बंधूलाल ढोलकिया
. . . और देखते-देखते ही वह स्मृति-शेष बनकर हमारे अंतस्तल में समा गये। इनकी
कहानी बहुत करीब से आरम्भ होती है। एकदम मेरी आँखों के सामने से। . . . और वहाँ तक
पहुँच जाती है जहाँ उनकी कला की तूती बोलती थी। उनका वह उफनाता हुआ जीवन दादा-दादी
की कहानियों का अद्भुत स्वरूप धारण कर मेरे सामने आया था। . . . तब जब मैंने बहुत
करीब से उनको और उनकी कला को बिखरते देखा था। तार-तार होती संवेदनाओं को पिघलते
देखा था।
मेरे हृदय में उनकी छवि का विकास अभी. . . यही इक्कीसवीं सदी से ही बनना आरम्भ
हुआ था। पर वहाँ तक पहुँचा था जहाँ मैं नहीं, मेरी संवेदनायें नहीं थीं। महज कुछ
बातें थीं जो दादा-दादी और उनके हमउम्रों से सुनी थीं। साथ ही उनके अंत में उनके
आस-पास के वातावरण से समेटी थीं।
. . . तो बंधूलाल ढोलकिया की कहानी, जो आज से शुरू होकर अपने पीछे वहाँ तक
जाती है, जहाँ से उनकी कला का आरम्भ हुआ था। . . . और पहुँचा था उस जगह तक जहाँ
उनकी कला का अंतिम संस्कारा हुआ।
चारो ओर का वातावरण होली के रंग से रंगीन था। शराब की मस्ती गाँव के सिर पर
चढ़कर बोल रही थी। अश्लील गीतों की कानफोडू ध्वनि से पूरा गाँव कंपायमान हो उठा।
अपने बहू-बेटों के बरोठे में लेटे हुए बंधूलाल को जब यह बर्दाश्त नहीं हो पाया तो
अपनी कमजोर काया को इकट्ठा करते हुए बाहर निकल आये। अपने अंदर के जीव को एक जगह पर
एकत्र किया और लड़कों पर बरश पड़े। लड़कों के लिए यह बर्दाश्त से बाहर था। शराब का
शुरूर और गाँव की लामबंदी से मदहोश लड़कों ने आव देखा न ताव एक बड़ी बाल्टी में भरा
हुआ हरा रंग, जिसको केले के पानी में घोला गया था, बंधूलाल पर उड़ेल दिया। बीमार तो
पहले से ही चल रहे थे, रंग से पूरा भीगने पर शरीर कंपकंपा उठा। खड़ंजे पर गिर गये। उन्हें
लगने लग जैसे नरक के काले अंधेरे में अकेले पड़े हों और तरह-तरह के जीव उनके चारो
ओर नृत्य कर रहे हों।
वह अपने वातावरण से विस्मृत हो चुके थे। होली के हुड़दंगी लड़कों की टोली आगे बढ़
गई तो बहू और लड़के को पिता खड़ंजे पर पड़े दिखाई दिये। बहू ने बरबराते हुए उन्हें
उठाकर बरोठे में पड़ी चारपाई पर डाला। नहला-धुलाकर दूसरे कपड़े पहना दिये और बरबराती
हुई ही अपने काम में लग गई।
बंधूलाल किसी दूसरी ही दुनिया में खोये हुए थे। उनका तन-मन संज्ञा-शून्यता को
प्राप्त कर चुका था। लड़के के बरोठे में टूटी-सी चारपाई पर पड़े कलाकार को अपना समय
याद हो आया।
***
छविनाथ के पास ढोलक सीखने जाते हुए उस दस साल के बच्चे के मस्तिष्क पर कितना
तेज था। ढोलक सीखने की ललक उसके उत्साह और चाल से ही पता चल रहा था। कितना मना
किया था सबने ‘ढोलक से जीवन नहीं कटेगा. . . मेहनत-मज़दूरी से ही पेट भरता है।’ पर
अंदर तक जो समा गई थी, लगन थी। मिटाने से मिटने वाली नहीं थी। मन में दॄढ़ निश्चय
कर लिया था ढोलक सीखने का और कसम भी खा ली थी कि गुरू भी छविनाथ को ही बनायेंगे।
छविनाथ, बाउन वाद्ययों का बजइया। सातो सुर जिनके इर्द-गिर्द नाचते थे। बाइस
साल की उम्र से ‘सूर’ लेकिन वाद्यकला में गहराई तक धंसे हुए। दूर-दूर तक कोई सानी
नहीं। हर नौसिखिए के हृदय पर राज करने वाले। हर भजन मण्डली की शान और वाद्य-कला
में रुचि रखने वाले के लिए द्रोणाचार्य से कहीं बढ़कर, क्योंकि शिष्य चुनने में
उनके ऊपर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। अपने हृदय के सम्राट थे और अपने सिद्धांतों पर किसी
को शिष्य बनाते थे।
बंधूलाल की रग-रग में उनका गुरुत्त्व समा गया था। छविनाथ की कई कठिन परीक्षाओं
के बावजूद भी बंधूलाल ने हार नहीं मानी। बल्कि हर परीक्षा के बाद उनका उत्साह दूना
होता गया था।
जब छविनाथ को लगने लगा कि लड़का बड़ा हठधर्मी है और बिना उनको अपन गुरू बनाये
मानने वाला नहीं है तो बिवश होकर बन्धूलाल को शिष्य बनाना ही पड़ा। फिर क्या था,
उनका रियाज पूरे गाँव में गूँज उठा।
बड़े-बूढ़ों ने पैदा होते ही सिखाना आरम्भ कर दिया था कि सुबह चार बजे उठकर पढ़ा
गया पाठ जल्दी याद होता है। बृह्ममुहूर्थ में ‘सुरसुती मइया’ दिल खोलकर विद्या का
दान करती हैं। बन्धूलाल ऐसा कोई भी पैतरा छोड़ना नहीं चाहते थे जिससे उनके सीखने
में कोई कमी रह जाये। सुबह चार बजे नहीं कि गुरु के कहे अनुसार रियाज करने बैठ गये।
घर से लेकर आस-पड़ोस तक के उलाहनों से अम्मा के कान पक जाते तो अम्मा उन पर बरस
पड़तीं।
एक दिन, दो दिन, चार दिन... जब किसी भी सूरत पर घर में रियाज करना संभव नहीं
हुआ तो चुपचाप ढोलक लेकर गाँव से बाहर निकल जाते। सुबह की मनमोहक हवा और हरियाली
की थापें धीरे-धीरे उनकी ढोलक में स्वर पैदा करने लगीं और देखते ही देखते उसकी गमक
हवा में घुलकर चारो ओर फैलने लगी। घर, गाँव और इलाके की उपेक्षाएं उनकी ताकत बन
गईं और ढोलक उनकी साँसों की भाषा बोलने लगी।
छविनाथ उनकी ढोलक की गमक पर ऐसे उछल पड़ते जैसे कोई छोटा शिशु किसी वस्तु को
देखकर चहक उठता है। वह मन ही मन फूलकर गद्गद् हो जाते। बन्धूलाल जितनी लगन किसी
शिष्य में नहीं देखी थी। बिना गाली-गलौज के सागिर्दों को कुछ भी न बताने वाले
छविनाथ बन्धूलाल के सिर पर प्यार से ऐसे हाथ फेरते जैसे उनका लड़का वापस आ गया हो।
सोलह साल में छविनाथ का ब्याह हो गया था और अट्ठारह तक पहुँचते-पहुँचते वह
पिता भी बन गये थे। दस साल की उम्र से ही ढोलक के उस्ताद बन चुके छविनाथ ने बेटे
की किलकारी में ढोलक के सुर घोल दिए। दूध के साथ ढोलक के सुरों को पीता हुआ बेटा
पाँच साल का हो गया तो वह सुबह उठकर उसको सामने बैठाकर ढोलक बजाने लगते। बच्चा भी
