नाट्य प्रयोगों के कुशल खिलाडी हैं इंजीनियर राजेश कुमार

नाट्‍य प्रयोगों के कुशल खिलाड़ी हैं इंजीनियर राजेश कुमार
 सुनील ‘मानव’

इंजीनियर राजेश कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनके कहानीकार / नाटककार / समीक्षक / आलोचक / निर्देशक / अभिनेता आदि अनेक रूप हैं।
‘‘राजेश एक व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि एक आंदोलन का नाम है वह जहाँ भी रहे हैं ,जिस शहर में भी रहे हैं वहीं उन्होंने एक नाट्य टीम का गठन किया है। स्वर्गीय श्री सफ़दर हाशमी के समानान्तर वह लगातार सक्रिय रहे हैं। देश के जिन-जिन शहरों में आप गए, वहाँ-वहाँ एक अमिट छाप छोड़ी।’’
पढ़ाई और नौकरी के तबादले के चलते वे विभिन्न शहरों की रंगमंचीय गतिविधियों में निरन्तर सक्रिय रहे हैं। भोजपुर की चर्चित नाट्य संस्था ‘युवानीति’, भागलपुर की ‘दिशा’ और अलीगढ़ की ‘दृष्टि’ के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे राजेश कुमार ने नाटक को हमेशा समाज से जोड़कर देखा। उन्होंने खुद को ‘रगंकर्म’ तक सीमित रखने के बजाय इर्द-गिर्द चल रहे आंदोलनों और सामाजिक गतिविधियों से जोड़कर रखा।
11 जनवरी 1958 को पटना (बिहार) में जन्में श्री राजेश जी की शिक्षा पिता जी के सानिध्य में हुई। उन्होंने भागलपुर इंजीनरिंग कॉलेज से बी.एस.सी. (इलेक्ट्रिकल इंजीनरिंग) किया ।
‘‘आरा (भोजपुर) की उर्वरा साहित्यिक भूमि और मधुकर सिंह, मिथलेश्वर, नवेन्दु और श्रीकान्त जैसे लोगों के साथ रहते हुए साहित्यिक और मंचीय अवधारणा अधिक विकसित और पुष्ट हुई। लेकिन शबाव पर आया भागलपुर में आकर ही। भागलपुर इंजीनरिंग कॉलेज में पढ़ते हुए राजेश कुमार ने भागलपुर की सांस्कृतिक गतिविधियों को एक नया मोड़ दे दिया। पांच साल तक की उनकी सक्रियता ने ‘दिशा’ के माध्यम से भागलपुर को एक नयी पहचान दी। नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में भागलपुर को मुख्य धारा से जोड़ने में बहुत बड़ी भूमिका रही है राजेश कुमार की। सच तो यह है कि राजेश कुमार जैसे सीमाहीन व्यक्तित्व से किसी स्थान को जोड़कर नहीं देखा जा सकता।’’
आपकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत एक कहानीकार के रूप में हुई। आपकी दर्जनों कहानियां ‘चुप रहने के लिए’, ‘एक तबादला और’, ‘इलाज’, ‘धोरा’,  ‘उठे हुए हाथ’, ‘मुक्ति बाबू’, ‘संगठित’, ‘एक अंतहीन सिलसिला’, ‘मदारी’, ‘पत्थरों के देश’ आदि-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं- ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘सक्रिय कहानी’, ‘पुरुष’, ‘कथन’, ‘कथादेश’ आदि- में समय-समय पर प्रकाशित होती रहीं। आपने प्रेमचन्द की ‘सवा सेर गेूहँ’, ‘पूस की रात’, ‘कफन’, ‘सद्गति’, ‘मनोवृति’ आदि-कहानियों का नाट्य रूपान्तरण भी किया है लेकिन आपकी सर्जनात्मक चेतना सीधे समाज से जुड़ना चाहती थी, जो कि कहानी से उतना संभव प्रतीत न होती दिखी, जिसके आप आकांक्षी थे। बहुत कुछ सार्थक और हटकर करने की आपकी दृढ़ इच्छा नाटकों और खासकर नुक्कड़ नाटकों की ओर गई।
