खन्ती मन्ती : बच्चों के लिए मनोरंजन की चासनी में डूबा लोकतंत्रात्मक संस्कार

सबसे पहले तो इस खेल गीत को गुनगुनाइए । कन्नौजी भाषा-बानी का है । आपकी बोली-बानी में भाषा और लय की कुछ अदल-बदल के साथ, मिल सकते हैं । आइए फिर करते हैं इस पर कुछ बतकही । पहले इस गीत को पढिए, केवल पढिए ही नहीं बल्कि मौज लेकर गुनगुनाइए । कुछ समय के लिए अपने बचपन में जाइए । देखिए क्या मज़ा आटा है । याद तो आपको वैसे भी होगा ही । 

खन्ती मन्ती
खेलु खिलाई
कउडी पाई 
गंग बहाई 
गंगा मइया नि बारू दइ
बारू हमने भुज्जीक दइ
भुज्जीनि हमइं चबेना दो
चबेना हम घसियारक दो
घसियारनि हमका घास दइ
घास हमने गउवइ खबाई
गउवा मातानि दूधु दो 
दूधकि हमने खीरि पकाई
खीरि पूरे घर ने खाई
बाबानि खाई
दादीनि खाई
बुआनि खाई
चाचानि खाई
अम्मानि खाई
पापानि खाई
बची बचाई 
आरे धरी
कंधारे धरी 
आई मूस 
लइ गइ घूस 
बुढ्ढा - बुढिययु हटउ
पुरानी दिवार खसी 
नइ दिवार उठी 
हमारो लल्ला कित्तो ऊंचो 
इत्तोsssssss ऊंssssचो ....
 
हम सबने अपने-अपने परिवेश में यह या ऐसे ही न जाने कितने गीत सुने होंगे, गुनगुनाए होंगे । घर के बड़ों से सुने होंगे । आज आधुनिकता की दौड़ में ये सब बिला सा गया है । कितना खूबसूरत-सा अहसास है कि वाचिक परंपरा के अनगढ़ से दिखने वाले बच्चों के यह लोकगीत समाज की रूपगत भिन्नता को भाव के स्तर पर एक सूत्र में पिरो लेते हैं । 
  
सहज संवेदनाओं से भरा हुआ यह छोटा-सा खेलगीत कितना कालजयी-सा लगता है आज ? सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे यह गीत आज भी कितने मार्मिक और गंभीर भाव व्यंजना से भरे हुए हैं । 
 
आज बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा बच्चों पर लिखने का, बच्चों के लिए लिखने का जो दंभ दिखाया जा रहा है, लोक के ऐसे गीतों के सामने काफी बौना सा लगने लगता है । कम से कम मेरे साथ ऐसा ही है । उपदेशात्मकता और बालमन की पकड़ से दूर आज के बाल साहित्य को लोक में व्याप्त ऐसे बालगीत आइना दिखा रहे हैं ।    
 
कन्नौजी बोली-बानी के इस लोकगीत में जहां एक ओर बच्चों का खेलपरक मनोरंजन है, शारीरिक अभ्यास है, वहीं वह संस्कार भी समाए हुए हैं जो बच्चा माँ-बाप के स्नेह में ही सीख पाता है । 

वास्तव में घर, परिवार और समाज के प्रति एक विशेष प्रकार का एक लोकतंत्रात्मक भाव प्रस्तुत करता है यह गीत । पहले संक्षित अर्थ देखते हैं इस गीत का, फिर कुछ महत्वपूर्ण बातें भी । 

