शहरी अंदाज में पूछा –
“. . . क्
. . . क्या . . .कसम क्या खानी है . . .पहले बताओं तो सही . . . कि कसम खा लो . .
. कसम खा लो लगाये पड़ी हो सब . . .”
“. . .
अच्छा माँ को देने वाली कसम तो भूल गये लेकिन बहुरिया के आने के बाद बाप कैसे बनना
है इसके बारे में सब चल रहा होगा दिमाग में अभी से . . .” नाइन ने जब इस अंदाज में
ताना मारा तो नेता की रही-सही हिम्मत भी जवाब दे गई और चेहरा मारे शरम के लाल हो
गया। साथ ही बहनोई की भी हिम्मत कुछ कहने की न रही तो नेता की बहन ने अपने पति के
कान में बता दिया कि क्या कसम खानी है। तब जाकर बहनोई के बताने पर नेता बड़ी
मुश्किल से बोल पाये –
“. . .
अम्मा तुम कतइ चिन्ता ना करउ . . .हम जिन्दगी भरि तुमइं कमाइकि खबइहीं . . . और
कबहूं बहके कहनम नाइं अइहीं. .”
“ . .
.बहके कहिके नेता . . .” एक औरत ने फिर चुटकी ली।
“. . .
बिचारे अपनी मेहरुआ को नाम लेनम शरमात हइं . . . हा . . . हा . . . हा . . . ” बड़ी
भाभी चुटकी लेने वाला कोई भी पल जाया नहीं करना चाहती थीं।
अम्मा को
कसम देकर उठाया गया पर क्या एक ही मुशीबत थोड़े ही होती है शादी में। बहनोई साहब
नेतराम का हाथ पकड़कर आगे बढ़े तो बेलामती ने मिट्टी के सात दिये रख दिये नेतराम के
पैर के नीचे और उन्हें फोड़ने से पहले नेग देना अनिवार्य था। भाई बड़ी मान-मनौवल के
बाद बेलामती ने दिये फोड़ने का आश्वासन दिया।
दूसरी ओर
कुछ बुजुर्ग टाइप के लोग बारातियों को इकट्टा कर-कर के ट्रॉली में बिठाकर जल्दी
चलने का आग्रह करने में लगे हुए थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे पूरी बारात की
जिम्मेवारी इन्हीं के कंधों पर हो।
खैर! इसी
प्रकार की चुहलबाजी, हँसी-मजाक और जिम्मेवारी प्रदर्शित करने वाले कार्टून टाइप
लोगों के हाव-भाव और संवादों के साथ बारात लड़की के घर की ओर चल पड़ी।
कट
नेतराम की
बारात अपने एक अलग अंदाज में अनोखीपुर के जनवासे में पहुँच चुकी थी जहाँ बारातियों
के लिए एक खेत को जुतवाकर उसमें पचास-साठ खटियां डलवा दी गई थीं। सब बारातियों ने
जल्दी से अपनी-अपनी खटिया पर दौड़कर कब्जा जमाया। नौटंकी वाले अपने साजो-सामान के
साथ एक ओर तो जमकर पीने वालों की जमात एक ओर लगी। बड़े-बूढ़ो की जमात अलग अपना राग अलापने लगी।
छिछोरों ने अपनी जगह पकड़ी तो नेतराम को लेकर माखन, इसुरी, सुन्दर आदि के साथ बहनोई
साहब एक विशिष्ट जगह पर आसनाशीन हुए।
“. . . लेउ
देखो भइया. . . यह व्यवस्था है अनोखीपुर वालों की. . . भोंसड़ी वालों ने खेत में ही
चारपाइयाँ डलवा दीं. . .” नेतराम के फूफा व्यवस्था देखकर उबल पड़े।
“. .
.तुमने तो दद्दा लड़के को झोंक दिया है ऐसे घर में. . .” पास ही में खड़े किसी ने
नेतराम के बाप के सामने छोभ प्रकट किया।
“. . .अब
का कहें दद्दा. . . वह तो बारात नहीं हो पा रही थी, इसलिए . . . नहीं तो ये लोग
हमारी झांट के बाल के बराबर भी नहीं है. . .” नेता के बाप ने अपनी कसमसाहट प्रकट
की।
एक ओर जहाँ
सब अपने-अपने तरह से कमी-बेसी गिना रहे थे तो दूसरी ओर बैण्ड और नौटंकी वाले अपने
साजो-सामान को व्यवस्थित करने में लगे थे।
जब बैण्ड
वाले उधम मचाने लगे तो गाँव-गिरावँ के लोग बारात देखने के लिए एकत्रित होने लगे।
कोई बैण्ड बाजा के पास खड़ा है तो कोई नौटंकी की रंडियों को सीधे-सीधे या चोरी
नजरों से निहारने में लगा है, जिससे रंडियां भी मजे ले रही हैं। कुछ पहले यह देख
लेना चाहते हैं कि दूल्हा कैसा है। बाद में तो नौटंकी शुरू हो जायेगी और दूल्हा भी
अपने ब्याह और भाँवरों में व्यस्त हो जायेगा, इसलिए उसे अभी देख लेना ही ठीक होगा।
लोग नेतराम को देखने लगे तो नेतराम में भी दूल्हापन आ गया। वह सभी देखने वालों से नजरें
चुराते हुए भी सबकी नजरों में आ ही जाने का प्रयास करने लगे।
कुल मिलाकर
पूरे जनवासे में कई गुट बन गये जो अपने-अपने अंदाज में खुद को एक विशेष बाराती के
रूप में प्रस्तुत करने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे।
सब
अपनी-अपनी सेटिंग में लगे थे जब तक लड़की वाले सर्बत-पानी लेकर बारात के आदर-सत्कार
को आ पहुँचे तो दोनों पक्षों की आपस में राम-जुहार होने लगी। लड़की वाले खीसें
निपोरते हुए लड़के वालों की खातिरदारी में जुट गये।
यह सब चल
ही रहा था तब तक बहनोई साहब और नेतराम के दोस्तों ने मधुपान का अपना सिलसिला भी
आरम्भ कर दिया।
अरे यह
क्या . . . सरपंच साहब और परधान जी घर से अपने-अपने अलग-अलग ट्रेक्टरों पर अपनी
हुमक दिखाते हुए चले थे वह जनावासे में एक ओर एक साथ बैठे हुए जाम से जाम टकरा रहे
हैं। जिसको जहाँ जगह मिली वह वहाँ दो पैग लगाने लगा। सब पर धीरे-धीरे मस्ती का
खुमार चढ़ने लगा।
“. . .