चूँकि 1976 के आस-पास नुक्कड नाटकों की कोई सशक्त पहचान नहीं थी। नुक्कड़ नाटकों से जनता तो अपरिचित थी ही रंगकर्मियों में भी उहापोह की स्थिति थी। पहली बार आपने मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ का नाट्य-रूपांतरण नुक्कड़ों – गलियों - सड़कों पर प्रस्तुत किया। ‘दिशा’(भागलपुर), ‘अभिव्यक्ति’(शाहजहाँपुर) आदि संस्थाओं के बैनर तले आपके द्वारा निर्देशित / लिखित / अभिनीत नाटकों में ‘हमें बोलने दो’, ‘क्रेन’, ‘जिन्दाबाद-मुर्दाबाद’, ‘रंगा-सियार’, ‘कल्चर उर्फ चढ़ गया ऊपर रे’, ‘भ्रष्टाचार का आचार’, ‘जनतंत्र के मुर्गे’, ‘इक्कीसवीं सदी की ओर’, ‘जाति परमो धर्म’, ‘जमीन हमारी है’, ‘जाल’, ‘तलाश’, ‘सोने का मटका बनाम लाटरी का झटका’, ‘ये दोगले’, ‘अयोध्या’, ‘हम सब एक हैं’, ‘जनता पागल हो गयी है’ आदि सफल नुक्कड़ नाटक हैं।
‘‘नाटक में आम आदमी की भागीदारी के पक्षधर राजेश नाटक को कला की भूलभुलैया में भटकाने की बजाय सहज और स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने में  यकीन रखते हैं। जब नाटक को सीधे जनता तक ले जाने की जरूरत थी, उन्होंने उसे नुक्कड़ – सड़क - चैराहे पर उतरा।’’ इसके अतिरिक्त लगभग एक दर्जन पूर्णकालिक नाटक ‘झोपड़ पट्टी’, ‘गांधी ने कहा था’, ‘घर वापसी’, ‘हवन कुंड’, ‘मार पराजय’, ‘अंतिम युद्ध’, ‘आखरी सलाम’, ‘कह रैदास खलास चमारा’ आदि आपके लिखित / निर्देशित नाटक हैं, जो शाहजहाँपुर के साथ साथ देश के विभिन्न प्रान्तों / शहरों में मंचित हुए तथा बहुत सी प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ नाटक के खिताब से नवाज़े गए। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार पर सीधी चोट करने वाले आपके नाटक खूब चर्चित हुए तथा आलोचना और प्रत्यालोचना के केन्द्र भी बने। आपका मानना है कि ‘‘नाटक में जीवन्तता लाने के लिए कलाकारों में समर्पण की भावना का होना अति आवश्यक है। जब तक कलाकारों में नाटक के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव नहीं होगा, वह सही मायने में एक सच्चा कलाकार नहीं हो सकता।’’
पूर्णकालिक नाटकों के अतिरिक्त आपने भुवनेश्वर की ‘भेड़िये’, भगवतीचरण वर्मा की ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’, ‘पे्रमचन्द की ‘पूस की रात’, रेणु की ‘रसप्रिया’ तथा हरिशंकर परसाई की ‘वैष्णव की फिसलन’ आदि चर्चित कहानियों का एकल - नाट्य रूपान्तरण कर शाहजहाँपुर नाट्य - क्षेत्र में एक नया प्रयोग किया, जो बहुत ही सफल सिद्ध हुआ।
