भाग गई सन्नों . . .

भाग गई सन्नों . . .
Ø  सुनील ‘मानव’

रोज की ही भांति आज भी उसने ट्‍यूशन जाने की तैयारी शुरू की थी। अपने रोज ले जाने वाले बैग में कुछ किताबें रखीं, साइकिल को झाड़ा-पोंछा। नहाने-धोने के बाद अच्छे से कपड़े पहने और धूल से मुंह को बचाने के लिए दुपट्टे से मुंह को जकड़ा। अम्मा का जी रखने के लिए जल्दी-जल्दी में परांठे के दो-चार कौर मुंह में ठूंसे और कमरे में से दो बैग निकालकर साइकिल में टांगे। अम्मा ने पूछ ही लिया ‘इस दूसरे बैग में क्या है. . . कहाँ लिए जा रही हो इसे. . .’
‘. . . ओ. . . हो अम्मा आप भी ना . . . चलते-चलते टोकोगी जरूर. . . लो देखो आकर . . . कपड़े हैं. . . सोचा प्रेस ही करवा लाउंगी. . . कल कॉलेज जाना है. . .। और भी ना जाने क्या-क्या।
सन्नों ने रोज की भाँति अम्मा को गले लगाकर उनके गाल पर चुम्मा लिया और साइकिल पर निकल गई. . . निकल गई ट्‍यूशन पढ़ने . . .।
‘. . . अच्छा बाबा नहीं टोकूंगी . . . जा तू . . . पढ़ने जा . . . और हाँ जल्दी आ जाना. . . घर पर कोई नहीं है। तुम्हारे पापा भी पता नहीं कब तक लौटेंगे. . .। और अम्मा बड़ी ही वात्सल्यता से अपने करेजे के टुकड़े को निहारती रहीं। जब तक साइकिल दरवाजे से निकलकर आँखों से ओझल नहीं हो गई। इसके बाद अम्मा कभी ना खत्म होने वाले अपने रोजमर्रा के कामों में लग गई।
सन्नों अब बीस साल से ऊपर की हो चली थी, लेकिन अम्माउसे अब तलक चार-पाँच बरस से ज्यादा की नहीं समझ पा रही थी। बड़े लाजो से पाला था उसके अम्मा-बाबू ने।
अम्मा जब ब्याह कर इस घर में आईं तो उन्होंने अपने को एक विपरीत वातावरण में पाया था। विपरीत इस अर्थ में कि उनकी ससुराल में सब कुछ था – धन-दौलत,मकान, खेती-बारी,नौकर-चाकर आदि सब कुछ, लेकिन अगर किसी चीज की कमी थी तो वह थी लड़कियों की पढ़ाई की।उनकी सास को छोड़ ही दो ननदें तक नहीं पढ़ी थीं।दो ननदें थीं उनकी। दोनों की दोनों बड़ी होशियार। चाहे कढ़ाई-बुनाई हो या कपड़े-लित्ते सिलने की कला हो अथवा हो सीनरी-रंगोली बनाने की बात या फिर तरह-तरह के व्यंजन बनाना; हर काम में पूरी तरह से निपुड़। पर अगर किसी चीज की कमी थी तो बस पढ़ाई-लिखाई की। जब वह ब्याह कर इस घर में आई तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ था कि आज के जमाने तक में इनको पढ़ाया नहीं गया। खैर! ‘बीती ताहि भुलाए दे, आगे की सुध लेइ।’ अम्मा ने अपनी दोनों ननदों को पढ़ना-लिखना तो सिखाया ही साथ ही साथ अपने पति के कानों में धीरे-धीरे घर की लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की बात भी बैठा ही दी। पतिदेव ने पत्नी की बात को गहराई से समझा और घर की पंचायत में पत्नी के पक्ष की वकालत भी पुरजोर से की।
चूँकि घर के मुखिया घर में महिलाओं-लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के पक्ष में थे नहीं, सो उन्होंने काफी हद तक इस प्रस्ताव को पास ना होने देने का प्रयास किया, पर लड़के-बहू के तर्कों के आगे बहुर देर तक नहीं टिके रह सके। प्रस्ताव पास हो गया कि ‘अब घर की लड़कियाँ स्कूल जायेंगी, लेकिन केवल मैट्रिक तक। इसके बाद नहीं।’ अम्मा ने सोचा चलो कोई बात नहीं। कम से कम रास्ता तो खुल ही गया। आगे तो वह सम्हाल ही लेगी। अम्मा ने कमर कस ही ली कि अगर उन्हें लड़की होती है तो वह उसे आरम्भ से ही पढ़ायेगी और खूब पढ़ायेगी। जितना वह पढ़ना चाहे।
सास-ससुर के मन की आस भले ही ना पूरी हुई हो मगर अम्मा अवश्य खुश हीं जब सन्नों का जन्म हुआ। लेकिन धीरे-धीरे सास-ससुर भी रास्ते पर आ गये। अम्मा उसको लेकर सपने बुनने लगीं। और अंतत: वह दिन भी आ गया जब सन्नों पहली बार गाँव के ही प्राथमिक पाठशाला में अपने बाबा की गोद चढ़ी हुई पहुँची। अम्मा ने तो जैसे आज पहली बार में ही आधा युद्ध जीत लिया हो।
आज तो सन्नों एम.ए. का प्रथम वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके द्वितीय वर्ष में प्रवेश कर गई थी। अम्मा पल-पल जी रहीं थी अपनी लगाई हुई बेल को फलते-फूलते हुए देखकर। हाय मेरी सन्नों . . . मैं बल-बल जाऊँ मेरी लाड़ली पर . . . उम्मा . . . ।
अम्मा अपने रोजमर्रा में लगे-लगे भी ना जाने क्या-क्या सपने बुनती रहती थी अपनी इस कली के लिए।
‘. . . बीस बरस की हो गई है। सब सन्नों के ब्याह की बात कर रहे हैं। लेकिन अभी कैसे कर दें ब्याह उसका। मास्टरनी तो बनाऊँगी ही उसे। . . . जैसे मैं लड़ी हूँ घर में उसे पढ़ाने के लिए. . . वैसे ही वह भी तो लड़ेगी समाज में . . . पढ़ाये-लिखायेगी अपने जैसी तमाम सारी लड़कियों को। . . .’ ना जाने क्या-क्या सोचती रहती थी वह सन्नों को लेकर।
अम्मा धुन की बड़ी पक्की थीं। जिस काम में लग गईं . . . लगी ही रहती थीं। घर के सारे काम . . . झाड़ू-बुहारू से लेकर खाना-पकाना और खिलाना। इन्हीं सब में पूरा दिन गुजर जाता था अम्मा का। हाँ! अगर कुछ समय बचा सकीं तो तुलसी बाबा को लेकर बैठ जाती थीं और चुन-चुन कर सुन्दर-सुन्दर चौपाइयाँ अपनी सास को सुनाया करती थीं। बरोठे में बैठे हुए ससुर भी अपनी बहू की इस गुड़वत्ता पर बड़े रीझते थे। गर्व से चमकने लगता था उनका भी चेहरा। ‘धन्य हो ईश्वर. . . तुम्हारा लाख-लाख सुक्रिया. . . जो ऐसी लक्ष्मी को मेरे घर भेजा. . .।
सास तो जैसे पुजारन ही हो गई थी बहूं की। आस-पास की कई एक हम उम्र औरतों को बुलाकर बहू से सुनी हुई चौपाइयाँ सुनातीं और अपना सीना गर्व से फुलाती हुई उनकी पूरे आत्मविश्वास के साथ व्याख्या करतीं तो औरतें उनसे जलने लगतीं। व्याख्या एकदम विद्वान कथावाचक की माफिक।
“. . . हुइहै सो जो राम रचि राखा। . . .” सस्वर चौपाई गाते हुए नजर दीवार पर टिकटिका रही घड़ी पर चली गई। सुई पूरे चार बजा रही थी। सन्नों अब तक नहीं आई।
अरे आती ही होगी। कभी-कभार तो शाम के छ: तक बज जाते हैं। एम.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा है। और प्रथम वर्ष में नंबर भी अच्छे आये थे, सो उसकी अपेक्षा इस बार कुछ ज्यादा ही आने चाहिए। जी-जान लगाकर पढ़ाई कर रही है मेरी सन्नो. . .।  देखो ना कैसी दुबली हो गई है पढ़ाई के बोझ से।
अबकी उसके नाना के घर से देसी घी पहले से ही मँगाकर रख लेगी। चार चम्मच रोज दोनों जून खाने के समय देने से दिमाग अच्छा बना रहता है। और सन्नों के बाबा भी तो ना जाने क्या-क्या लाकर रखते रेहते हैं उसके लिए। च्यमनप्राश के चार-छ: डिब्बे तो पड़े ही होंगे। खाती ही नहीं है सन्नों। कहती है ‘. . . अम्मा मुझे च्यमनप्रास अच्छा नहीं लगता. . . मुझे यह ना खिलाया करो. . .’ अरे दबा तो दबा है कोई अच्छे लगने के लिए थोड़े ही खाई जाती है। अगर जबरदस्ती नहीं खिलाया होता तो दिन भर में एक-दो रोटियाँ चिरई-चुनगुन की तरह टूंग-टांग कर कहीं दिमाग तेज हो पाता।वो तो अम्मा ही हैं जो घेर-घार कर घी-दूध-व्यमनप्राश आदि खिलाती रहती हैं। चाहे जित्ता भी मना करो गुइंया. . . खाना तो पड़ेगा ही. . .। मन ही मन अपनी इस विजय पर इतरा जातीं अम्मा। और इतरायें भी क्यों ना. . .। ‘जाने क्या-क्या नहीं किया सन्नों के लिए पढ़ाई के द्वार खोलने को। सास को अलग समझाया, ससुर से घूँघट की ओट से बहस की और उन्हें तो रात-रात भर भरा. . . ।कभी-कभी अम्मा अपने इस कृत्य पर सरमा भी जातीं तो कभी-कभी गर्व भी महसूस करतीं। कुछ भी वह उन्हीं की दम थी कि इस घर में लड़कियों के लिए पाठशाला का दरवाजा खुल गया था।
छ: बज गये तो अम्मा कोदरवाजेकी हर आहट सन्नों के होने का भान कराने लगी। वैसे कुछ भी हो इतना समय तो कम ही होता था। और जब से उसके पिता ने थोड़ा डाँटा था तब से तो इतना समय कभी नहीं हुआ था। उस दिन पहली बार सन्नों की डाँट पड़ी थी। पूरे दो दिन तक मुँह फुलाये रही। जब तक पिता ने अपने हाथों से उसे खाना नहीं खिलाया। दुलार नहीं किया। लम्बी घोड़ी होती जा रही है लेकिन अम्मा-पिता का लाड़-प्यार पाने को ऐसे नखारे करती है जैसे अभी दूध के दाँत तक ना गिरे हों।
साढ़े छ: बजे तक भी दरवाजे से सन्नों अन्दर नहीं आई तो अम्मा के दिल की धड़कने बढ़ने लगीं। हृदय ना जाने कितने-कितने अच्छे-बुरे विचारों से गुंथने लगा।सूरज डूबने जा रहा है। अंधेरा अपना विस्तार कर रहा है, लेकिन सन्नों अब तक नहीं आई। कहाँ गई होगी. . . ? हो सकता हो आते समय रास्ते में साइकिल पंक्चर हो गई हो. . .? दाड़िजार! आठ कोस के रास्ते में एक दुकान भी तो नहीं हैं जो साइकैल में हवा तक पड़ जाये। अगर पंक्चर हो गई तो घर तक पैदल ही आना पड़ेगा. . .। मन ऊँचाई दर ऊंचाई ऊपर बढ़ने लगा।
आखिर जब नहीं रहा गया तो पड़ोस की ही सुमना हो आवाज लगाई – ‘. . . अरे ओ सुमना! पढ़ने गईं थीं क्या आज . . . अरे सुनती हो क्या . . .।’
‘. . . हाँ! चाची गई तो थी. . . क्या हुआ. . .’
‘. . . सन्नों अब तक नहीं आई. . . ’
‘. . . अरे . . . इत्ती देर कहाँ लगा दी . . . ट्‍युशन तो तीन बजे ही छूट गई थी। हम दोनों एक साथ सर के घर से निकले. . . सन्नों ने कहा मैं प्रेस करबाकर आती हूँ . . . तुम घर चलो . . . मैं तो साढ़े चार बजे घर आ गई थी. . .’
अम्मा की धड़कने और तेज हो गईं। मन अनजाने भय से भरने लगा। अंधेरा वातावरण के साथ उनके मनोमस्तिष्क को भी अपने आगोस में लेने लगा। ‘जय हो राम जी . . . तुम्हीं पालनहार हो रक्षा करना . . .।’ मन ही मन तैंतीसो करोड़ देवी-देवताओं का स्मरण होने लगा। घर के देवता से लेकर ग्राम देवता तथा आस-पास के तमाम देवी-देवताओं का प्रसाद मान डाला अम्मा ने।
मन की इस अस्थिरता के चलते वह दिया-बाती तक करना भूल गईं। शरीर कंपायमान हो उठा। कमरे से आंगन और आंगन से दुआरे के दरवाजे तक ना जाने कितने चक्कर लगा डाले, पर सन्नो का अब ना तब। इन्हीं उहा-पोहों में पूरा एक घण्टा बीत गया।
‘. . . अरे सन्नो पानी तो ले आना. . . ’ बाहर से सन्नों के बाबा की आवाज अम्मा को सुनाई दी तो ऐसा लगा जैसे वह आ गई हो। दौड़कर बाहर गई तो देखा दादा हार से वापस आये थे और पीने के लिए पानी माँग रहे थे।
दादा का रोज का ही नियम है कि जब भी वह बाहर से आते हैं तो सन्नों को पानी लाने के लिए हाँक देते हैं। और सन्नों. . . सन्नों भी उनकी बात के सूत तांबे के उनके लोटे में पहले से ही भर कर रखा पानी लेकर हाजिर हो जाती है। रोज का ही यह नियम है इनका।
दादा ने देखा कि उनके आवाज देने पर सन्नों की जगह उसकी माँ बाहर आई तो उन्हें कुछ अटपटा सा लगा। पूछ लिया कि ‘सन्नों कहाँ है’
‘. . . दादा सन्नों अब तक नहीं आई पढ़कर . .. ’ अम्मा की कंपकपाती हुई आवाज दादा को भी अंदर तक एक अजीब भय से भर गई। मुँह से कोई आवाज नहीं निकली उनके। बहूं की ओर निहारा तो उसका चेहरा भय और आशंका से लाल हो रहा था।उठ खड़े उए चारपाई से। बस निकालकर पास ही में रखा कुरता वापस उठाकर पहनते हुए दरवाजे की ओर चले गये।
बाहर जाकर आवाज दी – ‘. . . नन्हें . . . ओ नन्हें . . .’
‘. . . हाँ दादा क्या हुआ . . .’ नन्हें अपने घर से निकलकर उनके पास आते हुए बोला।
‘. . . सन्नों अब तक नहीं आई पढ़कर. . .’ दादा का भयाक्रांत चेहरा देखकर एक बार तो नन्हें भी परेशान हो गया। मुंह से बस यही निकला – ‘ . . . क्या अब तक नहीं आई पढ़कर . . .’
‘हाँ . . . लल्ला घर पर नहीं हैं। चलो देख आयें चलकर . . .’ नन्हें दादा के मन की स्थिति समझ गया। दादा से मोटरसाइकिल निकालकर लाने के लिए कहते हुए अपने घर की ओर दौड़ गया।
पूरा वातावरण एक अनजाने भय से भर गया। आस-पड़ोस में जिसको भी पता चला कि ‘सन्नों अब तक वापस घर नहीं आई’ . . . सहानुभूति से भरा हुआ सन्नों के दरवाजे पर आ गया।
तरह – तरह की बातें होने लगीं।
‘. . . किसी ने पकड़ तो नहीं लिया . . .’
‘. . . हाँ भइया हो सकता है . . . आज-कल ये पकड़ा-पकड़ाई बहुत चल रही है। . . .’
‘. . . और नहीं तो क्या . . . सोचा होगा कि अकेली लड़की है और पैसे वाले तो हैं ही. . .’
तरह-तरह की बातें। जो जिसकी समझ में आईं।
‘. . . कहीं भाग तो नहीं गई किसी के साथ . . .’ किसी ने दूसरे के कान में मुंह लगाते हुए फुसफुसाया।
‘. . . हाँ हो सकता है आजी . . . आज-कल के लड़के-लड़कियों का कोई भरोसा तो है नहीं. . .’
‘. . .और भेजो घर से बाहर पढ़ने को. . .’
‘. . . मेरे उन्ने तो जिज्जी इसीलिए बिटिया को पढ़ने के लिए नहीं भेजा। बारही साल में बरात कर दी। अब देखो आराम से अपना घर-बार देख रही है। अच्छे-खासे चार बच्चे हैं. . . . और क्या चाहिए एक औरत को. . . । हमारी भी नाक बची है और उसकी भी जिन्दगी बन गई है।’
‘. . . तुम सही कहती हो चाची. . .’
‘. . .भगवान का लाख-लाख शुक्र है . . . मेरे दो लड़के ही हैं . . .कहीं बिटिया होती तो मैं भी डरी रहती हरदम. . .’
जितने मुंह उतनी बातें।
अम्मा का बुरा हाल हो रहा था। लोगों की तरह-तरह की बातें उनके करेजे पर काँटे की तरह चुभ रही थीं। मुँह से कुछ बोला नहीं जा रहा था। बस रोये जा रही थीं और ‘सन्नों’ का नाम लेकर खिन-खिन में बेहोस हो जाती थीं।
आस-पास बैठी घर-परिवार और मोहल्ले की औरतें अम्मा को दिखावटी सान्त्वना दे रही थीं।
‘. . .अपने आप को सम्हालो बहू. . . आ जायेगी बिटिया. . .’
‘. . . हाँ बहू . . . तुम तो समझदार हो . . . और बिटिया भी क्या नासमझ है . . . पढ़ी-लिखी है . . . ’
‘. . . दादा और सब लोग गये हैं देखने . . . अभी आती ही होगी . . .चुप जाओ बहू. . .’
औरतें तरह-तरह की बातों से बहूं को सान्त्वना देने का प्रयास कर रही थीं। वैसे औरतों की इस हमदरदी में मजाक कहीं अधिक था।
अम्मा को सान्त्वना देने के बाद मन में सोचतीं ‘. . .और करबा लो कलट्टरी लड़की से . . . भागेगी नहीं तो क्या तुम्हारे लिए फूल बिछायेगी. . .’
‘. . . कितनी बार कहा कि अब ज्यादा मत पढ़ाओ लड़की को . . . कोई लड़का देखकर ब्याह कर दो . . .लेकिन नहीं भाई . . .पता कैसे चलेगा कि इन्होंने अपनी लड़की को इतना ज्यादा पढ़ा-लिखाकर मास्टरनी बनाया है. . . अब बना लो मास्टरनी . . . ’
सान्त्वना देने वाली इन औरतों के व्यंग्यबाण अम्मा को असह पीड़ा पहुँचाने लगे। अम्मा निहाल हो गई थीं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था और ना ही वह कुछ देख पा रही थीं। उन्हें तो बस यही लग रहा था जैसे कि आज बीच चौराहे पर उनकी इज्जत-आबरू की नीलामी हो रही हो। उसके सारे प्रयास, सारा संघर्ष विफल हो गया था आज। उन्होंने ऐसा तो नहीं सोचा था कभी कि यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब क्या कहूं सबसे सन्नों को लेकर। . . .क्या किया रे सन्नो तूने क्या किया . . . किस बात की कमी थी तुझे यहाँ . . .।
असहाय-सी हो गई अम्मा के मन में लोगों के मन की बात अब विश्वास बन कर अपनी जड़े जमाने लगी थी कि हो न हो ‘भाग गई सन्नो।’
‘नहीं...... नहीं ...... ऐसा नहीं हो सकता। . . . ऐसा तो हो ही नहीं सकता। . . . मेरे संस्कारों की डोर इतनी कमजोर नहीं हो सकती।. . .’ अम्मा अपने आप से ही लड़ने लगीं। विचारों की पूरी सेना ने अम्मा के अंतस में खलबली मचा दी।
रात का अंधेरा अम्मा को भयंकर राक्षस लगने लगा जो उनकी बेबसी पर ठहाके लगाता-सा प्रतीत होने लगा। अम्मा उससे लड़ने का प्रयास करने लगीं। उन्होंने एक बार फिर से नकारात्मक विचारों को अपने आप से दूर करने का प्रयास किया। ‘नहीं . . . लोग जो कह रहे हैं झूठ है . . . हो ना हो सन्नों किसी बड़ी मुसीबत में फंस गई हो।अम्मा ने पूरी ताकत लगाकर अपने को इकट्ठा किया।
‘राम जी मेरी लाज रखना. . . हे किसन कन्हैया नंगा ना होने देना . . . तुम्हें मेरी सौगन्ध. . . ’ अम्मा तरह-तरह से अपने मन से अनहोनी की बात को हटाने का प्रयास करने लगीं।
रात के ग्यारह बज गये थे। नन्हें के साथ सन्नों की तलास में गये दादा अभी वापस घर नहीं आये थे। शहर गये सन्नों के पापा भी जब घर आये तो सुनकर सुन्न हो गये कि यह क्या हुआ। उल्टे पैरों ही गाँव के किसी व्यक्ति को लेकर सन्नों की तलास में निकल गये।
अम्मा को सान्त्वना देने आये लोग धीरे-धीरे अपने-अपने घरों को वापस लौटने लगे। बस घर-परिवार के ही कुछ लोग अम्मा के पास रह गये थे। सभी को ऐसा लगता था जैसे सन्निपात हो गया हो।सबके चेहरे पर मुर्दानी छाई थी। मृत्यु-सूचक सन्नाटा रात के अंधियारे को और भीभयावह बना रहा था।
घड़ी ने पौने बारह बजाये तो मोटर साइकिल की आवाज अम्मा के कानों से टकराई। अम्मा के साथ पास में बैठे अन्य लोग भी दौड़कर दरवाजे पर जा पहुँचे।मोटरसाइकिल की तेज रोशनी ने दरवाजे पर शुभत्व की सूचना पाने की आस लगाये खड़ी अम्मा और अन्य औरतों की आँखें चुंधिया दीं। मोटरसाइकल जब पास आकर रुकी तो अम्मा की धड़कने तेज हो गईं।शुभ समाचार की आस से दादा और उन्हें देखा तो वापस निरासा के सागर में गोते लगाने लगीं। दादा और सन्नों के पापा का उतरा हुआ चेहरा बता रहा था कि ‘सन्नों का कोई समाचार नहीं मिला है।’
नन्हें पीछे से सन्नों की साइकिल लेकर आये तो सबको पता चला कि ‘महेश सर्राफ की दुकान पर साइकिल खड़ी करके सन्नों प्रेस करवाने को कहकर गई, फिर वापस नहीं आई। . . . महेश को भी सन्नों की याद तब आई जब रात नौ बजे दुकान बढ़ाते समय उन्हें सन्नों की साइकिल अब तक उनकी दुकान पर खड़ी दिखाई दी।’
सबके चेहरों पर रात की कालिमा और भी गहरी होकर सिमट आई। पूरी रात इसी मसानी में गुजर गई। अपलक. . . ।
अम्मा, दादा, पापा, घर के अन्य लोगों के साथ बच्चों तक के सामने से रात एक भयानक झंझाबात की तरह गुजर गई, लेकिन किसी के पलकों पर नींद ने दस्तक नहीं दी।
सूरज की किरणों ने जब अम्मा के चेहरे पर दस्तक दी तो उन्हें लगा जैसे आज उठने में बड़ी देर हो गई हो। सन्नों को ट्‍यूशन भी तो जाना है। मन में एक तरंग उठी। जितनी सहजता से तरंग उठी उतनी ही सहजता से विलीन भी हो गई। अम्मा अब पूरी तरह से आश्वस्त हो चुकी थीं कि अब सन्नों को पढ़ने नहीं जाना है।सबके चेहरों पर एकबरगी अम्मा की नजर फिरी और अनायास ही आँखों से जलधारा प्रवाहित हो उठी।
सुबह होते-होते घर में गाँव वालों की भीड़ जुटने लगी। दादा और सन्नों के पापा जवाब देते-देते परेशान होने लगे। दादा, पापा और घर के लोगों के झुके हुए चेहरे देककर अम्मा अपने को दोषी समझने लगीं। उन्हें लगने लगा कि जैसे इस सबकी जिम्मेवार वह ही हैं। उन्हीं ने जिद की थी सन्नों को पढ़ाने की।
अम्मा पल-पल में चेतन और अचेतन के बीच झूझने लगीं। सबके हृदय में यह बात अब पूरे इत्मिनान से घर कर गई थी कि ‘अब सन्नों नहीं आयेगी।’
घर के किसी भी सदस्य ने कल से अन्न का एक दाना तक नहीं खाया था। रामलाल की दुल्हिन चाय बनाकर लाईं पर किसी ने उस ओर देखा तक नहीं।
दादा और सन्नों के पापा दो-चार लोगों को लेकर तड़के ही सन्नों की खोज में निकल गये। कहाँ-कहाँ नहीं तलाशा उन्होंने सन्नों को। लेकिन सन्नों की कुछ भी भनक नहीं लग पाई। आखिर गई तो गई कहाँ. . .? अफवाहों की हवा तेजी से बहने लगी।अपने आप से लड़ते हुए भी अधिकांस लोगों के मनोमस्तिष्क में यह विश्वास जड़ जमाने लगा था कि ‘अब सन्नों का मिलना बड़ा मुश्किल है. . . भाग ही गई है किसी के साथ. . .।’
जो भी जैसी सलाह देता दादा को सही लगती और वह उस पर अमल करने पर मजबूर हो जाते। किसी ने पुलिस को सूचना देने की सलाह दी दादा को। दादा का दिमाग चकरा गया। थाना-पुलिस-जग हसाई. . . पुरखों की सारी इज्जर मिट्टी में मिल गई आज।
थानेदार और पुलिस वालों के ‘व्यंग्य भरे प्रश्न’ दादा की अन्तरात्मा को झकझोर देते।अब जो हुआ उसका कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा।
थाना-पुलिस सब बेकार। पूरे पन्द्रह दिन गुजर चुके थे सन्नों के लापता हुए, लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था।
सन्नों के पापा लोगों के कहने पर ना जाने कितने तान्त्रिकों तक से भी सलाह ले आये थे। पर सब का सब बेकार। किसी की बात अम्मा के दिमाग को तसल्ली नहीं दे पा रही थी। अम्मा के दिमाग में तो बस सन्नों कीहसती-खिलखिलाती हुई मूरत इधर से उधर दौड़ रही थी, जिसकी तुलना अम्मा सन्नों की एक नवीन मूरत से करने का प्रयास कर रही थीं।अम्मा के दिमाग में एक पूरी फिल्म चल रही थी इस समय। सन्नों के जीवन की फिल्म। उसके बचपन से लेकर अब तक की फिल्म, जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी।बार-बार शुरू से ही आरम्भ हो जाती थी।
दिन पर दिन गुरते जा रहे थे। अम्मा का शरीर सूखकर कांटा होने लगा। भूख-प्यास से अम्मा का दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं रह गया था।
सन्नों अब एक सपने में बदलने लगी थी।धीरे-धीरे सभी अपनी दिनचर्या पर वापस आ रहे थे, लेकिन अम्मा के मनोमस्तिष्क से सन्नों एक पल को भी अमिट नही हो रही थी। हर आहट पर उन्हें ऐसा लगता था जैसे सन्नों आ गई हो। हवा का हर झोंका उन्हें सन्नों की खुशबू दे जाता था। रह-रह कर उन्हें ऐसा लगता था जैसे अभी पीछे से सन्नों आकर उनसे लिपट जायेगी और रोज की तरह इठलाकर घी और च्यमन्प्रास ना खाने की जिद करती हुई उनके गाल पर मीठा चुम्मा ले लेगी, जिससे वह आनंद से भर उठेंगी।‘नहीं यह सब छलावा है। अब वह नहीं आयेगी’ अम्मा पल-पल अपने को समझाने की कोशिश करतीं। सब बेकार . . . चाहते ना चाहते हुए भी प्रत्येक आहट सन्नों की महक से अम्मा को भर ही जाती।
तुम कहाँ चली गई हो सन्नों अपनी अम्मा को छोड़कर . . .एक बार तो आ जाओ अपनी अम्मा के गाल पर मीठा चुम्मा लेने . . . आ जाओ सन्नों वापस आ जाओ . . .।

