गुरुदेव से वह पहली मुलाकात

गुरुदेव से यह मेरी पहली और अब कह सकता हूँ कि अंतिम मुलाकात थी । सिलचर यूनीवर्सिटी में राष्ट्रीय स्तर की एक संगोष्ठी में आपसे मिलना हुआ था । मैंने दूर से आपकी पहली झलक देखी, और देखता ही रह गया । मेरे मस्तिष्क में आपकी जो छवि बनी थी, आज वह मेरे सामने खड़ी थी । मैं कई पल ठगा-सा निहारता रह गया आपको । मन किया कि दौड़कर आपके गले लग जाऊँ ! छूकर देखूँ एक बार अपने सपने को । मर्यादाओं ने ऐसा न करने दिया ।
 
 आपसे पहला परिचय परास्नातक में सूरदास को पढ़ते समय हुआ था । मैं कुछ अलग पढ़ना चाहता था । अरशद सर ने गुरुदेव की किताब ‘कृष्ण काव्य और कृषक जीवन’ पढ़ने का सुझाव दिया था । सुझाव क्या अगले दिन उन्होंने मुझे वह किताब ही लाकर दे दी थी । मैं खो गया उसमें । ऐसे पढ़ गया जैसे कोई उपन्यास हो । सूरदास को देखने और गुरुदेव से परिचय की मेरी यह एक नवीन दृष्टि थी । उस समय मुझे आलोचना दृष्टि की कोई समझ नहीं थी परंतु इस किताब को पढ़कर कुछ नहीं बहुत कुछ बदल रहा था । साथ ही गुरुदेव का एक चित्र अरशद सर के माध्यम से मस्तिष्क में बन रहा था । मैं जैसे-जैसे गुरुदेव को पढ़ता गया, वैसे-वैसे मेरे अंदर बना उनका चित्र मजबूती पकड़ता गया । 

 आज गुरुदेव मेरे सामने खड़े थे । एकदम मेरे सामने । मेरा मन बल्लियों उझल रहा था । बच्चों के माफिक । उनकी पढ़ी हुई किताबें मेरे चारों ओर नाच रही थीं । जैसे किसी मैदान में पतंग उड़ाते हुए बच्चे के ऊपर उड़ रही हो रंग-बिरंगी पतंगों की एक खूबसूरत सी दुनिया । 

 ‘क्या चलना नहीं है सेमीनार हॉल में ...’ मेरी एक मित्र ने मुझे झकझोरा । मैं गहरी नींद से जाग सा गया एकदम । मैंने एक नजर उसकी ओर देखा । मित्र ने कहा - ‘क्या हुआ’ । मैं मुस्कुराया और वापस गुरुदेव को कई लोगों के साथ लेक्चर हॉल की ओर जाता देखता रहा । मैं उनके पीछे-पीछे साथी मित्र को उनके बारे में बताता हुआ चलने लगा । मेरी आतुरता से वह निहाल हुई जा रही थी ।        

 यह मेरा पहला अनुभव था अन्तराष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रतिभागिता का । और वह भी प्रो. मैनेजर पाण्डेय जी के साथ । मैं हॉल के कोलाहल के बीच गुरुदेव को लगातार निहार रहा था । खुश हो रहा था अंदर ही अंदर । जिनको पढ़कर सीखा, जिनसे मिलने की अभिलाषा न जाने कब से अंदर पल रही थी, आज मैं उनके सामने ही अपना शोध पत्र पढ़ने वाला था ।
 
 सेमीनार का पहला दिन था । आए हुए प्रोफेसरों के वक्तव्य का दिन । विषय था – रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि । बड़े-बड़े आडंबरयुक्त शब्दों से स्वनाम धन्य प्रोफेसर अपने अंदर की ज्ञान गंगा से सबको जबरन नहलाने लगे । तभी दूर गहरे से खींचकर लाई गई एक गरजती हुई आवाज ने सबको रोक दिया । एक ऐसी आवाज जो मीटरों गहरी रस्सी डालकर कुएं से निकाली गई पानी की बाल्टी सी थी । गुरुदेव सब कुछ बहुत अंदर से निकालते थे, इसलिए उनकी बोली वैसी ही गहरी थी । उन्होंने उस दिन इन प्रोफेसरों को जो धोया था, कि मन प्रसन्न हो गया । 

