वर्तमान में गांधी की प्रासंगिकता का प्रमाण : परिंदे का गांधी विशेषांक

वर्तमान में जितना अधिक गांधी को दबाने का प्रयास किया जा रहा है, गांधी उतनी ही प्रबल आत्मशक्ति से इन विरोधी ताकतों के सम्मुख डटकर खड़े हो रहे हैं । बदलती हुई राजनैतिक परिस्थितियों ने सबसे बड़ा हमला भारत के समन्वयात्मक प्रतीकों पर किया है । ऐसे में जहाँ कई प्रतीक धराशाही हुए हैं तो कई ने अपनी पकड़ को और अधिक मजबूत किया है । इन मज़बूत प्रतीकों में गांधी सर्वाधिक गहराई और मजबूती के साथ इन विघटनकारी ताकतों के सामने खड़े होते हैं । आज जबकि अलगाववादी ताकतें 'भारत की आत्मा' को खत्म करने पर तुली हैं, गांधी हमें इन ताकतों के साथ मज़बूती से लड़ने की आत्मशक्ति प्रदान कर रहे हैं ... 

... आत्मशक्ति के संचयन के इस दौर में हिंदी के वर्तमान साहित्य में नवीन से नवीन आख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं । इन आख्याओं  और विचारों की मज़बूत होती जा रही शृंखला में ‘परिंदे’ का 'राष्ट्रपिता, कल, आज और कल' संयुक्तांक एक नवीन दृष्टि, एक नवीन ऊर्जा, एक नवीन प्रेरणा और एक नवीन राह के द्वार खोलता है । 

वास्तव में 'परिंदे' का गांधी मूल्यों पर आधारित यह संयुक्तांक पढ़ना गांधी दर्शन की एक सहज किन्तु नवीन परिप्रेक्ष्य में साहसिक यात्रा करना है । गांधी दर्शन की यह यात्रा इस विषय का पुनरमंथन तो है ही साथ ही साथ गांधी-गांधी हो जाना भी है । 

किसी पत्रिका में पाठक के सामने पहला पड़ाव उसका सम्पादकीय होता है जो पत्रिका की विषय वस्तु को स्पष्ट करता है । इस अंक के संपादकीय में डॉ. शिवादान सिंह भदौरिया ने सम्पादकीय के उद्देश्य को स्पष्ट करने में काफी हद तक सफलता पाई है लेकिन प्रूफ की एक बड़ी गलती ने सम्पादकीय पर एक प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया है । आप लिखते हैं - "2015 में भारत लौटकर गांधी ने पहले दो साल तक भारत भ्रमण किया ..." यह अशुद्धियाँ छापे की ही कही जायेंगी, लेकिन प्रूफ का ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है अन्यथा सामान्य पाठक अर्थ का अनर्थ करके लेखन की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह अंकित कर सकता है । 

सम्पादकीय में गांधी दर्शन और उनकी प्रासंगिकता से अधिक उनकी जीवन यात्रा पर ध्यान दिया गया है । एक स्थान पर लिखा गया है कि - "स्वतंत्रता के सत्तर से ज़्यादा वर्ष बीत जाने के बाद भी आज का जनमानस, अधिकारियों के सम्मुख जाने से झिझकता है, डरता है, घिग्घी बंध जाती है डी. एम. साहब के सामने अपनी जबान खोलने में । लेकिन गांधी का आत्मविश्वास तो देखिए, आते ही उन्होंने जिस दृढ़ता से अपनी बात सरकारी तंत्र के सम्मुख रखी कि लोगों को विश्वास होने लगा कि उनकी बात न केवल सच है बल्कि स्वीकार्य भी है ।"