कट

सन्नों आज बड़ी खुश लग रही थी।साइकिल पर जाते हुए वह आसमान में उड़ रही थी। दिमाग में देखे हुए सपने हकीकत में बदलते हुए दिखाई पड़ रहे थे। वह सपने जो उसने मोहित के साथ उस दिन से देखे थे, जब वह मोहित से पहली इण्टर कॉलेज में मिली थी।उस दिन पहली बार सन्नों को ऐसा लगा था जैसे उसके सपनों का राजकुमार आज साक्षात उसके सामने खड़ा हो गया हो।पहली ही मुलाकात में दोनों एक-दूसरे पर मर मिटे थे।तब से लेकर अब तक दोनों एक साथ एक ही क्लाश में पढ़ते चले आ रहे थे। दोनों एक साथ एक से एक हसीन सपने देखते चले आ रहे थे। आज उसके सपने हकीकत में बदल रह थे।
सोचकर ही सन्नों का शरीर रोमांच से भर उठा था। आज उसे अम्मा, दादा और पापा की जगह मोहित की ही याद आ रही थी।
मोहित और आगामी जीवन के हसीन सपनों में खोई हुई सन्नों के पैर साइकिल के पैडल पर ऐसे डोल रहे थे जैसे कि पैर ना होकर पंख हों।हाँ! वास्तव में साइकिल पर जाती हुई सन्नों आज उड़ रही थी। बिलकुल चिड़िया की माफिक। एकदम स्वच्छन्द . . .प्रफुल्लित मन से . . . उड़ी जा रही थी।
आज उसने अपना सफर बड़ी जल्दी ही पूरा कर लिया था। उसे पता ही नहीं चला कि आज इतनी जल्दी वह ट्‍यूशन वाले सर के घर कैसे पहुँच गई है। जीवन के रंगीन सपनों में खोई हुई सन्नों को आज आठ कोस का रास्ता बहुत ही छोटा लगा था।उसका शरीर मारे रोमांच के रुई की माफिक हल्का हो चला था। उड़ता हुआ सातवें आसमान के पार जा पहुँचा था।बार-बार उसके सामने उसके मोहित. . . नहीं . . .नहीं . . . मनमोहन की छवि मदभरी मुद्रा में दिखाई पड़ने लगती थी।
ट्‍यूशन में बैठे हुए भी वह वहाँ नहीं थी। सर ने दो-एक बार पूछ ही लिया ‘कहाँ हो सन्नो. . . ’
‘. . . कहीं नहीं सर यहीं हूँ . . .’
सर ने वेबजह और ध्यान नहीं दिया उस पर, पूरी तन्मयता से पढ़ाने में लग गये। सन्नों का मन पढ़ने में नहीं लगा तो नहीं ही लगा।उसका मन तो आज हवाई सफर तय कर रहा था।
दो घण्टे की क्लास सन्नों को ना जाने कितनी लम्बी लगी थी आज। खत्म होते ही सबसे पहले वही निकली कक्षा से। पीछे सुमना आवाज दी – ‘अरी सन्नों कहाँ जा रही हो इतनी जल्दी . . . थोड़ा रुको तो सही . . . मैं भी आती हूँ . . .’
‘. . . अरे सुमना तुम चली जाना घर . . . मुझे कुछ सामान लेना है बाजार से और कपड़े भी प्रेस कराने हैं. . . अम्मा को कह देना थोड़ी देर हो जायेगी. . .।’ इससे पहले कि सुमना कुछ बोल पाती सन्नों ये गई कि वो गई।
सीधे महेश ज्वेलर्स की दुकान पर जाकर रुकी।
‘. . . महेश अंकल मेरी साइकिल खड़ी है. . . मैं प्रेस करवा कर अभी थोड़ी देर में आती हूँ . . .।’ महेश अंकल ने एक नजर सन्नों और साइकिल पर डाली फिर अपने पान की गिलोरी से भरे हुए मुँह को बोलने के लिए कुछ तकलीफ देने का प्रयास करने लगे – ‘. . . जल्दी आना बिटिया . . .’ फिर अपने काम में मशगूल हो गये।
वहाँ से सन्नों सीधे बस स्टाप पर पहुँची तो शहर जाने वाली बस चलने को तैयार खड़ी थी। मन में सागर-सी हिलोरें लेती हुई बस में सवार हो गई सन्नो. . .।आज उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। बस एक ही सूरत मन में स्थिर हो गई थी, मोहित की मूरत।
करीब एक घण्टे के सफर के बाद बस के कन्डक्टर ने आवाज दी – ‘स्टेशन जाने वाली सवारियाँ यहीं उतर जायें, आगे बस स्टाप से पहले नहीं रुकेगी. . .।’ मोहित की सुध में खोई हुई सन्नों जाग गई एकदम से. . .हड़बड़ाते हुए बस से नीचे उतरी और पास ही में खड़े एक रिक्शे पर बैठते हुए उससे रेलवे स्टेशन चलने को कहा। रिक्शे वाले ने हुक्म की तत्काल तामील की।
रेलवे स्टेशन पर पहुँचकर सन्नों ने रिक्शे वाले को पर्स से पैसे निकालकर देते हुए पूछा – ‘. . . भइया . . .लखनऊ के लिए किस समय ट्रेन मिलेगी. . .’
‘. . . बहन जी अभी जल्दी से टिकट ले लीजिए . . . गोहाटी एक्सप्रेस आती ही होगी. . . अभी गई नहीं है . . . शायद लेट है आज . . .’ सन्नों रिक्शे वाले की बात को सुनते हुए ही टिकट काउन्टर की ओर बढ़ गई।
टिकट लेकर सन्नों द्वितीय श्रेणी के विश्रामालय में आकर बैठ गई। ट्रेन दो-ढाई घण्टे लेट थी। सन्नों ने अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली। ‘. . .अभी तो चार ही बजे हैं . . .ट्रेन कहीं पाँच-साढ़े पाँच बजे तक आयेगी. . .।’ कैसे कटेगा यह समय। सन्नों का दिमाग तमाम उलझनों से भर गया।
‘. . .कहीं किसी ने देख लिया तो . . . नहीं – नहीं ऐसा नहीं हो सकता. . .वह यहाँ पर नहीं बैठेगी. . .’
सन्नों ने अपने चेहरे पर दुपट्टे को कसकर बाँधा और पास ही के बुकस्टाल से एक पत्रिका खरीदकर सीधे मालखाने की ओर चली गई। वहाँ एक बैंच पर बैठकर पत्रिका पढ़ने का बहाना अपने आप से करने लगी।
सन्नों के दिमाग में तरह-तरह की बातें चलने लगीं।
‘. . .लखनऊ में स्टेशन पर ही मोहित ने मिलने को कहा है. . . कहीं नहीं मिला तो . . . अरे मिलेगा कैसे नहीं . . . वह भी तो हम पर उतना ही मरता है जितना कि मैं उस पर. . . वह भी अभी से स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहा होगा।. . .’
सन्नों के पास अपना फोन नहीं था अभी। मोहित से अक्सर बात पापा के फोन से ही छिपछिपाकर कर लिया करती थी।और घर से भागकर ब्याह करने का पूरा प्लान सन्नों और मोहित ने दो महीने पहले ही बनाया था, जब सन्नों पेपर देने गई थी।कल शाम को किसी तरह से सुमना के फोन से मोहित से बात हुई थी। आज का सारा कार्यक्रम कल शाम को ही मोहितने फोन पर बताया था। तभी से हवा में उड़ी जा रही थी सन्नो।
सन्नों ने जब गाँव के स्कूल से ही मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर लीतो दादा की खीची गई लकीर उन्होंने खुद मिटा दी। बड़ी प्रसन्नता से सन्नों को प्यार करते हुए कहा – ‘. . . आगे भी ऐसे ही मेहनत से पढ़ना . . . जहाँ तक मन करे . . .’
आगे पढ़ने की इजाजत तो मिल गई थी लेकिन एक बड़ी समस्या थी अब सामने। समस्या यह कि गाँव या आस-पास कोई इण्टर कॉलेज नहीं था जहाँ सन्नों का नाम लिखाया जाता।
सन्नों की नानी लखनऊ में थीं। उन्होंने कहा कि ‘सन्नों को उनके पास कर दो . . .यहीं अच्छे कॉलेज में नाम लिखबा दूँगी . . .।’
अम्मा को यह अच्छा नहीं लगा कि सन्नों उनसे दूर रहे। अम्मा ही क्या घर के किसी सदस्य को यह अच्छा नहीं लगा कि ‘सन्नों उनसे दूर रहे।’लेकिन और कोई चारा भी नहीं था। चाहते ना चाहते हुए भी करेजे पर पत्थर रखकर अम्मा ने सन्नों को नानी के घर पर पढ़ने को भेजा।
इण्टर के यह दो बरस अम्मा के साथ-साथ घर के सभी सदस्यों पर बड़े भारी गुजरे थे। जब सन्नों ने इण्टर पास कर लिया तो सबने एकमत होते हुए फैसला किया कि ‘अब वह आगे की पढ़ाई ‘प्राइवेट’ करेगी।’और पास उसका ‘स्नातक’ का फार्म ‘प्राइवेट’ डलवा दिया गया। सन्नों ने बहुत कहा कि ‘वह रेगुलर पढ़ेगी. . .’ लेकिन एक बार घर में जो फैसला ले लिया गया सो ले लिया गया। घर से आठ कोस दूर ही अहिबरन सिंह मास्साब से उसकी ट्‍यूशन लगाबा दी गई। इस प्रकार सन्नों की आगे की पढ़ाई घर और ट्‍यूशन के बलबूते आरम्भ हो गई।फिर भी सन्नों ने कमाल कर दिखाया। हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास हुई।
सन्नों भले ही घर पर रहकर प्राइवेट पढ़ रही थी लेकिन मोहित से उसका जो रिस्ता बन गया था वह कम होने की बजाय अधिक प्रगाढ़ ही हुआ था। किसी ना किसी प्रकार से छिपते-छिपाते वह मोहित से बात कर ही लिया करती थी।चाहे पापा का फोन हो या फिर सुमना का। अधिकतर सुमना ही उसके काम आया करती थी।
सुमना का घर सन्नों से लगा हुआ ही था। बीच में महज छत ही थी, जिसके जरिये आसानी से वह सुमना के घर चली जाया करती थी पढ़ाई के बहाने।अम्मा को भी अच्छा लगता था कि सन्नों गाँव-गिरावँ में किसी के यहाँ आती-जाती नहीं है। सुमना के साथ ही बैठकर पढ़ती रहती है। घण्टों . . .।
शुरुआत में सुमना को तक पता नहीं था सन्नों और मोहित के बारे में, लेकिन धीरे-धीरे उसे इस बात की जानकारी हो ही गई। फिर सन्नों ने भी उसको कुछबता दिया था। सुमना को लगा कि ‘चलो कोई बात नहीं. . . कॉलेज का दोस्त  है . . . दो-चार बातें करने में क्या गुनाह . . . ।’
कहानी चलती जा रही थी, लेकिन जबसे इस बार सन्नों पेपर देकर आई उसका मन किताबों से ज्यादा फोन में लगता था। सुमना भले ही मुरव्वत में कुछ कह नहीं पा रही हो लेकिन उसे सन्नों की फोन में लगातार बढ़ती जा रही प्रगढ़ता पर शक होने लगा था।पर सुमना को अंतिम दिन तक इस बात का आभास नहीं हो सका कि सन्नों इतना बड़ा कदम भी उठा सकती है।
‘. . . यात्रीगण कृपया ध्यान दें . . .  . . .  . . . प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है . . .  . . .  . . . ’ मोहित के ख्यालों में खोई सन्नों जाग गई एकदम से।
ट्रेन और यात्रियों की मिली-जुली आवाज को मायके से अपनी विदाई मानकर सन्नों ट्रेन के महिला डिब्बे में चढ़ गई।सुनहरे सपनों के साथ नवीन मंजिल की ओर।
ट्रेन की तेज गति और आवाज से बेपरवाह सी सन्नों के हृदय में एक अजीब-सा कुतूहल मच गया था इस समय।वह अपनी नवीन मंजिल पर निकल तो पड़ी थी लेकिनअब . . . अब . . . पता नहीं क्यों उसके मन में अजीब-अजीब तरह के विचारों का कोलाज बन रहा था।अब उसके मनोमस्तिष्क में अम्मा, पापा, दादा . . . और मोहित . . . एक साथ छण-छण को आ जारहे थे।कुछ नकारात्मक और उनसे अपने को समेटे हुए से सकारात्मक भाव लगाता सन्नों के दिमाग में आ-जा रहे थे।
मानसिक झंझावातों से अपने आपको समेटते हुए सन्नों ने बैग से पत्रिका निकालकर पढ़नी आरम्भ की।. . . एक प्रेमकहानी . . . पूरी पढ़ गई वह। उसके केन्द्र में खुद और मोहित को रखकर. . .। एक बार फिर वह मोहित के संग हसीन सपनों में खो गई।
लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन पहुँच चुकी थी। सन्नों के दिल की धड़कने तेज हो गईं। उसने सम्हाला खुद को और मन में केवल सकारात्मक भावों को लेकर प्लेटफार्म पर उतर गई।नजरें भीड़ को चीरती हुई मोहित को तलाशने लगीं।कदम धीरे-धीरे गेट की ओर बढ़ गये।
बाहर आकर भी उसे जब कहीं मोहित नहीं दिखाई दिया तो सन्नों की पहले से ही तेज धड़कनों ने और भी तीव्र गति पकड़ ली। शरीर में कपकपी-सी होने लगी।ऐसा लगने लगा जैसे कि आँखों के सामने अंधेरा छा गया हो। अनजान भीड़ में सन्नों को सब कालिख पुते बिजूके से दिखाई पड़ने लगे। आँखें और भी अधिक गति से मोहित को तलाशने लगीं, पर मोहित कहीं दिखाई नहीं दिया।
‘. . . कहाँ खो गई थीं तुम इतनी देर से तलाश रहा हूँ तुम्हें . . .’ पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा तो सन्नों ने चिरपरिचित सी आवाज को पहचानते हुएपीछे मुड़कर देखा। सामने मोहित नाराजगी भरी नजरों से उसे देख रहा था।
‘. . .मैंने तुमसे कहा था कि गेट के पास ई खड़ी रहना . . . फिर वहाँ से क्यों हटीं . . .इतनी देर से तलाश रहा हूँ . . . तुमने तो परेशान ही कर दिया एकदम से . . .’ सन्नों ने मोहित की बातों और हाव-भाव में अपने लिए प्रेम कीबयार देखी तोतन-मन शीतल हो गया। इसी शीतलता में पानी की दो बूँदें उसकी आँखों से टपक पड़ीं।मोहित ने उन्हें गिरने नहीं दिया। अपने हाथों में ही लेते हुए बोला – ‘ . . . बहुत अनमोल हैं . . . इन्हें इस तरह बहाने की जरूरत नहीं है . . .’