नुक्कड़ नाट्य पर आपकी दो पुस्तिकाएँ - ‘मोरचा लगता नाटक’ तथा ‘नाटक से नुक्कड़ नाटक तक ’- भी प्रकाशित हुईं। नुक्कड़ नाटक की विशिष्ठता पर प्रकाश डालते हुए आपने कहा कि ‘‘मंचीय नाटक के माध्यम से भी अपना अभीष्ट सिद्ध किया जा सकता है, लेकिन मंचीय नाटक की एक सीमा होती है, उस पर आने वाले खर्च बेरोजगार युवकों के लिए सहज नहीं और न ही प्रेक्षागृह तक अधिक–से-अधिक दर्शकों-खासकर जन-साधारण-को लाया जा सकता है। इस रूप में ही नुक्कड़ नाटकों की अधिक सार्थकता है। दिल्ली में बैठे हुए कुछ मठाधीश सरीखे लोग फतवा जारी करते हैं कि नुक्कड़ नाटक चुक गया है। मुझे कहना है कि जब तक नुक्कड़ रहेंगे ,नुक्कड़ों पर पनाह लेते लोग रहेंगे, नुक्कड़ नाटक खत्म नहीं होगा। अभी जरूरत है भ्रमित जनता को प्रचारवादी तंत्रों से बचने की। रंगकर्मियों को पार्टी और सत्ता से दूर रहना होगा, तभी वे ईमानदारी पूर्वक अपना अभिनय जारी रख सकते हैं।’’
आपने लोगों द्वारा कहा जाने वाला यह वक्तव्य कि ‘साहित्य-सृजन के लिए खासकर नाटक आदि के लिए बड़ी जगह चाहिए, बड़ा शहर चाहिए यह कह कर निर्मूल कर दिया कि ‘‘छोटे शहर में रहने से रंगकर्म छोटा नहीं होता बल्कि छोटा-बड़ा विचार और उद्देश्य से होता है। छोटे शहर के रंगकर्मियों को महानगरों के अभिजातीय रंगमंच का अंधानुकरण करने की बजाय स्पष्ट व मौलिक पहचान बनाने की आवश्यकता है। अपनी जमीन से जुड़ने की जरूरत है। यथार्थवादी, अति यथार्थवादी व असंगत शैलियों में अपनी रंगमंचीय उर्जा को बरबाद करने की बजाए आसपास की लोकशैलियों को लेकर आगे बढ़ना होगा।’’
भागलपुर, शाहजहाँपुर आदि छोटे शहरों की भूमि से जुड़े रंगकर्मी राजेश ने यह सिद्ध कर दिखाया कि प्रतिभा देशकाल, स्थान आदि से ऊपर होती है। शाहजहाँपुर के रंगमंच के इतिहास में आपका नाम स्वार्णाक्षरों से अंकित किया जाएगा।

अपनी नौकरी के तबादलों के चलते शाहजहाँपुर आए इन्जीनियर राजेश कुमार सन्‍ 1996 से 2006 तक ‘अभिव्यक्ति नाट्‍य मंच’ के माध्यम से शाहजहाँपुर रंगमंच से जुड़े। यहाँ रहते हुए उन्होंने अनेक पूर्णकालिक नाटक, एकल, नुक्कड़ आदि लिखे, निर्देशित और अभिनीत किए। शाहजहाँपुर रंगमंच पर अपनी ‘जनवादी सोच’ के तहत उन्होंने कई नवीन प्रयोग किए। प्रस्तुत साक्षात्कार मैंने उनसे शाहजहाँपुर में होने के समय लिया था। उनसे बातचीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं -

सुनील ‘मानव’ : अक्सर कहा जाता है कि छोटे शहर का रंगमंच छोटा होता है। चूँकि आप अधिकांशत: छोटे शहर के रंगमंच से ही जुड़े हैं, इस संबंध में आपका क्या मानना है? शाहजहाँपुर के रंगमंच को ध्यान में रखते हुए बताइए।
राजेश कुमार : यह गलत कहावत है कि छोटे शहर का रंगमंच छोटा होता है। छोटे-बड़े का फर्क उसके उद्देश्य के छोटे-बड़े से होना चाहिए। मेरे रंगकर्म का लम्बा समय छोटे शहर में ही बीता है और इस दौरान जो मैंने करीब से देखा है प्रतिबद्धता है, वह बड़े महानगर के रंगकर्मियों में कम दिखती है। लखनऊ, भोपाल या दिल्ली के रंगकर्मियों पर दृष्टि डालें तो आप पायेंगे कि वे खुद को ज्यादा ‘प्रोफेशनल’ बताते नहीं थकते। ‘प्रोफेशनल’ शब्द उस अर्थ में इस्तेमाल करते हैं कि उनके अभिनय की कीमत अगर कोई संस्था अदा करने की स्थिति में हो तो उनका उपयोग कर सकती है। ऐसे ‘प्रोफेशनल’ कलाकारों का नाटक की विचारधारा व उद्देश्य से कोई सरोकार नहीं होता। इधर छोटे शहर में जो रंगकर्मी आते हैं, नाट्‍य संस्थाओं से जुड़ते