मकसूद मियां : सुनील मानव
ईशा की नमाज़ पढ़कर मकसूद मियां बाहर आए तो बाजपेई जी बरोठे में ही बैठे मिले। बोले – ‘चतुर्वेदी जी नमाज़ पढ़नी तो छोड़नी पड़ेगी . . . ’
मकसूद मियां के पोपले गालों पर चमक आ गई – ‘मियां बाजपेई . . . अब यह नमाज़ तो जनाजे तक साथ रहेगी . . . ’ एक ओर रखा हुक्का निकाल कर पास में ही बैठकर गुड़गुड़ाने लगे। दो मिनट तक कोई नहीं बोला।
‘. . . प्रचारक जी आए थे आज . . . कल फिर आएंगे . . . ’ बाजपेई जी ने चुप्पी तोड़ी।
‘. . . हाँ हाँ क्यों नहीं . . . हम पहुँच जाएंगे वक्त पर . . .’ बाजपेई जी उठकर जाने लगे ।
‘राम राम पंडित जी . . .’
‘राम राम मियां बाजपेई . . . . और मियाँ . . . मिसरा जी, मनकू चौधरी, रामलाल यादव, सरपंच जी सबको बुला लेना . . . हमारी हिम्मत बनी रहेगी . . . सुना है रायपुर के मौलाना साहब फतवा सुनाने की सोच रहे हैं . . .’
‘. . . उनकी तो . . . ’ बजपेई जी बहुत कुछ कहते-कहते रुक गए – ‘आप हम पर भरोसा रखिए। अब तो आप वापस अपने घर में शामिल होने जा रहे हैं . . .’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर थरथराए से होंठों और मुस्कुराई सी आँखों से निहारा।
मकसूद मियां पंचनमाजी मुसलमान थे। इस गाँव में अकेले भी। पुरखों के जमाने से इस गाँव का हिस्सा थे। समय बदलता रहा, लेकिन मकसूद मियां नहीं बदले। वैसे अगर नाम न बताया जाए तो कोई भी उनको मुसलमान मानने को तैयार नहीं होगा। सफेद कुर्ता-धोती और गाँधी टोपी में निपट ब्राह्मण गाँव में वह भी उन्हीं में से एक लगते थे। इस पर सनातनी पुराणों का ज्ञान उन्हें सोने पर सुहागे से भर देता था। इसी कारण गाँव से लेकर बाहर तक जो भी लोग उन्हें जानते थे, मकसूद मियां को मौलाना पंडित जी के नाम से पुकारते थे।
इधर समय ने तेजी से करवट ली। गाँव के लोगों को लगने लगा कि एक ब्राह्मण गाँव में मुसलमान ! हाँ . . . हाँ . . . माना कि वह अन्य मुसलमानों जैसे नहीं हैं। हिन्दुओं के सभी तीज-त्योहारों से लेकर रीति-रिवाजों में गाँव के सम्मानित बड़े बुजुर्गों की माफिक सम्मिलित होते रहे हैं, लेकिन हैं तो मुसलमान ही। नए उग रहे लड़के, जिनके हाथों में एन्ड्रॉइड मोबाइल हैं, उनको देश में छिड़ी जंग के पार्श्व में निर्धारित समय पर किसी भी स्थान पर नमाज की उनकी नियमित दिनचर्या के चलते सोचने पर मजबूर कर दिया कि मकसूद मियां कट्टर मुल्ले हैं। यह सब वही लड़के हैं जिनको मकसूद मियां ने अपने कंधों पर खिलाया था और इनके नामकरण आदि संस्कारों में मकसूद मियां की जोहराजफी जा जा कर बन्ना-बन्नी, सोहर, मंगल आदि गीत गाया करती थीं। समय वास्तव में बदल चुका था।
रामादीन का बड़ा लड़का वकील बन गया था। हिन्दू सभा का सम्मानित अधिकारी भी था। दूर-दूर के गाँव में उसके भाषण की चर्चा होती थी। जब वह बोलता था, लोग उसके तर्कों पर मर मिटते थे। एक बार एक जन सभा में बोलने के बाद किसी ने उस पर तंज कशा कि ‘पूरे देश को मुसलमानों से मुक्त कराने की बात करते हो, लेकिन खुद के गाँव में एक मुसलमान को पाल रखा है।’
‘लेकिन . . . वह तो . . . वह तो हमारे जैसे ही . . . ’ सियाराम बोलते बोलते रुक गया।
‘. . . तो क्या हुआ. . . है तो एक मुसलमान . . . ’ एक ने थोड़ा गर्म होते हुए कहा।