दोनों ने अपने प्रेमी को आनंदातिरेक से देखा। मन ने कहा बस देखते रहो . . . अपलक . . .’
‘. . . अब चलो भी . . . बाकी का सारा काम कमरे पर . . .’ मोहित ने सन्नों को कामपरक नजरों से छेड़ा। शरमा गई सन्नों ने मारे लाज के नजरें नीचे झुका लीं।
मोहित ने सन्नों का कपड़ों वाला बैग उठा लिया। सड़क पर आकर आटो किया और उसे डालीगंज चलने को कहकर पीछे की सीट पर दोनों एक-दूसरे की बाहों में बांह डालकर ऐसे बैठ गये जैसे कबके प्यासे पपीहे को स्वाति की बूँद मिल गई हो।
मोहित ने पूरा प्रबन्ध कर रखा था। डालीगंज चौराहे पर दोनों आटो से उतरकर एक गली में जा पहुँचे। कुछ देर चलने के बाद एक मकान के सामने पहुँचकर मोहित ने उसकी घण्टी बजाई।
मोहित ने सारी तैयारी कर रखी थी सन्नों के लिए। आज वह लखनऊ में ही रहेगा और कल कानपुर चला जायेगा। वहाँ उसके दोस्त ने रहने का प्रबन्ध क्कर दिया है। एक छोटा-सा कमरा, एक बेड और जरूरत की और भी कुछ चीजें। लखनऊ में आज पहली बार जिस घर में सन्नो कदम रखने जा रही थी, मोहित के एक दोस्त का घर था। मोहित ने दोस्त को सारी बात बता दी थी और दोस्त ने किसी प्रकार से अपने घर में मैंनेज कर लिया था। मम्मी से कह दिया था कि परसों इन दोनों की शादी है कानपुर में, आज देर हो गई है, इसलिए कल जायेंगे यह कानपुर। आज की रात यहीं बितायेंगे।
मकान का दरवाजा खुला। खोलने वाली एक तकरीबन चालीस साल की महिला थीं। खोलते ही उसने सन्नों को पैनी नजरों से देखा। सन्नों को लगा जैसे अम्मा हों। सकपका ही गई एक बार को वह। जल्दी से सम्हाल लिया खुद को। दोनों ने एक साथ ही कहा – ‘. . . आंटी जी नमस्ते. . .’ महिला ने स्वीकृति में सर हिला दिया और अंदर आने का इशारा किया।
दोनों अंदर तो चले गये पर सन्नों के अंदर का चोर कहीं ना कहीं तक ‘कंपायमान’ हो गया। आज उसे पहली बार बड़ा विचित्र-सा आभाष हो रहा था। जैसे की चोरी करते हुए किसी ने रंगे हाथों पकड़ लिया हो। बढ़ती हुई धडकनों पर काबू करने के प्रयास में ही कमरे तक पहुँच गई सन्नों। आंटी दोनों को शकभरी नजरों से लगातार घूरे जा रही थीं।
दोनों ने कमरे में जाते ही झट से दरवाजा बंद कर लिया। सन्नों एकदम से लिपट गई मोहित को।
मोहित का दोस्त, जिसने मोहित को यहाँ आज की रात रुकने का प्रबन्ध किया था घर पर नहीं था। जब तक वह आ नहीं गया सन्नों के प्राण अधर में ही अटके रहे; क्योंकि आंटी की आँखे लगातार किसी ना किसी बहाने से उन्हें घूरे जा रही थीं।रात के दस बजे कहीं जब वह आया तो दोनों ने चौन की सांस ली।
खैर! दोस्त की माँ ने ज्यादा पूँछ-ताँछ नहीं की, फिर भी सन्नों कम्फर्ट महसूस नहीं कर रही थी।
दोस्त ने उनके खाने-पीने का इंतजाम पहले से ही कर दिया था, इसलिए दोनों अब जल्दी ही सो जाना चाहते थे। सुबह पाँच बजे कानपुर के लिए ट्रेन थी, जिसे पकड़ने के लिए चार बजे तड़के ही घर से निकलना होगा। जब कानपुर पहुँचेंगे तभी जाकर सन्तोष होगा उन्हें।
दोनों की एक साथ यह पहली रात थी। एक-दूसरे की बाँहों में सुखभरी रात। सन्नों के सपनों का राजकुमार आज सपनों से निकलकर उसके आगोश में बंध गया था। कितना हशीन था यह पल सन्नों के लिए। उसकी बरसों की मुरादें उसके पास स्थिर हो गई थीं।
एक-दूसरे की बाँहों के कसाव में जकड़े हुए ही दोनों ने पूरी रात जागते हुए ही बिता दी। कई बार सोने का प्रयास किया लेकिन बिरह-मिलन की इस प्रथम बेला में नींद का क्या काम था।
घड़ी ने तीन बजा दिये तो एक बार ताजगी के साथ दोनों ने फिर से एक-दूसरे को सींचा। ना चाहते हुए भी सन्नों ने मोहित को फ्रेस होने के बहाने अपने आपसे दूर किया और कपड़े लेकर बाथरूम की ओर चली गई।
मोहित उसे छोड़ना नहीं चाहता था आज बिलकुल। उसने बाथरूम की ओर जाती हुई सन्नों को प्यार भरी नजरों से देखा और खुद भी उठकर जाने की तैयारी करने लगा।
मोहित के दोस्त को जब लगा कि दोनों उठ गये हैं तो वह ऊपर उनके कमरे में चाय लेकर आ गया। दोनों बैठकर चाय पीने लगे तब तक बाथरूम से नहाकर सन्नों भी आ गई। मोहित और उसका दोस्त उसको देखते ही रह गये अपलक . . .। आज सन्नों ने पहली बार साड़ी पहनी थी और साड़ी में सन्नों बला की खूबसूरत लग रही थी। मोहित को ऐसा लगा जैसे कामदेव अपनी पूरी शक्ति के साथ सन्नों में समाहित हो गये हों।
मोहित जड़-सा हो गया सन्नों के रूप-यौवन में।
‘. . . भाभी जी आप बड़ी खूबसूरत लग रही हैं. . .’ मोहित के दोस्त ने सन्नों की तारीफ करनी चाही।
सकपका गई सन्नों। उसे दोस्त की आँखों में कामुकता की झलक दिखाई पड़ गई। अपने आपको सम्हालते हुए उसने मोहित से कहा – ‘ चलो अभी तक बैठे हो. . . चार बज गये हैं . . . ट्रेन का समय हो रहा है . . .’
मोहित मुस्कुरा दिया। तैयारी कुछ करनी ही नहीं थी। दोस्त नीचे मिलने को कहकर कमरे से चला गया तो सन्नों ने मोहित से उसका उलाहना किया, जिसे मोहित ने हँसकर टाल दिया।
सन्नों ने बाल बाँधे और घर से छिपाकर लाये हुए गहने पहने। ऐसे सजी जैसे विवाह के बाद एक नवयौवना सजती है। मोहित छोटी-मोटी छेड़खानी के साथ उसका रसपान कर रहा था, जिसमें सन्नों एक पत्नी की भाँति मोहित का सहयोग कर रही थी।
कानपुर जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। दोस्त दोनों को स्टेशन छोड़ने आया था। उसने ही उन्हें कानपुर की दो टिकटें लाकर दी थीं और दिया था एक छोटा-सा गिफ्ट का डिब्बा। पूरी तरह से पैक। यह कहकर की रात को सोने समय ही इसे खोलना।
ट्रेन चल पड़ी कानपुर के लिए। और सन्नों चल पड़ी मोहित के साथ एक नवीन सफर पर। सब कुछ को पीछे छोड़ते हुए। अम्मा, पापा, दादा, घर, गाँव और. . . वह सारी संवेदनायें जो उसके साथ बुनी गई थीं। उसकी अम्मा ने उसके लिए बुनी थीं, बरसों के धैर्य के साथ।
ट्रेन ने चलते हुए अपना विशेष संगीत छेड़ दिया और मोहित के कंधे पर सर रखे हुए सन्नों एक बार फिर से अपने आगामी जीवन की सज-धज में खो गई। ठीक उसी प्रकार जैसे अम्मा खो जाती थीं उसकी देख-रेख और घर के कामों में।
सब कुछ को तेजी के साथ पीछे छोड़ती हुई ट्रेन तेज गति से कानपुर की ओर, सन्नों की हसीन मंजिल की ओर भागी जा रही थी।
कानपुर के पहले की स्टेशनों पर जब ट्रेन रुकती तो सन्नों कुछ देर के लिए जाग जाती और कुछ ही देर बाद वापस अपने सपनों में खो जाती। मोहित के साथ। उसके सपनों के आलम्बन के साथ।
ऐसे ही एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो उसमें चढ़ने वाले यात्रियों में कुछ अध्यापक गण भी थे। हंसते-बात करते हुए सन्नों के सामने वाली सीट पर ही आ बैठे। इनकी आपस की बातचीत से लग रहा था कि ये लोग कानपुर के किसी कॉलेज में प्रवक्ता हैं और कवि भी हैं। आपस में हो रही उनकी दीन-दुनिया की बातों से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था।
सन्नों और मोहित इनकी बातों को समझने का प्रयास करने लगे। उनकी बातों से सन्नों को ऐसा लगा जैसे कि उन लोगों की बातों का केन्द्र-बिन्दु वह ही हो।
‘. . . जी हाँ! तिवारी जी . . . आज-कल के बच्चों ने माँ-बाप को हासिये पर ही डाल दिया है . . .’
‘. . . उनके लिए संवेदना की डोर महज एक खिलौना है. . . भाव उसमें से ना जाने कहाँ गायब हो गये हैं . . .’
‘. . . भाई मैं आप लोगों की बातों से सहमत नहीं हूँ . . .’ एक नौजवान प्रवक्ता ने अपनी बात रखी।
‘जी हाँ! अगर लड़का-लड़की बड़े हो गये हैं और वह खुद फैसला लेना चाहते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है. . .।’
‘क्यूँ जी बुराई क्यों नहीं हैं. . . एक माँ-बाप, जो बच्चों को पालते-पोसते हैं, उनकी हर फरमाइस पूरी करते हैं, और बच्चे हैं कि उनकी संवेदनाओं को एक झटके में तोड़कर भाग जाते हैं उन्हें ठेंगा दिखाकर. . .’
इन लोगों की बातचीत का केन्द्र थी एक कविता, जो कल के दैनिक जागरण पत्र में प्रकाशित हुई थी। कविता का भाव एक ऐसी लड़की पर केन्द्रित था जो ‘घर से भाग गई है।’ पत्र एक प्रवक्ता के हाथ में था।
‘. . . अरे मिश्रा जी छोड़िये भी इस बहस को. . . बहस के लिए स्टाफरूम और क्लास ही सही है. . . यहाँ हम लोग यात्रियों को क्यों अपनी बह्स से बोर कर रहे हैं . . . वैसे कविता का वाचन हो जाये तो ठीक रहेगा. . .’
‘हाँ! यह ठीक रहेगा . . . वाचन होते-होते हम कानपुर पहुँच जायेंगे। . . . कविता का विषय कुछ भी हो भाई . . . अगर लिखी गई है तो पढ़ी तो जानी ही चाहिये . . .’
नई उम्र वाले प्रवक्ता की दाल नहीं गल पाई इन ‘सहज विमल हृदय’ वाले विद्वानों में। उसने ना चाहते हुए भी हाथ में पकड़े हुए पत्र से कविता पढ़नी आरंभ की . . .
“भाई साहब
जरा गौर फरमायेंगे
जी हाँ!
जो मैं कहने जा रहा हूँ
उसे
थोड़ा ध्यान से सुन लेते तो . . .
जी अच्छा . . .
तो आप तैयार हैं सुनने को
मेरी बात . . .
ठीक है
तो मैं कहता हूँ
अपनी बात . . .
दरअस्ल बात मेरी नहीं
मेरे पड़ोसी से संबंधित एक घटना है
जो मुझे
मेरे किसी अभिन्न ने बताई
‘राज’ कोराज रखने की कसम देकर
हाँ तो घटना . . .
यही कोई
तकरीबन रात के ग्यारह बज रहे होंगे
किसी ने कहा मुझसे
आपको कुछ पता है
हमारे पड़ोसी की लड़की
जो गई थी सुबह
पढ़ने को कॉलेज
तैयार होकर
अब तक नहीं वापस आई
सुना है भाग गई है वह
साथ में पढ़ने वाले
एक मनचले के साथ
ले गई माँ-बाप की सारी इज्जत
काट ले गई उनकी नाक
और तो और
तोड़ गई संवेदनाओं का वह धागा
जिसे उसकी माँ औए बूढ़े बाप ने बड़े जतन से
‘बुना था’
माँ और बाप के वह सपने
जो उन्होंने देखे थे
पूरे अट्ठारह साल, दो महीने, ग्यारह दिन
और नौ महीने
(माँ की कोख को जोड़ते हुए)
पता है आपको
बड़ी मुश्किल से इस घर में
खुला था दरवाजा
लड़कियों के लिए
स्कूल-कॉलेज जाने को
लेकिन बंद कर गई वह
आज उसे फिर से
ना जाने कितने दिनों के लिए
लोगों में सुगबुगाहट फैल गई
‘मैं तो खुशनसीब हूँ कि
मेरे कोई लड़की नहीं है’
और जिनके आगे हैं लड़कियाँ
वह भी शंका की दृष्टि से देखी जाने लगीं
‘कहीं ये भी ना तोड़ दें उस डोर को
जिसे बुनने में लगे थे पूरे
अट्ठारह साल, दो महीने, ग्यारह दिन
और नौ महीने
(माँ की कोख को जोड़ते हुए)’

प्रवक्तागण कविता-पाठ के बाद उसकी बखिया ऊधेड़ने लग गये तो सामने की सीट पर बैठी सन्नों के चेहरे पर उसका असर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा।सन्नों की धड़कने तेज हो गईं। मोहित ने सन्नों के भावों को समझते हुए उसके कंधे पर रखे हाथ से सन्नों का कंधा प्यार से दबाया।सन्नों ने एक नजर मोहित की ओर देखा। मोहित की नजरों ने सन्नों को अपने प्यार का विश्वास दिलाया।
तमाम मानसिक उहा-पोहों से लड़ रही सन्नों को लेकर ट्रेन ने कानपुर सेन्ट्रल पर दस्तक दी तो चाय और समोसे बेचने वालों मेंयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लग गई।तरह-तरह के जुमलों से वह अपने उत्पाद को बेचने का प्रयास करने लगे।
इन्हीं सब के बीच सन्नों ने मोहित का हाथ पकड़े हुए ट्रेन से नीचे उतरते हुए कानपुर के प्लेटफार्म और अपनी नवीन कर्म स्थली पर पहला कदम रखा।