है, उनका मकसद पैसा कमाना कभी नहीं होता। वे नाटक के माध्यम से कहीं न कहीं अपने आप को समाज से जोड़ते है। समाज में अगर थोड़ा सा भी योगदान कर सकें तो वे इसे महत्त्वपूर्ण समझते हैं। इसी का परिणाम यह देखाने को मिल रहा है कि बड़े शहरों में ‘प्रोफेशनिलिज्म’ के चक्कर में थियेटर ‘हास्य कवि सम्मेलन’ या ‘लाफ्तर शो’ जैसा बनता जा रहा है, जबकि छोटे शहर का रंगमंच कलात्मक स्तर पर मजबूत दिखाई देता है। वहीं से कुछ नया निकलता जान पड़ता है। मौलिकता की संभावना भी उसी तरफ नजर आती है। इसलिए छोटे शहर का रंगमंच छोटा नहीं, बहुत बड़ा है। हमें इसका सम्मान करना चाहिए।

सुनील ‘मानव’ : शाहजहाँपुर रंगमंच पर आपने ‘एकल नाट्‍य विधा’ पर काफी काम किया है। इसका कोई विशेष मकसद रहा?
राजेश कुमार : ऐसा नहीं कि मैंने कोई प्रयोग या चर्चा में आने के लिए इस विधा पर जोर दिया, जो लोग सोचते हैं वे गलत सोंच रहे हैं। यह विधा काफी पुरानी है। आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व के नाट्‍य–साहित्त्य पर दृष्टि डालें तो हर प्रांत में एकल जैसी विधा किसी न किसी रूप में मिलेगी। अलग-अलग नामों से। संस्कृत व लोक नाटकों में इस तरह की विधा की खूब चर्चा है। कभी-कभी किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त कोई रंगकर्मी इस तरह की नाट्‍य घटनाओं को बिना जाने-समझे मूर्खतापूर्वक बयान दे डालते हैं कि इस तरह के नाट्‍य प्रयोगों से नाटकों को छति पहुँचेगी। ‘एकल’ जैसे नाट्‍य-प्रयोग रंगकर्म के हित में नहीं हैं। मेरा मानना है कि कोई भी नाट्‍य विधा अगर सम्प्रेषणीयता में बाधक नहीं है, समाज को गलत दिशा की तरफ नहीं ले जा रहा तो उसका स्वागत करना चाहिए। लकीर का फकीर नहीं होना चाहिए। इसी तरह का प्रहार कलावादियों ने ‘नुक्कड़ नाट्‍य आन्दोलन’ पर भी किया था। तरह-तरह के अनर्गल प्रलाप किए थे। लेकिन आज क्या है, प्रशासन के पिट्ठू ‘कला कला के लिए’ मानने वाले हितैसी इसी विधा को अपनाए हुए हैं। जगह-जगह अपने पक्ष में नुक्कड़ नाटक करते-फिरते हैं। ‘एकल नाटक’ नुक्कड़ नाटक की ही एक कड़ी है, बल्कि उसके आगे की भी कह सकते हैं। इस विधा के लिए ना किसी प्रकार के ताम-झाम की जरूरत है, ना अधिक खर्च की। कहीं भी किसी रूप में एकल नाटक किया जा सकता है। जरूरत है तो केवल धारदार सोंच की , जो समाज के लोगों के बीच हो और करने वाले कलाकार के पास हो व्यापक दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य। फिर अभिनेता के लिए आंगिक, वाचिक, आहार्य व सात्विकता सहज और सरल हो जाता है।
आज इस प्रयोग में स्थानीय स्तर से आगे बढ़कर व्यापक रूप धारण कर लिया है। रोज कहीं न कहीं इस तरह के नाटक होने की खबर सुनने-पढ़ने को मिलती है। हर तरफ इस तरह के नाट्‍य लेखों की माँग है। यह एक सुखद संकेत है।

सुनील ‘मानव’ : आधुनिक रंगमंच में उपन्यास, कहानी और कविता पर तो काफी-कुछ रंगमंचीय प्रयोग हो चुके हैं और हो रहे हैं, लेकिन आप जो लेख का मंचन कर रहे हैं उसकी क्या अवधारणा है?