‘. . . अच्छा एक काम तो कर ही सकते हो . . .’ एक ने सियाराम की संवेदनाओं को समझते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा।
सियाराम ने प्रश्नभरी आँखों से उसकी ओर निहारा तो सामने वाली की हिम्मत और बढ़ गई। बोला ‘. . . उन्हें किसी तरह से अपने धर्म में क्यों नहीं मिला लेते . . . पूरा गाँव हिन्दू गाँव . . . आप तो हीरो बन जाएंगे हीरो . . . प्रचारक जी आपको और ऊपर का दर्जा प्रदान करेंगे . . . ’ सियाराम ने मित्रों की ओर देखते हुए थोड़ा-सा आश्चर्य प्रकट किया।
‘मतलब धर्मान्तरण . . .’
‘. . . नहीं घर वापसी . . . आखिर है तो हमारे ही पुरखों का खून . . . ’
सभी ने सियाराम के डगमगाते हुए आत्मविश्वास को अपने उत्साह से मनोबल प्रदान किया।
बात सियाराम के समझ में आ गई। उसके दिमाग में मकसूद मियां का नवीन स्वरूप रामानंद के रूप में आकार लेने लगा।
सियाराम ने अंदर ही अंदर गाँव के सभी बड़े बुजुर्गों को इस काम के लिए अपनी तरफ मिला लिया। इसके बाद तो एक ऐसा रहस्य मकसूद मियां के सामने फैलाया गया कि उन्हें लगने लगा कि दुनियां में हर एक मुसलमान आतंकवादी और गद्दार है। गाँव के लड़के किसी न किसी बहाने से मकसूद मियां के घर आकर अपने मोबाइल में डाउनलोड की गई कोई न कोई आतंकी वीडियो मिसलिम लबादे में ओढ़ाकर मियां को दिखाने लगे। धीरे-धीरे मकसूद मियां का सरल हृदय विचारने पर मज़बूर हो गया कि ‘सनातन धर्म से बढ़कर और कुछ नहीं।’ मकसूद मियां हिन्दू बनने को तैयार हो गए।
कल पंचायत में मकसूद मियां रामानंद बनने वाले थे। अपनी पांचों नवाजों को नवीन आराधना पद्यति में पिरोना था। जानमाज को आशन, सुन्नत और फर्ज को योग तथा कुरान की आयतों को मंत्रों का आकार देना था। पूरा जीवन एक बार फिर से आरम्भ करना था। मकसूद मियां के लिए आज की रात एक साथ हजार रातों सी महसूस हो रही थी। पूरे जीवन की नमाजें उनके हृदय में हलचल मचा रही थीं। कल ही शहर से घर आई उनकी बेटी रेहाना रात में कई बार अब्बा को समझाकर उन्हें सोने को कह चुकी थी, लेकिन मकसूद मियां को नींद नहीं आ रही थी। खैर ! जैसे-तैसे सुबह हो ही गई। पचासी बरस की उमर में यह पहला दिन था जब मकसूद मियां ने फाज़िर और ज़ोहर की नमाज अता नहीं की थी। उनकी पेशानी पर श्रम बिंदुओं ने दस्तक नहीं दी थी। दूर गाँव से आने वाली अजान की आवाज़ में उन्हें घण्टे-घड़ियालों की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी।
मकसूद मियां कुछ उदासी और कुछ उल्लास में पंचायत की ओर चल दिए। हृदय में हलचल थी। बेटी रेहाना को साथ में हिम्मत बनी रहने के लिए ले लिया।
पंचायत में सभी कबके आ चुके थे। मकसूद मियां के पहुंचते ही सबके चेहरे पर खुशी नाच गई। आज पूरा गाँव हिन्दू गाँव बनने वाला था।
रेहाना ने अपने अब्बा और गाँव के लोगों की नजर बचाते हुए रघू की निगाहों में नजर मिलाई और एक चारपाई पर अब्बू के साथ बैठ गई। आपस में दुआ-सलाम के बाद पंचायत की कार्यवाही आरम्भ करने के लिए सरपंच बहादुर सिंह अपने स्थान पर खड़े हो गए। सारी तैयारी पहले ही की जा चुकी थी। सरपंच साहब ने मकसूद मियां की ओर देखा – ‘तो आरम्भ किया जाए चच्चा . . .’