उनकी ढोलक पर ऐसे थिरकने लगता जैसे उनकी ढोलक की प्रत्येक थाप को बखूबी समझता हो।
लेकिन एक दिन छविनाथ का स्वर थम गया।
गाँव में महामारी फैल गई। चेचक ने गाँव के लगभग सभी बच्चों को घेर लिया। माता
की हर प्रकार से स्तुति की गई लेकिन वह न मानीं और देखते ही देखते उनकी आँखों की
रोशनी सदा-सर्वदा के लिए अपने साथ लिए चली गईं। बच्चा तो गया ही साथ में उसके गम
में उसकी माँ और छविनाथ की आँखों की रोशनी भी चली गई। वह तो छविनाथ के बेटे की पीठ
पर एक लड़की हो गई थी, जिसने उनमें जीवन की आस बंधाए रखी।
आज जब वह बन्धूलाल को अपनी ही तर्ज और धुन पर ढोलक बजाते देखते तो अपनी अंधी
आँखों में अपने पाँच साल के बेटे की सूरत भर लाते।
छविनाथ के पास ढोलक सीखते हुए उन्हें लगभग सात साल हो गए थे। उनकी ढोलक की गमक
दसो दिशाओं में फैलने लगी। कल तक उनकी ललक की उपेक्षा करने वाले आज उन्हें सर
आँखों पर बिठाने को तैयार रहते। दूर-दूर से लोग अपने यहाँ आयोजित भजन-मण्डली में ढोलक
बजबाने के लिए उन्हें आमन्त्रित करने लगे और देखते ही देखते वह भजन-मण्डलियों की
शान हो गए।
बन्धूलाल की सोहरत दिन व दिन फैल रही थी, लेकिन अम्मा उनकी सोहरत से कुछ
परेशान रहने लगीं। उमर बीस से पार हो गई थी लेकिन कोई और काम-काज न करने के कारण
कोई उनको अपनी लड़की देने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। साठ पार हो चुकी अम्मा की
चिंता दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी।
एक दिन अम्मा की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई। बुखार से शरीर तपने लगा।
मारे खाँसी के उनकी पसलियाँ दरकने लगीं। संभवत: पहला दिन था जब बन्धूलाल की ढोलक
नहीं बजी थी। पूरा दिन अम्मा की बीमारी का इलाज करने में बीत गया। गाँव से लेकर
आनगाँव तक के वैद्य से दवा लाकर अम्मा को खिलाई। शाम तक तबियत कुछ ठीक हो गई,
लेकिन इतनी नहीं कि रात का खाना बना सकें। तो बन्धूलाल ने किसी प्रकार उल्टी-सीधी
रोटियाँ सेंकीं।
अगले दिन अम्मा की तबियत कुछ और सही हो गई। खाना बन्धूलाल को ही बनाना पड़ा। इस
बात की कोई तकलीफ उन्हें नहीं थी, लेकिन दो दिन से उनका रियाज नहीं हो पाया था। यह
कसक उनके मनोमस्तिष्क में हलचल मचाए हुए थी।
शाम का वक्त था। अम्मा दुआरे पर झाड़ू लगा रही थीं। देखा बन्धूलाल के साथ लाल
चूनर में लिपटी एक औरत उनके सामने आ खड़ी हुई। तिरछी आँखों से बन्धूलाल को देखा।
‘...तुम्हारी बहू है अम्मा...’ कहते हुए अम्मा के पैर छूने को झुक गए।
अम्मा की तो मानो वरषों की मुराद पूरी हो गई हो। दौड़कर अंदर गईं। लोटे में
पानी लाकर बहू-बेटे का उतारा किया। फिर बहू को अंदर ले जाकर उसके मुँह पर पड़ा परदा
उठाया। ठगी-सी रह गईं अम्मा ने बन्धू को रहस्याभरी निगाहों से घूरा। बन्धूलाल मारे
शरम के पानी-पानी हो गए।
बहू कोई और नहीं बल्कि छविनाथ की बेटी ‘बिंदिया’ थी।
बिंदिया बन्धूलाल को तबसे पसन्द करने लगी थी जबसे बन्धूलाल को उसने अपने पिता
के पास ढोलक सिखाने को लेकर मसक्कत करते देखा था। बन्धूलाल को पता ही नहीं था कि
बिंदिया उन्हें पसन्द करती है। उनके पास तो केवल एक ही काम था। छविनाथ के पास
बैठकर उनके मार्ग-दर्शन में ढोलक का अभ्यास करना, लेकिन उन्हें इतनी तल्लीनता से
अभ्यास करते हुए देखकर बिंदिया का मन मयूर हो उठता। वह बंधूलाल की थाप पर नाच
उठती।
बंधूलाल और छविनाथ दोनों बिंदिया के मनोभावों से अंजान थे। उन्हें नहीं पता था
कि बिंदिया बंधूलाल को हृदय ही हृदय अपना सब कुछ मान बैठी थी। इस बात का सबसे पहले
पता चला छविनाथ को।
बंधूलाल ढोलक बजाने में इतना खो जाते थे कि उन्हें आस-पास होने वाली हरकतों का
पता ही नहीं चलता था, लेकिन छविनाथ की अंधी आँखों से कुछ भी छिपा नहीं रहा।
बंधूलाल ढोलक बजा रहे थे तो अंदर से छविनाथ के कानों में किसी के घुँघरुओं की
ध्वनि टकराई। ध्यान को थोड़ा और एकाग्र किया। सारा भेद खुल गया और एक दिन मौका पाकर
उन्होंने बंधूलाल के सामने बिंदिया से विवाह का प्रस्ताव रख दिया। गुरु ने कुछ
माँगा था। मना करने का सवाल ही नहीं बनता था। पर कुछ दिनों का समय माँग लिया।
ढोलक के साथ घुँघरुओं की खनक ने बंधूलाल थापों में और जान डाल दी। उनकी यह
जुगलबंदी बिना फेरों के चलती रहती अगर अम्मा बीमार न पड़तीं। अम्मा की बीमारी से
टूटे उनके रियाज ने घुँघरुओं को ढोलक के साथ हमेशा के लिए जोड़ दिया।
***
बिंदिया को घर ले आने के बाद घर-गृहस्थी का बोझ थोड़ा बढ़ गया, लेकिन बावजूद
इसके उनका ढोलक का रियाज कम नहीं हुआ। चारो ओर उनकी गूँज गमक उठी। गाँव में उनकी
भजन-मण्डली के सुर फूट पड़े।
गाँव में मान्यता थी कि जब चौमासे[1] में
बरसात नहीं होती तो भजन-मण्डली का आयोजन किया जाता था। यह परम्परा पीढ़ियों से चली
आ रही थी, लेकिन बन्धूलाल ने उसमें चार चाँद लगा दिए। वह अपने उम्र के लोगों को तो
भजन-मण्डली के लिए एकत्र करते ही, बच्चों को भी उसमें शामिल करते थे।
ढोलक बंधूलाल के हाथों में गमकती थी तो मजीरा नत्थू लोहार के हाथों में नाच
उठता था। चिमटा बजाने में शंकर चच्चा की कोई दूजी नहीं करता था तो गमछा ओढ़कर उक्त
तीनों वाद्यों की जुगलबंदी पर कूल्हे मटका-मटका कर थिरकने में रामनाथ का कोई शानी
नहीं था। एक ऐसा स्वर गूँजता था कि आस-पास के इलाके से क्या दूर-दूर से लोग उनकी
भजन-मण्डली का हिस्सा बनने चले आते थे।
पूरा भादों निकल गया लेकिन बरसात की एक बूँद नीचे नहीं आई थी। जन-मानस अकुला
उठा। सबकी निगाहें भजन-मण्डली की ओर खिच गईं तो बंधूलाल ने लोगों से सलाह की कि इस