माखन तुम जाधा मत पियो नहीं तो तुम्हारा लंगोटा ढ़ीला हो जायेगा . . .।” सुंदर ने
माखन के चुटकी काटी तो माखन भी भिनभिना पड़े –
“. . .
अपनी देखउ अपनी . . . हियन का हमता पियन के ले मसहूरइ हइं. . . अपनेक सम्हारउ. .
.”
“ . . .
सुंदर चच्चा तउ तुम जह कहनों चाहत हउ कि माखन दद्दा तुम्हारे संगम नाइं पी सकत का.
. .” इसुरी ने माखन को चढ़ाने का पूरा प्रबन्ध कर दिया।
दो-तीन पैग
अंदर जा ही चुके थे सो दोनों में से कोई गम खाने को तैयार ही नहीं था। इसी के चलते
दोनों पैग पर पैग चढ़ाते चले गये। कोई भी एक दूसरे से कम नहीं।
बहनोई साहब
अभी तक चुप ही बैठे थे। लेकिन जब माखन और सुंदर की तू-तू मे-मे देखी तो खुद भी गेर
में आ गये। यह भी बैठे-बैठे दो-तीन पैग गटक चुके थे।
“. . .
भोसड़ी के कोई व्यवस्था ही नहीं है. . . कब से बैठे है . . . ना कोई नाश्ता. . . ना
कोई पानी . . .”
“. . .जीजा
लेउ हमारी छोलिकि कउरि लेउ. . . नाश्ता को का करिहउ . . .” पास ही में बैठे किसी
हमउम्र और बहनोई के ससुराल पक्ष से होने के नाते उनका साला लगने वाले ने उन्हें
छेंड़ा।
“. . . हाँ
नहीं तो क्या . . .यह कोई व्यवस्था होती है. . .मुँह में मूत दिया सालों नें. . .
नाक कटवा दी. . .।” बहनोई साहब पूरे तैस में थे।
जब मझोले
से यह सब नहीं सहा गया तो वह भी बोल ही उठा – “ सुनो . . .हमें मत सुनाओ . . . एक
तो कितनी मुस्किल से बारात करवा रहा हूँ ऊपर से . . .घर में नहीं खाने को अम्मा
चलीं भुनाने . . .इतनी शादियाँ करवा चुका हूँ . . . लेकिन इस तरह से कंधे पर चढ़कर
किसी ने मुँह में नहीं मूता. . .” बेचारा मझोला भिन्ना गया।
जीजा और
मझोले की यह मुँह-चभ्भर चल ही रही थी तब तक कोई इस महफिल में नाश्ता लेकर आ गया तो
उसे तैस दिखाना ही था।
“. . . क्या
मर गये थे . . . कबसे हम लोग इंतजार कर रहे हैं . . .” बहनोई ने तैस मारा।
“. . . हाँ
और नहीं तो क्या . . . ऐसे ही पीनी पड़ गई . . . ।” किसी ने बेहयायी से शराब का पैग
मुँह में लगाने से पहले नाश्ता देने वाले को भड़काने का प्रयास किया।
बहनोई साहब
और वहाँ बैठे कई लोगों ने अपने-अपने तरह से बेचारे को लताड़ा पर वह बेचारा लड़की
पक्ष से होने के नाते निरीह प्राणी ही बना रहा। बाद में वहाँ से हटकर उसने अवश्य अपना
गुस्सा उतारा –
“. . . भोंसड़ी
वालो को घर में भले ही खाने तक को ना मिलता हो यहाँ आकर अइसे अकड़ दिखा रहे हैं
जैसे चार गाँव के जमीदार हों. . . । बहिनी को बिहाउ हइ नहीं तो गाँड़ पर चार लातें
मारकर रपटा देते . . .।”
बेचारे ने
अपने चार-छ: लोगों के बीच अपने अंदर की भड़ास निकाली तो लोगों ने शादी हो जाने तक
के लिए उसे शांत रहने का मसविरा दिया।
चारों ओर
फैले बाराती अपने-अपने में मस्त हो रहे थे। जैसे-तैसे करके नाश्ता-पानी निपटा तब
तक लड़की वाले लड़के के साथ होने वाली कुछ रीति-रिवाजों को सम्पन्न करने आ गये।
लड़की का
भाई नेतराम के पैर धो रहा है और नेतराम मारे खुशी के सम्हल ही नहीं पा रहे हैं।
इसी खुशी के चक्कर में नेतराम कुछ ज्यादा ही हास्यास्पद लगने लगे। उस पर बीच-बीच
में बहनोई और दोस्तों की छेड़-छाड़ उन्हें और चक्कर में डाल देती।
नेतराम की
बारात की नेगी-लेगी एक ओर चल रही थी और बारातियों की मस्ती अपने चरमपथ पर लगातार
बढ़ी जा रही थी। नौटंकी शुरू हो चुकी थी।
पहली
फरमाइस सरपंच साहब की ओर से आयी। तो नई वाली रंडी ने अपने खूबसूरत अंदाज में उनका
सुकरिया अदा किया। इसी प्रकार सरपंच साहब की देखा-देखी परधान जी ने भी धोती की
कांच से निकालकर पूरा एक रुपिया रंडी को दिखाया तो रंडी ने बड़े कामुक अंदाज में
उनसे रुपिया लेते हुए उनके गाल को चूम लिया।
“. . . अरे
बब्बा का बात है. . . बीस साल पीछे चले गये होगे . . .” पास ही में बैठे किसी ने
परधान को छेड़ा।
छाप पर छाप
लगने लगीं। श्लील-अश्लील गानों के सैकड़ों मुखड़े नौटंकी को को उसके चरम पर पहुँचाने
का पूरा प्रयास करने लगे। उस पर दोनों रंडियों का जोश . . . क्या कहने। ऐसा लग रहा
था जैसे आज देवताओं और राक्षसों की संयुक्त सभा का पूरा सवाब नेता की शादी में उतर
आया हो।
“. . . उरे
इत्ती ना पियो . . . नहीं तो सम्हल नहीं पाओगे।” छोटेलाल ने परसादी को जब बिना
पानी डाले पैग पर पैग चढ़ाते देखकर रोकने का प्रयास किया। लेकिन परसादी भैया आज
रुकने वाले नहीं थे। आज बहनोई साहब, सरपंच जी और परधान जी की इन पर विशेष कृपा हो