लिखे गए विचार बहुत ही गहराई से चोट करते हैं । उक्त कथन में गांधी की तुलना आम (दो सौ वर्ष के गुलाम जन) से की गई है जो कि मुझे अधिक उचित नहीं लगी । इस दौरान गांधी सामान्य जन बिलकुल ही नहीं थे । अब तक गांधी विशेष हो चुके थे । मीडिया उनके पीछे दौड़ता था । उनकी बात विश्व स्तर पर चर्चा का विषय होती थी । वह अफ्रीका के संघर्ष ने उन्हें आत्मशक्ति से भर दिया था । वहां के आंदोलनों ने उनके अंदर से 'भय' और 'गुलामी' जैसे भावों को निकाल फेका था । वह अपने जीवन की एक बड़ी लड़ाई जीत चुके थे । वह अब बिलकुल ही सामान्य जन न थे । उनके संघर्षों ने लोगों में प्रेरणा का संचार किया था । हाँ ! वह दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन चुके थे, न कि सामान्य जन । 

वास्तव में इस सम्पादकीय में गांधी के दर्शन और प्रासंगिकता आदि को लेकर विषय के अनुरूप गंभीरता की कमी कुछ खलती है लेकिन उस कमी को पहले ही साक्षात्कार में प्रियंवद और गांधी मूल्यों के वरिष्ठ चिंतक गिरिराज किशोर की बातचीत गंभीरता की राह पर ले आती है । 

'पहला गिरमिटिया' के बाद गिरिराज किशोर का गांधी चिंतकों में एक बड़े  विचारक साहित्यकार के रूप में नाम उभरा है । आपने गांधी मूल्यों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नवीन आयाम प्रदान किए । प्रियंवद एवं प्रेमकुमार जी के साथ आपकी बातचीत 'गाँधीत्व' के कई विचारणीय बिंदुओं को पाठकों के समक्ष लाती है । यह बातचीत गिरिराज जी के प्रसिद्ध उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' को केंद्र में रखकर की गई है जो विस्तार लेती हुई तत्कालीन राजनीति को अपने आगोश में लेती है और उसे वर्तमान ज़मीनी हकीकत से जोड़ने का प्रयास करती है । गिरिराज जी ने 'पहला गिरमिटिया' में न तो गांधी को महान बनाने का प्रयास किया है और न ही गांधी की छवि को खराब करने की कोशिश । प्रियंवद जी ने 'पहला गिरमिटिया' के संबंध में ठीक ही कहा है कि "गांधी जैसा है, वैसा ही उपन्यास में आया है । यदि उसकी छवि महान व्यक्ति की बनती है, तो लेखक का प्रयोजन उस छवि को बनाना नहीं था और यदि खराब बनती है, तो लेखक असफल हुआ, ऐसा भी नहीं है ।" 

वास्तव में गिरिराज जी एवं प्रियंवद तथा प्रेमकुमार जी ने इस बातचीत में गांधी से लेकर वर्तमान तक के बनाते-बिगड़ते इतिहास को गंभीरता के साथ खंगालने का प्रयास किया है । इसके साथ ही अरविंद मोहन से हरिमोहन की बातचीत चम्पारण से लेकर वर्तमान तक 'गांधीवाद' का विस्तृत विश्लेषण करती है तो गांधीवादी चिंतक आर.के.पालीवाल के साथ कथाकार राजकमल की बातचीत गांधीमूल्यो की प्रासंगिकता को कई कदम आगे ले जाती है । इसके अतिरिक्त रणेन्द्र जी के साथ महादेव टेम्पो की बातचीत, डॉ. चंद्रकुमार जैन से डॉ. दिग्विजय शर्मा की बातचीत, अरुण कुमार त्रिपाठी से हुस्न तबस्सुम निंहा की बातचीत, सीता बिम्ब्रा से विशाल पाण्डेय की बातचीत, अनिप तिवारी और श्याम अग्रवाल की बातचीत आदि ऐसे साक्षात्कार हैं जो गांधी की विचारधारा अथवा कहूँ कि चिंतन प्रक्रिया की परत दर परत पड़ताल करते हैं । इतिहास से लेकर वर्तमान जीवन मूल्यों तक पर भी प्रश्न चिन्ह भी लगाते हैं और उनके उत्तर की खोज में बहुत आगे तक की यात्रा के संकेत देते हैं । 