बार बड़े जोर की जुगलबंदी हो। सब राजी हो गए तो उन्होंने इलाके के एक से एक बजबइए
और गबइए बुलबाए। सबका उचित आदर-सत्कार किया गया। ऐसा लगने लगा जैसे कि पूरे गाँव
में कोई उत्सव हो रहा हो। झाऊगिरि प्रधान थे। गाँव के इस प्रकार के आयोजनों में
खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। सो उन्होंने बाहर से आए हुए लोगों के सत्कार में कोई
कमी नहीं होने दी।
अमिलिया तीर भजन-मण्डली सजती थी। रात को झाऊगिरि ने चार-पाँच गैस-बत्ती की
व्यवस्था अमिलिया तीर करवा दी। खाना खा-पीके भजनों का जो समा बंधा वह इतिहास ही बन
गया। गबैये भी बेढब और बजबैये भी बेढब। कोई भी किसी से कम रह जाने वाला नहीं था।
लोगों को भजन-मण्डली के आयोजन की वह रात आज तक भुलाई नहीं गई। इसका एक कारण और
था। कारण था गाँव में ‘धमार’ की शुरुआत का। भजन-मण्डली में आए बाहर के लोगों ने
अनायास ही बंधूलाल के कानों में मंत्र फूक दिया था कि ‘...इतने अच्छे गाने-बजाने
वाले होकर धमार क्यों नहीं बाँधते... इलाबाँस के मेले में हजारों धमारें आती
हैं... आपके गाँव की आये तो पहला इनाम वही जीत ले जाए...।’
भजन-मण्डली समाप्त हो गई। सब अपने-अपने घरों को चले गए। ढोलक की ताल पर भादों
खूब झकझोर-झकझोर कर बरसा। लोग अपने-अपने बंगलों में पड़े हुए बिरहा गा उठे, लेकिन
बंधूलाल के कानों में लोगों का आमन्त्रण चुनौती बनकर गूँजने लगा – “‘...इतने अच्छे
गाने-बजाने वाले होकर धमार क्यों नहीं बाँधते... इलाबाँस के मेले में हजारों
धमारें आती हैं... आपके गाँव की आये तो पहला इनाम वही जीत ले जाए...।”
आमत्रण देने वाले के शब्द मानो विधि की लकीर हों। बंधूलाल ने सच कर दिखलाए।
इलाबाँस की एक हजार दो सौ धमारों में से पहला इनाम पहली बार में ही जीत लाए। लेकिन
यह इनाम इतना सहज नहीं था। इसके लिए महीनों मेहनत की थी उन्होंने। मण्डली बनाने
में, धमार के गीत सिखाने में, पैतरे सिखाने में और तो और अपने साथ धमार की तर्ज पर
ढोलक बजाने के लिए साथी तैयार करने में। बड़ी मेहनत की थी बंधूलाल ने गाँव की धमार
को जीवन देने में।
इलाबाँस से पहला इनाम क्या जीता, पूरे इलाके में उनके नाम के साथ ‘ढोलकिया’ खिताब
जुड़ गया और गाँव में पड़ी यह धमार की परम्परा अपने पूरे योवन के साथ खिल उठी।
***
होली पर बजने वाली इस धमार का बिंब बड़ा मनमोहक और मर्मिक होता था। बंधूलाल
ढोलक बजा-बजाकर लोगों को एकत्र कर रहे थे। धीरे-धीरे गाँव के तकरीबन बीस-पच्चीस
बूढ़े और अधेड़ लोग वहाँ इकट्ठे हो गए। कुछ नौजवान भी जो धमार के गीत और ढोलक सीख
रहे थे। बंधूलाल इन्हें अगली पीढ़ी के लिए तैयार कर रहे थे।
बंधूलाल के हमउम्रों में एक-आध लोग ही थे जो धमार की ढोलक बजा पाते थे। चूँकि
बंधूलाल को धमार और खासकर ढोलक से बड़ा लगाव था, इसकिए वह चाहते थे कि गाँव में
उनके बाद भी यह परम्परा बनी रहे। इसके लिए उन्होंने कुछ लड़के चुने थे, जिन्हें वह
नियमित अभ्यास करवाते थे। असुवा, बड़ेभइया, छुटकइया आदि काफी कुछ सीख भी चुके थे। बंधूलाल
आरम्भ करने के बाद ज्यादातर इन्हीं लड़कों से ढोलक बजवाया करते थे।
बंधूलाल के इन चेलों में एक था रामकिसुन। बड़ा सुआंगी था। नचकइया कहीं का। जब
वह धमार की ढोलक अपनी कमर में बाँधता था तो पूरा गाँव उसे देखने के लिए इकट्ठा हो
जाता था।वह धमार के गानों की तर्ज पर डंकों की चोट तो करता ही था, साथ ही गवैयों
के बीच ऐसे लहराता था जैसे बीन की धुन पर कोई साँप लहराता है।
जगतपुर की धमार पचास गाँवों में मसहूर थी। माती के मेले में जब पूरे इलाके की
धमारें अपना-अपना करतब दिखाती थीं तो सबसे बाद में प्रशन्न होकर राजा धरमेंद्र
सिंह सबको इनाम दिया करते थे। जबसे जगतपुर की धमार की कमान बंधूलाल के हाथों में
आई थी तबसे राजा साहब से मिलने वाला यह इनाम जगतपुर की धमार ही पाती चली आ रही थी।
दूर-दूर से खिंचे चले आते थे लोग बंधूलाल की इस धमार को देखने के लिए।
एक बार राजा धर्मेन्द्र सिंह के एक अंग्रेज मित्र उनसे मिलने आए। समय होली का
ही था। सो राजा साहब ने उन्हें धमार दिखाने का मन बनाया। राजा साहब ने पूरे इलाके
से तकरीबन बीस धमारों को अपनी हवेली में आमन्त्रित किया और उनके बीच प्रतियोगिता
रख दी। उस दिन धमारों के बीच वह होड़ लगी कि राजा साहब के साथ-साथ उनका अंग्रेज
मित्र मारे खुशी के गद्गद् हो उठा। अंग्रेज ने सभी धमारों को अलग-अलग ईनाम दिया
तो राजा साहब ने बंधूलाल को अपने पास बुलाकर अपने गले में पड़ी हुई मोती की माला
उनके गले में डाल दी और प्यार से उन्हें गले लगा लिया। बंधूलाल मारे खुशी के
आँसुओं के सराबोर हो गए। उस दिन राजा साहब से जो सम्मान मिला था, आज भी उनके अंदर
उर्जा का आधार बना हुआ था। यही कारण था कि धमार से उनका इतना लगाव हो गया था।
आज भी जब ‘पोर’ पर बैठकर गाँव के लड़के-बच्चों को किसे-कहानियाँ सुनाते थे तो
अनायास ही राजा साहब द्वारा सम्मान पाने वाली उस घटना को भी सुना जाते थे। और तो
और जब उनके मस्तिष्क में वह घटना चल रही होती थी तो उनका चेहरा चमक उठता था। उनका
सारा गर्व आस-पास बैठे सभी जनों को महसूस होने लगता था।
काफी देर तक बंधूलाल द्वारा ढोलक बजाने पर तमाम लोग एकत्र हो गए तो उन्होंने ढोलक
असुवा को पकड़ा दी और हरिपाल सिंह की ओर गाने की उम्मीद से देखा। असुवा ने
जान-बूझकर एक गीत की तर्ज पर अपनी ढोलक गमका दी तो हरिपाल सिंह वही गीत गा उठे –
दीजो ग्यान
बताय सुरसुती मात भवानी – २
अउ पहिले मैं
सुमिरौं गुरु अपने, गुरु लइ-लइ नाम...