*  *  *

सन्नों और मोहित को लिए हुए रिक्सा कई सारी गलियों में चक्कर लगाता हुआएक साधारण से घर के सामने रुका। निम्न वर्गीय इस बस्ती में जिस मकान के सामने इन युगल प्रेमियों का रिक्सा रुका था वह अभी नया ही बना था। पलस्तर ना होने से ईंटों का जुड़ाव अपनी चित्रकारी प्रस्तुत कर रहा था।
मोहित ने रिक्से से उतरकर इस मकान की कुंडी खटखटाई।सन्नों अपना बैग पकड़े हुए मोहित के पीछे आ खड़ी हुई तो आस-पास की तमाम निगाहों ने उन्हें प्रश्नाकुल भाव से देखा। सन्नों अपनी ओर उठी निगाहों को भांपती हुई मोहित के और पास आ गई।
अंदर से दरवाजा खुला तो एक अधेड़ औरत मोहित और सन्नों के सामने थी। उसने सन्नों को ऊपर से नीचे तक अपनी पैनी नजरों से ताड़ा और अंदर आने का इशारा किया। मोहित ने लपकर उस औरत के पैर छुए और ऐसा ही करने की उम्मीद से सन्नों की ओर देखा। सन्नों ने एक आदर्श पत्नी की तरह पति की निगाहों को समझा और सर पर साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए दोनों हाथों से अधेड़ औरत के पैर छुए। औरत ने सन्नों को कंधों से पकड़ कर उठाया और मुस्कुराते हुए अंदर चलने का इशारा किया।
मोहित का एक दोस्त कानपुर में रहता था। उसने ही कानपुर में यह घर इन दोनों के रहने के लिए देखा था। यह औरत मकान की मालकिन थी। इसे बताया गया था कि ‘ये दोनों पति-पत्नी हैं। जल्दी ही विवाह हुआ है इनका। मोहित यहाँ काम की तलाश में आया है. . . आदि. . . आदि . . . ।
मोहित ने सन्नों को अंदर चलने का इशारा किया तो सन्नों ने आगामी जीवन की सकारात्मक उम्मीदों के साथ अपना दाहिना पैर घर की डेहरी के अंदर रखा। सन्नों के लिए अब यही उसकी ससुराल थी। फिलहल तो इसी घर को सन्नों को सजाना-संवारना था।घर में पैर रखने के बाद सन्नों ने सबसे पहले मकान मालकिन को ही अपनी सास समझकर एक बार और उसके पैर छू लिए। मकान मालकिन सन्नों के भावों को समझ गई। उसने भी सन्नों के सिर पर हाथ फेरते हुए सुखमय जीवन का आशीर्वाद दिया और अपने कमरे से लाकर एक कमरे की चाबी सन्नों के हाथ में पकड़ा दी। सन्नों ने भी सास के आशीर्वाद स्वरूप कमरे की चाबी दोनों हाथ फैलाकर ग्रहण की और अपने भविष्य रूपी ताले को खोलकर कमरे में गई।
कमरा पहले से ही तैयार कर दिया गया था। एक सिंगल बेड, सुहागरात के लिए पूरी तरह से तैयार। दो कुर्सियां। रहने के लिए लगभग सभी आवश्यक वस्तुएं जो एक नव-विवाहित जोड़े को चाहिए होती हैं।
मोहित सन्नों की व्यवहारकुशलता पर रीझ गया था।सन्नों के रूप में एक आदर्श पत्नी पाकर मोहित गद्‍गद्‍ हो उठा।कमरे में घुसते ही उसने सन्नों को अपनी मजबूत बाहों के आगोश में जकड़ लिया।सन्नों इस हमले के लिए तैयार नहीं थी सो पहले तो चौंकी लेकिन अगले ही पल सम्हल गई और मोहित की भावों में खोती चली गई।
‘. . . अब छोड़ों भी . . . इतनी भी क्या जल्दी है. . . पहले कमरा तो सही कर लेने दो फिर जो चाहें करना. . . भागे थोड़ी ही जा रही हूँ . . .’ सन्नों ने मोहित को ऊपरी तौर पर अपने से अलग करने का प्रयास किया।
मोहित कुछ बोला नहीं बस अपनी मदभरी आँखों से सन्नों को निहारा . . . ‘हाय! इन्हीं आंखों की गुलाम बनकर चली आई तुम्हारे साथ . . .’ सन्नों ने मन ही मन अपने पर गर्व किया और मोहितमय हो गई।
काफी देर तक कामसागर में हिचकोले खाने के बाद दोनों उठे।भूख भी लग चली थी। सोचा बाजार जाकर कुछ सामन ले आये घर-गृहस्थी का। अब तो इस घर को अपनी तरह से सजाना है सन्नों को। मोहित से बाजार जाकर सामान लाने को कहा और खुद नहा-धोकर फ्रेश होने जाने लगी।तभी कमरे की कुंडी खटकी।
‘. . . कौन. . .’ मोहित ने जानना चाहा।
‘. . . लल्ला . . . मैं हूँ. . . ताई . . .’
सन्नों ने कपड़े और बाल ठीक करते हुए कमरे का दरवाजा खोला।
‘. . . जी ताई जी. . .’ सन्नों की आवाज में ताई के लिए सास वाला भाव प्रबल हो उठा।
‘. . . ऐसा है बहू . . . आज खाना हमारे साथ ही खा लेना . . . कल से अपनी व्यवस्था कर लेना. . .’
‘. . . जी ताई जी . . .’ सन्नों ने धीरे से आमंत्रण स्वीकार किया।

*  *  *

सन्नों और मोहित ने घर छोड़ते समय अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कुछ रुपया-पैसा इकट्ठा कर लिया था। सोचा कम से कम एक-दो महीने तक अगर काम नहीं भी मिला तो भी काम चल जायेगा।सन्नों को गृहस्थी चलाने की कला अम्मा से विरासत में ही मिली थी। उसे खूब पता था कि कम से कम पैसे में घर कैसे चलाया जाता है। हाँ! मोहित कुछ सहखर्ची टाइप का था। वह सोचता था कि बेचारी उसके भरोसे अपने घर से भाग कर आई है तो उसे किसी प्रकार की कोई दिक्कत ना हो।
मोहित ने जब तक हाथ में पैसा रहा, सन्नों को बिलकुल रानी बनाकर रखा। सिनेमा दिखाना हो, होटल में खाना हो या फिर घूमना-फिरना हो; मोहित ने कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि नौकरी की तलाश में घूमते-घूमते सन्नों के वह झुमके भी बिक गये जो अम्मा ने बड़े जतन से उसके लिए खरीदे थे।
आज तक याद है सन्नों को कि अम्मा ने उसके लिए झूमके खरीदते वक्त एक-एक करके जोड़े गए अपने सभी पैसे निकालकर सन्नों के पापा के हाथ में रख दिये और बड़े प्यार से उन्हें समझाते हुए उनसे मनुहार की – ‘ . . . ला दीजिये . . . बेचारी का मन ही तो है. . . ’
‘. . . लेकिन अभी तो वह बच्ची है . . .’
‘. . . आप भी ना . . . सौक बच्चों को होता है. . . या बूढ़ों को . . .’
अम्मा ने अपनी आँखों के मादक अंदाज से पापा को मना ही लिया। धराशाही हो चुके पापा जी आगे कोई तर्क नहीं कर सके और अगले ही दिन शाहर जाकर मछली की आकृति के झुमाके सन्नों के लिए ले आये। कानपुर की तंगहाली के चलते जब सन्नों ने अपने इन झुमकों को मोहित के हाथों में रखा तो एकबारगी उसके सामने अम्मा-पापा की तस्वीर सजीव हो उठी। उसने किसी प्रकार अपने मन की इस व्यथा को मोहित से छिपा लिया।
कानपुर में रहते हुए उन्हें पूरे दो महीने हो चुके थे, लेकिन मोहित को अब तक कोई काम नहीं मिला था। इस कारण अब मोहित कुछ परेशान रहने लगा था। सन्नों के साथ भी अब उसे उतना मजा नहीं आता था। कभी-कभी वह सोचता कि ‘घर से भाग कर उसने गलती की है और अपने साथ-साथ सन्नों की भी जिंदगी बरवाद कर दी है।’ पर सन्नों उसे बहुत सहारा देती। कोई ना कोई काम जल्द ही मिलने की आस बंधाये रहती।
रोज की ही भाँति आज भी मोहित घर से काम की तलाश में निकला तो रोज ही की भाँति सन्नों उसे दरवाजे तक विदा करने आई। इसके बाद दोनों अपने-अपने कामों में लग गये। सन्नों घर के कामों में और मोहित काम की तलाश में।
एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक फैक्ट्री से दूसरी फैक्ट्री और रोज ही की भाँति हर जगह से ‘नो वैकेन्सी’ का एक समान उत्तर। एक जैसी दिनचर्या और एक जैसा ही उत्तर सुनते-सुनते मोहित कुछ चिड़चिड़ा होने लगा था।
शाम हो चुकी थी और कहीं उसे काम की उम्मीद नहीं बंधी तो घर के लिए जाने से पहले वह एक रेस्त्राँ में जा बैठा। चार साल पहले की भाँति ही उसने आज वेटर को वाइन लाने का आर्डर दिया और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगा ली। सिगरेट के कश खींचते हुए मोहित दूर, कहीं दूर किसी शून्य में ताकने लगा। कुछ ही पल में वेटर आर्डर की ट्रे लेकर आ गया तो मोहित ने फटाफट एक पैग हलक के नीचे उतार दिया।
आज पूरे चार साल बाद मोहित ने शराब को हाथ लगाया था। जब दो पैग उसके गले से नीचे उतर गये तो उसके सामने सन्नों द्वारा चार साल पहले दी गई कसम एकायक याद हो आई।
यह वह समय था जब मोहित की मुलाकात ही हुई थी सन्नों से। जब दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे तो सन्नों को पता लगा कि मोहित कभी-कभार शराब पी लेता है। एक दिन जब अचानक ठीक उस समय जब मोहित शराब के नशे में था, सन्नों उसके कमरे पर आ पहुँची। मोहित का यह रूप देखकर अनायाश ही उसकी आँखों से आँसू की बूँदें निकल आईं। सन्नों के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। उसने मोहित की आँखों में एकबार गहराई से झाँका और अगले ही पल वह मोहित के कमरे से बाहर निकल गई।
मोहित के दिलो-दिमाग में सन्नों के आँसू काँटे बनकर उतर गये। उसने सन्नों की आँसुओं से सराबोर आँखों की कसम मन ही मन में खा ली। तय कर लिया कि अब कुछ भी क्यों न हो, कभी शराब को हाथ नहीं लगायेगा। लेकिन आज चार साल बाद अचानक उसे यह क्या सूझी। हृदय आत्मग्लानि से भर उठा। बाकी के पैग ज्यों के त्यों टेबल पर ही छोड़ दिये और रेस्त्राँ से उठकर मन में कुछ प्लान बनाते हुए घर की ओर चल पड़ा।
पूरे रास्ते दिमाग में चल रहे सन्नों के सवालों से जूझते हुए किसी प्रकार से उसने डरते-डरते घर का दरवाजा खटखटाया।
रोज की ही भाँति हार-सिंगार किये हुए और शराब के नशे में सन्नों के चेहरे पर मदहोशी को अंदर तक महशूस करते हुए मोहित ने बड़ा सम्हालकर डेहरी के अंदर कदम रखा। इसके बावजूद भी उसके पैर कुछ लड़खड़ा ही गये। लड़खड़ाते पैरों को सम्हाल न पाने के कारण मोहित सन्नों के मुँह के पास जा पहुँचा तो सन्नों का प्रशन्नता से चमक रहा चेहरा अपना भाव बदल गया। सामने की ओर आँटी को खड़ा देखकर उसने कुछ कहा नहीं और चुपचाप अपने कमरे की ओर चली गई। मोहित समझ गया उसके मनोभावों को। उसने आँटी की नजरों से खुद को छुपाते हुए सन्नों के पीछे से कमरे में प्रवेश किया और पीछे पलटे बिना ही दरवाजा भेड़ लिया। आँटी समझ गईं पूरी वस्तु स्थिति। उनकी पारखी नजरों से बच पाना सन्नों और मोहित जैसे अनाड़ी प्रेमियों के बस की बात नहीं थी।
कमरे में पहुँचने पर सन्नों एक ओर को मुँह फुलाकर बैठ गई। उसकी आँखों से चार साल पुराने आँसू बाढ़ से उमड़ी हुई नदी की माफिक बह निकले।ऐसा लगने लगा सन्नों को जैसे कि वर्षों से संजोये गये उसके सपने उसके आँसुओं के साथ बहे जा रहे हों। वह अपने आप को सम्हाल नहीं पाई और फफक-फफककर रो उठी। आज उसका एक-एक पोर जैसे गलता जा रहा था।
सन्नों के आँसुओं से मोहित का नशा हिमखण्ड की भाँति पिघल गया। वह आत्मग्लानि के समन्दर में डूबने-उतराने लगा। उसके आँसू भी सन्नों के आँसुओं के साथ बहने लगे।
कुछ पल के इस महाप्रलय के बाद मोहित ने अपने आपको सम्हाला। चेहरे पर बनावटी मुस्कुराहट लाते हुए वह अपने चिर-परिचित अंदाज से सन्नों के सामने कान पकड़कर उठक-बैठक करने लगा। यह मोहित का सबसे ताकतवर अस्त्र था। शब्दों के बिना भी सम्वेदना ने अपना प्रभाव डाल दिया। कुछ पल रूठने-मनाने के इस अभिनय ने दोनों के अंदर से गुस्से को निकालकर मादकता का संचार कर दिया।
सन्नों ने अपने आँसू पोंछ दिये और मोहित को कंधों से पकड़कर अपनी ओर खींच लिया। बहुत दिनों बाद मोहित ने सन्नों को इस रूप में देखा था। सब कुछ को निकालकर मोहित ने अपनी समस्त कामभावना को एकत्र किया और सन्नों से लिपट गया।
काफी देर तक दोनों एक-दूसरे में समाये रहे। कुछ पल तक शराब का नशा मोहित से दूर जा खड़ा हुआ था, मादकता का साथ पाकर एक बारगी वापस अपने शुरूर में आ गया। अपने सामने वस्त्रों से विहीन स्त्री को देखकर मोहित के कामुक दिमाग में कुछ शैतानी की रेख खिंच आई। उसने सन्नों की आँखों में आँखे डालते हुए तकिये के नीचे रखा अपना मोबाइल उठाकर सन्नों के सामने लहराया।
सन्नों के चेहरे पर कामुकता की रेखा और भी गहरा गई। उसके लिए यह नया नहीं था। जब भी मोहित ज्यादा खुश होता था, मोबाइल से उसकी अश्लील वीडियो बनाता था। काम-क्रीडा के दौरान बनाई गई इस वीडियो को बार-बार देखता था और अंत में उसे मोबाइल से डिलीट करके एक-दूसरे की बाहों में बंधकर सो जाया करता था।
मोहित की आँखों का इशारा समझ सन्नों अपने कामुक अंदाज में मोहित के द्वारा बनाये जा रहे वीडियो की नायिका बन गई।
आज दोनों को बड़ा मजा रहा था इस काम में। इधर एक-ढेड़ महीने की ऊब और परेशानी भरी जिंदगी में आज का दिन उर्जा भरा था। आज वह पूरी तरह से एक-दूसरे के इशारों और मनोभावों के गुलाम थे।
ढेढ़-दो घण्टे की इस काम-क्रीडा ने दोनों को थका दिया। दोनों के शरीर पर श्रम-बिंदु खिल उठे।कुछ देर एक-दूसरे की बहों में बंधे रहने के बाद दोनों को लगा कि अभी तो रात के दस ही बजे हैं और खाना तक नहीं खाया है। आज तो यह बेमौसम बरसात हो गई। कुछ भी हो दोनों को एकदम तरोताजा कर गई थी आज की यह बरसात।
दोनों ने अपने को सम्हाला। एक-दूसरे की आँखों में झाँककर शेष बचे गिले-सिकवों को दूर किया और खाने के लिए फ्रेश होने लगे।