इस संयुक्तांक में सम्मिलित यह साक्षात्कार गांधी को 'ट्रायएंगल' रूप में देखने का सफल प्रयास करते हैं । साथ ही पाठकों के लिए नवीन खोज के बिंदु भी प्रस्तुत करते हैं । 

भारत और पाक का बटवारा इस सदी की सर्वाधिक त्रासद घटना रही है और उससे भी अधिक त्रासद घटना यह कि यह बटवारा धर्म के नाम पर हुआ । ऐसे में गांधी की हिंसक मौत इस बटवारे को आइना दिखा जाती है । गांधी के लिए सीमा के दोनों ओर आंसू गिर रहे थे । फैज के द्वारा 'पाकिस्तान टाइम्स' में 1948 में लिखे गए उस संपादकीय में उन आंसुओं की करुण तरलता को गहराई तक महसूस किया जा सकता है । इस विशेषांक का हिस्सा बनाकर संपादक ने अंक की गरिमा को चार चाँद लगाए हैं । 

चंपारण आंदोलन के सौ वर्ष बीतने पर इधर खूब लिखा गया है । वह एक किसान समस्या से उत्पन्न देशव्यापी सत्याग्रह था लेकिन अरविंद मोहन ने अपने अन्वेषण में उसका विस्तार किया है । उनका मानना है कि - "कई बार ज्यादा बारीकी से गौर करने पर यह सांस्कृतिक और राजनैतिक सवाल भी लगता है - बल्कि सांस्कृतिक अपमान, औरतों की बदहाली, दलितों समेत कमजोर लोगों की दुर्गति के सवाल पर तो अभी तक ज्यादा लिखा-पढ़ा भी नहीं गया है ।"  अरविंद जी ने चंपारण की किसान समस्या को विस्तार देते हुए उसे सत्याग्रह के रूप में व्याख्यायित किया है । उक्त के साथ-साथ पत्रिका आगे बढ़ते हुए कई अन्य वैचारिक आलेखों में गांधी जीवन और चिंतन के पहलुओं को विस्तार करती है । 

डॉ. चन्द्रकुमार जैन ने 'महात्मा गांधी : सदियों में बनने वाली अमर कहानी' में, विनोद कुमार सिन्हा ने 'स्माल इज़ ब्यूटीफूल : विकास एवं शांति का अर्थशास्त्र' में, डॉ. वरुण कुमार तिवारी ने 'गांधी के सपनों का भारत' में, डी. एन. प्रसाद ने 'अहिंसा की ऊर्जा' में अलग-अलग रूपों में गांधी की ऊर्जा का संचार किया है ।

मुझे लगता है कि भारतीय समाज में कृष्ण के बाद कला के विविध क्षेत्रो में गांधी गहराई से समाहित हुए हैं और समय से आगे बढ़ते हुए कला को प्रभावित करते रहे हैं । ऐसे में तत्कालीन हिंदी साहित्य भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । हिंदी की विविध विधाओं में गांधी का प्रभाव गहराई तक दिखाई देता रहा है । ऐसे में भारत यायावर का 'महात्मा गांधी और आधुनिक कविता', गणेश चंद्र राही का 'महात्मा गांधी का साहित्यिक दृष्टिकोण', डॉ. दिग्विजय शर्मा का 'राष्ट्रभाषा हिंदी और गांधी जी की प्रासंगिकता' तथा मौसमी सिंह का 'प्रेमचंद के उपन्यासों में गांधी दर्शन : एक अभिरेखांकन' जैसे आलेखो में हिंदी कविता और प्रेमचंद के उपन्यासों में गांधी चिंतन का विश्लेषण किया गया है । 