‘खन्ती मन्ती’ अर्थात बच्चे को माँ-बाप आदि के द्वारा बड़ी ही सहजता से श्रम के महत्त्व को बता देना, जो उसकी सहज संवेदना और जिज्ञासा के भाव में घुल-सा जाता है । श्रम होगा तो उसका पारिश्रमिक भी मिलेगा । कौड़ी (एक प्रकार की मुद्रा की प्रतीक) के रूप में । जब यह पारिश्रमिक गंगा को दिया जाएगा तो वहाँ से उसके बदले बालू मिलेगी । अर्थात पाना चाहते हैं तो पहले देना होगा । इस भाव को गीत की प्रत्येक पंक्ति में बड़ी ही गहराई से पिरोया गया है । गीत में जो वस्तु दी जा रही है, वह जिसको दी जा रही है, उसके परिवेश के अनुसार ही है । गंगा के संदर्भ में कौड़ी ही महत्त्वपूर्ण है, जो पानी को किसी भी रूप में दूषित नहीं करती है। 
 
बालू भुर्जी यानि कि चना-चबेना भूनने वाले श्रमिक को दी जाएगी, जिसके बदले वहाँ से भुना हुआ चबेना मिलेगा । बच्चा, चबेना घसियार (घास काटने वाला) को देगा, जिसके बदले उसे घास मिलेगी । घसियार श्रमजीवी है । उसके लिए चना-चबेना का प्रयोग उसके श्रम को विकसित करने के भाव का प्रतीक है और बालू का प्रयोग भुर्जी के लिए महत्व रखता है । 

यही घास जब स्नेह के साथ घर में पली हुए गाय को खिलाई जाएगी तो उससे दूध मिलेगा । इस दूध से पकेगी खीर, जिसे पूरा घर मिलकर एक साथ खाएगा । 
 
यहाँ घर का मतलब केवल माँ-बाप और बच्चे वाला एकल परिवार नहीं है, बल्कि यहाँ है एक समृद्ध-सा संयुक्त परिवार । समृद्ध-सी संयुक्त परंपरा, जिसमें बाबा-दादी से लेकर ताया-ताई, चाचा-चाची, बुआ आदि तमाम सारे रिश्ते समाए हुए हैं । इन रिश्तों में किसी भी प्रकार की दूरियाँ नहीं हैं । बच्चा इन सबके बीच, सबकी लोकतंत्रात्मक भावनाओं के साथ, पारिवारिक एकजुटता के साथ सहज भाव से विकसित हो रहा है । बच्चे को मिलने वाला संस्कार एकल भावना से सीमित नहीं है बल्कि समूह की भावना से भर हुआ है । 
 
एक सामाजिक स्तर पर वस्तु-विनिमय प्रणाली से निर्मित इस खीर को खाने के बाद जो बच गई, उसे ‘आरे’ (आले में अर्थात दीवार में बने एक स्थान विशेष पर) और ‘कंधारे’ (आले के आस-पास की ही कोई ऊंची जगह, जो कुछ छुपी हुई है । जहां बच्चों की पहुँच नहीं है ।) पर रख दी गई है । एक ही स्थान पर सारी खीर इसलिए नहीं रखी गई है क्योंकि बच्चा मानेगा नहीं, उसका मन बार-बार ललचाएगा, जो उसके लिए ठीक नहीं है । इसलिए बची हुई खीर किसी एक का ही हिस्सा नहीं है बल्कि मनुष्यों के साथ-साथ और भी लोग रहते हैं घर में । चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि । ... तो इस बची हुई खीर को मूसे (चूहा) ने घूस के रूप में अर्थात घर में बनी हुई चीज से अपने हिस्से के रूप में पूर्ण अधिकार के साथ ले ली ।  
 
और अंत में लोकतंत्र की, सामाजिक / पारिवारिक परिकल्पना की सबसे खूबसूरत तस्वीर । घर के बुजुर्ग जो जीवन के सभी कर्तव्य पूरे कर चुके हैं, अपनी महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारियों से मुक्त होकर घर, परिवार और समाज के संचालन की जिम्मेवारी नई पीढ़ी को दे देते हैं – इस प्रकार से पुरानी दीवार खसती (गिरती) है और उसकी मजबूत नीव पर नई दीवार, नए सपने, नई परिकल्पनाओं के महल तैयार होते हैं । 
 