** *

आज काम की तलाश में घर से निकलते हुए मोहित पिछले कई दिनों से ज्यादा तरोताजा लग रहा था। कमरे से निकलते हुए उसने अपने चिर-परिचित अंदाज में सन्नों के होंठों को चूमा, जो पिछले कुछ दिनों से वह भूल चुका था। खिल उठी सन्नों ने मोहित का भरपूर साथ दिया। इसके साथ ही मोहित निकल पड़ा।
कल एक जगह जहाँ पर वह काम की तलाश में गया था, मैनेजर छुट्टी पर था और पियून से अगले दिन आने को कहा था। अपने मन में विश्वास और शरीर को अपने आत्मविश्वास से सजाये हुए मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ ठीक दस बजे इस ऑफिस में जा पहुँचा।
मैंनेजर अभी-अभी ही आया था। उसने अपने कमरे के सामने एक उत्साह से भरे हुए लड़के को बैठे देखा तो चपरासी से अपने कमरे में बुला लिया। तकरीबन आधे घण्टे की बातचीत के बाद जब मोहित मैनेजर के कमरे से बाहर निकला तो उसके चेहरे पर प्रशन्नता एक नवीन आयाम लिख रही थी। उसके चेहरे के भावों के समझते हुए चपरासी जान गया कि कल से इन साहब को भी सलाम करना पड़ेगा।
खुशी से झूमता हुआ मोहित जैसे ही ऑफिस से बाहर निकला, उसे सामने से आता हुआ प्रदीप दिख गया। मोहित के चेहरे को चमकते हुए देख वह समझ गया कि इसे काम मिल गया है। पूरी गर्मजोशी के साथ वह आकर मोहित के गले लग गया और नौकरी मिलने की ट्रीट माँगने लगा।
मोहित उसे मना नहीं कर सका। प्रदीप के काफी एहशानात थे उस पर। कानपुर जैसे अन्जान शहर में प्रदीप ही था जिसने तंगहाली में उसका साथ दिया था। काम तलाशने में उसकी बड़ी मदद की थी। और इस जगह के बारे में भी उसी ने सूचना दी थी। दोनों हँसते-खिलखिलाते हुए सामने के एक रेस्त्राँ में जा बैठे।
हँसी-मजाक और खाने-पीने की चीजों ने मोहित की खुशी को और भी बढ़ा दिया। प्रदीप ने कहीं फोन करने के इरादे अपना फोन जेब से निकालकर किसी का नम्बर लगाने लगा। जब काफी देर तक कोशिश करने के बाद भी फोन कनेक्ट नहीं हुआ तो मोहित ने अपना मोबाइल उसके सामने बढ़ा दिया। प्रदीप ने मुस्कुराते हुए उसे देखा और उसके मोबाइल पर कोई नम्बर टाइप करने लगा। एक ही बार में फोन लग गया। किसी से बड़ी संक्षिप्त बात हुई। कहीं जाना था उसे। फोन पर बता दिया कि कुछ देर और लग जायेगी। बात खत्म करके प्रदीप ने मोबाइल मोहित की ओर बढ़ा दिया। मोहित ने हँसते हुए मोबाइल लिया और सामने ही टेबल पर रख लिया। इसके बाद दोनों वापस किसी चर्चा में व्यस्त हो गये।
दोनों के बीच बातों का एक लम्बा दौर खिंच गया। इसी दौरान धीरे-धीरे मेज पर रखा मोबाइल मोहित के हाथों से होता हुआ प्रदीप के हाथों में आ गया। बातें चलती रहीं और मोबाइल प्रदीप के हाथों में झूमता रहा।झूमने के इसी क्रम में प्रदीप की अंगुलियाँ मोबाइल की गैलरी तक जा पहुँचीं और गैलरी खोलते ही उसकी आँखों से जो दृष्य टकराया, प्रदीप की आँखे चौंधिया गईं। हृदय के आश्लील भावों को अंदर ही दबा लिया उसने, पर आनन-फानन में ही उसने मोहित के मोबाइल से उस फाइल को अपने मोबाइल में ट्रान्सफर कर लिया। दोनों के बीच चल रही बातचीत ने गुपचुप तरीके से हुई इस घटना को मोहित से छुपा दिया। कुछ देर की बातों के बाद दोनों अपने-अपने रास्तों पर निकल गये। प्रशन्नता दोनों के चेहरों पर दस्तक दे रही थी, पर दोनों के मनोभाव अलग-अलग थे।
सन्नों और मोहित की जिंदगी खुशियों से भर चुकी थी। सुबह-सुबह मोहित ऑफिस जाने के लिए तैयार होता तो सन्नों उसके लिए टिपन तैयार करती। शाम को जब मोहित वापस आता तो सन्नों सजी-धजी दरवाजे पर उसका इंतजार करती मिलती। इसके बाद दोनों अपने सपनों की दुनिया में खो जाते।
जब मोहित को उसकी पहली तन्ख्वाह मिली तो उसने सन्नों को बताये बिना उसके लिए झुमके खरीद लाया। और जब दोनों खा-पीकर सोने चले तो मोहित ने एकायक सन्नों के सामने झूमके निकालकर रख दिये। मारे खुशी के सन्नों खिल गई। मोहित ने अपने हाथों से सन्नों को झुमके पहनाये तो सन्नों बिलकुल कचनार के माफिक खिल उठी। बेड से उठकर उसने आइने में खुद को निहारा तो दो आँसू उसके गालों पर लुढक पड़े।
दोनों के जीवन की नाव एक सतत गति से चली जा रही थी। मोहित को नौकरी करते हुए करीब दो महीने हो चुके थे।इसी दौरान कुछ अशुभ उनके जीवन में प्रवेश करने के लिए उतावला हो रहा था।
***
दोपहर का तकरीबन दो बज रहा था। मोहित ऑफिस में था और सन्नों अपने छोटे से कमरे में अलसाई हुई पड़ी थी। दरवाजे पर हुई अचानक ‘ठक-ठक’ ने उसके आलस्य को झकझोर दिया। मकानवाली आंटी घर पर थीं नहीं, सो दरवाजा उसे ही खोलना था। ‘कौन हो सकता है इस समय. . . मोहित तो शाम को आता है और आम तौर पर आंटे के घर भी कोई नहीं आता. . . उसका तो कोई मिलने वाला भी नहीं है . . .’ मन में कुछ-कुछ सोचते हुए सन्नों ने दरवाजे की कुंडी हटाते हुए उसे अपनी ओर खींचा। सामने प्रदीप भैया को देखकर पहले तो वह ठोड़ा सहमी, लेकिन अगले ही पल अपने आपको सम्हालते हुए दो शब्द उसके होंठों पर खिसक आये – ‘. . . अरे प्रदीप भैया आप. . .’
‘. . . इधर किसी के यहाँ किसी काम से आया था. . . सोचा भाभी जी से भी मिलता चलूँ. . .’ कहते हुए प्रदीप ने अपने कदम पूरी आत्मीयता के साथ सन्नों के कमरे की ओर बढ़ा दिये। हालाँकि सन्नों को काफी असहज-सा महसूस हुआ, लेकिन घर आये मेहमान का स्वागत करना उसका दायित्त्व था। इसके अलावा कानपुर जैसे अनजान शहर में प्रदीप भैया ही थे जिन्होंने उनकी काफी मदद की थी।
मन ही मन में प्रदीप भैया का अहशान स्मरण करते हुए और अचानक इस तरह से, वो भी मोहित के पीछे, कमरे पर आने के बारे में तरह-तरह की कल्पनायें करती हुई सन्नों एक गिलास में पानी ले आई। प्रदीप ने सन्नों के हाथ से पानी का गिलास लेकर एक ही बार में गले के नीचे उतार लिया और सन्नों को ऊपर से नीचे तक निहारते हुए पूछा – ‘. . . और बताइये भाभी जी. . . यहाँ आपको किसी बात की कोई दिक्कत तो नहीं है . . . मोहित आपको परेशान तो नहीं करता है. . .’
‘. . . भैया. . . आपके होते हुए हमें किसी भी बात की कोई दिक्कत कैसे हो सकती है. . .’ कहते हुए सन्नों ने मोहित की आँखों को पढ़ लिया। अब वह और भी असहज हो उठी। मन ही मन में प्रदीप के जाने की कामना करने लगी, लेकिन प्रदीप था कि शायद पहले से ही सोचकर आया था कि आज सन्नों के पास काफी देर तक बैठेगा। प्रदीप रह-रह कर तरह-तरह की बातें करने लगा और न चाहते हुए भी सन्नों उसका साथ देने पर मजबूर हो गई। काफी देर की बातों के बाद जब प्रदीप को ऐसा लगने लगा कि सन्नों परेशान हो रही है तो वह अपने असल मुद्दे पर आया. . .
‘. . . अरे भाभी जी मैं तो एकदम भूल ही गया था. . .’
‘. . . क्या. . .’
‘. . . आपके लिए एक गिफ्ट लेकर आया था. . . बातों बातों में देना ही भूल गया. . .’
सन्नों कुछ न बोली। प्रदीप ने उसकी असहजता को अपनी निर्लज्ज्ता से दबाते हुए अपनी जेब से अपना मोबाइल निकालकर उसकी एक वीडियो फाइल एकायक सन्नों के सामने रख दी और बेहयायी से सन्नों के चेहरे को निहारने लगा। सन्नों की आखों में खून उतर आया। पर कसाई के हाथ में फँसी गाय की माफिक उसने प्रदीप की ओर दया की याचना के साथ निहारा। उसकी आँखों में आँसू रिसने लगे।प्रदीप ने उसकी कमजोरी को अपनी बाहों में दबाने का प्रयास किया तो अचानक सन्नों का हाथ उसके गाल पर चमक उठा। बौखला गया प्रदीप। इस हमले का उसे आभास तक नहीं था।उसकी बुद्धि ने भी उसका साथ दिया। उसने प्रदीप को जोर का झटका देते हुए अपने से दूर झटक दिया और उसके मोबाइल को, जो अब तक उसके ही हाथ में था, इतनी जोर से जमीन पर पटका कि उसके परखच्चे उड़ गये।
प्रदीप को अपना खेल उलट जान पड़ा तो वह चुपचाप कमरे से निकल गया।
प्रदीप के कमरे से बाहर निकलते ही सन्नों का हृदय बह चला। वह यह नहीं समझ पा रही थी कि यह वीडियो प्रदीप के मोबाइल में पहुँचा कैसे। एक बारगी उसके दिमाग ने मोहित पर शक किया, लेकिन अगले ही पल उसका खण्डन भी कर डाला। नहीं-नहीं मोहित ऐसा नहीं कर सकता। प्रदीप बड़ा शातिर है। हो न हो उसने किसी चालाकी से मोहित के मोबाइल से ले लिया हो। उस रात मारे आवेग के वह डिलीट करना भी जो भूल गये थे। और अगले दिन रेस्टोरेंट में प्रदीप के साथ बैठे भी थे। सन्नों का मोहित पर विश्वास और भी प्रबल होता चला गया। पर इस घटना का क्या. . . जो आज उसके साथ घटी थी। प्रदीप को तो वह सगा भाई ही मानती थी. . . और उसने. . . । कुछ पल को रुके आँसू एक बार फिर बह चले।
मोहित के आने का समय हो चुका था और सन्नों ने अब तक अपने आपको मजबूत भी कर लिया था। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, वह इस घटना को मोहित से छुपायेगी नहीं। सब कुछ सच-सच मोहित को बता देगी। मोहित के सामने भी तो उसके दोस्त की करतूत आनी चाहिये। और. . . और मोहित को भी अपनी गलती का अहसाश होना चाहिये।
सन्नों अपने मन में न जाने क्या-क्या सोच रही थे कि उसे दरवाजे पर हुई खट-खट से मोहित के आने का आभास हुआ। अपने आपको एकबारगी और मजबूत करते हुए वह कमरे से उठकर मुख्य दरवाजी की ओर बढ़ गई।
सन्नों ने जैसे ही दरवाजा खोला तो उसके सामने मोहित के साथ मकान वाली आँटी भी थीं। दोनों को एक साथ देखकर सन्नों के अंदर के आवेग को कुछ सान्त्वना मिली। मोहित और आँटी अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ अंदर की ओर बढ़ गये तो सन्नों दरवाजा बंद करके कुंडी लगाने लगी।
दरवाजे की कुडी लगाकर सन्नों कमरे में पहुँची तो मोहित को थका-सा बेड पर लेटा देखा तो गिलास में पानी लेकर उसके पास जा बैठी। मोहित का सर अपनी गोद में रखकर सहलाने लगी। कुछ पल आँखे बंद किये लेटे रहने के बाद मोहित उठा। पास में रखे गिलास से पानी पिया और झुककर जूते खोलने लगा। जॊते खोलने के बाद उसने सन्नों की ओर प्यार भरी निगाहों से देखा। . . . अरे यह क्या. . . सन्नों की सदा महकने वाली मुस्कान को क्या हो गया। आज उसके चेहरे पर यह उदासी कैसी। मोहित ने थोड़ा और सम्हलते हुए सन्नों के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए पूछा – ‘क्या हुआ. . .’
सन्नों कुछ बोल नहीं पाई। मोहित के प्यार भरे स्पर्श ने उसके घावों को पिघला दिया। उतनी देर से रोके गये आँसू अपने पूर्ण आवेग के साथ बह निकले। सन्नों की यह स्थिति मोहित के लिए एकदम नई थी। उसने सन्नों का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। वह कुछ समझ नहीं पाया। शब्दों के अभाव में मोहित ने सन्नों को अपनी बाहों में भर लिया।
मोहित की बाहों में जकड़ी हुई सन्नों न जाने कितनी देर तक रोती-सिसकती रही। जब पूरी तरह से वह हल्की हो गई तो अपने आँसू पोंछती हुई मोहित की बाहों से निकलकर उसकी आँखों के सामने आई।
‘. . . क्या हुआ. . .’ मोहित ने हल्के स्वर में उससे पूछ ही लिया।
कुछ पल और अपने आपको सम्हालने के बाद सन्नों ने आज की पूरी घटना मोहित को सुना डाली। मारे आक्रोश के लाल हो उठा मोहित का चेहरा।उसके शरीर में इतना गुस्सा समा गया कि वह काँपने लगा। मोहित के दिमाग ने एकदम से काम करना छोड़ दिया। काफी देर उसे समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिये तो उसने सन्नों का हाथ पकड़ा और बोला – ‘चलो. . . अभी चलो . . .’
सन्नों ने आँखो के इशारे से जानना चाहा कि कहाँ चलें।
‘. . . चलो प्रदीप के घर चलो. . . उसके साले की तो माका. . .’ कहते-कहते मोहित का चेहरा और भी ज्यादा क्रूर हो उठा।
सन्नों ने मोहित का यह रूप इससे पहले कभी नहीं देखा था। गुस्से से लाल और तमतमाते हुए चेहरे के साथ मोहित सन्नों का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया।
मकान वाली आँटी ने मोहित को सन्नों का हाथ पकड़े हुए इस तरह से कमरे से बाहर निकलते हुए देखा तो वह समझ गई कि कुछ बड़ी बात हो गई है, नहीं तो मोहित जैसा अच्छा लड़का एकायक इतने गुस्से में कैसे आ गया। आँटी ने जाते हुए मोहित से पूछ ही लिया – ‘. . . क्या हुआ बेटा. . .’