गई थी। ये किसी ना किसी बहाने से उक्त सभी से शराब की दो-दो तीन-तीन थैलियां ले
आये थे। आज इनके लिए पीने का सबसे अच्छा मुहूरत था। सो वह इस मुहूरत को जाया नहीं
जाने देना चाहते थे।
इधर बारात
अपने चरम पर पहुँच रही थी तो दूसरी ओर नेता के घर में नकटोरा भी आरंभ हुए घण्टा-सवा
घण्टा हो गया था।
नेता के घर
पर हो रहा यह नकटोरा वास्तव में बारात की प्रतीकात्मक नकल थी। क्योंकि बारात के
क्रिया-कलापों को नकटोरा में औरतों द्वारा अश्लील संवादों के माध्यम से प्रस्तुत
किया जाता था। औरतें बारात के माफिक कुआँवारा, द्वारचार, भाँवरें और ब्याह की बड़ी
मनमोहक एवं अश्लील प्रस्तुति हास्यास्पद तरीके से पेश करने में लगी हुई थीं।
वास्तव में
औरतों द्वारा किया जाने वाला यह नकटोरा उनकी जनम-जनम से दबी-कुचली आत्मा को हवा का
एक ठण्ड़ा झोंका लगता था। इन नकटोरे के अश्लील संवादों और गालियों के रूप में गाये
जाने वाले गानों के माध्यम से औरतें अपने हृदय की दबी हुई उमंगों को खुलकर प्रकट
करती थीं।
नेता के घर
हो रहे इस नकटोरा की मुख्य पात्र थीं गन्ठाइन आजी। ये उम्र में वहाँ तकरीबन सबसे
बड़ी तो थीं ही साथ ही अश्लील संवाद बोलते समय या कोई स्वांग भरते समय यह काफी सीरियस
रहती थीं। गन्ठाइन आजी के इसी स्वभाव के चलते इन्हें प्रतीकात्मक पंण्डित की
भूमिका दी गई। इन्होंने पास ही में बैठी दो लड़कियों को दूल्हा-दुल्हन बनाया और उनका
प्रतीकात्मक ब्याह आरम्भ किया।
आजी ने एक
कागज का टुकड़ा अपने हाथ में लेकर उस पर लकड़ी के एक टुकड़े से लिखने का दिखावा करने
लगीं। लिखने के साथ-साथ वह मुँह से कुछ संवाद बड़बड़ाती जा रही थीं। यह संवाद,
जिन्हें आजी शादी में पढ़े जाने वाले मंत्र के रूप में प्रयोग कर रही थीं, अत्यंत
ही अश्लील थे। इन्हें सुन-सुन कर नेता के आंगन में बैठी तमाम महिलाओं का हँस-हँस
कर बुरा हाल हुआ जा रहा था।
खैर इसी
प्रकार से नकटोरा भी अपने यौवन की ओर बढ़ रहा था। आजी द्वारा करवाये गये
प्रतीकात्मक ब्याह के बाद नत्थू की अम्मा, कल्लू की अम्मा, चौधराइन चाची और नेता
की बड़ी भाभी ने एक-एक स्वांग प्रस्तुत किया।
नत्थू की
अम्मा ने जो गीत कथा प्रस्तुत की बड़े गजब की थी। इसमें दूल्हा अपनी दुल्हन को उसके
मायके से लेने आता है। इसी पर आधारित संवाद दोनों के मध्य में होते हैं।
कल्लू की
अम्मा ने तो कमाल ही कर दिया। उन्होंने नाचते-नाचते जो गीत सुनाया उसमें एक ऐसी
औरत की ब्यथा-कथा थी, जिसमें औरत अपने खूँखार पति से तरह-तरह की विनती कर रही है।
लेकिन यह विनती भी हँसी और मसखरी से भरपूर थी।
इसी प्रकार
चौधराइन चाची और नेता की बड़ी भाभी ने भी अपने-अपने अंदाज में एक-एक स्वाँग पेश
किया।
कुल मिलाकर
नकटोरा बड़ी तेजी से अपने उत्कर्ष की ओर बढ़ रहा था।
दोस्तों
अभी नकटोरा को यहीं पर छोड़कर हम वापस जनवासे में चलते हैं जहाँ नेतराम की बारात अपनी
पूरी मौज में थी।
रंडियाँ
अपने जलबे बिखेर रही थीं तो छ:-सात लोग एक ओर बैठे ताश की बाजियों पर बाजियाँ
फेंटे जा रहे थे। यहाँ पर ‘दहिला पकड़’ नामक ताश का खेल चल रहा था। परसादी लाल ने
इतनी ज्यादा पी ली थी कि अपने होश में नहीं थे। वह वहीं एक ओर पड़े-पड़े तरह-तरह के श्लील-अश्लील
गाने अपनी ही धुन में गाये चले जा रहे थे।
यही सब
होते-चलते आधी रात निकल चुकी थी। नाश्ता-पानी और बाद में खाना-पीना भी समाप्त हो
चुका था। छोटे-छोटे बच्चे सो चुके थे। नौजवान शराब, जुआँ और नौटंकी का मजा ले रहे
थे। कुछ बिना दाँतों वाले बूढ़े भी नौटंकी देखते हुए यह भूल गये थे कि अब उनका रस
निकल चुका है।
सब मौज में
थे। पर नेता . . . नेता किसी प्रकार से अपने सब्र का बाँध रोके बैठे थे। उनके मन
में बस यही चल रहा था कि कैसे भी करके जल्दी से लड़की के घर से बुलावा आये और
उन्हें लड़की देखने को मिले। बहनोई द्वारा पिलाई गई दो पैग दारू अपना असर दिखा ही
रही थी, जिसके चलते नेता के हृदय में चलने वाले भाव एक विशेष रूप से प्रकट हो रहे
थे। नेता की ‘हया’ कम हो चुकी थी सो वह बहनोई और दोस्तों के साथ मौज भी ले लेते
थे।
खैर! यह सब
चलते-चलते नेता की बेसब्री का सबब उस समय कुछ कम हुआ जब लड़की के पक्ष का नाई
दूल्हे को ब्याह के लिए बुलाने आ गया। नेता की खुशी अब देखने लायक थी। नेता के
चेहरे के भाव बदले तो बहनोई और दोस्तों ने भी नेता को छेड़ा। इसी छेड़-छाँड़ के बीच
ही नेता, बहनोई और दोस्तों के साथ नाई महतिया के पीछे-पीछे दो पैग शराब की मस्ती
