बच्चूलाल



जो भी बच्चूलाल के बनाए हुए बर्तनों को देखता बस देखता ही रह जाता और उन्हें खरीदने के मोह से अपने को बचा नहीं पाता था। ऐसा होता भी क्यों ना! . . . चूँकि गाँव में और भी कई लोग बर्तन बनाते थे लेकिन काम के प्रति जो लगन और एकनिष्ठता बच्चूलाल के काम में दिखाई पड़ती थी वह औरों में देख पाना जरा मुश्किल ही था।
किसी ने उनको कभी खाली बैठे नहीं देखा था। बस वे इसी में लगे रहते थे कि किस प्रकार उनके बर्तनों में और भी सुघड़ता और कसाव आ जाए। रात से भीग रही मिट्टी के गारे को गलियाना  और गलियाई जा चुकी मिट्टी का ठेर बनाकर उसे बार-बार एक आधे चांद की आकृति के लोहे के हसिए से महीन से महीन बनाने में ही उनकी सुबह की पूजा का आरंभ होता था। सुबह तड़के ही वह इस काम में लग जाते थे। दो-तीन घण्टे तक मिट्टी बनाने के बाद ही कहीं जाकर वह चाय पीते थे और रात की रखी हुई दो रोटियां, जो बेलामती सरसों के तेल और लहसुन-प्याज के नमक से चुपड़ कर देती थीं, भी खाते थे। इस तरह सुबह के नाश्ते के बाद आरंभ होता था उनका बर्तन बनाने का असली काम। सबसे पहले वह चाक को छूकर अपने माथे से लगाते, हाथ जोड़कर मन ही मनकुछ बुदबुदाते और फिर चाक घुमाने की लकड़ी उठाकर माथे से लगाते थे। इसके बाद लकड़ी से चाक को तेजी से घुमाते। चाक जब अपनी पूरी रफ्तार से घूमने लगता तो बच्चूलाल उस पर पास ही में रखी मिट्टी की लोंद रखते और हाथ में पानी लगाकर मिट्टी की लोंद को इस तरह हाथों के बीच दबाते कि देखते ही देखते हाथों के ऊपर एक सुन्दर प्याली, एक सुन्दर चुग्गण अथवा कोई न कोई बर्तन उभरने लगता। बर्तन जब पूरी तरह से अपनी आकृति ले लेता तो एक छोटी लकड़ी, जिसमें एक धागा बंधा होता था, से उस बने हुए बर्तन को काट कर पास ही में रखी लकड़ी की पटरी पर रख देते। यह क्रम तब तक चलता रहता जब तक बर्तनों के लिए बनाई गई मिट्टी खत्म नहीं हो जाती। इस काम को करने में उन्हें काफी देर लगती थी। कई दिनों तक यह प्रक्रिया चलने के बाद जब पर्याप्त मात्रा में बर्तन इक्ट्ठे हो जाते तब जाकर कहीं आवा लगता था बर्तनों को पकाने के लिए। जब आवे से बर्तन पक कर निकलते तब बच्चूलाल के चेहरे की खुशी देखने लायक होती थी।
सबसे ज्यादा तल्लीनता मैंने उनके चेहरे पर तब देखी जब वह राब रखने की कस्सी  बनाते थे। चाक पर मिट्टी को एक आकार देने के बाद वह करसी को अपने दोनों पैरों के बीच रखकर बड़े प्यार से एक हाथ में कपड़े का जूना और दूसरे हाथ में लकड़ी का मुट्ठा लेकर उस कस्सी को तरासते थे। कपड़े का जूना एक हाथ से कस्सी के अंदर लगाते और दूसरे हाथ में लिए लकड़ी के मुट्ठे से ऊपर से धीते-धीरे ठोंकते थे। एक-एक कस्सी बनाने में न जाने कितना समय लगता था लेकिन बच्चूलाल का धैर्य उत्साह का रूप धारण करता जाता था और जब तक कस्सी पूरी तरह से बन नहीं जाती तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता था। इसके बाद उस कस्सी को सुखाया जाता था। थोड़ा सुखाने के बाद दोबारा फिर ठोंका जाता था। कई बार की इस प्रक्रिया के बाद कहीं जकर कस्सी पूरी तरह से बनकर तैयार होती थी। कबीरदास जी ने संभवत: बच्चूलाल को ही देखकर यह उपमा दी होगी कि –