राजेश कुमार: किसी भी विधा को किसी चौखाटे या फ्रेम में बांधना संभव नहीं है। बांधने से उसकी स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है। सबकी तरह ही इसकी प्रवृत्ति होती है। जितना अधिक खुलापन रहेगा, संभावना उतनी ही ज्यादा होती है। नाटक ने अपनी कई सीमाओं को तोड़ा है। उपन्यास, कहानी व कविता का रंगमंच इसी ‘खुलेपन’ का परिणाम है और इसी रास्ते से लेख ने भी प्रवेश किया है। कहने को कोई कह सकता है, कहानी, उपन्यास में ऐसे अनेकों तत्त्व हैं जो नाटक में होते हैं लेकिन लेख में भी ऐसे अनेकों तत्त्व हैं जो नाटक में होते हैं। लेख में तो न कोई कथानक होता है, न कोई आकर्षक भाषा संचक घटनाएं। फिर इसका मंचन कैसे संभव है? लेकिन नाटक का मतलब केवल कहानी, घटना, पात्र नहीं होता है। केवल इन्हीं तत्त्वों से दर्शकों को बांधा नहीं जा सकता है। आज हम देखते हैं कि लोग अपने ओजस्वी वचनों से घण्टों स्रोताओं को बांधे रख सकते हैं, राजनेतिक नेता, धार्मिक गुरू आदि अपने प्रभावशाली भाषणों, उद्धरणों एवं चुटीले संवादों के माध्यम से दर्शकों को अपनी तरफ आकर्शित किए रहते हैं। इसकी कोई वजह तो होगी। और तलाशें तो सारी वजह अभीनय में है। अगर अभिनेता के पास सशक्त वाचिकता हो, भावपूर्ण आंगिक-सामाजिक आहार्य व सात्विकता हो तो वह भी किसी विधा को प्रभावशाली ढ़ंग से प्रस्तुत कर सकता है।
कभी-कभी ऐसा वक्त आता है जब लगता है दर्शकों और अभिनेता के बीच कोई दीवार न हो। जो साफ हो। सातवें-आठवें दशक के समय नुक्कड़ नाटक का नया व्याकरण रचा था। उस पर सपाट बयानी, भाषणवाजी व राजनीतिक प्रतिबद्धता का आरोप लगता रहा। पर जिस उद्देश्य हो लेकर जनता के बीच उतरा था, वह सफल रहा था। ‘लेख का मंचन’ भी इसी क्रम की अगली कड़ी है। जो लोग नाटक में पूर्ववत्‍ रूपों के देखने के आदी हैं, उन्हें जरूर झटका लगेगा। पर अभिनेता अगर जनता के बीच लेख के असली तथ्य को ले जाने में सफल रहा तो वह उतना ही सफल समझा जाएगा। जैसा कि दूसरे नाटक ‘सम्प्रेषणीयता’ जरूरी है और इसी को ध्यान में रखकर लेख का मंचन करना होगा। इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात बताना चाहता हूँ कि एक बार एक ही दिन दस मिनट के अंतराल में एक कहानी का मंचन किया और एक लेख का। दोनों का विषय साम्प्रदायिकता था। पर आश्चर्यजनक परिणाम यह मिला कि दर्शकों को गोधरा के मुद्दे पर हर्षमंदार के लिखे के मंचन ने जितना गहराई से झकझोरा उससे कहानी के मंचन ने जरा कम ही। यह घटना भविष्य में रंगकर्मियों को जरूर इस तरफ करने के लिए आकर्षित करेगी और नए-नए प्रयोगों की संभावनाओं को बल देगी। नि:संदेश इस तरह के प्रयोग में अभिनेता से ‘वाचिकता की पारंगता’ अपेक्षित है। आंगिक अभिनय के नए आयाम खोजने होंगे। तभी लेखों की पंक्तियों व वर्णित घटनाओं में नाटकीयता का समावेश किया जा सकता है। और यह नाटकीयता दर्शकों को वही रस प्रदान करेगी जो कथानक वाले नाटक करते हैं।