में झूमते-झूमते लड़की के घर पहुँचे।
कहानी अपने
चरम की ओर अग्रसर थी लेकिन नेता के मुँह से बहुत कम ही संवाद निकले थे लेकिन नेता
अपनी एक विशेष भाव-भंगिमा के चलते पूरी बारात के केन्द्र बिन्दु बने हुए थे। नौटंकी
हो, ताश के खेल का गुट हो, नौटंकी की छापे हों अथवा घर पर औरतों के बीच चल रहा
नकटोरा हो; नेता किसी ना किसी रूप में हर जगह उपस्थित थे।
नेता और
उनके साथ के लोग जब लड़की के दरवाजे पर पहुँचे तो लड़की की माँ हाथ में आरती की थाली
लिए हुए स्वागत को आगे बढ़ी। साथ ही घर और गाँव की अन्य औरतें भी गाली गीत के
माध्यम से दूल्हा और बारातियों का स्वागत करने लगीं – “. . . गजब करो समधी, नाइं
लाये रंडी. . .”
पीछे से
लड़की की बहनों और सहेलियों ने दूल्हें पर अन्न के दाने फेंक कर बारातियों का
स्वागत किया। एक ओर लड़की पक्ष की ओर से होने वाला यह स्वागत और दूसरी ओर बारात के
साथ गये बैण्ड-बाजे का संगीत पूरे महौल में हर्ष और उल्लास भरने में कोई कसर नहीं
छोड़ने का प्रयास कर रहा था।
इसके साथ
ही इधर-उधर कुछ खुसर-पुसर भी मची हुई थी। कोई नेता की चाल पर प्रश्नचिन्ह लगाता तो
कोई उनके कंधे उचकाने पर कमेंट करता। कोई उनकी एक मिची हुई आँख पर ताना मारता तो
कोई उनके छोटे कद पर कसीदे कसता। चूँकि दो पैग दारू नेता के सर चढ़ चुकी थी इसलिए
वह सीधे खड़े भी नहीं हो पा रहे थे। अत: कोई उनको दौरे का शिकार बताता। जितने मुँह
उतनी बातें। इसके अतिरिक्त कुछ औरतें नेता के घर पर कितने ज्यादा जानवर हैं, कितना
बड़ा घर-परिवार है, कितनी जमीन-जायदाद है; उस पर अपना-अपना मत प्रकट कर रही थीं – “
. . . कुछ भी हो जिज्जी . . .कम से कम लड़की तो सुख से रहेगी. . . और फिर इस प्रकार
के लोग दुल्हन को बहुत प्यार करते हैं. . .”
पूरा
वातावरण एक अजीब सी स्थिति में अपना चरित्र-चित्रण कर रहा था।
इसी माहौल
में कई रीति-परंपरायें पूरी करके नेता को खम्भ के पास ले जाया गया, जहाँ पण्डित जी
बैठे मंत्र पढ़ रहे थे। नेता, उनके बहनोई और यार-दोस्तों के आदर-सत्कार के बाद नेता
को खम्भ के पास में पड़ी पटली पर बिठाया गया और अंदर से लाकर एक गोल-मटोल गठरी उनके
पास में रख दी गई। इसे दुल्हन की संज्ञा दी जा रही थी। बेचारे नेता उस गठरी के
अंदर के प्राणी को एक नजर देख भर लेना चाहते थे पर क्या करें ऐसा संभव ही नहीं हो
पा रहा था। एक तो दो पैग दारू का सुरूर दूसरे ब्याह का दबाव; कुल मिलाकर नेता बड़ी
मुश्किल से अपने को सम्हाल पा रहे थे।
एक ओर खम्भ
के पास पण्डित जी नेता की शादी करा रहे हैं तो नेता के बहनोई और दोस्त झूमते हुए
घर की औरतों से बात करने के बहाने चोरी-छिपे वहाँ की नवयौवनाओं से मस्तिया रहे हैं।
नेपथ्य में मंगलगीत की आवाज भी आ रही है। कुल मिलाकर पूरे वातावरण में हँसी-खुशी
तैर रही है, पर पता नहीं आज यह दो पैग दारू नेता को बड़ा परेशान कर रही है। पटली पर
बैठे-बैठे कहीं नेता की आँखें बंद हो जाती हैं तो कहीं उनका शरीर हिचकोले लेने
लगता है। इसी सब के बीच नेता का ब्याह हो रहा था।
इधर गाँव
में नकटोरा अपने चरम पर पहुँच चुका था। औरतें पूरे गेर में थीं। सब एक से बढ़कर एक
स्वाँग प्रतुत करने में लगी थीं। कोई भी गम खाने को तैयार नहीं था। ऐसा लग रहा था
जैसे आज वर्षों से दबी-कुचली उनकी आत्मा स्वच्छन्द रूप से तरंगें लेने लगी हो। कोई
चूड़ी पहनाने वाला स्वाँग कर रहा था तो कोई खरबूजा बेचने वाले स्वाँग से सबको
आकर्षित कर रहा था। अमिलिया तीर वाली आजी तो नाचते-नाचते इतना थक गईं कि वहीं एक
कोने में लेट गईं तो उनकी आँख लग गई।
नकटोरा अपने
पूरे जोश में था। ढोलक की थापें अपनी विशेष गमक से वातावरण को रंगीनी प्रदान कर
रही थीं। सब अपने-अपने में मस्त थे। आज कोई भी किसी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ना
चाहता था। इसी के चलते किसी को यह भी पता नहीं चल पाया कि घर में कुछ छिछोरे भी
औरतों के कपड़े पहनकर घुस आये हैं। वह तो तब पकड़ में आया जब नेता की अम्मा अंदर
वाले सबसे अंधेरे कमरे में किसी काम से गईं। वहाँ उन्हें कुछ अजीब-सी आहटें(कामुक
: काम-क्रीडा जैसी) सुनाई दीं। वह चुपचाप बाहर आईं और दिया लेकर नाइन जिज्जी के
साथ अंदर गईं तो देखकर दंग। यह क्या रिम्मी किसी के साथ रंगरेलियां मना रही है।
लगभग निर्वस्त्र सी रिम्मी के ऊपर कोई औरत लेटी है। अचानक हुई इस घटना से जब