‘हाँ . . . हाँ . . . क्यों नहीं लल्ला . . . लेकिन . . . वो . . .’ मकसूद मियां कुछ कहते कहते रुक गए।
‘अरे चच्चा रुक क्यों गए . . . बोलिए. . . बोलिए . . .’ सरपंच ने हिम्मत बंधाई।
‘. . . वो रेहाना कह रही थी कि हिन्दू बनने से पहले पंचायत से कुछ पूछ लेना . . . आखिर जीवन तो उसे ही जीना है . . . मैं कितने दिनों का मेहमान हूँ . . .’
‘हाँ हाँ मियां बोलो. . . बोलो . . . कहो जो भी कहना चाहते हो . . .’ मिसरा जी ने कौतूहल से मकसूद मियां का साहस बढ़ाते हुए उन्हें आश्वासन दिया।
‘वो रेहाना कह रही थी कि हम हिन्दू बनने के बाद किस जाति में आएंगे . . . ’
पंचायत के लोगों के चेहरे हल्के पीले पड़ने लगे। कुछ पल को पूरी पंचायत को साँप सूंघ गया।
‘तुम हमारे गाँव के सम्मानित बुजुर्ग हो . . . हम सब आपको ब्राह्मण जाति में स्वीकारते हैं . . . ’ सरपंच साहब ने सीना फुलाते हुए अपनी राय प्रकट की।
‘हाँ हाँ क्यों नहीं . . . ’ पूरा गाँव एक स्वर में अपनी भावनाएं प्रकट कर उठा।
‘. . . और आज से आपका नाम होगा रामानंद . . . ’
‘पंडित रामानंद की जय . . . ’ एक सम्वेत स्वर से गाँव का बच्चा-बच्चा झूम उठा।
मकसूद मियां के चेहरे पर स्थिरता थी। रेहाना ने अब्बू का हाथ पकड़कर उनको हिम्मत बंधाई।
‘ब्राह्मण जाति में कौन कहाऊंगा . . . मिसरा, चतुर्वेदी, बाजपेई, दिक्षित या . . . ’
मकसूद मियां आगे बढ़ते उससे पहले ही उन्हें जवाब मिल गया। सभा में बैठे उनके दोस्त रामसहाय अवस्थी जी ने बड़ी ही सहजता से कहा ‘अवस्थी . . . आज से आप हमारे समान अवस्थी हुए . . . ।’
पंचायत मारे उत्साह के गद्गदा गई।
‘और अवस्थी में कितने बिसुवे के . . . ’ मकसूद मियां के शांत चेहरे व स्थिर होंठों से एक सवाल और बाहर कूद पड़ा।
‘सबसे अधिक बिसुवे का अवस्थी बनायेंगे आपको . . . उपमन्यु गोत्र के साथ पूरे बीस बिसुवे का. . . यानि की प्रभाकर का अवस्थी . . . ’
एक बार बच्चे और जवान फिर चिल्ला उठे – ‘पंडित रामानंद अवस्थी की . . . जय ।’
अब क्या था ! मकसूद मियां बड़े ही उत्साह व आनंद के साथ सनातन धर्म का अंग बन गए। पूरे गाँव में त्योहार जैसा वातावरण छा गया। बाहर से आए लोग एडवोकेट सियाराम को उनकी जीत पर बधाई देने लगे। पंचायत ने पहले से ही सबके लिए दावत का इंतजाम कर रखा था। कारीगरों के हाथों में तेजी आ गई किंतु मकसूद मियां उर्फ पंडित रामानंद अवस्थी के चेहरे पर चिंता की रेखां अभी भी पूरी तरह से मिट नहीं पाई थीं।
‘अब तो मुस्कुरा दो मेरे यार . . . अब तो हम एक ही धर्म, जाति के रिस्तेदार बन गए हैं . . . या अब भी कोई जिज्ञासा शेष रह गई . . . अगर हो तो वह भी बता दो . . . ’
‘अमां मियां अब तो कुछ भी नहीं रह गया कहने को, सिवाय एक बात के . . .’