 समय की कमी के चलते हम शोधार्थियों में से संभवत: तीन लोगों को तीन मिनट में अपनी बात कहने का अवसर दिया गया था । इनमें मेरा भी एक नंबर था । प्रोफेसरों पर गुरुदेव की गरज ने मेरी हवा निकाल दी थी । मैं अंदर तक डरा हुआ था । बावजूद इसके मैंने स्वयं को इकट्ठा किया । मेरे लिए यह बेहतरीन अवसर था, जिसे मैं किसी भी हालत में खोना नहीं चाहता था । मैंने कुछ पल को आँखें बंद कीं और अपनी सारी ताकत लगाकर बोलना आरंभ किया । राम विलास शर्मा की आलोचना दृष्टि के मैंने तीन पायदान बताए और हाथ में पकड़े हुए शोध पत्र से कुछ-कुछ चीजें पढ़ डालीं । सभा में सन्नाटा था । गुरुदेव ने तालियाँ बजाईं तो सभा ही गूंज पड़ी थी । मैं सातवें आसमान पर था । लड़कियां मेरी ओर आकृष्ट हो रही थीं । मैं न जाने कितनी देर एक गूंज में खोया रहा । सभा समाप्त हो गई । मुझे कुछ भी नहीं पता था कि क्या हुआ । बस गुरुदेव की तालियाँ और उनका चेहरा गूंज रहा था अंदर तक । 

 गुरुदेव बाहर निकल आए । मैं भी । मिलना चाहता था एक बार, पर इतनी भीड़ के बीच हिम्मत नहीं पड़ रही थी । अचानक गुरुदेव की ही निगाहों ने मुझे खोज लिया और इशारे के साथ उसे गहराई से निकाली गई आवाज़ ने मुझे पुकारा । ‘अरे सुनील’ । गुरुदेव ने ‘नी’ पर अधिक ज़ोर दिया था । मुझे खूब याद है । मैं खिचा चला गया । कंधे पर हाथ रख दिया गुरुदेव ने । हँसकर बोले – ‘उनकी आलोचना दृष्टि की तीन नहीं चार दृष्टियाँ है ।’ किसी किताब का नाम बताया गुरुदेव ने । बोले - ‘इसे जरूर पढ़ लेना ।’ .... और वह कुछ और कहते कई लोगों के बीच उनके साथ फ़ोटो लेने की होड के चलते हमारी बातचीत आगे न बढ़ सकी । बावजूद इसके गुरुदेव के इतना सा स्नेह पाकर मैं गदगद था । इसी दौरान मुझे पता चला कि गुरुदेव विश्व विद्यालय के उसे गेस्ट हाउस में रुके हैं, जहां हम रुके थे । हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा । 
 
रात का खाना हो चुका था । हमें गुरुदेव को खाना खिलाने का अवसर मिला था । हम इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में ले रहे थे । इस दौरान हमारी दूरी बहुत कम हो गई थी । झिझक समाप्त हो चुकी थी । गुरुदेव बहुत ही सामान्य थे । बावजूद इसके हम बहुत कुछ जो पूछना चाहते थे, पूछ नहीं पा रहे थे । वहाँ विश्व विद्यालय के बहुत से प्रोफेसर थे । अंतत: देर रात जब सब चले गए तो गुरुदेव ने मुझे अपने साथ उनके कमरे में आने को कहा । वह हमारी स्थिति संभवत: समझ गए थे । हम उनके साथ हो लिए । 

 फिर क्या था बिस्तर बिछा था । गुरुदेव ने आसान ग्रहण किया और मैं वहीं पास ही बैठकर उनके पैर दबाने लगा । बातों का सिलसिला गुरुदेव ने ही शुरू किया । मेरे परिचय से । फिर बोले – ‘कुछ लिखते भी हो ?’ मैं बहुत संकोच में था । गुरुदेव के काफी कहने पर धीरे से कहा – ‘एक किताब प्रकाशित हुई है’ । गुरुदेव आधे लेटे से उठ बैठे । बहुत ही कड़े शब्दों में आदेश हुआ कि पहले किताब लेकर आओ । मैं कुछ कहने की स्थित में न रहा । सीधे उठाकर अपने कमरे से किताब ले आया । गुरुदेव ने देखी । उनकी आँखों में चमक थी । जैसे किसी अपने की बड़ी उपलब्धि पर चमकी हों आँखें । 