रिम्मी और उसका साथी हड़बड़ाकर उठे तो पता चला रिम्मी के साथ वही लड़का है जिससे उसका
चक्कर कई सालों से चल रहा है।
अब तो गजब
हो गया। अम्मा ने पूरा घर अपने सर पर उठा लिया। आनन-फानन में यह बात पूरे घर में
फैल गई कि अंदर के कमरे में रिम्मी के साथ किसी ने मुंह काला किया है। इधर बाहर
आंगन में पकड़े गये लड़कों को जब यह पता चला तो वह चुपचाप वहाँ से खिसक लिये।
पूरा
किस्सा साफ हो चुका था। ये वही छिछोरे लड़के थे जो बारात जाते समय अपना-अपना जुगाड़
बनाने का प्लान बना रहे थे। ये बारात में ना जाकर यहाँ नकटोरा में छिनारा करने आये
थे, पर बदकिस्मती से उनमें से एक पकड़ ही लिया गया।
रिम्मी
गाँव की ही एक मनचली लड़की थी, जिसका किस्सा तकरीबन गाँव के हर मनचले लड़के के साथ
जोड़ा जा चुका था। आज इस लड़के और रिम्मी देवी को अच्छा मौका मिला था। सोचा कि सब
नकटोरा करने-देखने में मस्त हैं उन पर किसी का ध्यान नहीं जायेगा, लेकिन हाय रे
किस्मत . . . काम पूरी तरह से पैंतिस हो भी नहीं पाया था कि पकड़ लिये गये। वह भी
नेता की अम्मा और नाइन के हाथों। . . . और साले दोस्त जिनके चढ़ाने पर इतनी हिम्मत
दिखाई थी पहली ही कड़ी में उसे अकेला छोड़कर खिसक लिये।
पूरे घर
में हो-हल्ला मच गया। जितने मुँह उतनी बातें। कोई कहता
पुलिस को दे दो तो कोई उसे मार-मारकर भुर्ता बना देने का सुझाव देता। तरह-तरह की
राय ली और दी जाने लगीं। ऐसे में चौधराइन चाची की राय सबको सही लगी। चौधराइन के
कहे अनुसार उपस्थित तमाम औरतों ने उन महाशय के सारे कपड़े उतारकर विकनी पहनाई। नाच
नचाया और अश्लील हरकते करवाईं। बेचारे रिम्मी के जुगाड़ के चक्कर में इस दुर्दशा का
शिकार बन गये। खूब हो हल्ला मच गया।
हो हल्ला
सुनकर अमिलिया वाली आजी, जो कुछ देर पहले आँगन के एक कोने में सो चुकी थीं, जाग
गईं। अरे यह क्या . . .“यह छिछोरा तो इनका ही बेटा निकला।” फिर क्या था मातृ प्रेम
उमड़ पड़ा जो बेटे की करतूत को छिपाते हुए उपस्थित औरतों के लिए बन्दूक की गोली बन
गया।
अमिलिया
वाली आजी जब अपने बेटे का पक्ष लेते हुए सबको कोसने लगीं तो नेता की अम्मा एवं
अन्य औरतें उनसे नेता की छिछोरी हरकत की बात कहने लगीं। इस वाद-विवाद को लेकर
अमिलिया वाली आजी और नेता की अम्मा एवं अन्य औरतों के बीच जमकर हो-हल्ला हो गया। सारा
का सारा मजा किरकिरा गया।
इधर जनवासे
में हंगामा हो गया। जुआँ खेलने वाले किसी बात को लेकर आपस में लड़ गये। एक खिलाड़ी
द्वारा बड़ी देर से रोक कर रखे इक्के को चिड़ी की दुक्की से दूसरे ने काट दिया। बात
इतनी ज्यादा बढ़ गई कि नौबत मार-पीट पर आ गई।
नौटंकी की
स्थिति तो और भी ज्यादा दयनीय थी। यहाँ दो गुट बन गये थे। एक सरपंच साहब का और
दूसरा परधान जी का। दोनों ओर से एक से बढ़कर एक छाप लगवाने की होड़ लगी थी। कोई
एक-दूसरे से कम मूतने को तैयार नहीं था। और. . .और प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न प्रधान
और सरपंच के बीच के झगड़े का मूल कारण बनी वह कम उम्र वाली रंडी। दोनों पक्ष यह
चाहते थे कि वही उनके लिए छाप लगाये। बेचारी एक ओर जाती तो दूसरा नाराज हो जाता और
दूसरी ओर जाती तो पहला वाला नाराज हो जाता। एक बार तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि
सरपंच ग्रुप से रुपिया दिखाने पर जब कमसिन वहाँ पहुँची तो सरपंच के कुछ गुर्गों ने
उसे खींचकर वहीं पीछे की ओर पटक लिया। इस पर प्रधान और उनका ग्रुप इतना चिढ़ गया की
लाठियाँ खिच गईं। फिर तो वह गदर हुआ कि पूछो मत। नाच-गाना गया भाड़ में . . . दोनों
पक्षों के बीच मार-पीट होने लगी।
जुआँरी एक
ओर भिड़ गये और नौटंकी देखने वाले एक ओर भिड़ गये। कुछ लड़ाई बढ़ाने वाले तो कुछ बचाने
का प्रयास करने वाले भी।
कलुआ साला
बड़ा हरामी। वह शुरू से ही कमउम्र वाली रंडी पर डोरे डाल रहा था। इतनी देर में उसने
अपना प्रभाव कमसिन पर बना लिया था। सारे बाराती लड़ाई-झगड़े में व्यस्त हो गये तो
कलुआ कमसिन को लेकर पास ही के गन्ने के खेत में चला गया। कुल मिलाकर सब अपनी-अपनी
बाजी मारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहता था।
हर ओर
हंगामा. . . हर ओर हंगामा. . . जिधर देखो उधर हंगामा।
नेता के
बाप एक ओर चिल्ला रहे हैं – “. . . साले सब हमारी इज्जत उतारने पर लगे हैं. . . इतनी
मुश्किल से नेता का रिस्ता तय हुआ है. . . सालों कम से कम ब्याह तो हो जाने दो . .