‘गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
                   अंदर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट॥’
बच्चूलाल के बनाए हुए बर्तन आस-पास के कई गाँवों से लोग लेने आया करते थे। शादी हो या और कोई काम-काज जब मिट्टी के बर्तनों की बात आती थी तो सबको बच्चूलाल ही याद आते थे। चूँकि उस समय प्लास्टिक का चलन उतना नहीं था इसलिए मिट्टी के बर्तनों की काफी माँग थी। हमारे गाँव के लोग हो, बबरौआ के सनाढ्‍य ब्राह्मण हो अथवा रायपुर, गोरा, बांसुकपुर आदि दूर-दराज गाँवों के मुस्लिम, सब बच्चूलाल से ही मिट्टी के बर्तन लेने आया करते थे।बच्चूलाल की बर्तन बनाने का यह संस्कार शायद ही कभी रुकता हो। वह हमेशा अपने काम में व्यस्त रहते थे। बेलामती उनके काम में उनका हाथ बटाती थीं।
मैं अक्सर कुछ अवसरों पर उन्हें बिना किसी के कहे घर-घर दिए और ‘चुकरियां’ पहुँचाते देखता था – दीपावली पर, सत्यनारायण की कथा हो अथवा किसी के घर शादी-ब्याह होने पर। पहले दो अवसरों पर वह किसी से कुछ माँगते नहीं थे लेकिन शादी-ब्याह के अवसर पर उनकी पत्नी बेलामती बिना मन-माफिक नेग लिए नहीं छोड़ती थीं।
दीपावली वाले दिन बच्चूलाल जहाँ बर्तन देने आनगाँव  चले जाते थे वहीं बेलामती गाँव के घर-घर जाकर ‘दिया-चुकरियां’ देती थीं। इसके बदले उन्हें नई कटी फसल के धान-चावल मिल जाया करते थे। वस्तु-विनिमय का यह एक बेहतरीन उदाहरण था। उस समय मोमबत्ती कोई नहीं जलाया करता था और लाइट न होने के कारण इलेक्ट्रिक झालरों का प्रयोग भी नहीं था, इसलिए बच्चूलाल के बनाए हुए दियों की रोशनी कई गुना ज्यादा हो जाती थी। गाँव में एक साथ इतना बड़ा त्योहार मनाया जा रहा है और जिसे रोशन कर रहे हैं बच्चूलाल के ‘दिये’।वास्तव में पूरे गाँव को एकता के सूत्र में बाँध देते थे बच्चूलाल के दिए। आज न तो बच्चूलाल हैं और न ही उनके बनाए दियों की रोशनी। दियों का स्थान अब मोमबत्ती और लाइट की झालरों ने ले लिया है। चूँकि अब बच्चूलाल के घर कोई मिट्टी के बर्तन नहीं बनाता है सो यह काम अब ‘पिमई’ का मझला लड़का ‘रमसरुआ’ ही करता है। लेकिन उसके काम में न तो वह तल्लीनता है और न ही वह समर्पण।
ऐसे ही सत्यनारायण की कथा पर होता था।बेलामती अपने आप से ही उस घर में ‘दिया-चुकरियां’ लेकर पहुँच जाती थीं। यहाँ भी उन्हें कुछ न कुछ आनाज ही मिलता था।
मेरे छोटे चाचा की शादी थी जब मैंने वह पैर से दिए तोड़नेवाली रिवाज अपनी आँखों से देखी थी और देखा था बेलामती को हँस-हँसकर लड़ते हुए जिया से –
“.....नाइं जिज्जी आजु न कहबाबउ कुछू......आजता हम बिना मन माफिक नेगु ले एकउ कदमु नाइं बढ़ाउन दिहीं लल्लाक......” बेलामती ने उल्टे रखे हुए दियों पर हाथ की छाया कर ली।
“......अरे बेलामती हटउता पहिले...........मिलिही.......सबु मिलिही जो तुम मंगती हउ.......सबु मिलिही..” जिया ने उन्हें मनाते हुए कहा था।