सुनील ‘मानव’ : आजादी के पूर्व या आपातकाल के दौरान रंगकर्म के क्षेत्र में जो धारा देखने को मिलती थी अब नहीं दिखती। उसका क्या कारण है?
राजेश कुमार : साम्राज्यवाद व भूख-गरीबी जैसे सवालों को लेकर नाट्‍य संगठनों ने जिस तरह पूरे देश में एक सांस्कृतिक अलख जलाई थी, वह आजादी के बाद बरकरार नहीं रह सकी। सत्ता के प्रति मोह ने भी इस आंदोलन की धार को काफी कुंद किया है। आपातकाल के समय सत्ताधारियों ने जिस तरह देश की जनता पर जुल्म ढ़ाये, बेरोजगार युवकों पर लाठी-गोलियां बरसाईं, उसने देश के प्रगतिशील जनवादी संस्कृतिकर्मियों को एक प्लेटफार्म पर आने को विवस किया। वह स्वर प्रतिरोध का था। हर स्तर पर आंतंकी सरकार का विरोध हुआ। नुक्क्ड़ नाटक के इस आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद जब प्रगतिशील जनवादी पार्टियों को उन्हीं पूँजीवादी सामंती पार्टियों से कुर्सी की होड़ में हाथ से हाथ मिलाते देखा तो रंगकर्मियों के अंदर एक निराशा, हताशा का आना स्वाभाविक था। जब उसका आदर्श ही टूट गया तो आंदोलन का बिखरना निश्चित था। फलत: कुछ तो टूट गये, सत्ता के साथ हो लिए। इसलिए कहने में कोई संतोष नहीं कि प्रतिरोध का रंगमंच आज बहुत कम दिखता है। मुख्य धारा में बुर्जुआती थियेटर ही है। हर पत्रिका, हर मंच पर इसी थियेटर का कब्जा है। प्रतिरोध का रंगमंच आज हासिये पर है। कोई उस पर बात ही नहीं कर रहा है। न जरूरत समझता है। जबकि देश के कई प्रांतों में प्रगतिशील जनवादी सरकारें सत्ता में हैं तथा कई प्रांतों में सहयोग रूप में हैं। ऐसा भी नहीं प्रतिरोध का रंगमंच बिलकुल समाप्त हो गया। ये अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग संगठनों के रूप में काम कर रहे हैं। जरूरत है इन्हें एक व्यापक रूप देने की। एक बड़ा प्लेटफार्म बनाने की और यह कार्य करने के लिए जरूरी है आपसी मतभेदों को भुलाकर पार्टी लाइफ को थोड़े समय के लिए किनारे रखकर एक बहुत बड़े मकसद के लिए परस्पर जुड़ना, जिसमे जनता की भलाई है। अगर ऐसा न हुआ तो वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया देश में चल रही है और जिस तरह इसने अन्य घटनाओं को ग्रस लिया है, वह दिन दूर नहीं जब जन-संस्कृति को भी अप-संस्कृति में बदल दें।

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