हुस्न तबस्सुम का आलेख 'महात्मा गांधी की दृष्टि में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द की प्रासंगिकता', डॉ. रमेश कुमार भदौरिया का आलेख 'फ्रीडम एट मिडनाइट में उद्धृत गांधी', प्रवीण कुमार का आलेख 'सिर्फ एक राजनेता नहीं थे गांधी', विपिन जैन का आलेख 'आम आदमी की गांधीगिरी', अरविंद कुमार गोंड का आलेख 'ग्राम-स्वराज की अवधारणा का वर्तमान में प्रासंगिकता', अनिल अयान का आलेख 'बुनियादी शिक्षा : गांधी का शैक्षिक आंदोलन', रघुवीर शर्मा का आलेख 'आधुनिक राजनीति में गांधीवाद की प्रासंगिकता', शैलेन्द्र भाटिया का आलेख 'गांधी : युग से आगे तक', डॉ. सविता सिंह का आलेख 'कर्मों के पुजारी गांधी...', मनोज कुमार महर का आलेख 'गांधी, नेहरू और पटेल : मतभेद और एकमत', सुशील मानव का आलेख 'फासीवादी लोकतंत्र पर एक अहिंसक दृष्टि', राकेश विश्वकर्मा का आलेख 'भारतीय संस्कृति के वर्तमान हिंसक कुप्रभाव', अश्विनी कृष्णराव राऊत का आलेख 'महात्मा गांधी का किसानों और मज़दूरों के संबंधी दृष्टिकोण', महेश शर्मा का आलेख 'महात्मा गांधी, एक सर्वकालिक जीवन शैली', धीरज वणकर का आलेख 'महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा के अनन्य प्रणेता', डॉ. पुनीत कुमार का आलेख 'महात्मा गांधी का पत्रकार : एक समीक्षा', विशाल पाण्डेय का आलेख 'विचारों में गांधी आज भी जीवित हैं', प्रो. इन्दु वीरेंद्रा का आलेख 'गांधी जी और सत्य के प्रयोग', अनिल तिवारी का आलेख 'गोडसे के दौर में भी गांधी के साथ हूं', राजीव कुमार झा का आलेख 'गांधी विचार से ही राष्ट्र का भविष्य संवरेगा', राम अवतार बैरवा का आलेख 'भारत का नव-निर्माण और महात्मा गांधी', पुष्कर शुक्ला का आलेख 'महात्मा गांधी : सिद्धांत व प्रासंगिकता', डॉ. मंजुलता गर्ग का आलेख 'गांधी दर्शन एवं भारतीय अर्थव्यवस्था', सीमा रानी का आलेख 'सर्व समस्याओं का समाधान : चरखा' के साथ-साथ शोधपत्र के रूप में प्रकाशित अनुज कुमार सिंह का 'भारतीय - अफ्रीकी डायस्पोरा के संदर्भ में गांधी की पत्रकारिता',  अमित कुमार तिवारी का 'महात्मा गांधी का राष्ट्रवादी दर्शन', शुभम जायसवाल का 'गांधीवादी दृष्टिकोण में समकालीन पत्रकारिता की समीक्षा' जैसे गंभीर लेखों में गांधी के व्यक्तित्व एवं चिंतन का विस्तृत विवेचन करने का प्रयास लेखकों ने किया है । इन आलेखों में गांधी को विविध दृष्टियों से देखते हुए लेखकों ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गांधी की उपयोगिता स्थापित करने का सार्थ प्रयास हुआ है ।