 किताब शाहजहांपुर के रंगमंच पर थी । गुरुदेव ने उलट-पलट कर किताब के सभी अध्यायों से विषय वस्तु का अंदाजा लगा लिया । सुधीर विद्यार्थी की भूमिका से अरशद सर के आशीर्वचन तक । सब देख डाला । बोले कल पढ़ूँगा इसे । इसके बाद शाहजहांपुर से जुड़े कई सारे संस्मरण सुना डाले । इसके अतिरिक्त कई विषयों पर मेरे जिज्ञासा भरे प्रश्नों गुरुदेव ऐसे समझा रहे थे जैसे अपने किसी खास को बेहद गंभीरता से पढ़ा रहे हों । क्या यह मेरी पहली मुलाकात थी गुरुदेव से ? मैं ऐसा बिलकुल ही महसूस नहीं कर रहा था ।   

 न जाने कितनी बातें करते-करते रात के दो कब बज गए हमें पता ही न चला । सुबह कई कार्यक्रमों में गुरुदेव को भाग लेना था । अंतत: गुरुदेव से अनुमति हम अपने कमरे में आ गए और आज के बारे में सोचते-सोचते कब नींद आ गई पता न चला । सुबह आठ बजे मैं तब उठाया जब गुरुदेव ने मेरी एक साथी को मुझे जगाने भेजा । मैं उठा तो एक अपराध बोध से भर उठा । खैर ! मैं जल्दी से तैयार होकर डायनिंग हाल में पहुंचा । गुरुदेव इंतजार कर रहे थे । उनके साथ में दो तीन प्रोफेसर बैठे थे । गुरुदेव ने उन्हें चिन्हित करते हुए कहा – ‘लड़के में बहुत ऊर्जा है । मैंने रात में इसकी किताब के दो अध्याय पढ़े । शैली यथार्थ से भरी हुई है ।’ इसके बाद गुरुदेव मेरे शोध विषय पर आए । बोले – ‘ बहुत संभावनाएं है इस काम को लेकर । मेहनत कर लो तो अच्छा हो जाएगा ।’ इसके बाद कई लोगों और कई किताबों के बारे में बताया । मैं सब नोट कर रहा था । 

 सब कुछ सिनेमा के माफिक चल रहा था । पूरा दिन गुरुदेव के साथ रहा । कई जगहों पर घूमना, कई लोगों से मिलना । बीच-बीच में बहुत से प्रश्न और बहुत सारी बातों में कब उनके जाने का समय आ गया पता न चला । मैं और रहना चाहता था गुरुदेव के साथ लेकिन कोई नहीं । यह दो दिन का साथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण था । 

 हम अपने-अपने गंतव्य की ओर बहुत से संस्मरण लेकर रवाना हुए । समय बीतता गया । व्यस्तताएं बढ़ती गईं । संपर्क कम होता गया । करीब दो महीने के बाद एक दिन गुरुदेव का फोन आया । बोले – ‘सुनील’ वही ‘नी’ पर अधिक ज़ोर देते हुए – ‘तुम्हारी किताब पूरी पढ़ डाली मैंने ।’ फिर करीब डेढ़-दो घंटे की बातें । मैं केवल सुन रहा था । बस ‘जी सर’ से अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए था । न जाने कितनी बातें हुईं उस दिन । उसके बाद कई बार फोन पर बात हुई । धीरे-धीरे व्यस्तता के कारण बातचीत में गैप, और गैप, फिर लंबा गैप, और लगातार गैप आता चला गया । 

 आज स्कूल की व्यस्तता के बीच जब फ़ेसबुक से पता चला कि गुरुदेव चले गए तो छल से आँसू छलक आए । ठीक वही चेहरा आँखों के सामने घूमने लगा जो कई सालों पहले सिलचर की उस आत्मीय मुलाकात के बाद छोड़ आया था । उनके तमाम सारे शब्द एक साथ कानों में गूंजने लगे । 

 अचानक स्कूल के एक बच्चे ने टोका – ‘ सर क्या हुआ ? आपकी आँख में आँसू !’ मैं उससे कुछ कह न सका । उसे इधर-उधर की बातों से बहलाकर अपनी ड्यूटी में व्यस्त हो गया । देर रात जब घर आया तो उन यादों को गुरुदेव को आदराँजली देने हेतु लिखने बैठा हूँ । 

 प्रोफेसर मैनेजर पांडे, आप जैसा कोई नहीं । आप हमेशा हमारे साथ हैं । आपके साथ के वह दिन और आपकी बातें, मैं कभी भूल नहीं पाऊँगा । 

 आज आपका यह एकलव्य शिष्य आपको भवभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है । 
सुनील मानव 
07.11.2022

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