दूजे मैं
सुमिरौं भवानी, तीजे भगवान, सुरसुती मात भवानी।
दीजो ग्यान
बताय सुरसुती मात भवानी – २
भवानी के इस भजन के बाद उधुमसिंह ने आल्हा पर आधारित एक गीत का मुखड़ा प्रस्तुत
किया-
माढ़व पइ कमान, ऊदल तेग सम्हारी-२
महुबे मइं दरबारु लगो, बइठे परिमाल
आल्हा-ऊदनि बइठे, होनइं मलिखान
सकल घरउआ बइठे, सइयद सरदार
फूलि रही फुलवारी,
माढ़व पइ कमान, ऊदल तेग सम्हारी-२
हरदुआरी लाल ने अपनी चिर-परिचित होरी गाई – ‘तेरी सेवा हइ कठिन-कठोर, भवानी की
सेवा।’
सभा में बैठे हुए नौजवान गुपली पर उतर आए तो असुवा ने गुपली पर बजाने के लिए
ढ़ोल बड़े भइया को सौंप दी। गुपली पर ढ़ोल बजाने में बड़े भइया अधिक रस लेते थे। मजा
ले-लेकर बजाया करते थे।
बड़े भइया ने जब ढ़ोल को गुपली के सुर में साधा तो कई नौजवान एक के बाद एक
गुपलियाँ गा उठे-
जसुदा तेरो
बारो हइ लाल, सखी रस रंग भरो खेलइ होरी-२
पूरब से राधे
चाले हो पूरब से राधे चाले
पच्छिम से
नंदलाल, सखी रस रंग भरो खेलइ होरी-२
जसुदा तेरो
बारो हइ लाल, सखी रस रंग भरो खेलइ होरी-२
_________
मेरे उठी हइ
पसुरिया मा पीर, हो बलमा बिनु बइदु कहा जानइं-२
गलिन गलिन
बइदा घूमइ हो गलिन गलिन बइदा घूमइ
कोई अउसधि
लियउ मोल, हो बलमा बिनु बइदु कहा जानइं-२
मेरे उठी हइ
पसुरिया मा पीर, हो बलमा बिनु बइदु कहा जानइं-२
_________
मेरी देखि
अरबरी देह बलम गउनेक नाहीं करि आए-२
कबहून पीसी
चाकीया हो कबहू न पीसी चाकीया
अउ कबहू न
बाटे बान, बलम गउनेक नाहीं करि आए-२
मेरी देखि
अरबरी देह बलम गउनेक नाहीं करि आए-२
_________
दिउरा मेरे ललइ
खिलाउ तले पानी भरि लबइं सागर से-२
जो तेरे ललइ
खिलाबाईं हो जो तेरे ललइ खिलाबाईं
तुम का खिलबउनी
देउ, तले पानी भरि लबइं सागर से-२
दिउरा मेरे
ललइ खिलाउ तले पानी भरि लबइं सागर से-२
होली गाने का जो समा बँधा तो ऐसा लगने लगा कि खतम ही नहीं होगा। एक के बाद एक,
एक के बाद एक, कोई न कोई, कोई न कोई मुखड़ा ‘उन्सार’ ही देता। और जब एक बार मुखड़ा
‘उन्सार’ दिया गया तो पूरा हो ही जाता। गुपली-गायन में यह असकर होता था।
गुपली एक प्रकार का शृंगारिक गीत होता है। लड़के बड़ा मजा लेते थे इन गीतो में। बूढ़े
भी अपई जवानी को याद कर आते थे और दो घण्टे का अभ्यास कब पाँच-छ: घण्टे तक पहुँच
जाता था पता ही नहीं चलता था।
होली गाते-गाते रात का करीब एक बज गया तो अहिबरन सिंह ने अब बंद करने का आदेश
दिया। बैथे-बैठे पीठ दर्द करने लगी थी। आँखों में नींद भी दस्तक देने लगी तो सबका
मन भी उठने को करने लगा।
धमार की रीति के अनुसार अंत में एक भजन गाया जाना अनिवार्य होता था, इसलिए
बंधूलाल एक भजन गुनगुनाने लगे-
बहुरि नहिं आबना यह
देश-२
जो-जो गए बहुरि नहिं
आए, पठबत नाहिं संदेश
बहुरि नहिं
आबना यह देश-२
बंधूलाल द्वारा गाए गए इस भजन के साथ ही आज की यह सभा समाप्त हुई तो सब
अंगड़ाइयाँ लेते हुए अपने-अपने घरों की ओर निकलने लगे।
***
होली पर ‘दुआरे’ का बड़ा महत्त्व हुआ करता था। गाँव में जब किसी के घर-परिवार
में कोई मृत्यु हो जाती तो जब तक होली का त्योहार नहीं आता तब तक उस घर में कोई
शुभ कार्य नहीं होता था। होली पर गाँव की धमार जब उस घर के सामने जाकर कुछ
निर्गुणपरक अर्थात् आत्मा-परमात्मा के मिलन और सांसारिक क्षण-भंगुरता के गीत गाती
थी। तब जाकर कहीं उस घर से ‘सूतक’ ऊठता
था। घर शुद्ध माना जाता था और फिर से उस घर में मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते थे।
धमार की यह टोली, जिसके नायक बंधूलाल हुआ करते थे, जब किसी के ‘दुआरे’ पर जाती
थी तो इस टॊली में गाँव के प्रत्येक घर का कोई न कोई सदस्य अवश्य हुआ करता था।
धमार उक्त घर के बाहर जाकर दो-एक गीत गाती थी। इसके बाद घर का मुखिया धमार के साथ
आई हुए सभी गाँव वालों के मस्तक पर ‘रंग का टीका’ लगाता था। इसके बाद सबको इसी साल
बनी गुड़ खिलता और पीने वालों को चिलम, बीड़ी और तम्बाखू इत्यादि दी जाती थी। इसके
बाद उस घर का मुखिया भी इस धमार टोली का हिस्सा बन जाता था। यह उसका पहला मांगलिक
कार्य हुआ करता था।
धमार की इस टोली में घर के मुखिया द्वारा जो ‘रंग का टीका’ लगाया जाता था,
उसका विशेष महत्त्व हुआ करता था। यह रंग होली से पहले ही घर में बना लिया जाता था।
होली पर ‘टेंसू’ के फूल अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लड़कियों द्वारा