.”
फूफा, मौसा
और अन्य बड़े-बूढ़े लड़ाई को रोकने में लगे हैं लेकिन वह जिसको रोकते-समझाते वही उनको
एक ओर झिड़क देता।
चारो ओर
मचे हुए इस हंगामें से अपने आप को सुरक्षित रखे हुए रमेसुर चच्चा दूसरी वाली रंडी
से नैन मटक्का करने में मशरूफ। इस समय वह भूल ही गये थे कि उनकी उम्र अब इसके
काबिल नहीं रही थी।
लड़की के घर
में बड़े प्रेम के साथ पण्डित जी खम्भ के पास बैठे नेता का ब्याह करा रहे थे, औरतें
मंगलगीत गा रही थी, बहनोई और दोस्त आपस में बातचीत से ही मजे ले रहे थे। इसी सबके
बीच पण्डित जी ने दूल्हा-दुल्हन को भाँवरों के लिए खड़े हो जाने को कहा। लड़की के
पास ही में बैठी उसकी भाभी ने लड़की रूपी गठरी को सहारा देकर उठाया, लेकिन पण्डित
जी के मंत्र सुनते-सुनते और दो पैग दारू के चक्कर में नेता की आँखें बंद हो गई
थीं। इस कारण नेता को पण्डित जी आवाज सुनाई नहीं पड़ी। पास ही में बैठे नाई ने नेता
को उठाने के लिए जैसे ही उनके कंधे पर हाथ रखा . . . अरे यह क्या . . . नेता घप्प
से सर के बल पटली से नीचे गिर पड़े।
इतना होना
था कि औरतें चिल्ला पड़ीं। लड़की की बुआ ने एकदम से आसमान सर पर उठा लिया – “. .
.अरेsssss
लड़के को तो मिरगी आती है. . .।”
इतना सुनना था कि चारो ओर हंगामा मच गया कि लड़के को मिरगी आती है।
“. . . क्या . . . लड़के को मिरगी
आती है। कौन भोसड़ी वाला कहता है कि लड़के को मिरगी आती है. . .” बहनोई साहब ने अपना
रोब दिखाने का प्रयास किया। लेकिन अब तो गाड़ी स्टेशन से छूट चुकी थी। कोई किसी
प्रकार की सफाई सुनना ही नहीं चाह रहा था। नेता ने किसी प्रकार अपने को सम्हाला
लेकिन वह समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिरकार हुआ क्या है। अचानक गाना-बजाना और
ब्याह की प्रक्रिया रुक क्यों गई है और अचानक यह हंगामा क्यों होने लगा है, वह कुछ
समझ ही नहीं पा रहा था। बस बेबसी में सबको निहारता जा रहा था। इधर एक औरत ने बहनोई
और दोस्तों को खरी-खरी सुनाई तो इन बेचारों ने किसी प्रकार से वहाँ से हट लेने में
ही अपनी भलाई समझी।
जिधर देखो, जो देखो चीखता-चिल्लाता नजर आ रहा था कि लड़के को मिरगी आती है। बुआ
अलग बोले जा रही हैं, भाभी अलग गुस्सा उतार रही हैं, मौसी अलग अपना रोब दिखा रही
हैं। और लड़की का बाप तो मारे गुस्से के ऐसे फनफना रहा था जैसे काले नाग की पूँछ पर
अचानक किसी का पैर पड़ गया हो –
“. . .हम अभी मर नहीं गये हैं. . . जिंदा हैं . . . ऐसे खराब नहीं होने
देंगे अपनी लड़की की जिंदगी. . . ” ना जाने क्या-क्या बकते-झकते वह जनवासे की ओर
दो-चार लोगों को लेकर चला गया।
लड़की की माँ पर तो जैसे माता ही आ गई थीं। वह बीच आँगन में भसक्का मारकर
बैठ गई थीं। बाल खुल गये थे और कपड़े अस्त-व्यस्त हो गये थे। आँखों से आँसू निकलने
लगे थे। मारे गुस्से के उनका पूरा शरीर थरथरा रहा था। जोर-जोर से छाती पीटे जा रही
हैं। आस-पास चार-छ: औरतें उन्हें सम्हालने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन लड़की की
अम्मा बदहवासी में बके जा रही हैं –
“. . . हाय रे! . . . हाय रे! क्या करेंगे . . . जिंदगी ही बर्बाद हो गई. .