“अरे बेलामती आजु कतई ना छुड़िअउ..... आखिरी लड़िका कु बिहाउ हइ ......” पीछे से किसी औरत ने हँसकर बेलामती का पक्ष लिया तो वहाँ खड़े सब लोगों ने भी बेलामती का पक्ष लिया। अब तो जिया को मनमाँगा नेग देना ही था। उन्होंने इक्कीस रुपये निकाल कर दिए तो बेलामती ने एक बार फिर लेने से इंकार कर दिया।
“........इत्तेम कामु नाइं चलिहइ जिज्जी........पहिले एक धोती-बिलाउजु और अपने आसाराम के अप्पाकि ले कुरता-पइजामा कु कपड़उ देउ.........हां नाहिंत....” बेलामती अड़ गईं सो अड़ गईं।
बारात शाहजहाँपुर जानी थी और समय ज्यादा हो चुका था इसलिए पीछे से बारात के मुखिया बड़े चाचा ने हँसते हुए उनकी माँग पूरी होने का आश्वासन दिया। तब कहीं जाकर बेलामती ने जिया से वह इक्कीस रुपये लिए और दियों से अपना हाथ हटाया।
वास्तव में बड़ा ही मनमोहक होता था वह दृष्य। दूल्हा सबके साथ घर से निकल कर जन्डैल सिंह और महिन्दर सिंह के घर के बीच बने कुंये के सात फेरे लगाता था और प्रत्येक चक्कर में हाथ में ली हुई आटे की गोलियों से बिंधी एक सींक कुंए में डाल देता था। इसके बाद उसकी माँ या दादी अपना एक पैर कुंए में लटकाकर बैठती थी, जिसे दूल्हा यह प्रतिज्ञा करते हुए उठाता था कि ‘वह जीवन भर उनकी सेवा करता रहेगा, कभी पत्नी के बहकावे में नहीं आएगा, इत्यादि’। और इसके बाद नम्बर आता था बच्चूलाल के बनाये हुए दिए कुचलने का।बेलामती कुंए के पास ही एक पंक्ति में सात कच्चे दिए रख देती थीं जिन्हें कुचलकर दूल्हा आगे बढ़ता था और बारात के साथ चला जाता था।इन कुचले हे दियों को दूल्हे की माँ अपने पल्लू में रखकर घर ले जाती थी और रात में जब औरतों का ‘सुहांग’  होता था उसमें इन दियों के माध्यम से लड़की वालों को तरह-तरह के मनुहार भरे उलाहने दिए जाते थे। इस ‘सुहांग’ के दौरान दूल्हे की माँ अन्य औरतों को वह मिट्टी के कच्चे दिए देकर अपना आनन्द प्रकट करती थी कि –‘देखउ जिज्जी जअउ हमारे लल्लालि ससुरारिसि आओ हइ.....इत्तो दअइजो लअइके आई है हमारी बहूं....” आदि।
वास्तव में बच्चूलाल के बनाए मिट्टी के बर्तनों में एक ऐसी सजीव शक्ति जीती थी जो अनायास ही हमारे दिलों को आपस में जोड़ देती थी। आज इन सबका प्रचलन बंद हो गया है तो ऐसा लगता है जैसे संवेदना का वह तार भी मानों टूट-सा गया है।
बच्चूलाल पूरे सालभर बर्तन बनाते थे। गाँव-आनगाँव में तो सब उनसे वह बर्तन ले ही जाते थे, खासकर वह उन बर्तनों को एक खास मकसद से भी बनाया करते थे। यह खास मकसद हुआ करता था पलिया में लगने वाला कतिकी  का मेला। मेरे घर पर नया-नया ट्रेक्टर आया था सो बच्चूलाल चाचा के पास आकर कहने लगे कि उनके बर्तन मेले तक पहुँचा दें। चाचा ने उनकी बात मान ली। प्रमोद चाचा ट्रेक्टर चलाया करते थे और मुझे चलाने का काफी सौक था, इसलिए मैं भी उनके साथ हो लिया। पलिया के मेले में पहुँचा तो देखा वहा एक से एक दुकाने थीं मिट्टी के बर्तनों की। बच्चूलाल थोड़ा मायूस होते हुए चाचा से बोले – “अबकी ता पूरी मिहिन्ति खालीय चली गअइ लल्ला.........” एक लम्बी सांस खींचते हुए वह आगे बोले –“......पता नाइं अबकी ढुबाईउकु खच्चा नाइं निकरिही......”