होलिका-पूजन के काम ये आते थे, लड़कों द्वारा रंग बनाने के काम ये आते थे। बसंत के
प्रिय फूल जो ठहरे।
टेंसू का फूल केवल बसंत में ही खिलता था और जब खिलता तो अन्य सभी फूल ईर्ष्या
से भर जाते थे। और ऐसा हो भी क्यों ना। यह पेंड़ पर पूरी तरह से इतना ज्यादा लद
जाता था कि लगता पेड़ ने केशरिया कपड़े पहन लिए हों। और टेंसू का जंगल तो दूर से
देखने पर ऐसा लगता था जैसे कि पूरे जंगल में आग लग गई हो।
गाँव के लड़के होली के पन्द्रह-बीस दिन पहले से ही जंगल से टेंसू के फूल एकत्र
करने लगते थे। बड़ी मात्रा में फूलों को एकत्र करके, उन्हें सुखाकर एकदम बारीक पीस
लिया जाता था। और लो भाई हो गया एकदम शुद्ध प्राकृतिक रंग तैयार। गाँव में होली
खेलने के लिए इसी रंग का प्रयोग किया जाता था और घर पर आई धमार के लोगों के
मस्तिष्क पर भी यही रंग लगाया जाता था।
इस साल गाँव में तीन मौतें हुई थीं। सुन्दर बुढ्ढे तो अपनी पूरी उम्र व्यतीत
करने के बाद अभी होली के करीब दो महीने पहले ही मरे थे, लेकिन रमविलन तो पचास बरस
की उम्र में दिवाली के अगले दिन ही चल बसे थे। और इनसे भी पहले पंचम दद्दा चले गए
थे गाँव को छोड़कर। इस बार गाँव में यही तीन ‘दुआरे’ होने थे।
नए कपड़ों में सजे हुए लोगों से धमार गाँव के ‘धूरे’ पर के देवता ‘बरमबाबा
महराज’ के पास से शुरू होकर सुन्दर बुढ्ढे के घर की ओर बढ़ी। मरने वालों में वही
सबसे बुजुर्ग थे।
सुन्दर बुढ्ढे के ‘दुआरे’ पर पहुँचकर धमार ने एक निर्गुण गाया-
भाई नाहिं बरोबरि
जात, सबइ दिन नाहीं-२
पानी के बूँदन प्राण
प्रकट भये,
आबत मन पछितात, सबइ
दिन नाहीं॥ भाई नाहिं...
बलक रहे बलकन संग
खेले,
पियत दूध अठिलात,
सबइ दिन नाहीं॥ भाई नाहिं...
ज्वान भये मसि[2] भीजनि
लागी,
तिरिया देखि अठिलात,
सबइ दिन नाहीं॥ भाई नाहिं...
वृद्ध भये कर कंपन
लागे,
घरहूँ के लोग घिनात,
सबइ दिन नाहीं॥ भाई नाहिं...
सुन्दर के ‘दुआरे’ की रीति पूरी करके धमार आगे बढ़ चली।
एक ‘दुआरे’ से दूसरे ‘दुआरे’ पर जाती हुई धमार द्वारा एक विशेष तर्ज का होली
गीत गाया जाता था, जिसे ‘गुपली’ कहा जाता है। यह गुपली अलग-अलग मौंकों की अलग-अलग
हुआ करती थीं।
जब स्वतंत्र रूप से गाई जाती थीं तो इनका स्वरूप शृंगारिक हुआ करता था और जब
‘दुआरे’ मंजाते समय गाई जाती थीं तो इनका स्वरूप ईश्वर के प्रतीक को अपने में
समाहित कर लेता था। सो सुन्दर बुढ्ढे के ‘दुआरे’ से पंचम चच्चा के ‘दुआरे’ की ओर बढ़ती
हुई धमार ने एक गुपली उठाई-
होरी हो जहु जीबनु
दिन चारि को-२
काह लये लाला
अउतारी, काह लये लाला जाइं।
मुट्ठी बाँधे
लाला अउतारी, हाथ पसारे जाइं।
होरी हो जहु
जीबनु दिन चारि को-२
बंधूलाल की स्मृतियाँ होली का एक पूरा आख्यान कह उठती थीं। पूरा वातावरण उनके
रंग में रंगकर जी उठता था।
***
उनकी उम्र पचास को पार कर चुकी थी। दो लड़के और उनके बड़े होने पर दो बहुएं भी
घर को भरा-पूरा बना रही थीं। बिंदिया के मरने के बाद जब लड़के-बच्चों ने जब
घर-गृहस्थी को अपने कंधे पर ले लिया तो बंधूलाल का पूरा समय ढोलक के साथ बीतने
लगा। बरोठे में अकेले बैठे-बैठे ढोलक बजाते रहते।
समय-चक्र आगे बढ़ा तो गाँव में नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रधानी का चुनाव अपनी
सुगबुगाहट फैलाने लगा।
रमेश सिंह बिना किसी अवरोध के तीन बार से लगारात गाँव के प्रधान बनते चले आ
रहे थे। उनसे पहले झाऊगिरि ने गाँव की प्रधानी को बड़े अच्छे से चलाया था, लेकिन रमेश
सिंह को तीन-तीन मौके देने के बाद भी जब गाँव की गति ने तेजी नहीं पकड़ी तो इस बार
उनके प्रतिपक्ष में दो नए उम्मीदवार खड़े हो गए। एक तो उनके सगे बहनोई थे और दूसरे
झाऊगिरि के सहयोग से खड़े किए गए थे। यह पहली बार था कि गाँव की प्रधानी के लिए
तीन-तीन उम्मीदवार मैदान डटे थे। इससे पहले कभी भी दूसरा उम्मीदवार नहीं होता था।
गाँव के बड़े-बूढ़े आपस में बात-चीत करके जिसे कह देते थे वही प्रधान बन जाता था। इस
बार कहानी थोड़ी उल्टी हो गई थी। बड़े-बूढ़े अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच गए थे
तो कमान उनसे अगली पीढ़ी ने सम्हाल ली थी, जो अब परिवर्तन चाहती थी।
चुनाव की सरगर्मी तेज हो गई। पूरा गाँव तीन दलों में विभाजित-सा दिखने लगा। सब
एक-दूसरे को नीचा दिखाने की तरतीब सोचने-विचारने लगे। लगता ही नहीं था कि यह वही
कुछ दिन पुराना गाँव है, जहाँ एक आवाज पर सभी एकत्र हो जाया करते थे। खैर!