. हाय रे! भाड़ में झोंक देंगे लेकिन इस मिरगी वाले को नहीं देंगे अपनी लड़की को. .
. हाय रे! क्या करेंगे अब. . .”
बुआ समझातीं – “. . . चुप हो जाओ भौजी . . . ”
“. . . अरे कैसे चुप हो जायें . . . नाश हो जाये इनका. . . हैजा पड़े. . .
हाय रे! . . . ”
. . . और मझोला को तो रह-रह कर कोसा जा रहा था। जो आता उसे चार बातें अवश्य
ही सुना देता।
“. . . अरे भगवान! . . . किसे ने बताया ही नहीं . . . लड़के को मिरगी आती है.
. . नाश हो इस मझोला का . . .दहियर ने बताया तक नहीं . . . हाय रे! क्या करेंगे अब
. . .”
पूरे घर में हंगामा मच गया। बेचारे नेतराम का सारा नशा रफूचक्कर हो गया। वह
बार-बार बताने की कोशिश करते लेकिन यहाँ सुने कौन. . .। जिसे देखो वह केवल गालियाँ
देने में लगा है।
नाई और पण्डित को लगा कि अब तो उनका नेग-दक्षिणा भी नहीं मिलेगी सो वह
समझाने का प्रयास करते लेकिन सब बेकार। कोई कुछ सुनना ही नहीं चाहता था। सबके अंदर
बस एक ही बात थी कि ‘लड़की को मिरगी आती है तो पहले से बताया क्यों नहीं।’
नेतराम को जब लगा कि अब स्थिति कन्ट्रोल से बाहर है तो उन्होंने भी यहाँ से
भागने में ही अपनी भलाई समझी। इधर-उधर से मौका देखकर वह यहाँ से भाग ही लिये। बेचारे
नाई ने भागने में नेता की मदद कर दी क्योंकि वह जानता था कि नेता को मिरगी नहीं
आती बल्कि यह सब दो पैग दारू का कमाल है।
इधर बारात में जब पता चला कि नेता को मिरगी आ गई और वह पटली पर लुढ़क गया तो
जुआँ, नौटंकी आदि का हंगामा रुक गया और सब के सब नेता और लड़की के बाप के आस-पास
इकट्ठे हो गये। दोनों बापों के बीच घमासान मच गया।
“ . . . सालो जब लड़के को मिरगी आती थी तो बताया क्यों नहीं. . .इतनी पुरानी
दोस्ती की पीठ में चाकू घोंप दिया. . .।”
“. . . अरे कौन कहता है कि मिरगी आती है. . .”
“. . .हमारी आँखो के सामने ही उसे मिरगी आई. . .” लड़की के चाचा ने गाली
देने के भाव से चिल्लाकर कहा तो जनवासे में आ चुके नेता की ओर उनके बाप ने देखा।
नेता कुछ बोलने को हुए तब तक बहनोई ने नेता का पक्ष ले लिया।
“. . . का हमसे ज्यादा पता है तुम्हें नेता के बारे में. . .”
बहनोई साहब का इतना कहना था कि नेता ने उन्हें ऐसे घूरकर देखा जैसे अभी मार
ही डालेंगे। मन ही मन बेचारगी से गालियां देते हुए बहनोई पर भड़ास उतारी – “. . .
साला हमारा तो बहनोई ही गद्दार निकल गया. . .जबर्जस्ती शराब पिला दी और इस शराब ने
तो आज हमारा कल्याण ही कर दिया. . .।”
नेता द्वारा ऐसे देखने पर बहनोई साहब ने वहाँ से निकलने में ही अपनी भलाई
समझी।
इस प्रकार यहाँ दोनों पक्षों के बीच स्थिति यह हो गई कि अब बारात बिना
ब्याहे ही वापस जाने लगी।
हर ओर का माहौल धीरे-धीरे शांत होने लगा।
उधर गाँव
में नकटोरा खत्म हो गया। अमिलिया वाली अपने लड़के को लेकर वहाँ से चली गईं तो अन्य
औरतें भी एक-एक करके निकलने लगीं। जो बचीं उनके बीच छिछोरे और रिम्मी की हरकत
नकटोरा की एक नई नकल बन गई और धीरे-धीरे कुछ देर की हँसी-मजाक के बाद नकटोरा बन्द
हो गया।
लड़की के घर
में भी रोने-चिल्लाने के बाद जैसे-तैसे लड़की की माँ और अन्य महिलाये ऐसे बैठ गईं
जैसे किसी के मर जाने के बाद जब बहुत रो-रो के थक जाने से बैठ जाते हैं। पूरे घर
में ऐसा लग रहा था जैसे मशानी फैल गई हो।
जनवासे में
नौटंकी तो पहले ही बंद हो चुकी थी सो वह सब अपना साज-बाज ट्राली पर लादने लगे।
रमेसुर चच्चा वापस अपनी जिम्मेवारी पर आ गये। इधर-उधर बिखरे सभी जन धीरे-धीरे
ट्राली में बैठने लगे। गन्ने के खेत में गया लड़का बड़ी होशियारी के साथ धीरे से
वापस आकर लोगों में मिल गया। हंगामें के कारण उस पर किसी की निगाह भी नहीं गई।
नेता को तो
देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे आज उनकी इज्जत किसी ने बीच बाजार में लूट ली हो और वह
भरी बाजार में नंगे खड़े हों। एकदम संज्ञा-शून्यता वाली स्थिति में।
खैर! इस
प्रकार से नेता की बारात वापस अनोखेपुर के लिए रवाना हुई।
“. . . अरे
चच्चा वह देखो परसादी तो वहीं रह गया. . .” किसी ने घूरे पर सो रहे परसादी की ओर
इशारा किया तो बेचारे बहनोई साहब ही किसी को आगे बड़ता ना देख उसे उठाने चले। जाकर
परसादी को उठाया तो परसादी ऐसे जागे जैसे आराम से घर के बिस्तर पर पड़े सो रहे हैं
और उनकी पत्नी उन्हें जगा रही है। जागे तो देखा कि महौल कुछ अलग ही है। बहनोई से
पूछा क्या हुआ . . .