‘. . . कुछ नहीं आँटी. . . अभी आता हूँ. . . कहते हुए वह मुख्य दरवाजे से बाहर निकल गया। अपनी जिज्ञासा शाँत हुई न जानकर आँटी भी उसके पीछे-पीछे हो लीं।
***
सन्नों का हाथ पकड़े हुए ही मोहित एक बड़ी हवेलीनुमा मकान में पहुँचा। उसके चेहरे का तापमान और भी अधिक प्रबल हो चुका था। अपने अंदर की संपूर्ण उर्जा को एकत्रित करते हुए वह चीख पड़ा – ‘. . . प्रदीपऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ. . . .’
थर्रा उठी-सी हवेली के समस्त जीव-जन्तु एकबारगी काँप गये। मोहित के स्वर की गूँज समाप्त होते न होते हवेली से कई चेहरे उसके सामने आ खड़े हुए। उसने अपने सामने वाले चेहरे पर क्रूरता से आँखें गड़ाईं और सन्नों का हाथ छोड़ते हुए उसकी ओर बढ़ गया।
सामनेवालेचेहरेकेएकदमसामनेआकरमोहितकीआँखोंनेउसेएकबारगीजलतेहुएनिहाराऔरअगलेहीपलसामनेवालेकाचेहराएकदमसेलालपड़गया।इससे पहले कि सामने वाले की ओर से कोई प्रतिक्रिया आती मोहित उस पर बरश पड़ा – ‘. . . तुझे साले हर बात की बड़ी जल्दी रहती है. . . सारा बना-बनाया काम बिगाड़ने पर तुला रहता है. . . जब मैंने कहा था कि इसको मैं अपने तरीके से करता हूँ तो . . .’
मोहित थोड़ा रुका और मुस्कुराते हुए प्रदीप के गले में हाथ डालते हुए आगे बोला – ‘. . . अब नहीं रुका जाता तो कर ही ले. . . अब तो यह बुलबुल जाल में फँस ही गई है. . .’
सन्नों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसके सामने यह हो क्या रहा है। अभी दो पल पहले की स्थिति अचानक बदल कैसे गई। और. . . और यह मोहित को एकायक क्या हो गया है. . . सन्नों के सामने काले बादलों का तांडव होने लगा। उसकी आँखों के सामने घिर आये अँधेरे में तमाम अस्पष्ट चेहरे मँड़राने लगे। ऐसा लगने लगा उसे कि जैसे वह कोई हॉरर फिल्म के सेट पर खड़ी हो और उसके इर्द-गिर्द तमाम डरावनी आकृतियाँ घूम-घूम कर अट्टहास कर रही हों। इन सबका अस्पष्ट स्वर सन्नों को लगातार जड़ता में परिवर्तित किये जा रहा था।
कुछ देर की इस अस्पष्टता के बाद सन्नों को मोहित का धुँधला-सा चेहरा अपने सामने नजर आया और अगले ही पल उससे जुड़ी अनगिनत स्मृतियाँ उसके मस्तिष्क में साकार हो उठीं।मोहित और उसके दोस्तों द्वारा खोले गये रहस्य ने सन्नों के देखे गये समस्त स्वप्नों को रेत के महल के समान ढहाना आरम्भ कर दिया।
तमाम सारे राक्षसों के बीच खड़ी सन्नों संज्ञा-शून्यता की स्थिति में जा चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद वह अपने चारों ओर पनप रहे भयावह दृष्य को भी महसूस कर रही थी।
मोहित, प्रदीप, आंटी और उनका पूरा ग्रुप सन्नों के अश्लील वीडियों को फिल्माते हुए मोबाइलों को अपने हाथों में लहराते हुए उसके चक्कर लगाने लगे। उनके अट्टहास से हवेली थर्रा उठी और साथ ही मरे हुए गोस्त को नोचने वाले गिद्धों के समान उन सबने सन्नों के शरीर को नोचना आरम्भ किया और करते ही गये। सन्नों ने अपने आपको नि:सहाय पाकर अपने शरीर को उनके हवाले कर दिया। उसके दिमाग में बस एक ही पंक्ति गूँजने लगी – ‘अम्मा-बाबू जी के विश्वास को तोड़ने का परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।’
एक ओर भेड़िये उसके शरीर को नृशंसता से नोच रहे थे तो दूसरी ओर अपने शरीर से बेखबर सन्नों के दिमाग में ‘अम्मा-बाबू जी’ के प्यार से जुड़ी तमाम स्मृतियाँ कई-कई बिंबों में नोचे जा रहे शरीर की पीड़ा ने निजात दिला रही थीं।सन्नों की स्थिति अब निस्प्राण हो चुकी थी।
***
सन्नों ने अब परिस्थितियों से ताल-मेल बिठा लिया था। अब वह मोहित की रानी गृहणी सन्नों से ‘कॉलगर्ल सन्नों’ बन चुकी थी। उसका शरीर अब मोहित की नौकरी का मुख्य आधार हो गया था। उस पर चारो ओर से पैसों की बरशात होने लगी। मोहित अब सन्नों के हृदय-सम्राट से प्रसिद्ध ‘कॉलगर्ल डीलर’ में बदल चुका था। शहर का हर रईस सन्नों का दीवाना बन गया था और मोहित सन्नों के उस कमनीय शरीर का सप्लायर।
सन्नों के सपनों के घर के स्थान पर अब एक भव्य हवेली बन गई थी। वह एक घर की मालकिन के स्थान पर उस हवेली की साम्राज्ञी कही जाने लगी। दौलत उसकी गुलाम हो गई। शहर के अमीर और सफेदपोश उसके कदम चाटने लगे। ऐसा लगने लगा उसे जैसे कि वह शहर के सबसे ऊँचे स्थान पर बैठी हो और शहर के लोग उसकी स्तुति में खड़े हों। लेकिन इस सबके बावजूद सन्नों का अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। हर ग्राहक के पास होने से पहले उसका अतीत एकबारगी उसके सामने आकर खड़ा होने लगा। इसके लिए भी उसने एक रास्ता तलाश निकाला। उसने शराब को अपना सबसे बड़ा साथी बना लिया। वह शराब से उतना ही प्रेम करने लगी, जितना कभी मोहित से किया करती थी। अर्थात् सन्नों के प्रेम का आलम्बन अब मोहित के स्थान पर शराब हो गई।
***
सन्नों का यह जीवन अब तकरीबन बीस बरस का हो चुका था। सन्नों अब केवल सन्नों नहीं रह गई थी। अब वह एक ‘पॉर्न स्टार’ कही जाने लगी थी। लोग कुछ पल के लिए उसका साथ पाने को तरशने लगे। उसकी बुलन्दियों ने अच्छे-अच्छे सफेदपोशों को उनके रास्ते से भटका दिया।
आज उसे एक बड़े पार्टी में किसी विदेशी महेमान को खुश करना था। वह रोज की भाँति सजी-सँवरी। अपने यौवन को एक स्थान पर एकत्र करते हुए उसका हाथ करीने से सजी हुई ज्वैलरी को अपने शरीर पर चमकाने लगा। इसी क्रम में उसके हाथ में ज्वैलरी में सबसे पीछे की ओर रखे दो झुमके टकरा गये। झुमकों से बिंधी हुई तमाम स्मृतियाँ सन्नों की आँखों के सामने से गुजरती चली गईं। मन में हुई हलचल ने उसे आइने के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। उसके हाथ एक-एक करके पहनी हुई ज्वैलरी निकालने लगे। और अंत में सामने रखे हुए झुमके अपने कानों में डाल लिए।इससे पहले कि स्मृतियों की आँधी में बह जाती तेजी के साथ अपने कमरे से बाहर निकल आई और पहले से ही तैयार खड़ी अपनी गाड़ी में किसी राजसी ठाठ के साथ होटल की ओर चल निकली।
अपनी विशेष मर्शडीज में जाते हुए सन्नों के अंदर आज कुछ हलचल-सी हो रही थी। बीस साल में आज पहली बार उसने सुबह से अब तक शराब होंठों से नहीं लगाई थी। एक अनजाना-सा डर उसकी हृदय में पनप रहा था।रह-रह कर उसके दिमाग में अम्मा-बाबू जी की पथराई आँखें कौंध-सी पड़ रही थीं। हर कौंध के साथ वह काँप-सी उठती थी। बीस सालों आज पहली बार उसे इस तरह का अनुभव हो रहा था। जब उससे नहीं रहा गया तो अंतत: गाड़ी के किसी कोने से उसने ‘वाइन’ की बोतल निकालकर अपने होंठों से लगा ली और तब तक नहीं हटाई जब तक उसमें से बूँद-बूँद उसके गले में नहीं उतर गई। संवेदनाओं का एक तूफान-सा उठा और अगले ही पल वह शराब के आगोश में समा गया। कुछ हिचकोलों के बाद गाड़ी अपनी सतत गति से चली जा रही थी।
शहर के कई हाइवे और लिंक रोडों को पार करते हुए तकरीबन आधे-पौन घण्टे के बाद गाड़ी एक आलीशान होटल के सामने रुकी। शराब के नशे में डगमगाते हुए पैरों ने जैसे ही जमीन का स्पर्श किया तो रात में बिजली की रोशनी से सजा-सँवरा होटल किसी नवपरणीता दुलहन की भाँति सन्नों को देखकर मुस्कुराया। शराब से बेहद लड़खड़ाते हुए भी सन्नों के दिमाग में एक बिम्ब तैर गया।
अम्मा के सपनों में सन्नों किसी भी प्रकार से इस होटल की सज-धज से कम नहीं थी। उसे होटल के स्थान पर खुद का चेहरा दिखाने लगा। अभी वह दुल्हन के आवेश से निकल भी नहीं पाई थी कि उसकी अगवानी को कुछ लोगों ने उसकी तंद्रा तोड़ दी। सन्नों ने एकबारगी उन पर जलती हुई नजर डाली और बिना कुछ बोले होटल के एक विशेष कमरे की ओर चली गई।
कमरे का दरवाजा उसका ही इंतजार कर रहा था। आहट पाते ही स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछा गया। सामने से उठी दो आकृतियों ने उसका मुस्कुराकर स्वागत किया, लेकिन सन्नों बिना किसी भाव के कमरे में प्रवेश कर आई और उनके सामने से होती हुई अपना गाउन उतारकर सोफे पर पसर गई। आकृतियों ने दरवाजा बंद किया और सन्नों के आस-पास जा चिपके।
बड़ी कोशिश के बावजूद भी आज सन्नों अपने ग्राहकों के साथ एकमेक नहीं हो पा रही थी। ग्राहकों की बड़ी कोशिश के बाद भी जब सन्नों ने उनका साथ नहीं दिया तो एक ने पास ही रखे फोन से किसी पर अपनी सारी झल्लाहट उतारी और नग्न हो चुके शरीर को ढकते हुए कमरे से बाहर निकल गये।
सन्नों का शरीर और मनोमस्तिष्क अलग-थलग पड़े हुए थे। उसे किसी बात की कोई सुध नहीं थी। कमरे में घुसने से लेकर ग्राहकों के असंतुष्ट होकर बाहर जाने और मोहित के अंदर आने तक के बीच क्या हुआ, सन्नों को कुछ भी होश नहीं था। उसके दिमाग में महज एक दुल्हन बसी थी, जिसका चेहरा उसके चेहरे से होड़ लगा रहा था। वह निस्प्राण-सी नग्नावस्था में सोफे पर पड़ी थी।
‘. . . क्या हुआ सन्नों. . . तुम्हारी तबियत खराब है क्या. . .’ शब्द कानों से टकराये और शरीर को तेजी से झकझोरा गया तो उसकी आँखे ऊपर उठीं। सामने मोहित खड़ा हुआ कुछ कह रहा था। मोहित के पीछे उसे कुछ-एक आकृतियाँ और नजर आईं जो उस विदेशी ग्राहक के असंतुष्ट होने पर नाराज हो रही थीं।
मोहित ने उसके कपड़ों को व्यवस्थित किया और हाथों का सहारा देते हुए उसे कमरे से बाहर ले जाने के लिए खड़ा किया।
‘. . . माफ करना यार . . . लगता है आज इसने ज्यादा पी ली है. . . घर ले जाना पड़ेगा. . .’ कहते हुए मोहित उसको लेकर होटल से बाहर निकल आया। मेम साहब को इस अवस्था में देखते हुए ड्राइवर ने दौड़कर गाड़ी का दरवाजा खोला तो एकायक सन्नों ने अपने को सम्हालते हुए अपने आपको मोहित के सहारे से मुक्त किया और ड्राइवर से गाड़ी की चाबी लेते हुए खुद उसकी सीट पर बैठ गई। इससे पहले कि मोहित और ड्राइवर कुछ कह पाते वह गाड़ी को खुद चलाते हुए वहाँ से निकल गई। मोहित और ड्राइवर आश्चर्य और कुतूहल भरी नजरों से उसे निहारते रह गये।
***
सन्नों की गाड़ी नेशनल हाइवे पर तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी। उसके मनोमस्तिष्क में चल रही स्मृतियों का दौर अभी थमा नहीं था। गाड़ी के डैशबोर्ड से शराब की एक छोटी बोतल एकबार फिर उसके हाथ में आ गई थी। उसने मुस्कुराकर हाथ में पकड़ी शराब की बोतल को देखा और अगली ही पल अपनी होठों से लगा लिया।
गाड़ी की गति और तेज हो गई। सामने की ओर से अम्मा का प्रशन्नता और लाड़ से चमचमाता हुआ चेहरा उसके सामने मुस्कुराया – ‘. . . बिटिया तुम बड़ी जिद्दी हो गई हो. . . च्यमनप्राश के इतने सारे डिब्बे रखे हैं . . . कौन खायेगा. . . और खाओगी नहीं तो परीक्षा में पहले नम्बर पर कैसी आओगी. . .’ सन्नों अपना वर्तमान भूलकर अतीत में समा गई। वह एकटक अम्मा का चेहरा निहारने लगी। अचानक एक बड़े झटके के साथ उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।
तेज गति से जा रही गाड़ी और सन्नों का आपसी संबंध टूट गया था। गाड़ी अपने आपको सन्नों की गिरफ्त से महफूज जान रोड की सीमाओं को पार करती हुई डिबाइडर के ऊपर से चढ़कर एक गहरी खाईं में जा गिरी।
***
अपना शरीर हिलता हुआ महसूस करते हुए सन्नों की आँखे खुलीं तो सामने खाखी वर्दी के कई चेहरे स्पष्ट हुए। उसको पकड़े हुए एक चेहरा चिल्लाया – ‘. . . यह अभी जीवित है. . . ’
सन्नों को चिल्लाने वाले चेहरे में अम्मा का कुछ देर पहले वाला अक्श नजर आया। उसके चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। बोली – ‘. . . अम्मा मुझे च्यमनप्रास अच्छा नहीं लगता. . . मुझे यह ना खिलाया करो. . .’ कहते-कहते उसकी आँखों में रात का अंधेरा सदा-सर्वदा के लिए समा गया।
उसके शरीर को पुलिस ने पोस्टमर्टम के लिए अस्पताल भेज दिया और अगले दिन एक खबर अन्य खबरों से कुछ बचते-बचाते हुए एक अखबार के कोने में समा गई – ‘प्रसिद्ध कॉलगर्ल सन्नों की गाड़ी टकराने से मौत’।
चाय के साथ अखबार को चाटते हुए किसी ने खबर पर टिप्पड़ी की – ‘रंडी थी रंडी. . . उसका तो यही अंत होना था।’