लोक उसी को नायक बनाता है जो जन सरोकारों को गहराई से छूता है । जन की पीड़ा को हृदय में स्पर्श करता है । लोक उसी को अपने भावों में स्थान देता है । एक ऐसा स्थान जो कालजयी बन जाता है । भारतीय समाज के तमाम मिथकीय पात्रों से लेकर इतिहास के वह नायक जिन्होंने जन सरोकारों पर कार्य किया, जन की आत्मा का हिस्सा बन गए । गाँधी भी भारतीय समाज के एक ऐसे ही जन नायक थे । आपने भारत की आत्मा को छुआ था । उसके दर्द को महसूस किया था । उसके लिए संघर्ष किया था । आपने भारतीय समाज को स्वाधीनता का मंत्र दिया था । एक ऐसा मंत्र जिसने स्वाधीनता को नवीनता के साथ परिभाषित किया । स्वराज को पूर्ण स्वराज में बदला । वास्तव में गांधी ने नवीन भारत को नवीन परिप्रेक्ष्य में संजोने का कार्य किया । सम्भवतः इन्हीं कारणों ने उन्हें जान नायक बनाया और लोक की आत्मा का हिस्सा बनाया । लोकगीतों का नायक बनाया ।

परिंदे के इस अंक में लक्ष्मीकांत मुकुल का आलेख ‘भारतीय लोकगीतों में गांधी’ महात्मा के लोकवादी जननायकत्त्व को पाठकों के समक्ष उभारने का प्रयास करता है । इस आलेख में आपने उक्त आलेख में भारत के विभिन्न प्रांतीय लोकगीतों में गांधी के श्वरूप को संक्षिप्त ही सही, लेकिन समेटने का सार्थक कार्य किया है । 

इधर गांधी की जन्म शताब्दी वर्ष की धूम को फ़िल्मों में भी खूब भुनाया गया । यूँ तो गांधी जी फ़िल्मों में विविध किरदारों के माध्यम से नायकत्त्व प्रदान करते रहे हैं, लेकिन इधर इस विषय की कुछ ज्यादा ही सरगर्मी रही है । एटनबरो की ‘गांधी’ के बाद तो जैसे फ़िल्म वालों ने गांधी पर प्रयोग करने की होड़-सी लगा दी तो इस होड़ को परिंदे के इस अंक में अंजनी श्रीवास्तव जी ने ‘सिनेमा के गांधी’ के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है । इसके साथ ही मनोज कुमार जी ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ का संदर्भ लेते हुए ‘गांधी : व्यक्ति का महात्मा में कायांतरण’ आलेख में फ़िल्म से उत्पन्न एक सार्वभौमिक व्यक्त्तित्व की समीक्षा खूब बन पड़ी है । 

        गांधी पर केन्द्रित इस अंक के अंत में डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया एवं श्रीविलास सिंह की कविताएँ सामाजिक सरोकारों से जूझती सी दिखती हैं तो पुनीता जैन जी की कविताएँ महात्मा गांधी के व्यक्तित्व का कवि केन्द्रित बिंब बनाती हैं । 

अंत में निरूपम जी की कहानी ‘गांधी जी का चश्मा’ अच्छी कहानी बन पड़ी है तो बी.के.संगीता, सुनील मानव तथा मिता दास ने ‘कविताओं में राष्ट्रपिता’, ‘एक था मोहन’ तथा ‘पातियां प्रेम की’ पुस्तकों की पड़ताल ने विषय की नवीन पुस्तकों से परिचय करवाया है । 

उक्त के अतिरिक्त बीच-बीच में आई लघुकथाओं ने भी पाठक का ध्यान अपनी ओर खीचा है । 

पूरी सामग्री को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि परिंदे का ‘गांधी’ के चिंतन और व्यक्त्तित्व पर आधारित यह अंक पठनीय तो है ही, साथ ही भविष्य में इस विषय पर कार्य करने वालों के लिए संग्रहणीय भी है । इस संयुक्तांक के लिए जिस मेहनत से सामग्री का संकलन किया गया है, उसके लिए संपादन मण्डल के सभी सदस्य बधाई के पात्र हैं । आशा करता हूँ भविष्य में भी ‘परिंदे’ के ऐसे अंक देखने को मिलते रहेंगे । 

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