“....नाइं निकरिही ता का हुइ जअइही.....हमइं ना दिअउ कुछू.......” चाचा ने उनसे हँसकर कहा।
चाचा को मालूम था कि हर बार ऐसा ही होता है। इस मेले में दूर-दूर से लोग मिट्टी के बर्तन लेकर आते हैं और इसी तादात में आते हैं। बच्चूलाल भी हर साल इतने ही बर्तन लेकर आते हैं और सबके-सब बर्तन बेंचकर ही वापस जाते हैं।
“....उइसे तुम्हारे बर्तन इत्ते अच्छे हइं कि मेला खातम होति-होति एकु बर्तनु नाइं बचिही।.....” चाचा के ऐसा कहने पर बच्चूलाल के माथे पर गर्व की रेखाएं मुस्कुराने लगीं। तुरन्त ही उन्होंने हमें दस का एक नोट निकाल कर दिया और बोले– “जाउ लल्ला मेला घूमि आबउ........लेउ जइ पैसा टीक्की-उक्की खाइ लिअउ...” चाचा मना ही करते रहे लेकिन उन्होंने मेरे हाथ में दस का नोट पकड़ा ही दिया और बेलामती के साथ बर्तन उतारने में लग गए। वास्तव में जब बच्चूलाल मेले से वापस आते थे तो उनके पास एक भी बर्तन नहीं बचता था।
वास्तव में बच्चूलाल के वह बर्तन उनके हुनर और तल्लीनता की मिसाल थेऔर मिसाल थे हमारे गाँव की संवेदनात्मक एकता के। आज यह संवेदना समाप्त होती जा रही है और भुरभुरा रही है हमारी एकता भी।
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बच्चूलाल का घर मेरे घर से एकदम पीछे ही है। वैसे यह उनका पुस्तैनी घर नहीं था। वह अपनी ससुराल में रहते थे, क्योंकि बेलामती अपने माँ-बाप की अकेली औलाद थीं; इस कारण उनके पिता ने अपने लड़की-दामाद(बेलामती और बच्चूलाल) को अपने घर पर ही रख लिया था।बेलामती और बच्चूलाल के छ: बच्चे आज मेरे सामने हैं। तीन लड़के और तीन लड़कियां। बड़ा लड़का हरद्वारी, मझला वाला सिर्रमा और छोटा बाला असुआ।इसी क्रम मे तीन लड़कियां भी - रमसिरिया, सरबतिया और सुखरनिया।
बच्चूलाल हमेशा खुश रहते थे। सभी से हँसकर बात करते और राम-गुहार करते रहते थे। बच्चूलाल ने शायद ही किसी के खेत से एक पत्ती या एक बाली भी तोड़ी हो सो ऐसे ईमानदार बच्चूलाल के घर में चोरी का वातावरण कब बन गया उन्हें खुद भी पता नहीं चला। इस बात का पता तो उन्हें उस दिन चला जिस दिन उनके बड़े बेटे हरद्वारी को पुलिस पकड़ने आई। हरद्वारी फरार! कुछ अता-पता नहीं उसका, लेकिन ‘बाप-महतारी की आत्मा’ का उस समय क्या हाल होगा यह तो बच्चूलाल और बेलामती से ज्यादा कोई नहीं जानता था। जिन बच्चूलाल को गाँव के किसी भी व्यक्ति ने आज तक एक उल्टा शब्द नहीं कहा था उन्हें आज पुलिस वाले माँ-बहिन की गाली दे रहे थे। पूरे गाँव के जमघट के बीच पुलिस से तरह-तरह की गालियां खाते बच्चूलाल उस समय पल-पल मर रहे थे। उनकी सारी मान-मरजाद आज बही जा रही थी। प्रेमचंद के होरी ने जब अपनी छोटी बेटी को दुहाजू के साथ कुछ रुपए लेकर ब्याह दिया था तब वह जो महसूस कर रहा था वही आज बच्चूलाल महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था जैसे ‘अमिलिया तीर’ उन्हें खड़ा कर दिया गया हो और पूरा गाँव एक साथ उन पर थूक रहा हो। दूसरी ओर बेलामती का तो रो-रोकर बुरा हाल हुआ जा रहा था। असल में हरद्वारी अपने कुछ दोस्तों के साथ पास के ही पेट्रोल पंप से जरनेटर खोल लाया था, जिसका भेद आज खुल गया था। जरनेटर बरामद कर लिया गया था। दो चोर भी पकड़े गए थे लेकिन हरद्वारी और एक दूसरा भाग निकले थे। पुलिस वाले मेरे ट्रेक्टर से जरनेटर, दोनों चोरों के साथ बच्चूलाल को भी बिठा ले गए। बच्चूलाल कि जैसे सन्निपात हो गया हो। एकदम चुप हो गए थे वह उस समय। खैर उन्हें जैसे-तैसे करके छुड़ाया गया और अगले दिन किसी नेता के प्रभाव के साथ पेश करा दिया गया।