“. . . तुम
भोसड़ी के ऐसे सोते रहे पूरी रात इधर नेता की शादी टूट गई. . .”
“. . .
शादी टूट गई. . .कैसे. . .?”
“. . .वो
यार रात में उसे दो पैग पिला दिये थे. . . हजम ही नहीं कर पाये नेतराम. . .” बहनोई
ने बड़ी मासूमियत से कहा तो पूरी वस्तुस्थिति समझते हुए परसादी हँसते हुए बोला – “.
. . अच्छा तो शादी नहीं हो पाई . . . नेता की शादी में नकटोरा हो गया . . . और. .
. और वह भी दो पैग दारू के चक्कर में . . .”
वहाँ से
दोनों आकर ट्राली में बैठ जाते हैं। सभी ट्रेक्टर-ट्राली वापस चल पड़ते हैं। जनवासे
में कुत्ते रात की बची जूठन चाटते नजर आते हैं और चारो ओर रात भर का मूता हुआ
दुर्गन्ध के रूप में फैल रहा है।
कट
/ फ्लेशबैक आउट
पोर वैसे
ही चल रही है। सभी आराम से बैठे हुए नेतराम उर्फ नेता बब्बा के किस्से का मजा ले
रहे हैं . . .
“. . . इस
प्रकार से दो पैग दारू के चक्कर में मेरी बरात टूट गई . . .” बेचारे नेता भावुक हो
उठे।
कहानी इतनी
रसभरी थी कि पता ही नहीं चला कि रात दो पहर आगे निकल चुकी थी। कुत्ते-सियार भी अब
शांत हो चुके थे। दो बूढ़े और बच्चे भी सो चुके थे, लेकिन हुरिया एक नंबर का जागने
वाला था। शुरू से लेकर अंत तक बड़े ध्यान से कथा सुनता रहा। पर इसे एक बात समझ में
नहीं आ रही थी। जब बब्बा की बारात टूट गई तो फिर उनके पोते-पोतियां कहाँ से आ गये।
नेतराम
किस्सा खत्म कर चुके थे। सुन्दर और माखन जमुहाते हुए अपने-अपने घरों की ओर चले गये
थे। खलोली वहीं पर पड़ा सो रहा था। नेतराम ने चिलम भरकर थोड़ा फ्रेश होने का मन
बनाया।
“. . . लेकिन
नेता बब्बा एक बात समझ में नहीं आई. . .”
“. . .क्या
. . .” नेता ने अनमने से होते हुए कहा।
“. . . जब
तुम्हारी शादी नहीं हो पायी तो तुम्हारे पोते-पोतियाँ कहाँ से आये. . .”
“. . .पहले
बेटा आयेगा या सीधे-सीधे पोते-पोतियाँ आ जायेंगे . . .” नेता ने उसे झिड़कते हुए
जवाब दिया।
“. . .तो
बेटा कैसे आया . . .” हुरिया भी कम हरामी नहीं था। खोद-खोदकर पूछे जा रहा था।
“. . . अरे
लल्ला बेटा आने से पहले तो दस ब्याह टूटे, तब जाकर कहीं ब्याह हुआ. . .।” अब जाकर
हुरिया के समझ में आया कि पोते-पोतियाँ कैसे आये।
“. . .तो
पहली तो दो पैग दारू के चक्कर में टूट गई. . . बाकी कैसे टूटीं. . .” वह दूसरी
कहानी सुनने का मन बना रहा था।
यह सब चल
ही रहा था कि पीछे से नेता को किसी ने बड़ी मजबूती के साथ गले से पकड़ा। पीछे मुड़े
तो देखा मोहतरमा थीं।
अब नेता की
बोलती बंद हो चली थी। बोलने की बारी अगर थी तो केवल इन नेताइन की।
“. . . तुम्हें
कुछ खाने-पीने की भी चिन्ता है कि नहीं. . . जब देखो नकटोरा ले कर बैठ जाते हो . .
.अरे तुमने तो पूरी जिंदगी इस नकटोरा में ही काट दी. . .कम से कम हजार बार तो सुना
ही चुके होगे यह नकटोरा . . . बारह बज गये हैं . . . बहू और मैं खाने को बैठी हूँ
और तुम्हारा यह नकटोरा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. . . ” बुढ़िया धारा
प्रवाह बोले जा रही थी।
जब दसियों
ब्याह टूटने के बाद भी नेता का ब्याह नहीं हो पा रहा था तो नेता के मन में बस यहीं
चल रहा था कि जैसे भी हो ब्याह होना चाहिये। लड़की चाहे कैसी हो चलेगी। बस फिर क्या
इस ‘चलेगी’ के चक्कर में इन मोहतरमा के साथ बंधन जुड़ गया। एकदम काली-कलूटी, मोटी
थुल-थुल चुड़ैल जैसी औरत। अंजाना व्यक्ति रात में देख ले तो मारे डर के प्राण ही खो
दे। लेकिन जैसी भी थी यह नेता का ख्याल रखती थी। लेकिन जिस महफिल में नेताइन का
प्रवेश हो जाये तो किसी की क्या मजाल कि कोई और की जरा सी भी हिम्मत हो जाये बोलने
की। इस कारण हुरिया ने अब आगे कुछ ना बोलने में ही अपनी बलाई समझी और नेतराम ने
बुढ़िया के साथ घर चलने में।
नेताइन ने
नेता को एक पल और पोर के पास नहीं रुकने दिया। हाथ पकड़कर साथ ही घर की ओर ले चलीं तो
नेता ने हल्के से पीछे मुड़ते हुए हुरिया की ओर देखते हुए आँख मारी और अगला किस्सा
अन्य किसी दिन सुनाने का आश्वासन अपने हाव-भाव से ही दिया। हुरिया भी उनकी बात समझ
गया और घर की ओर निकल लिया। बस खलोली ही पोर के पास जमीन में पड़ा सोता रहा।
To Be Continue . . .
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