इस तरह से जब समय रहते नई पीढ़ी के पास जिम्मेवारियाँ आ गईं तो बड़ों अर्थात पूर्व पीढ़ी के मार्गदर्शन में उन्हें ऊंचा उठने से कौन रोक सकता है ।              
 
बच्चा इस सबको नहीं समझ रहा है लेकिन शारीरिक क्रिया की मनोरंजनात्मक प्रस्तुति भाषा को भाव रूप में उसके अन्तश्चेतनात्मक मस्तिष्क में पिरो अवश्य रहा है । न जानते हुए और न ही समझते हुए बच्चे की अबोधता में भी उसके अंदर एक विशेष प्रकार का सामाजिक संस्कार, जो कि बड़ी ही गहराई में लोकतंत्रात्मक भी है, अपना स्थान बना रहा है ।
 
वास्तव में यह लोकगीत / बालगीत अपने स्वरूप में बालमनोविज्ञान के साथ-साथ समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि को बड़े ही मनोरंजनात्मक और गहन संवेदनात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है । 
 
गीत में गंगा है, गाय है । ये भारतीय समाज की भावात्मक संवेदना का महत्वपूर्ण अंग रहे हैं, साथ ही भारतीय कृषि प्रधानता के रूप में अर्थशास्त्र का भी महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं । इससे पारिवारिक संस्कारों के माध्यम से अबोध के चारों ओर एक सहज-सा मानवीय वातावरण अनायास ही बनता चला जाता है।
 
समाज में वस्तु-विनिमय की जो प्रणाली हुआ करती थी, समाज को उसकी जरूरतों के हिसाब से आपस में मजबूती से जोड़ती थी । सभी के महत्त्व को दर्शाती थी । यह गीत इसका बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है । 

आज के मुद्रा बाजार ने इस सबको समाप्त कर दिया है । जब घर, परिवार और सामाजिक रिश्तों के बीच से वस्तु-विनिमय प्रणाली समाप्त हुई और आधुनिक बाज़ार हमारे बीच घुसा – घर, परिवार और समाज; सब कुछ टूटता चला गया । इस टूटन का सबसे गहरा प्रभाव हमारे संयुक्त परिवारों पर पड़ा । संयुक्त परिवार क्या टूटे, हमारे मानवीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाले संस्कार ही बिला गए ।
 
आधुनिक समाज की सबसे बड़ी समस्या है – पूंजी प्राप्ति की आंधी दौड़ । इस दौड़ में अभिभावक, अपने बच्चों से दूर होते चले गए । संयुक्त परिवार, एकल परिवारों में तेजी से बदलने लगे । घर के बड़े-बूढ़े जो बच्चों के प्रथम अध्यापक होते थे, जिनके माध्यम से हमारे जीवन-मूल्य, हमारे पारिवारिक और सामाजिक संस्कार अगली पीढ़ी तक सहजता से पहुँच जाते थे, आज एकदम से समाप्त हो गए हैं । पीढ़ीगत रूप में चले आते हुए यही वह संस्कार होते थे, जिनकी वजह से ऐसे लोकगीत, ऐसी कहानियाँ और उनमें बुनी हुई मानवीय इतिहास की अनगिनत संवेदनाएं हम तक पहुँच सकीं । अब यह कड़ी समाप्त होती है ।  
 
जिन बच्चों को उनकी प्रथम शिक्षा, प्रथम संस्कार उनके घर, परिवार और समाज से मिलने चाहिए थे, आज उसका जिम्मा एक विशेष प्रकार की डोर से बंधा हुआ ‘कॉर्पोरेट’ के पास चला गया है । अब वह इक्कीसवीं सदी को अपने अमानवीय संस्कारों की घुट्टी पिला रहा है । 

ऐसे अवसादपूर्ण और विघटनकारी वातावरण में इस प्रकार के लोकगीत, खेलगीत, बालगीत; जो किसी भी बोली-बानी के हों, सहेजे ही जाने चाहिए और उन्हें आज के बच्चों तक आधुनिकता के मुलम्मे के साथ ही सही, पहुँचने ही चाहिए ।   

सुनील मानव 

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