जगतपुर

07/05/2015भाग गई सन्नों . . .
Ø  सुनील ‘मानव’

रोज की ही भांति आज भी उसने ट्‍यूशन जाने की तैयारी शुरू की थी। अपने रोज ले जाने वाले बैग में कुछ किताबें रखीं, साइकिल को झाड़ा-पोंछा। नहाने-धोने के बाद अच्छे से कपड़े पहने और धूल से मुंह को बचाने के लिए दुपट्टे से मुंह को जकड़ा। अम्मा का जी रखने के लिए जल्दी-जल्दी में परांठे के दो-चार कौर मुंह में ठूंसे और कमरे में से दो बैग निकालकर साइकिल में टांगे। अम्मा ने पूछ ही लिया ‘इस दूसरे बैग में क्या है. . . कहाँ लिए जा रही हो इसे. . .’
‘. . . ओ. . . हो अम्मा आप भी ना . . . चलते-चलते टोकोगी जरूर. . . लो देखो आकर . . . कपड़े हैं. . . सोचा प्रेस ही करवा लाउंगी. . . कल कॉलेज जाना है. . .। और भी ना जाने क्या-क्या।
सन्नों ने रोज की भाँति अम्मा को गले लगाकर उनके गाल पर चुम्मा लिया और साइकिल पर निकल गई. . . निकल गई ट्‍यूशन पढ़ने . . .।
‘. . . अच्छा बाबा नहीं टोकूंगी . . . जा तू . . . पढ़ने जा . . . और हाँ जल्दी आ जाना. . . घर पर कोई नहीं है। तुम्हारे पापा भी पता नहीं कब तक लौटेंगे. . .। और अम्मा बड़ी ही वात्सल्यता से अपने करेजे के टुकड़े को निहारती रहीं। जब तक साइकिल दरवाजे से निकलकर आँखों से ओझल नहीं हो गई। इसके बाद अम्मा कभी ना खत्म होने वाले अपने रोजमर्रा के कामों में लग गई।
सन्नों अब बीस साल से ऊपर की हो चली थी, लेकिन अम्माउसे अब तलक चार-पाँच बरस से ज्यादा की नहीं समझ पा रही थी। बड़े लाजो से पाला था उसके अम्मा-बाबू ने।
अम्मा जब ब्याह कर इस घर में आईं तो उन्होंने अपने को एक विपरीत वातावरण में पाया था। विपरीत इस अर्थ में कि उनकी ससुराल में सब कुछ था – धन-दौलत,मकान, खेती-बारी,नौकर-चाकर आदि सब कुछ, लेकिन अगर किसी चीज की कमी थी तो वह थी लड़कियों की पढ़ाई की।उनकी सास को छोड़ ही दो ननदें तक नहीं पढ़ी थीं।दो ननदें थीं उनकी। दोनों की दोनों बड़ी होशियार। चाहे कढ़ाई-बुनाई हो या कपड़े-लित्ते सिलने की कला हो अथवा हो सीनरी-रंगोली बनाने की बात या फिर तरह-तरह के व्यंजन बनाना; हर काम में पूरी तरह से निपुड़। पर अगर किसी चीज की कमी थी तो बस पढ़ाई-लिखाई की। जब वह ब्याह कर इस घर में आई तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ था कि आज के जमाने तक में इनको पढ़ाया नहीं गया। खैर! ‘बीती ताहि भुलाए दे, आगे की सुध लेइ।’ अम्मा ने अपनी दोनों ननदों को पढ़ना-लिखना तो सिखाया ही साथ ही साथ अपने पति के कानों में धीरे-धीरे घर की लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की बात भी बैठा ही दी। पतिदेव ने पत्नी की बात को गहराई से समझा और घर की पंचायत में पत्नी के पक्ष की वकालत भी पुरजोर से की।
चूँकि घर के मुखिया घर में महिलाओं-लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के पक्ष में थे नहीं, सो उन्होंने काफी हद तक इस प्रस्ताव को पास ना होने देने का प्रयास किया, पर लड़के-बहू के तर्कों के आगे बहुर देर तक नहीं टिके रह सके। प्रस्ताव पास हो गया कि ‘अब घर की लड़कियाँ स्कूल जायेंगी, लेकिन केवल मैट्रिक तक। इसके बाद नहीं।’ अम्मा ने सोचा चलो कोई बात नहीं। कम से कम रास्ता तो खुल ही गया। आगे तो वह सम्हाल ही लेगी। अम्मा ने कमर कस ही ली कि अगर उन्हें लड़की होती है तो वह उसे आरम्भ से ही पढ़ायेगी और खूब पढ़ायेगी। जितना वह पढ़ना चाहे।
सास-ससुर के मन की आस भले ही ना पूरी हुई हो मगर अम्मा अवश्य खुश हीं जब सन्नों का जन्म हुआ। लेकिन धीरे-धीरे सास-ससुर भी रास्ते पर आ गये। अम्मा उसको लेकर सपने बुनने लगीं। और अंतत: वह दिन भी आ गया जब सन्नों पहली बार गाँव के ही प्राथमिक पाठशाला में अपने बाबा की गोद चढ़ी हुई पहुँची। अम्मा ने तो जैसे आज पहली बार में ही आधा युद्ध जीत लिया हो।
आज तो सन्नों एम.ए. का प्रथम वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके द्वितीय वर्ष में प्रवेश कर गई थी। अम्मा पल-पल जी रहीं थी अपनी लगाई हुई बेल को फलते-फूलते हुए देखकर। हाय मेरी सन्नों . . . मैं बल-बल जाऊँ मेरी लाड़ली पर . . . उम्मा . . . ।
अम्मा अपने रोजमर्रा में लगे-लगे भी ना जाने क्या-क्या सपने बुनती रहती थी अपनी इस कली के लिए।
‘. . . बीस बरस की हो गई है। सब सन्नों के ब्याह की बात कर रहे हैं। लेकिन अभी कैसे कर दें ब्याह उसका। मास्टरनी तो बनाऊँगी ही उसे। . . . जैसे मैं लड़ी हूँ घर में उसे पढ़ाने के लिए. . . वैसे ही वह भी तो लड़ेगी समाज में . . . पढ़ाये-लिखायेगी अपने जैसी तमाम सारी लड़कियों को। . . .’ ना जाने क्या-क्या सोचती रहती थी वह सन्नों को लेकर।
अम्मा धुन की बड़ी पक्की थीं। जिस काम में लग गईं . . . लगी ही रहती थीं। घर के सारे काम . . . झाड़ू-बुहारू से लेकर खाना-पकाना और खिलाना। इन्हीं सब में पूरा दिन गुजर जाता था अम्मा का। हाँ! अगर कुछ समय बचा सकीं तो तुलसी बाबा को लेकर बैठ जाती थीं और चुन-चुन कर सुन्दर-सुन्दर चौपाइयाँ अपनी सास को सुनाया करती थीं। बरोठे में बैठे हुए ससुर भी अपनी बहू की इस गुड़वत्ता पर बड़े रीझते थे। गर्व से चमकने लगता था उनका भी चेहरा। ‘धन्य हो ईश्वर. . . तुम्हारा लाख-लाख सुक्रिया. . . जो ऐसी लक्ष्मी को मेरे घर भेजा. . .।
सास तो जैसे पुजारन ही हो गई थी बहूं की। आस-पास की कई एक हम उम्र औरतों को बुलाकर बहू से सुनी हुई चौपाइयाँ सुनातीं और अपना सीना गर्व से फुलाती हुई उनकी पूरे आत्मविश्वास के साथ व्याख्या करतीं तो औरतें उनसे जलने लगतीं। व्याख्या एकदम विद्वान कथावाचक की माफिक।
“. . . हुइहै सो जो राम रचि राखा। . . .” सस्वर चौपाई गाते हुए नजर दीवार पर टिकटिका रही घड़ी पर चली गई। सुई पूरे चार बजा रही थी। सन्नों अब तक नहीं आई।
अरे आती ही होगी। कभी-कभार तो शाम के छ: तक बज जाते हैं। एम.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा है। और प्रथम वर्ष में नंबर भी अच्छे आये थे, सो उसकी अपेक्षा इस बार कुछ ज्यादा ही आने चाहिए। जी-जान लगाकर पढ़ाई कर रही है मेरी सन्नो. . .।  देखो ना कैसी दुबली हो गई है पढ़ाई के बोझ से।
अबकी उसके नाना के घर से देसी घी पहले से ही मँगाकर रख लेगी। चार चम्मच रोज दोनों जून खाने के समय देने से दिमाग अच्छा बना रहता है। और सन्नों के बाबा भी तो ना जाने क्या-क्या लाकर रखते रेहते हैं उसके लिए। च्यमनप्राश के चार-छ: डिब्बे तो पड़े ही होंगे। खाती ही नहीं है सन्नों। कहती है ‘. . . अम्मा मुझे च्यमनप्रास अच्छा नहीं लगता. . . मुझे यह ना खिलाया करो. . .’ अरे दबा तो दबा है कोई अच्छे लगने के लिए थोड़े ही खाई जाती है। अगर जबरदस्ती नहीं खिलाया होता तो दिन भर में एक-दो रोटियाँ चिरई-चुनगुन की तरह टूंग-टांग कर कहीं दिमाग तेज हो पाता।वो तो अम्मा ही हैं जो घेर-घार कर घी-दूध-व्यमनप्राश आदि खिलाती रहती हैं। चाहे जित्ता भी मना करो गुइंया. . . खाना तो पड़ेगा ही. . .। मन ही मन अपनी इस विजय पर इतरा जातीं अम्मा। और इतरायें भी क्यों ना. . .। ‘जाने क्या-क्या नहीं किया सन्नों के लिए पढ़ाई के द्वार खोलने को। सास को अलग समझाया, ससुर से घूँघट की ओट से बहस की और उन्हें तो रात-रात भर भरा. . . ।कभी-कभी अम्मा अपने इस कृत्य पर सरमा भी जातीं तो कभी-कभी गर्व भी महसूस करतीं। कुछ भी वह उन्हीं की दम थी कि इस घर में लड़कियों के लिए पाठशाला का दरवाजा खुल गया था।
छ: बज गये तो अम्मा कोदरवाजेकी हर आहट सन्नों के होने का भान कराने लगी। वैसे कुछ भी हो इतना समय तो कम ही होता था। और जब से उसके पिता ने थोड़ा डाँटा था तब से तो इतना समय कभी नहीं हुआ था। उस दिन पहली बार सन्नों की डाँट पड़ी थी। पूरे दो दिन तक मुँह फुलाये रही। जब तक पिता ने अपने हाथों से उसे खाना नहीं खिलाया। दुलार नहीं किया। लम्बी घोड़ी होती जा रही है लेकिन अम्मा-पिता का लाड़-प्यार पाने को ऐसे नखारे करती है जैसे अभी दूध के दाँत तक ना गिरे हों।
साढ़े छ: बजे तक भी दरवाजे से सन्नों अन्दर नहीं आई तो अम्मा के दिल की धड़कने बढ़ने लगीं। हृदय ना जाने कितने-कितने अच्छे-बुरे विचारों से गुंथने लगा।सूरज डूबने जा रहा है। अंधेरा अपना विस्तार कर रहा है, लेकिन सन्नों अब तक नहीं आई। कहाँ गई होगी. . . ? हो सकता हो आते समय रास्ते में साइकिल पंक्चर हो गई हो. . .? दाड़िजार! आठ कोस के रास्ते में एक दुकान भी तो नहीं हैं जो साइकैल में हवा तक पड़ जाये। अगर पंक्चर हो गई तो घर तक पैदल ही आना पड़ेगा. . .। मन ऊँचाई दर ऊंचाई ऊपर बढ़ने लगा।
आखिर जब नहीं रहा गया तो पड़ोस की ही सुमना हो आवाज लगाई – ‘. . . अरे ओ सुमना! पढ़ने गईं थीं क्या आज . . . अरे सुनती हो क्या . . .।’
‘. . . हाँ! चाची गई तो थी. . . क्या हुआ. . .’
‘. . . सन्नों अब तक नहीं आई. . . ’
‘. . . अरे . . . इत्ती देर कहाँ लगा दी . . . ट्‍युशन तो तीन बजे ही छूट गई थी। हम दोनों एक साथ सर के घर से निकले. . . सन्नों ने कहा मैं प्रेस करबाकर आती हूँ . . . तुम घर चलो . . . मैं तो साढ़े चार बजे घर आ गई थी. . .’
अम्मा की धड़कने और तेज हो गईं। मन अनजाने भय से भरने लगा। अंधेरा वातावरण के साथ उनके मनोमस्तिष्क को भी अपने आगोस में लेने लगा। ‘जय हो राम जी . . . तुम्हीं पालनहार हो रक्षा करना . . .।’ मन ही मन तैंतीसो करोड़ देवी-देवताओं का स्मरण होने लगा। घर के देवता से लेकर ग्राम देवता तथा आस-पास के तमाम देवी-देवताओं का प्रसाद मान डाला अम्मा ने।
मन की इस अस्थिरता के चलते वह दिया-बाती तक करना भूल गईं। शरीर कंपायमान हो उठा। कमरे से आंगन और आंगन से दुआरे के दरवाजे तक ना जाने कितने चक्कर लगा डाले, पर सन्नो का अब ना तब। इन्हीं उहा-पोहों में पूरा एक घण्टा बीत गया।
‘. . . अरे सन्नो पानी तो ले आना. . . ’ बाहर से सन्नों के बाबा की आवाज अम्मा को सुनाई दी तो ऐसा लगा जैसे वह आ गई हो। दौड़कर बाहर गई तो देखा दादा हार से वापस आये थे और पीने के लिए पानी माँग रहे थे।
दादा का रोज का ही नियम है कि जब भी वह बाहर से आते हैं तो सन्नों को पानी लाने के लिए हाँक देते हैं। और सन्नों. . . सन्नों भी उनकी बात के सूत तांबे के उनके लोटे में पहले से ही भर कर रखा पानी लेकर हाजिर हो जाती है। रोज का ही यह नियम है इनका।
दादा ने देखा कि उनके आवाज देने पर सन्नों की जगह उसकी माँ बाहर आई तो उन्हें कुछ अटपटा सा लगा। पूछ लिया कि ‘सन्नों कहाँ है’
‘. . . दादा सन्नों अब तक नहीं आई पढ़कर . .. ’ अम्मा की कंपकपाती हुई आवाज दादा को भी अंदर तक एक अजीब भय से भर गई। मुँह से कोई आवाज नहीं निकली उनके। बहूं की ओर निहारा तो उसका चेहरा भय और आशंका से लाल हो रहा था।उठ खड़े उए चारपाई से। बस निकालकर पास ही में रखा कुरता वापस उठाकर पहनते हुए दरवाजे की ओर चले गये।
बाहर जाकर आवाज दी – ‘. . . नन्हें . . . ओ नन्हें . . .’
‘. . . हाँ दादा क्या हुआ . . .’ नन्हें अपने घर से निकलकर उनके पास आते हुए बोला।
‘. . . सन्नों अब तक नहीं आई पढ़कर. . .’ दादा का भयाक्रांत चेहरा देखकर एक बार तो नन्हें भी परेशान हो गया। मुंह से बस यही निकला – ‘ . . . क्या अब तक नहीं आई पढ़कर . . .’
‘हाँ . . . लल्ला घर पर नहीं हैं। चलो देख आयें चलकर . . .’ नन्हें दादा के मन की स्थिति समझ गया। दादा से मोटरसाइकिल निकालकर लाने के लिए कहते हुए अपने घर की ओर दौड़ गया।
पूरा वातावरण एक अनजाने भय से भर गया। आस-पड़ोस में जिसको भी पता चला कि ‘सन्नों अब तक वापस घर नहीं आई’ . . . सहानुभूति से भरा हुआ सन्नों के दरवाजे पर आ गया।
तरह – तरह की बातें होने लगीं।
‘. . . किसी ने पकड़ तो नहीं लिया . . .’
‘. . . हाँ भइया हो सकता है . . . आज-कल ये पकड़ा-पकड़ाई बहुत चल रही है। . . .’
‘. . . और नहीं तो क्या . . . सोचा होगा कि अकेली लड़की है और पैसे वाले तो हैं ही. . .’
तरह-तरह की बातें। जो जिसकी समझ में आईं।
‘. . . कहीं भाग तो नहीं गई किसी के साथ . . .’ किसी ने दूसरे के कान में मुंह लगाते हुए फुसफुसाया।
‘. . . हाँ हो सकता है आजी . . . आज-कल के लड़के-लड़कियों का कोई भरोसा तो है नहीं. . .’
‘. . .और भेजो घर से बाहर पढ़ने को. . .’
‘. . . मेरे उन्ने तो जिज्जी इसीलिए बिटिया को पढ़ने के लिए नहीं भेजा। बारही साल में बरात कर दी। अब देखो आराम से अपना घर-बार देख रही है। अच्छे-खासे चार बच्चे हैं. . . . और क्या चाहिए एक औरत को. . . । हमारी भी नाक बची है और उसकी भी जिन्दगी बन गई है।’
‘. . . तुम सही कहती हो चाची. . .’
‘. . .भगवान का लाख-लाख शुक्र है . . . मेरे दो लड़के ही हैं . . .कहीं बिटिया होती तो मैं भी डरी रहती हरदम. . .’
जितने मुंह उतनी बातें।
अम्मा का बुरा हाल हो रहा था। लोगों की तरह-तरह की बातें उनके करेजे पर काँटे की तरह चुभ रही थीं। मुँह से कुछ बोला नहीं जा रहा था। बस रोये जा रही थीं और ‘सन्नों’ का नाम लेकर खिन-खिन में बेहोस हो जाती थीं।
आस-पास बैठी घर-परिवार और मोहल्ले की औरतें अम्मा को दिखावटी सान्त्वना दे रही थीं।
‘. . .अपने आप को सम्हालो बहू. . . आ जायेगी बिटिया. . .’
‘. . . हाँ बहू . . . तुम तो समझदार हो . . . और बिटिया भी क्या नासमझ है . . . पढ़ी-लिखी है . . . ’
‘. . . दादा और सब लोग गये हैं देखने . . . अभी आती ही होगी . . .चुप जाओ बहू. . .’
औरतें तरह-तरह की बातों से बहूं को सान्त्वना देने का प्रयास कर रही थीं। वैसे औरतों की इस हमदरदी में मजाक कहीं अधिक था।
अम्मा को सान्त्वना देने के बाद मन में सोचतीं ‘. . .और करबा लो कलट्टरी लड़की से . . . भागेगी नहीं तो क्या तुम्हारे लिए फूल बिछायेगी. . .’
‘. . . कितनी बार कहा कि अब ज्यादा मत पढ़ाओ लड़की को . . . कोई लड़का देखकर ब्याह कर दो . . .लेकिन नहीं भाई . . .पता कैसे चलेगा कि इन्होंने अपनी लड़की को इतना ज्यादा पढ़ा-लिखाकर मास्टरनी बनाया है. . . अब बना लो मास्टरनी . . . ’
सान्त्वना देने वाली इन औरतों के व्यंग्यबाण अम्मा को असह पीड़ा पहुँचाने लगे। अम्मा निहाल हो गई थीं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था और ना ही वह कुछ देख पा रही थीं। उन्हें तो बस यही लग रहा था जैसे कि आज बीच चौराहे पर उनकी इज्जत-आबरू की नीलामी हो रही हो। उसके सारे प्रयास, सारा संघर्ष विफल हो गया था आज। उन्होंने ऐसा तो नहीं सोचा था कभी कि यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब क्या कहूं सबसे सन्नों को लेकर। . . .क्या किया रे सन्नो तूने क्या किया . . . किस बात की कमी थी तुझे यहाँ . . .।
असहाय-सी हो गई अम्मा के मन में लोगों के मन की बात अब विश्वास बन कर अपनी जड़े जमाने लगी थी कि हो न हो ‘भाग गई सन्नो।’
‘नहीं...... नहीं ...... ऐसा नहीं हो सकता। . . . ऐसा तो हो ही नहीं सकता। . . . मेरे संस्कारों की डोर इतनी कमजोर नहीं हो सकती।. . .’ अम्मा अपने आप से ही लड़ने लगीं। विचारों की पूरी सेना ने अम्मा के अंतस में खलबली मचा दी।
रात का अंधेरा अम्मा को भयंकर राक्षस लगने लगा जो उनकी बेबसी पर ठहाके लगाता-सा प्रतीत होने लगा। अम्मा उससे लड़ने का प्रयास करने लगीं। उन्होंने एक बार फिर से नकारात्मक विचारों को अपने आप से दूर करने का प्रयास किया। ‘नहीं . . . लोग जो कह रहे हैं झूठ है . . . हो ना हो सन्नों किसी बड़ी मुसीबत में फंस गई हो।अम्मा ने पूरी ताकत लगाकर अपने को इकट्ठा किया।
‘राम जी मेरी लाज रखना. . . हे किसन कन्हैया नंगा ना होने देना . . . तुम्हें मेरी सौगन्ध. . . ’ अम्मा तरह-तरह से अपने मन से अनहोनी की बात को हटाने का प्रयास करने लगीं।
रात के ग्यारह बज गये थे। नन्हें के साथ सन्नों की तलास में गये दादा अभी वापस घर नहीं आये थे। शहर गये सन्नों के पापा भी जब घर आये तो सुनकर सुन्न हो गये कि यह क्या हुआ। उल्टे पैरों ही गाँव के किसी व्यक्ति को लेकर सन्नों की तलास में निकल गये।
अम्मा को सान्त्वना देने आये लोग धीरे-धीरे अपने-अपने घरों को वापस लौटने लगे। बस घर-परिवार के ही कुछ लोग अम्मा के पास रह गये थे। सभी को ऐसा लगता था जैसे सन्निपात हो गया हो।सबके चेहरे पर मुर्दानी छाई थी। मृत्यु-सूचक सन्नाटा रात के अंधियारे को और भीभयावह बना रहा था।
घड़ी ने पौने बारह बजाये तो मोटर साइकिल की आवाज अम्मा के कानों से टकराई। अम्मा के साथ पास में बैठे अन्य लोग भी दौड़कर दरवाजे पर जा पहुँचे।मोटरसाइकिल की तेज रोशनी ने दरवाजे पर शुभत्व की सूचना पाने की आस लगाये खड़ी अम्मा और अन्य औरतों की आँखें चुंधिया दीं। मोटरसाइकल जब पास आकर रुकी तो अम्मा की धड़कने तेज हो गईं।शुभ समाचार की आस से दादा और उन्हें देखा तो वापस निरासा के सागर में गोते लगाने लगीं। दादा और सन्नों के पापा का उतरा हुआ चेहरा बता रहा था कि ‘सन्नों का कोई समाचार नहीं मिला है।’
नन्हें पीछे से सन्नों की साइकिल लेकर आये तो सबको पता चला कि ‘महेश सर्राफ की दुकान पर साइकिल खड़ी करके सन्नों प्रेस करवाने को कहकर गई, फिर वापस नहीं आई। . . . महेश को भी सन्नों की याद तब आई जब रात नौ बजे दुकान बढ़ाते समय उन्हें सन्नों की साइकिल अब तक उनकी दुकान पर खड़ी दिखाई दी।’
सबके चेहरों पर रात की कालिमा और भी गहरी होकर सिमट आई। पूरी रात इसी मसानी में गुजर गई। अपलक. . . ।
अम्मा, दादा, पापा, घर के अन्य लोगों के साथ बच्चों तक के सामने से रात एक भयानक झंझाबात की तरह गुजर गई, लेकिन किसी के पलकों पर नींद ने दस्तक नहीं दी।
सूरज की किरणों ने जब अम्मा के चेहरे पर दस्तक दी तो उन्हें लगा जैसे आज उठने में बड़ी देर हो गई हो। सन्नों को ट्‍यूशन भी तो जाना है। मन में एक तरंग उठी। जितनी सहजता से तरंग उठी उतनी ही सहजता से विलीन भी हो गई। अम्मा अब पूरी तरह से आश्वस्त हो चुकी थीं कि अब सन्नों को पढ़ने नहीं जाना है।सबके चेहरों पर एकबरगी अम्मा की नजर फिरी और अनायास ही आँखों से जलधारा प्रवाहित हो उठी।
सुबह होते-होते घर में गाँव वालों की भीड़ जुटने लगी। दादा और सन्नों के पापा जवाब देते-देते परेशान होने लगे। दादा, पापा और घर के लोगों के झुके हुए चेहरे देककर अम्मा अपने को दोषी समझने लगीं। उन्हें लगने लगा कि जैसे इस सबकी जिम्मेवार वह ही हैं। उन्हीं ने जिद की थी सन्नों को पढ़ाने की।
अम्मा पल-पल में चेतन और अचेतन के बीच झूझने लगीं। सबके हृदय में यह बात अब पूरे इत्मिनान से घर कर गई थी कि ‘अब सन्नों नहीं आयेगी।’
घर के किसी भी सदस्य ने कल से अन्न का एक दाना तक नहीं खाया था। रामलाल की दुल्हिन चाय बनाकर लाईं पर किसी ने उस ओर देखा तक नहीं।
दादा और सन्नों के पापा दो-चार लोगों को लेकर तड़के ही सन्नों की खोज में निकल गये। कहाँ-कहाँ नहीं तलाशा उन्होंने सन्नों को। लेकिन सन्नों की कुछ भी भनक नहीं लग पाई। आखिर गई तो गई कहाँ. . .? अफवाहों की हवा तेजी से बहने लगी।अपने आप से लड़ते हुए भी अधिकांस लोगों के मनोमस्तिष्क में यह विश्वास जड़ जमाने लगा था कि ‘अब सन्नों का मिलना बड़ा मुश्किल है. . . भाग ही गई है किसी के साथ. . .।’
जो भी जैसी सलाह देता दादा को सही लगती और वह उस पर अमल करने पर मजबूर हो जाते। किसी ने पुलिस को सूचना देने की सलाह दी दादा को। दादा का दिमाग चकरा गया। थाना-पुलिस-जग हसाई. . . पुरखों की सारी इज्जर मिट्टी में मिल गई आज।
थानेदार और पुलिस वालों के ‘व्यंग्य भरे प्रश्न’ दादा की अन्तरात्मा को झकझोर देते।अब जो हुआ उसका कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा।
थाना-पुलिस सब बेकार। पूरे पन्द्रह दिन गुजर चुके थे सन्नों के लापता हुए, लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था।
सन्नों के पापा लोगों के कहने पर ना जाने कितने तान्त्रिकों तक से भी सलाह ले आये थे। पर सब का सब बेकार। किसी की बात अम्मा के दिमाग को तसल्ली नहीं दे पा रही थी। अम्मा के दिमाग में तो बस सन्नों कीहसती-खिलखिलाती हुई मूरत इधर से उधर दौड़ रही थी, जिसकी तुलना अम्मा सन्नों की एक नवीन मूरत से करने का प्रयास कर रही थीं।अम्मा के दिमाग में एक पूरी फिल्म चल रही थी इस समय। सन्नों के जीवन की फिल्म। उसके बचपन से लेकर अब तक की फिल्म, जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी।बार-बार शुरू से ही आरम्भ हो जाती थी।
दिन पर दिन गुरते जा रहे थे। अम्मा का शरीर सूखकर कांटा होने लगा। भूख-प्यास से अम्मा का दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं रह गया था।
सन्नों अब एक सपने में बदलने लगी थी।धीरे-धीरे सभी अपनी दिनचर्या पर वापस आ रहे थे, लेकिन अम्मा के मनोमस्तिष्क से सन्नों एक पल को भी अमिट नही हो रही थी। हर आहट पर उन्हें ऐसा लगता था जैसे सन्नों आ गई हो। हवा का हर झोंका उन्हें सन्नों की खुशबू दे जाता था। रह-रह कर उन्हें ऐसा लगता था जैसे अभी पीछे से सन्नों आकर उनसे लिपट जायेगी और रोज की तरह इठलाकर घी और च्यमन्प्रास ना खाने की जिद करती हुई उनके गाल पर मीठा चुम्मा ले लेगी, जिससे वह आनंद से भर उठेंगी।‘नहीं यह सब छलावा है। अब वह नहीं आयेगी’ अम्मा पल-पल अपने को समझाने की कोशिश करतीं। सब बेकार . . . चाहते ना चाहते हुए भी प्रत्येक आहट सन्नों की महक से अम्मा को भर ही जाती।
तुम कहाँ चली गई हो सन्नों अपनी अम्मा को छोड़कर . . .एक बार तो आ जाओ अपनी अम्मा के गाल पर मीठा चुम्मा लेने . . . आ जाओ सन्नों वापस आ जाओ . . .।