आस-पास खड़े हुए लोगों ने एक बार फिर से मकसूद मियां उर्फ पंडित रामानंद अवस्थी की ओर निहारा।
‘आप तो जानते ही हो रामसहाय . . . रेहाना के अलावा और कोई नहीं है मेरा इस दुनिया में . . . मैं बूढ़ा हो चला हूँ तो सोचता हूँ कि आज इस शुभ अवसर पर इस जिम्मेदारी से भी निजात पा लूँ . . . ’ अब्बू की नजर रेहाना पर गई तो मारे शर्म के उसकी निगाहें नीचे झुक गईं। रेहाना समझ गई थी कि अब्बू ने उसकी निगाहों को पढ़ लिया है।
‘हाँ तो कहते क्यों नहीं। अब तो तुम्हारी चिंता हमारी चिंता है। जो कुछ आप कहेंगे, हम सब उस पर आपके साथ खड़े हैं . . . ’ एडवोकेट सियाराम ने उत्साह बढ़ाया तो मकसूद मियां पहली बार चेहरे पर प्रशन्नता लाते हुए बोले – ‘वकील साहब हमारी ये रेहाना मिसरा जी के बेटे रघू से बेइंतहां मोहब्बत करती है। हम चाहते हैं कि इसका विवाह रघू से हो जाए तो हमारी सारी चिंता समाप्त हो जाए . . . ’
मकसूद मियां की जुबान से निकले शब्दों ने मानो पूरी पंचायत में सम्मोहन सा कर दिया हो। एकदम से सन्नाटा छा गया और इसी सन्नाटे को चीरती हुई मिसरा जी की बुलन्द आवाज दहाड़ती हुई मकसूद मियां पर बरस पड़ी – ‘साले मुल्ले अपनी जात भूल गया . . . अपनी मुल्ली को हमारे बेटे के साथ बांधने के सपने देखने लगा . . . अपना धर्म तो नसा रहा है हमारा भी नसाना चाहता है . . . हमने तो पहले ही मना किया था कि इस मुल्ले को सनातन धर्म में न शामिल करो, लेकिन . . . साला मुल्ला अपने जाति से बाज नहीं खाएगा . . . दोगलों की पैदाइस . . . ’
पल भर में ही पूरा वातावरण बदल गया। दो मिनट पहले वाला प्रेमभाव न जाने कहाँ खो गया एकदम ! मकसूद मियां सबके बदलते हुए चेहरे देखते रहे। कारीगरों के हाथ रुक गए थे। सभी उन पर बरस रहे थे। पहली बार मकसूद मियां को लग रहा था कि वह इस गाँव के नहीं हैं। पहली बार उन्हें मुसलमान होने की नवीन परिभाषा समझ आ रही थी।
कहीं दूर से आवाज़ आई – ‘अल्लाह हो अकबर अल्लाह . . . .।’ मगरिब की अज़ान का वक्त हो चला था। मकसूद मियां बेटी रेहाना को लेकर अपने घर की ओर चल दिए।
06/10/2016
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