पुस्तक परिचय - 40 पुस्तक : लोकवादी तुलसीदास लेखक : विश्वनाथ त्रिपाठी विधा : आलोचना प्रकाशक : राधाकृष्ण, नई दिल्ली संस्करण : 2007 मूल्य : रु. 195 (हार्डबाउंड)

हिन्दी में विविधता के विचार से तुलसी जैसा दूसरा कवि संभवत: नहीं ही है । आपने भारतीय जनता का वास्तविक अर्थों में प्रतिनिधित्त्व किया । तुलसी पर कई पुस्तकों में यह पुस्तक मुझे अत्यंत प्रिय लगी । भाषा और भाव दोनों स्तरों पर । लेखक ने तुलसी के राम को धर्म संस्थापक के स्थान पर भारत की विविधता के रूप में देखा । अपने समय के वातावरण को राम के चरित्र का आधार बनाया । कलियुग और रामराज्य के मिथकी नवीन परिभाषा स्थापित की और तुलसी की कविताई को नई पहचान दी । इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि आलोचक राजेन्द्र यादव द्वारा इसकी सराहना है । राजेन्द्र यादव का उक्त पत्र जो पुस्तक में संकलित है, प्रस्तुत करता हूँ, जिससे पुस्तक की गंभीरता आपके समक्ष अधिक स्पष्ट होगी ।

राजेन्द्र यादव लिखते हैं – “हिन्दी के पुराने कवियों में जो कवि मेरे मन में तीव्र विरक्ति और गहरी अरुचि जगाते हैं, उनमें तुलसीदास का नाम सबसे ऊपर है । सच ही, रामचन्द्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा तक की विह्वल, गद्गदीयता मेरी ‘समझ’ में नहीं आती । सारे दार्शनिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक आतंक के बावजूद मुझे वे अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, भदेसपन और अपरिवर्तनशीलता के प्रतीक ही लगते रहे । कृष्ण के समृद्ध और बहुआयामी, कर्मठ और उद्दाम व्यक्तित्त्व की तुलना में राम मुझे फुसफुसे, व्यक्तित्वहीन, परम्परापोषक और गिलगिले चरित्र लगते हैं-फिर उनके चारण तुलसीदास . . .
मगर आपकी पुस्तक में एक ऐसी अजीब-सी ऊष्मा, आत्मीयता और बाँध लेने वाली निश्छलता है कि मैं इसे अढ़ता ही चला गया । अच्छी बात यह लगी कि न राम को मुकुट पहनाए न तुलसी को अक्षत चन्दन लगाए-आपने तो अपने अवध को ही तुलसी के माध्यम से जिया है, वहाँ के लोगों, उनके आपसी सम्बन्धों और सन्दर्भों-बिना उन्हें स्पन्दनशील बना दिया है कि मैं तुलसी के प्रति अपने सारे पूर्वग्रह छोड़कर पढ़ता चला गया . . . ”

मैं राजेन्द्र यादव से कुछ स्थानों पर असहमत होते हुए भी उन्हें बहुत बड़ा पाठक मानता हूँ । शायद ही हिन्दी में कोई अन्य हो जिसका अध्ययन राजेन्द्र जितना विषद हो ! राजेन्द्र यादव की इस स्वीकारोक्ति के बाद मैं पुस्तक को पढ़ता चला गया । अंत में पाया कि मेरे सामने एक नवीन ‘राम’ और एक नवीन ‘तुलसीदास’ स्पष्ट हो चुके हैं ।

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मैं राम के उस स्वरूप को समझ सका जो तुलसीकालीन वातावरण से बना था । तुलसी के राम मुगलकालीन भारत का ही प्रतिनिद्धित्त्व करते हैं, इस पुस्तक को पढ़न के बाद ही समझ आया था ।
संभवत: यह लोकप्रिय पुस्तक सभी ने पढ़ी ही होगी, लेकिन जिसने नहीं पढ़ी है, उसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए । तुलसीदास सहित राम को समझने के लिए इससे अधिक उपयोगी पुस्तक फिलहल मैंने अभी तक नहीं देखी ।

सुनील मानव, 05.08.2018

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