धीरे-धीरे वह दिन भी आ गया जिस दिन चुनाव होना था। शराब, खान-पान आदि चुनावी फंदों
के बीच पुलिस की कड़ी निगरानी में चुनाव समपन्न हो गया। सब नतीजे आने की उम्मीद
लेकर अपने-अपने कामों में लग गए।
दस-पन्द्रह दिन बीतते-बीतते चुनाव का नतीजा भी आ गया। अरे यह क्या प्रधानी का
ताज एक बार फिर से रमेश सिंह के सिर बँध गया। ‘सब शराब का परताप है भाई।’ सबको
कहते सुना जाने लगा। रमेश सिंह ने जितनी शराब लोगों को पिलाई थी शायद ही किसी ने
पिलाई हो। फलश्वरूप परिणाम उनके पक्ष में चला गया। चला गया सो चला गया कोई बात
नहीं। एक और नई बात इस चुनाव से हो गई। रमेश सिंह के चाहने वालों ने उन सबके घरों
के सामने जा-जाकर ढोलक-मजीरा बजाकर लड्डू बाँटे, जिनसे उन्हें चुनाव में वोट नहीं
मिला था।
पीढ़ियों से चली आ रही एकता खण्ड-खण्ड हो गई। पूरा गाँव कई गुटों में बँट गया।
और इसके साथ ही बँट गया गाँव के संकेतों, प्रतीकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का
स्वरूप भी।
गाँव के बड़े-बूढ़े बताते थे कि गाँव के सबसे उत्तर में रहने वाले पण्डित जी के
घर के सामने पीपल के नीचे एक शंकर जी रखे हुए थे। पीढ़ियों से ये शंकर जी यहीं
विराजमान थे। पूरे गाँव की आस्था के प्रतीक। सभी उन पर फूल-पत्र चढ़ाते थे। और सावन
की तो पूछो ही मत। मेला-सा दिखने लगता था पण्डित जी के घर के सामने। अब सब समाप्त
हो गया था। चुनाव के बाद अधिकाँश लोगों ने अपने-अपने घरों के सामने अपने-अपने शंकर
जी की स्थापना कर ली थी। अब लोगों के प्रतीक भी बँट गए थे। बाद में पण्डित जी ने
पीपल के पास ही एक मंदिर भी बनवा दिया तो गाँव के लोगों ने उसमें एक ईंट तक न
ऊठबाने की कसम तो खाई ही साथ ही गाँव में प्रतिस्पर्धा-स्वरूप दूसरे मंदिर का
निर्माण आरम्भ करवा दिया। पास तो पास दूर से भी दिखने पर पूरा गाँव खण्ड-खण्ड
दिखने लगा।
प्रधानी का चुनाव हुए कई महीने बीत चुके थे। चौमास लग रहा था। बंधूलाल अपने
बरोठे में ढोलक का अभ्यास करते हुए गाँव के बदले हुए परिदृष्य को अपनी सतत बूढ़ी
होती जा रही निगाहों से निहार रहे थे।
जब उनसे बिलकुल रहा नहीं गया तो उन्होंने पास ही के एक हम उम्र के सामने अपने
भावों को प्रकट कर ही दिया – ‘...इस बार भजन-मण्डली नहीं सजेगी क्या... चौमासा
निकलता जा रहा है और कोई भजन-मण्डली का नाम तक नहीं ले रहा है...।’
हमउम्र ने उनको जो सूचना दी, उससे बंधूलाल का पूरा शरीर ही सुलग उठा। उसने
बंधूलाल को बता कि – ‘... इस बार पूरे गाँव से चंदा किया जा रहा... अमिलिया तीर
वीडियो चलेगा... नई-नई फिलमें... और वह भी पूरे सात दिनों तक... जयबहादुर सिंह
इसके अगुवा हैं...।’
सत्तर साल के हो चुके बंधूलाल का शरीर मारे क्रोध के फनफना उठा। मारे गुस्से
के कुछ कह नहीं सके। पास ही में रखी हुई ढोलक उठा ली और जोर-जोर से बजाने लगे। जब
बजाते-बजाते थक गए तो अपने आप में ही बड़बड़ा भी उठे – ‘... कुछ भी हो... भजन-मण्डली
तो सजेगी... जरूर सजेगी... जब तक वह जिंदा रहेंगे... सजती रहेगी...।’ बड़बड़ाते हुए
ही उन्होंने अपने सबसे प्रिय चेले रामकिसुन को बुलवाया और उसको भजन-मण्डली के
आयोजन की जिम्मेवारी दे डाली, लेकिन जब उसको अपनी बात में रस न लेते देखा तो निराश
हो गए। बड़े प्रेम से उससे पूछा – ‘...क्या बात है...’
‘... बात क्या है दद्दा... इस बार सभी के दिमाग में वीडियो घुसा हुआ है...
बच्चों से लेकर बीबी तक सब उसके दीवाने हैं... हमसे पूछे बिना ही चंदा दे आए
हैं... अब अकेले हम भजन-मण्डली का आयोजन कैसे कर सकते हैं। बंधूलाल कुछ बोले नहीं।
चुपचाप उठकर ‘हार’ की ओर चले गए।
वीडियो की धूम ने पूरे गाँव में हाहाकार मचा दिया। शाम होते न होते सब वीडियो
के लालच में अमिलिया तीर आ डटते। आदमी जल्दी ही खेत से घर आ जाते तो औरतें
जल्दबाजी में खाना बना कर घर के काम निपटा डालतीं।
गाँव के सभी घर खाली हो जाते। सभी घर-वार छोड़कर वीडियो के पास इकट्ठे हो जाते।
वास्तव में यह एक सोची-समझी रणनीति थी।
चौमास में महीनों गाँव के लोगों के पास कोई काम नहीं रह जाता था। बरसात के
चलते मजदूर भी खाली हो जाते थे। ऐसे में गाँव के तमाम लोगों के सामने चौमास में
खाने की दिक्कत आ खड़ी होती थी। अधिकाँश लोग गाँव के बड़े किसानों से ‘अधा-उधारी’ पर
अनाज लेकर अपना काम चला लेते थे और चौमास बाद धान कटने पर लिया गया अनाज वापस कर
देते थे। परन्तु यह काम उन लोगों के बस का नहीं था जो मेहनत को अपना सबसे बड़ा
शत्रु मानते थे। वीडियो के आयोजक यही लोग होते थे।
इन लोगों ने मिलकर रणनीति तैयार की कि वीडियों के बहाने पूरे गाँव से चंदा
एकत्र किया जा सकता है और जितना चंदा एकत्र होता था वह वीडियो के पूरे खरचे से
कहीं ज्यादा हो जाया करता था, जिसे बाद में आयोजक आपस में बाँट लिया करते थे। इसके
अलवा एक और फायदा आयोजकों को वीडियो का मिलता था। वीडियो चलने के समय लगभग पूरा
गाँव अमिलिया तीर इक्ट्ठा हो जाया करता था। घरों में कुत्ते-बिल्ली के अलावा शायद
ही कोई मिलता था। घरों को खाली समझकर आयोजकों में से जो सबसे सातिर थे, इन घरों पर
हाथ साफ कर लेते थे। आम के आम अगुठलियों के दाम। चौमास खत्म होते न होते सबके
चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगती थी तो वहीं आयोजकों के चेहरे की रंगत और भी निखर आती
थी। अपने बरोठे में अकेले लेटे हुए अपनी ही आग में जल रहे बंधूलाल से कुछ छिपा
नहीं था। वह वीडियों की आड़ में होने वाले इस मायाजाल को बखूबी महसूस कर रहे थे। पर