बच्चूलाल घर आ गए थे लेकिन बेटे पर पड़ने वाली पुलिस की मार हरद्वारी का शरीर ही तोड़ रही थी लेकिन बच्चूलाल की आत्माआज तार-तार टूट रही थी। सभी परेशान थे। पूरे गाँव के लिए यह घटना बेज्जती की प्रतीक बन गई थी। बच्चूलाल के साथ उस समय जैसे पूरा गाँव ही गमगीन हो गया हो।
यह होली का समय था, जब पूरे गाँव में ‘धमार’ की ढोलक की गमक गूँजती थी। इस बार यह गमक सबके दिलों पर हथौड़े का प्रहार कर रही थी। खैर किसी प्रकार से हमारे गाँव के प्रधान जी और पास-पड़ोस के लोगों की सहायता से गाँव के लोगों ने खास होली के दिन हरद्वारी और अन्यों की जमानत करवा ली। शाम को जब हरद्वारी हमारे घर पर आया तो आत्मग्लानि के मारे किसी से आँखे नहीं मिला पा रहा था। सभी उसे समझाते हुए सान्त्वना दे रहे थे। वह मारे शर्म के जमीन में गड़ा जा रहा था। जब वह अपने आप को रोक नहीं पाया तो आखिर रो पड़ा।
इस घटना के बाद बच्चूलाल काफी टूट से गये थे। उनके दिलो-दिमाग में पुलिस वालों की गालियाँ हर समय घुमड़ती रहती थीं, ऐसा उनके चेहरे से लगता था। इसके बाद उनके घर का माहौल जो बिगड़ा तो बिगड़ता ही गया। लड़कों में आपसी लड़ाई आरंभ हो गई।कई बार देखने में आया कि हरद्वारी और सिर्रमा आपस में लड़ रहे हैं और बच्चूलाल-बेलामती उन्हें बचा रहे हैं। ऐसे में अक्सर लड़के उन्हें भी गालियाँ देने लगते थे, लेकिन अब बच्चूलाल पर गालियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।उनके मनोमस्तिष्क से प्रतिष्ठा का साम्राज्य समाप्त हो चुका था।उनके मन में यह एक बात बस गई थी कि पूरे गाँव के सामने उनकी नाक कट गई, अब इससे ज्यादा उनकी क्या बदनामी हो सकती है। किसी के सामने निकलना उन्होंने कम ही कर दिया था, सामने पड़ जाने पर भी कम ही आँख मिलाते थे।
बच्चूलाल अब बीमार रहने लगे थे, काम में भी उतना मन नहीं लगता था। वास्तव में उनकी एकाग्रता भंग हो गई थी। इस बार जब वह मेला गए तो उसके आधे बर्तन भी नहीं बेंच पाए जितने हर बार बेचते थे।रस समाप्त हो गया था तो झोंतर कब तक बचता। धीरे-धीरे बच्चूलाल काफी कमजोर हो गए थे। इस दौरान मैं तो बाहर चला आया था, लेकिन उस दिन जब उनकी मत्यु की सूचना मिली तो छल्ल से आंसू अपने आप बाहर आ गए और उनकी आकृति सामने आकर खड़ी हो गई –कमर में तहमल बांधे, गहरे सांवले रंग का एक व्यक्ति जो बड़ी तल्लीनता के साथ चाक चला रहा है। उसके हाथ जैसे अपने आप ही चाक पर मिट्टी को कई-कई आकारों में गढ़ रहे हों। एक पूरा चलचित्र उपस्थित हो गया आँखों के सामने।
आज गाँव में बच्चूलाल नहीं है। काफी समय हो गया उनको मरे हुए, लेकिन आज भी जब दीपावली पर ‘पिमई’ का लड़का ‘रमसरुआ’ घर पर ‘दिए’ देने आता है तो बच्चूलाल की स्मृति एक बार अवश्य आ जाती है। आज पूरे गाँव में पक्के कमरे बन गए हैं। लोग पहले से ज्यादा सम्पन्न हो गए हैं। प्रत्येक घर मोमबत्ती और बिजली की झालरों से जगमगाता है लेकिन बच्चूलाल के बनाए उन दियों की चमक गाँव में नहीं दिखती है। आज मिट्टी के उन दियों में तेल खत्म हो रहा है, जिससे हमारा पूरा गाँव बँधा था। आज लोग ज्यादा हैं, पैसा ज्यादा है, रोशनी ज्यादा है, लेकिन अगर कुछ नहीं है तो महज बच्चूलाल के बनाए उन दियों का प्रकाश। तुम कहाँ चले गए बच्चूलाल! तुम्हारे बिना अधूरा है हमारा गाँव।
(25.12.2012)

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