बेबस से कुछ कर नहीं पा रहे थे। बल थक गए थे। अकेले पूरे गाँव से टक्कर लेने की
हिम्मत नहीं नहीं रह गई थी। बेबसी में केवल अपनी ढोलक, राजा साहब से उपहार में
मिली मोतियों की माला और धमार के तमाम सारे इनाम उनकी आँखों के सामने सजीव होकर
उन्हें सान्त्वना देते रहते। पर रह-रह कर उनके अन्तरमन से यह टीस उठ ही पड़ती कि –
‘प्रधानी के चुनाव ने सब बदल दिया।’
***
बंधूलाल ने समय के साथ समझौता तो नहीं
किया था, लेकिन उससे लड़ना अवश्य छोड़ दिया था। अब वह केवल अपनी अधमिची आँखो से
लगातार तीव्र गति से बदल रहे गाँव को निहारते भर रहते थे। हाँ! जब अपने ऊपर अधिक
दबाव नहीं बना पाते तो अपने साथ बूढ़ी हो चुकी ढोलक उठाकर बजाने लगते थे।
ऐसे ही एक दिन रात के वक्त बंधूलाल अपने विचारों में खोए हुए अपनी टूटी चारपाई
पर पड़े हुए करबट बदल रहे थे, उनके कानों में रामबहादुर प्रजापति द्वारा गाए जाने
वाले ढोले कि आवाज पड़ी। बड़े दिनों बाद उन्होंने पुरानी रसभरी तान को अपने कानों के
इतने पास महसूस किया था। सोया हुआ सिपाही जाग उठा। बूढे हाथों से रात में टटोलकर
छप्पर में टंगी अपनी बूढी ढोलक उतारी। उसको कसा और डंका गमका दिया। बंधूलाल के
डंके की चोट रामबहादुर के धोले से टकराई तो वह भी तरोताजा हो उठा। बजैया को गबैया
और गबैया को बजैया का साथ बरसों बाद मिला था। बूढ़ी ताने जवानी के जोश से तरोताजा
हो उठीं। दोनों की आँखों में पुराना समय जीवित हो उठा। ढोलक की गमक और धमार के एक
गीत की तान आपस में बिंध गई।
रनबउरे[3] बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
ठोंकि भुजा बल
फाँदि परे, तब हेरि रहे मलिखान के डेरे ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
आज करें अरु
बाजु करें, रजपूत करें चउहान घनेरे ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
ताहर पूत तुरंग
भजो, चउंड़ा जो भजो दल को अगबानी ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
पिथिराज के
तंबूकि डोरि करी, अरु कोसु पचासक धूरि उड़ानी ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
धउसइं देत
फिरइं दल मइं, चमकइं मलिखान के शैल को पानी ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
रक्तन की
नदियां उमहीं, मानहु रंग – रंज कुसुम्म सम्हेरे ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
मलिखान की
नारि अटा चढ़ि देखाइ, आबत कंथ बसंत के खेले ॥
रनबउरे बिना
पछितात खड़े, मलिखान बछेड़ी कउ साजे – २
रात के दस बज रहे थे। पास-पड़ोसियों के कानों से बरसों पहले की गमक गूँज उठी।
एक-एक करके कई लोग इकट्ठे हो गए। ऐसा लगने लगा जैसे कि बीत चुका समय वापस आ गया
हो। बंधूलाल के चेहरे पर जवानी की दम-खम साफ दिखने लगी। उनके चेहरे पर उभर आए
श्रम-बिंदु दिए की हल्की रोशनी में मोतियों से दिखने लगे।
बंधूलाल मारे जोश के भूल गए थे कि अब घर में बिंदिया नहीं है जो उनकी गमक पर
चमक पड़ती थी। बल्कि अब उनके घर में बहुएं हैं जो उनकी गमक पर उफन पड़ती थीं।
बंधूलाल द्वारा रात में सोने के समय जोर-जोर से ढोलक पीटते देख पहले तो बहुएं सहती
रहीं, लेकिन जब उन्हें लगने लगा कि ससुर का यह राग जल्दी शांत नहीं होगा तो साँप
के माफिक फनफनाती हुई बाहर निकल आईं। बाहर बरोठे में भीड़ लगी देखी तो और भी उबाल आ
गया। मारे क्रोध के मुँह से कुछ नहीं बोल पाई तो बंधूलाल की चिरसंगिनी ढोलक उठाकर
उनके सामने पटक दी। ढोलक बीच से चिटक गई और बंधूलाल खुले मुँह से उसे यह सब करते
हुए देखते रहे। ढोलक शांत हो गई तो वह अंदर चली गई और पास-पड़ोस के घिर आए लोग
अपने-अपने घरों को चले गए। बंधूलाल अब भी उसी तरह फटी आँखों से सामने पड़ी हुई
निस्प्राण ढोलक को देख रहे थे। उन्हें इस अनहोनी का बिलकुल ही आभाष नहीं था।
पूरी रात खुली आँखों से ही बीत गई। सुबह की पहली किरन निकली। घर में बहुएं और
बेटे अभी सोए हुए ही थे। बंधूलाल चुपचाप उठे। बीच से दरकी हुई ढोलक उठाई और घर से
निकल पड़े।
गाँव से बाहर बरमबाबा महराज का एक स्थान था। आने-जाने वालों के लिए झोपड़ी पड़ी
रहती थी। उसमें जा बैठे। सुबह होने पर जब बेटों ने बाप को बरोठे में नहीं देखा तो
इधर-उधर खोजने का दिखावा करने लगे। बहुओं के तो मन की मुराद ही पूरी हो गई। मन ही
मन प्रार्थना करने लगीं कि ‘बुढ्ढ़ा वापस न आए।’
दिशा-पाखाना से आए किसी ने बेटों को बताया कि बंधूलाल बरमबाबा वाली मड़ैया में
बैठे हैं तो बेटों ने जाकर उन्हें घर लाने का प्रयास किया लेकिन सब व्यर्थ था।
उन्होंने घर न जाने का निर्णय कर लिया था।
अब बंधूलाल गाँव से बाहर बरमबाबा महराज की इस मड़ैया में ही रहने लगे थे। कोई
कुछ दे आता तो खा लेते, नहीं तो किसी प्रकार व्यवस्था करके आलू भूनकर खा लेते।
जानवर चराने जाते गाँव के लोगों से बोल-बतला लेते और वापस आकर उसी मड़ैया में पड़
जाते। मड़ैया में रहते हुए उन्हें पूरा एक साल हो गया था।
***
समय पूरा बदल गया था। बंधूलाल के पोते तक जवान हो गए थे। होली एक बार फिर से
गाँव में उधम जोतने आ पहुँची थी। साल भर के त्योहार में बाप घर से बाहर एक झोपड़ी
में पड़ा रहे, बंधूलाल के बड़े बेटे को कुछ अच्छा नहीं लगा। तरह-तरह की मान-मनव्वल
करके उन्हें घर ले आया। बेटे की जिद के आगे उनका प्रण टिक नहीं सका।
आकर बरोठे की उसी टूटी चारपाई पर लेट गए। झोपड़ी से आते वक्त ढोलक साथ लिए आए
थे, उसे अपनी आँखों के सामने टाँग लिया और चुपचाप होली की तैयारियाँ देखने लगे। न
कहीं टेंसू, न कहीं ढोलक, न कहीं मजीरा। कुछ भी तो नहीं था पहले वाला। सबसे बढ़कर
कि अब पहले वाली आत्मा भी नहीं बची थी किसी शरीर में। कमजोर काया चुपचाप अपने में
सिमट गई और जीवन में पहली बार हुआ था कि होली बिना धमार और धोलक के बजे ही आ धमकी।
अपनी चारपाई पर चिपके हुए बंधूलाल की आँखो के सामने होली के पहले दिन की
तस्वीर खिंच आई।
होली पर ‘आखत’ डालने का दृष्य बड़ा मनोरम हुआ करता था। लगभग पूरा गाँव ही
‘होलिका-दहन’ वाले स्थान पर एकत्र हो जाया करता था। धमार की ढोलक पर भगवान राम के
जन्म और जीवन संघर्ष की द्योतक होली गाई जाती-
अब प्रथम को परिबा पुन:, रामचंद्र भुअ[4] लेइं
द्विज दमोदर पूजन चली हइं सकल बिजनारि
तीनि रतनि मिलि नाचइं, गाबइं हरि जी के गीत
चउथे चतुरभुज भारत, भइया लच्छन[5] साथ
पाँचइं परम सनेही, कृष्न चबाये पान
छठि हरि गबन बन कीन्हें, मात – पिता की आनि
सातइं की साइति भइ, राम रहे रथु साजि
आठइं पदुम अठासी, लइ दल उतरे पार
नउमी कउ नारायन, लंका घेरी जाइ
दसमी दसउ सुर रोये, जुज्झ भये संग्राम
इकदसिया को बरतो, कुँवरु रहो मुरझाइ
द्वादसिया के परने कुँवर कलेबा खाइं
तेरसि तीनि भुवन मा, फिरि गइ राम दुहाइ
चउदसि कउ नारायण, दओ भबीषन राज
जइ तउ चइत सिराने, लेउ राम को नाँव ॥
गाँव के सभी लोग एक साथ जलती हुई होलिका में आखत भूनते थे। एक साथ गाते थे। एक
साथ नाचते थे। सबके गले मिलते थे। लेकिन आज यह सब कुछ समाप्त हो चुका था।
बंधूलाल देख रहे थे कि धमार की ढोलक के बिना लोगों के हृदयों का रस सूख गया
था। सब अपने-अपने गुटों में बँटे हुए अकेले पर अकेले होलिका पर आखत भून रहे थे।
बड़े बेटे ने आकर आखत डालने को कहा तो उन्होंने सीधे मना कर दिया। बोले –
‘...तुम सब जाओ... मैं नहीं जाऊँगा...।’
यह सब चल ही रहा था कि उनके कानों में एकायक तेज स्वर में एक फूहड़ गाना टकराया
– ‘...लहँगुरिया नेकु पम्प चलाय दे, हवा निकलि गइ पहिया की, जात करों केला मइया
की...।’ मारे गुस्से के कान बंद कर लिए बंधूलाल ने। लेकिन स्वर था कि बंद होने का
नाम ही नहीं ले रहा था। शरीर को इकट्ठा करके चारपाई पर उठ बैठे और जोर लगाकर लड़कों
पर चिल्ला पड़े। फलश्वरूप लड़कों की गुस्सा-स्वरूपा रंग की बाल्टी उन पर औंध पड़ी।
***
अपनी स्मृतियों से बाहर आ चुके बंधूलाल का शरीर मारे ताप के जलने लगा। होली
बीत गई, लेकिन रंग से सराबोर बंधूलाल का बूढ़ा शरीर और भी ढ़लता गया। बुखार ने
उन्हें जो जकड़ा, छोड़ा ही नहीं। बेटे ने गाँव के वैद्य से लेकर सहर के डॉक्टर तक को
दिखाया, लेकिन उनके शरीर ने स्वस्थ्य न होने की कसम खा ली। बावजूद इसके दबा अनवरत
चलती रही।
बीमारी को तकरीबन महीना भर बीत चुका था। रात में बड़े बेटे ने डॉक्टर के कहे
अनुसार मूँग की दाल में मीजकर एक रोटी जैसे-तैसे करके उन्हें खिलाई। दबाई दी और चादर
उढ़ाकर जब खूब समझ लिया कि बप्पा अब सो चुके हैं, घर के भीतर सोने चला गया।
रात का दूसरा पहर बीत गया। दबा ने अपना असर दिखाया। बंधूलाला का जर्जर शरीर
पशीने से सिच गया। किसी प्रकार अपने ऊपर से चादर उठाई। हिम्मत करके उठ बैठे। प्यास
लग आई तो पास रखे लोटे को किसी प्रकार से उठाकर मुँह से लगाया। गमछे से निकल आये
पशीने को पोछा। उठकर खुली हवा में बाहर निकल आये। दस-पाँच मिनट बैठे रहे। बैठे-बैठे
न जाने क्या-क्या चलने लगा दिमाग में। चारो ओर सोता पड़ा था, लेकिन बंधूलाल का
चित्त चंचल हो आया। पता नहीं क्या सोचकर उठे और किसी प्रकार से वापस अंदर बरोठे
में आये। सामने की ओर छप्पर में ही अपनी ही काया की प्रतिछवि-श्वरूपा अपनी
चिरसंगिनी ढोलक को उतारा और घर की चौखट को जीभर के निहारने के बाद मत्था टेका और
बाहर निकल आये।
शरीर में अपने आप उर्जा आ गई। कदमों में गति भर गई। रात का तीसरा पहर
बीतते-बीतते अपने पुराने आश्रय-स्थल अर्थात् बरमबाबा महराज की पुरानी झोपड़ी में आ
गए।
रात का तीसरा शांत पहर। साफ आसमान में कई बड़े-बड़े नखत अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से
बंधूलाल को निहारने लगे। उन्होंने अपने गमछे से अपनी चिरसंगिनी ढोलक को
झाड़ा-पोंछा। उसकी डोरें बाँधकर कसीं और हौले से थाप दे दी। अपनी अंतिम अवस्था में
पहुँच चुकी ढोलक ने अपने साथी की थाप का जवाब बड़े स्नेह से दिया। फिर क्या था
दोनों में बातें होने लगीं। खो गए दोनों एक-दूसरे में। आज एक-दूसरे से सब
गिले-सिकबे कह डालना चाहते थे।
अपनी पूरी ताकत झोंक दी बंधूलाल ने फूटी हुई ढोलक बजाने में।
सुबह की पहली किरण ने दस्तक दी तो बंधूलाल के जीवनभर का तेज उनके हाथ में आ
गया। पूरी ताकत के साथ ढोलक को पुचकारा। एक जोर आवाज हुई ‘ढप्प’ और फिर सदा के लिए
शांति फैल गई।
***
रात के अंधेरे में आवाज दूर तक जाती है। पहले तो ध्यान नहीं दिया, लेकिन सुबह
होते-होते जब नींद खुली तो अचानक बेटे के मन में ख्याल आया कि बप्पा...। दौड़कर
बाहर आया तो उन्हें अपनी चारपाई पर नहीं पाया। घर और आस-पास वालों से पूछा। कुछ
बता नहीं पाया कोई। उसके हृदय की धड़कने तेज हो गईं। सबको साथ लेकर बरमबाबा महराज
की मड़ैया पर जा पहुँचा। लोग बाहर खड़े हो गए। बेटे ने सर झुकाकर मड़ैया में प्रवेश
किया तो सामने देखा कि बप्पा ढोलक पर सर टिकाए सोए हुए हैं। पास जाकर उठाने का
प्रयास किया तो पता चला उनकी यह नींद ‘चिरनिद्रा’ का श्वरूप धारण कर चुकी थी।
बंधूलाल और उनकी ढोलक बदले हुए वतावरण में सदा-सर्वदा के लिए शांत हो गए थे।
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