कट

सन्नों आज बड़ी खुश लग रही थी।साइकिल पर जाते हुए वह आसमान में उड़ रही थी। दिमाग में देखे हुए सपने हकीकत में बदलते हुए दिखाई पड़ रहे थे। वह सपने जो उसने मोहित के साथ उस दिन से देखे थे, जब वह मोहित से पहली इण्टर कॉलेज में मिली थी।उस दिन पहली बार सन्नों को ऐसा लगा था जैसे उसके सपनों का राजकुमार आज साक्षात उसके सामने खड़ा हो गया हो।पहली ही मुलाकात में दोनों एक-दूसरे पर मर मिटे थे।तब से लेकर अब तक दोनों एक साथ एक ही क्लाश में पढ़ते चले आ रहे थे। दोनों एक साथ एक से एक हसीन सपने देखते चले आ रहे थे। आज उसके सपने हकीकत में बदल रह थे।
सोचकर ही सन्नों का शरीर रोमांच से भर उठा था। आज उसे अम्मा, दादा और पापा की जगह मोहित की ही याद आ रही थी।
मोहित और आगामी जीवन के हसीन सपनों में खोई हुई सन्नों के पैर साइकिल के पैडल पर ऐसे डोल रहे थे जैसे कि पैर ना होकर पंख हों।हाँ! वास्तव में साइकिल पर जाती हुई सन्नों आज उड़ रही थी। बिलकुल चिड़िया की माफिक। एकदम स्वच्छन्द . . .प्रफुल्लित मन से . . . उड़ी जा रही थी।
आज उसने अपना सफर बड़ी जल्दी ही पूरा कर लिया था। उसे पता ही नहीं चला कि आज इतनी जल्दी वह ट्‍यूशन वाले सर के घर कैसे पहुँच गई है। जीवन के रंगीन सपनों में खोई हुई सन्नों को आज आठ कोस का रास्ता बहुत ही छोटा लगा था।उसका शरीर मारे रोमांच के रुई की माफिक हल्का हो चला था। उड़ता हुआ सातवें आसमान के पार जा पहुँचा था।बार-बार उसके सामने उसके मोहित. . . नहीं . . .नहीं . . . मनमोहन की छवि मदभरी मुद्रा में दिखाई पड़ने लगती थी।
ट्‍यूशन में बैठे हुए भी वह वहाँ नहीं थी। सर ने दो-एक बार पूछ ही लिया ‘कहाँ हो सन्नो. . . ’
‘. . . कहीं नहीं सर यहीं हूँ . . .’
सर ने वेबजह और ध्यान नहीं दिया उस पर, पूरी तन्मयता से पढ़ाने में लग गये। सन्नों का मन पढ़ने में नहीं लगा तो नहीं ही लगा।उसका मन तो आज हवाई सफर तय कर रहा था।
दो घण्टे की क्लास सन्नों को ना जाने कितनी लम्बी लगी थी आज। खत्म होते ही सबसे पहले वही निकली कक्षा से। पीछे सुमना आवाज दी – ‘अरी सन्नों कहाँ जा रही हो इतनी जल्दी . . . थोड़ा रुको तो सही . . . मैं भी आती हूँ . . .’
‘. . . अरे सुमना तुम चली जाना घर . . . मुझे कुछ सामान लेना है बाजार से और कपड़े भी प्रेस कराने हैं. . . अम्मा को कह देना थोड़ी देर हो जायेगी. . .।’ इससे पहले कि सुमना कुछ बोल पाती सन्नों ये गई कि वो गई।
सीधे महेश ज्वेलर्स की दुकान पर जाकर रुकी।
‘. . . महेश अंकल मेरी साइकिल खड़ी है. . . मैं प्रेस करवा कर अभी थोड़ी देर में आती हूँ . . .।’ महेश अंकल ने एक नजर सन्नों और साइकिल पर डाली फिर अपने पान की गिलोरी से भरे हुए मुँह को बोलने के लिए कुछ तकलीफ देने का प्रयास करने लगे – ‘. . . जल्दी आना बिटिया . . .’ फिर अपने काम में मशगूल हो गये।
वहाँ से सन्नों सीधे बस स्टाप पर पहुँची तो शहर जाने वाली बस चलने को तैयार खड़ी थी। मन में सागर-सी हिलोरें लेती हुई बस में सवार हो गई सन्नो. . .।आज उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। बस एक ही सूरत मन में स्थिर हो गई थी, मोहित की मूरत।
करीब एक घण्टे के सफर के बाद बस के कन्डक्टर ने आवाज दी – ‘स्टेशन जाने वाली सवारियाँ यहीं उतर जायें, आगे बस स्टाप से पहले नहीं रुकेगी. . .।’ मोहित की सुध में खोई हुई सन्नों जाग गई एकदम से. . .हड़बड़ाते हुए बस से नीचे उतरी और पास ही में खड़े एक रिक्शे पर बैठते हुए उससे रेलवे स्टेशन चलने को कहा। रिक्शे वाले ने हुक्म की तत्काल तामील की।
रेलवे स्टेशन पर पहुँचकर सन्नों ने रिक्शे वाले को पर्स से पैसे निकालकर देते हुए पूछा – ‘. . . भइया . . .लखनऊ के लिए किस समय ट्रेन मिलेगी. . .’
‘. . . बहन जी अभी जल्दी से टिकट ले लीजिए . . . गोहाटी एक्सप्रेस आती ही होगी. . . अभी गई नहीं है . . . शायद लेट है आज . . .’ सन्नों रिक्शे वाले की बात को सुनते हुए ही टिकट काउन्टर की ओर बढ़ गई।
टिकट लेकर सन्नों द्वितीय श्रेणी के विश्रामालय में आकर बैठ गई। ट्रेन दो-ढाई घण्टे लेट थी। सन्नों ने अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली। ‘. . .अभी तो चार ही बजे हैं . . .ट्रेन कहीं पाँच-साढ़े पाँच बजे तक आयेगी. . .।’ कैसे कटेगा यह समय। सन्नों का दिमाग तमाम उलझनों से भर गया।
‘. . .कहीं किसी ने देख लिया तो . . . नहीं – नहीं ऐसा नहीं हो सकता. . .वह यहाँ पर नहीं बैठेगी. . .’
सन्नों ने अपने चेहरे पर दुपट्टे को कसकर बाँधा और पास ही के बुकस्टाल से एक पत्रिका खरीदकर सीधे मालखाने की ओर चली गई। वहाँ एक बैंच पर बैठकर पत्रिका पढ़ने का बहाना अपने आप से करने लगी।
सन्नों के दिमाग में तरह-तरह की बातें चलने लगीं।
‘. . .लखनऊ में स्टेशन पर ही मोहित ने मिलने को कहा है. . . कहीं नहीं मिला तो . . . अरे मिलेगा कैसे नहीं . . . वह भी तो हम पर उतना ही मरता है जितना कि मैं उस पर. . . वह भी अभी से स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहा होगा।. . .’
सन्नों के पास अपना फोन नहीं था अभी। मोहित से अक्सर बात पापा के फोन से ही छिपछिपाकर कर लिया करती थी।और घर से भागकर ब्याह करने का पूरा प्लान सन्नों और मोहित ने दो महीने पहले ही बनाया था, जब सन्नों पेपर देने गई थी।कल शाम को किसी तरह से सुमना के फोन से मोहित से बात हुई थी। आज का सारा कार्यक्रम कल शाम को ही मोहितने फोन पर बताया था। तभी से हवा में उड़ी जा रही थी सन्नो।
सन्नों ने जब गाँव के स्कूल से ही मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर लीतो दादा की खीची गई लकीर उन्होंने खुद मिटा दी। बड़ी प्रसन्नता से सन्नों को प्यार करते हुए कहा – ‘. . . आगे भी ऐसे ही मेहनत से पढ़ना . . . जहाँ तक मन करे . . .’
आगे पढ़ने की इजाजत तो मिल गई थी लेकिन एक बड़ी समस्या थी अब सामने। समस्या यह कि गाँव या आस-पास कोई इण्टर कॉलेज नहीं था जहाँ सन्नों का नाम लिखाया जाता।
सन्नों की नानी लखनऊ में थीं। उन्होंने कहा कि ‘सन्नों को उनके पास कर दो . . .यहीं अच्छे कॉलेज में नाम लिखबा दूँगी . . .।’
अम्मा को यह अच्छा नहीं लगा कि सन्नों उनसे दूर रहे। अम्मा ही क्या घर के किसी सदस्य को यह अच्छा नहीं लगा कि ‘सन्नों उनसे दूर रहे।’लेकिन और कोई चारा भी नहीं था। चाहते ना चाहते हुए भी करेजे पर पत्थर रखकर अम्मा ने सन्नों को नानी के घर पर पढ़ने को भेजा।
इण्टर के यह दो बरस अम्मा के साथ-साथ घर के सभी सदस्यों पर बड़े भारी गुजरे थे। जब सन्नों ने इण्टर पास कर लिया तो सबने एकमत होते हुए फैसला किया कि ‘अब वह आगे की पढ़ाई ‘प्राइवेट’ करेगी।’और पास उसका ‘स्नातक’ का फार्म ‘प्राइवेट’ डलवा दिया गया। सन्नों ने बहुत कहा कि ‘वह रेगुलर पढ़ेगी. . .’ लेकिन एक बार घर में जो फैसला ले लिया गया सो ले लिया गया। घर से आठ कोस दूर ही अहिबरन सिंह मास्साब से उसकी ट्‍यूशन लगाबा दी गई। इस प्रकार सन्नों की आगे की पढ़ाई घर और ट्‍यूशन के बलबूते आरम्भ हो गई।फिर भी सन्नों ने कमाल कर दिखाया। हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास हुई।
सन्नों भले ही घर पर रहकर प्राइवेट पढ़ रही थी लेकिन मोहित से उसका जो रिस्ता बन गया था वह कम होने की बजाय अधिक प्रगाढ़ ही हुआ था। किसी ना किसी प्रकार से छिपते-छिपाते वह मोहित से बात कर ही लिया करती थी।चाहे पापा का फोन हो या फिर सुमना का। अधिकतर सुमना ही उसके काम आया करती थी।
सुमना का घर सन्नों से लगा हुआ ही था। बीच में महज छत ही थी, जिसके जरिये आसानी से वह सुमना के घर चली जाया करती थी पढ़ाई के बहाने।अम्मा को भी अच्छा लगता था कि सन्नों गाँव-गिरावँ में किसी के यहाँ आती-जाती नहीं है। सुमना के साथ ही बैठकर पढ़ती रहती है। घण्टों . . .।
शुरुआत में सुमना को तक पता नहीं था सन्नों और मोहित के बारे में, लेकिन धीरे-धीरे उसे इस बात की जानकारी हो ही गई। फिर सन्नों ने भी उसको कुछबता दिया था। सुमना को लगा कि ‘चलो कोई बात नहीं. . . कॉलेज का दोस्त  है . . . दो-चार बातें करने में क्या गुनाह . . . ।’
कहानी चलती जा रही थी, लेकिन जबसे इस बार सन्नों पेपर देकर आई उसका मन किताबों से ज्यादा फोन में लगता था। सुमना भले ही मुरव्वत में कुछ कह नहीं पा रही हो लेकिन उसे सन्नों की फोन में लगातार बढ़ती जा रही प्रगढ़ता पर शक होने लगा था।पर सुमना को अंतिम दिन तक इस बात का आभास नहीं हो सका कि सन्नों इतना बड़ा कदम भी उठा सकती है।
‘. . . यात्रीगण कृपया ध्यान दें . . .  . . .  . . . प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है . . .  . . .  . . . ’ मोहित के ख्यालों में खोई सन्नों जाग गई एकदम से।
ट्रेन और यात्रियों की मिली-जुली आवाज को मायके से अपनी विदाई मानकर सन्नों ट्रेन के महिला डिब्बे में चढ़ गई।सुनहरे सपनों के साथ नवीन मंजिल की ओर।
ट्रेन की तेज गति और आवाज से बेपरवाह सी सन्नों के हृदय में एक अजीब-सा कुतूहल मच गया था इस समय।वह अपनी नवीन मंजिल पर निकल तो पड़ी थी लेकिनअब . . . अब . . . पता नहीं क्यों उसके मन में अजीब-अजीब तरह के विचारों का कोलाज बन रहा था।अब उसके मनोमस्तिष्क में अम्मा, पापा, दादा . . . और मोहित . . . एक साथ छण-छण को आ जारहे थे।कुछ नकारात्मक और उनसे अपने को समेटे हुए से सकारात्मक भाव लगाता सन्नों के दिमाग में आ-जा रहे थे।
मानसिक झंझावातों से अपने आपको समेटते हुए सन्नों ने बैग से पत्रिका निकालकर पढ़नी आरम्भ की।. . . एक प्रेमकहानी . . . पूरी पढ़ गई वह। उसके केन्द्र में खुद और मोहित को रखकर. . .। एक बार फिर वह मोहित के संग हसीन सपनों में खो गई।
लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन पहुँच चुकी थी। सन्नों के दिल की धड़कने तेज हो गईं। उसने सम्हाला खुद को और मन में केवल सकारात्मक भावों को लेकर प्लेटफार्म पर उतर गई।नजरें भीड़ को चीरती हुई मोहित को तलाशने लगीं।कदम धीरे-धीरे गेट की ओर बढ़ गये।
बाहर आकर भी उसे जब कहीं मोहित नहीं दिखाई दिया तो सन्नों की पहले से ही तेज धड़कनों ने और भी तीव्र गति पकड़ ली। शरीर में कपकपी-सी होने लगी।ऐसा लगने लगा जैसे कि आँखों के सामने अंधेरा छा गया हो। अनजान भीड़ में सन्नों को सब कालिख पुते बिजूके से दिखाई पड़ने लगे। आँखें और भी अधिक गति से मोहित को तलाशने लगीं, पर मोहित कहीं दिखाई नहीं दिया।
‘. . . कहाँ खो गई थीं तुम इतनी देर से तलाश रहा हूँ तुम्हें . . .’ पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा तो सन्नों ने चिरपरिचित सी आवाज को पहचानते हुएपीछे मुड़कर देखा। सामने मोहित नाराजगी भरी नजरों से उसे देख रहा था।
‘. . .मैंने तुमसे कहा था कि गेट के पास ई खड़ी रहना . . . फिर वहाँ से क्यों हटीं . . .इतनी देर से तलाश रहा हूँ . . . तुमने तो परेशान ही कर दिया एकदम से . . .’ सन्नों ने मोहित की बातों और हाव-भाव में अपने लिए प्रेम कीबयार देखी तोतन-मन शीतल हो गया। इसी शीतलता में पानी की दो बूँदें उसकी आँखों से टपक पड़ीं।मोहित ने उन्हें गिरने नहीं दिया। अपने हाथों में ही लेते हुए बोला – ‘ . . . बहुत अनमोल हैं . . . इन्हें इस तरह बहाने की जरूरत नहीं है . . .’
दोनों ने अपने प्रेमी को आनंदातिरेक से देखा। मन ने कहा बस देखते रहो . . . अपलक . . .’
‘. . . अब चलो भी . . . बाकी का सारा काम कमरे पर . . .’ मोहित ने सन्नों को कामपरक नजरों से छेड़ा। शरमा गई सन्नों ने मारे लाज के नजरें नीचे झुका लीं।
मोहित ने सन्नों का कपड़ों वाला बैग उठा लिया। सड़क पर आकर आटो किया और उसे डालीगंज चलने को कहकर पीछे की सीट पर दोनों एक-दूसरे की बाहों में बांह डालकर ऐसे बैठ गये जैसे कबके प्यासे पपीहे को स्वाति की बूँद मिल गई हो।
मोहित ने पूरा प्रबन्ध कर रखा था। डालीगंज चौराहे पर दोनों आटो से उतरकर एक गली में जा पहुँचे। कुछ देर चलने के बाद एक मकान के सामने पहुँचकर मोहित ने उसकी घण्टी बजाई।
मोहित ने सारी तैयारी कर रखी थी सन्नों के लिए। आज वह लखनऊ में ही रहेगा और कल कानपुर चला जायेगा। वहाँ उसके दोस्त ने रहने का प्रबन्ध क्कर दिया है। एक छोटा-सा कमरा, एक बेड और जरूरत की और भी कुछ चीजें। लखनऊ में आज पहली बार जिस घर में सन्नो कदम रखने जा रही थी, मोहित के एक दोस्त का घर था। मोहित ने दोस्त को सारी बात बता दी थी और दोस्त ने किसी प्रकार से अपने घर में मैंनेज कर लिया था। मम्मी से कह दिया था कि परसों इन दोनों की शादी है कानपुर में, आज देर हो गई है, इसलिए कल जायेंगे यह कानपुर। आज की रात यहीं बितायेंगे।
मकान का दरवाजा खुला। खोलने वाली एक तकरीबन चालीस साल की महिला थीं। खोलते ही उसने सन्नों को पैनी नजरों से देखा। सन्नों को लगा जैसे अम्मा हों। सकपका ही गई एक बार को वह। जल्दी से सम्हाल लिया खुद को। दोनों ने एक साथ ही कहा – ‘. . . आंटी जी नमस्ते. . .’ महिला ने स्वीकृति में सर हिला दिया और अंदर आने का इशारा किया।
दोनों अंदर तो चले गये पर सन्नों के अंदर का चोर कहीं ना कहीं तक ‘कंपायमान’ हो गया। आज उसे पहली बार बड़ा विचित्र-सा आभाष हो रहा था। जैसे की चोरी करते हुए किसी ने रंगे हाथों पकड़ लिया हो। बढ़ती हुई धडकनों पर काबू करने के प्रयास में ही कमरे तक पहुँच गई सन्नों। आंटी दोनों को शकभरी नजरों से लगातार घूरे जा रही थीं।
दोनों ने कमरे में जाते ही झट से दरवाजा बंद कर लिया। सन्नों एकदम से लिपट गई मोहित को।
मोहित का दोस्त, जिसने मोहित को यहाँ आज की रात रुकने का प्रबन्ध किया था घर पर नहीं था। जब तक वह आ नहीं गया सन्नों के प्राण अधर में ही अटके रहे; क्योंकि आंटी की आँखे लगातार किसी ना किसी बहाने से उन्हें घूरे जा रही थीं।रात के दस बजे कहीं जब वह आया तो दोनों ने चौन की सांस ली।
खैर! दोस्त की माँ ने ज्यादा पूँछ-ताँछ नहीं की, फिर भी सन्नों कम्फर्ट महसूस नहीं कर रही थी।
दोस्त ने उनके खाने-पीने का इंतजाम पहले से ही कर दिया था, इसलिए दोनों अब जल्दी ही सो जाना चाहते थे। सुबह पाँच बजे कानपुर के लिए ट्रेन थी, जिसे पकड़ने के लिए चार बजे तड़के ही घर से निकलना होगा। जब कानपुर पहुँचेंगे तभी जाकर सन्तोष होगा उन्हें।
दोनों की एक साथ यह पहली रात थी। एक-दूसरे की बाँहों में सुखभरी रात। सन्नों के सपनों का राजकुमार आज सपनों से निकलकर उसके आगोश में बंध गया था। कितना हशीन था यह पल सन्नों के लिए। उसकी बरसों की मुरादें उसके पास स्थिर हो गई थीं।
एक-दूसरे की बाँहों के कसाव में जकड़े हुए ही दोनों ने पूरी रात जागते हुए ही बिता दी। कई बार सोने का प्रयास किया लेकिन बिरह-मिलन की इस प्रथम बेला में नींद का क्या काम था।
घड़ी ने तीन बजा दिये तो एक बार ताजगी के साथ दोनों ने फिर से एक-दूसरे को सींचा। ना चाहते हुए भी सन्नों ने मोहित को फ्रेस होने के बहाने अपने आपसे दूर किया और कपड़े लेकर बाथरूम की ओर चली गई।
मोहित उसे छोड़ना नहीं चाहता था आज बिलकुल। उसने बाथरूम की ओर जाती हुई सन्नों को प्यार भरी नजरों से देखा और खुद भी उठकर जाने की तैयारी करने लगा।
मोहित के दोस्त को जब लगा कि दोनों उठ गये हैं तो वह ऊपर उनके कमरे में चाय लेकर आ गया। दोनों बैठकर चाय पीने लगे तब तक बाथरूम से नहाकर सन्नों भी आ गई। मोहित और उसका दोस्त उसको देखते ही रह गये अपलक . . .। आज सन्नों ने पहली बार साड़ी पहनी थी और साड़ी में सन्नों बला की खूबसूरत लग रही थी। मोहित को ऐसा लगा जैसे कामदेव अपनी पूरी शक्ति के साथ सन्नों में समाहित हो गये हों।
मोहित जड़-सा हो गया सन्नों के रूप-यौवन में।
‘. . . भाभी जी आप बड़ी खूबसूरत लग रही हैं. . .’ मोहित के दोस्त ने सन्नों की तारीफ करनी चाही।
सकपका गई सन्नों। उसे दोस्त की आँखों में कामुकता की झलक दिखाई पड़ गई। अपने आपको सम्हालते हुए उसने मोहित से कहा – ‘ चलो अभी तक बैठे हो. . . चार बज गये हैं . . . ट्रेन का समय हो रहा है . . .’
मोहित मुस्कुरा दिया। तैयारी कुछ करनी ही नहीं थी। दोस्त नीचे मिलने को कहकर कमरे से चला गया तो सन्नों ने मोहित से उसका उलाहना किया, जिसे मोहित ने हँसकर टाल दिया।
सन्नों ने बाल बाँधे और घर से छिपाकर लाये हुए गहने पहने। ऐसे सजी जैसे विवाह के बाद एक नवयौवना सजती है। मोहित छोटी-मोटी छेड़खानी के साथ उसका रसपान कर रहा था, जिसमें सन्नों एक पत्नी की भाँति मोहित का सहयोग कर रही थी।
कानपुर जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। दोस्त दोनों को स्टेशन छोड़ने आया था। उसने ही उन्हें कानपुर की दो टिकटें लाकर दी थीं और दिया था एक छोटा-सा गिफ्ट का डिब्बा। पूरी तरह से पैक। यह कहकर की रात को सोने समय ही इसे खोलना।
ट्रेन चल पड़ी कानपुर के लिए। और सन्नों चल पड़ी मोहित के साथ एक नवीन सफर पर। सब कुछ को पीछे छोड़ते हुए। अम्मा, पापा, दादा, घर, गाँव और. . . वह सारी संवेदनायें जो उसके साथ बुनी गई थीं। उसकी अम्मा ने उसके लिए बुनी थीं, बरसों के धैर्य के साथ।
ट्रेन ने चलते हुए अपना विशेष संगीत छेड़ दिया और मोहित के कंधे पर सर रखे हुए सन्नों एक बार फिर से अपने आगामी जीवन की सज-धज में खो गई। ठीक उसी प्रकार जैसे अम्मा खो जाती थीं उसकी देख-रेख और घर के कामों में।
सब कुछ को तेजी के साथ पीछे छोड़ती हुई ट्रेन तेज गति से कानपुर की ओर, सन्नों की हसीन मंजिल की ओर भागी जा रही थी।
कानपुर के पहले की स्टेशनों पर जब ट्रेन रुकती तो सन्नों कुछ देर के लिए जाग जाती और कुछ ही देर बाद वापस अपने सपनों में खो जाती। मोहित के साथ। उसके सपनों के आलम्बन के साथ।
ऐसे ही एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो उसमें चढ़ने वाले यात्रियों में कुछ अध्यापक गण भी थे। हंसते-बात करते हुए सन्नों के सामने वाली सीट पर ही आ बैठे। इनकी आपस की बातचीत से लग रहा था कि ये लोग कानपुर के किसी कॉलेज में प्रवक्ता हैं और कवि भी हैं। आपस में हो रही उनकी दीन-दुनिया की बातों से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था।
सन्नों और मोहित इनकी बातों को समझने का प्रयास करने लगे। उनकी बातों से सन्नों को ऐसा लगा जैसे कि उन लोगों की बातों का केन्द्र-बिन्दु वह ही हो।
‘. . . जी हाँ! तिवारी जी . . . आज-कल के बच्चों ने माँ-बाप को हासिये पर ही डाल दिया है . . .’
‘. . . उनके लिए संवेदना की डोर महज एक खिलौना है. . . भाव उसमें से ना जाने कहाँ गायब हो गये हैं . . .’
‘. . . भाई मैं आप लोगों की बातों से सहमत नहीं हूँ . . .’ एक नौजवान प्रवक्ता ने अपनी बात रखी।
‘जी हाँ! अगर लड़का-लड़की बड़े हो गये हैं और वह खुद फैसला लेना चाहते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है. . .।’
‘क्यूँ जी बुराई क्यों नहीं हैं. . . एक माँ-बाप, जो बच्चों को पालते-पोसते हैं, उनकी हर फरमाइस पूरी करते हैं, और बच्चे हैं कि उनकी संवेदनाओं को एक झटके में तोड़कर भाग जाते हैं उन्हें ठेंगा दिखाकर. . .’
इन लोगों की बातचीत का केन्द्र थी एक कविता, जो कल के दैनिक जागरण पत्र में प्रकाशित हुई थी। कविता का भाव एक ऐसी लड़की पर केन्द्रित था जो ‘घर से भाग गई है।’ पत्र एक प्रवक्ता के हाथ में था।
‘. . . अरे मिश्रा जी छोड़िये भी इस बहस को. . . बहस के लिए स्टाफरूम और क्लास ही सही है. . . यहाँ हम लोग यात्रियों को क्यों अपनी बह्स से बोर कर रहे हैं . . . वैसे कविता का वाचन हो जाये तो ठीक रहेगा. . .’
‘हाँ! यह ठीक रहेगा . . . वाचन होते-होते हम कानपुर पहुँच जायेंगे। . . . कविता का विषय कुछ भी हो भाई . . . अगर लिखी गई है तो पढ़ी तो जानी ही चाहिये . . .’
नई उम्र वाले प्रवक्ता की दाल नहीं गल पाई इन ‘सहज विमल हृदय’ वाले विद्वानों में। उसने ना चाहते हुए भी हाथ में पकड़े हुए पत्र से कविता पढ़नी आरंभ की . . .
“भाई साहब
जरा गौर फरमायेंगे
जी हाँ!
जो मैं कहने जा रहा हूँ
उसे
थोड़ा ध्यान से सुन लेते तो . . .
जी अच्छा . . .
तो आप तैयार हैं सुनने को
मेरी बात . . .
ठीक है
तो मैं कहता हूँ
अपनी बात . . .
दरअस्ल बात मेरी नहीं
मेरे पड़ोसी से संबंधित एक घटना है
जो मुझे
मेरे किसी अभिन्न ने बताई
‘राज’ कोराज रखने की कसम देकर
हाँ तो घटना . . .
यही कोई
तकरीबन रात के ग्यारह बज रहे होंगे
किसी ने कहा मुझसे
आपको कुछ पता है
हमारे पड़ोसी की लड़की
जो गई थी सुबह
पढ़ने को कॉलेज
तैयार होकर
अब तक नहीं वापस आई
सुना है भाग गई है वह
साथ में पढ़ने वाले
एक मनचले के साथ
ले गई माँ-बाप की सारी इज्जत
काट ले गई उनकी नाक
और तो और
तोड़ गई संवेदनाओं का वह धागा
जिसे उसकी माँ औए बूढ़े बाप ने बड़े जतन से
‘बुना था’
माँ और बाप के वह सपने
जो उन्होंने देखे थे
पूरे अट्ठारह साल, दो महीने, ग्यारह दिन
और नौ महीने
(माँ की कोख को जोड़ते हुए)
पता है आपको
बड़ी मुश्किल से इस घर में
खुला था दरवाजा
लड़कियों के लिए
स्कूल-कॉलेज जाने को
लेकिन बंद कर गई वह
आज उसे फिर से
ना जाने कितने दिनों के लिए
लोगों में सुगबुगाहट फैल गई
‘मैं तो खुशनसीब हूँ कि
मेरे कोई लड़की नहीं है’
और जिनके आगे हैं लड़कियाँ
वह भी शंका की दृष्टि से देखी जाने लगीं
‘कहीं ये भी ना तोड़ दें उस डोर को
जिसे बुनने में लगे थे पूरे
अट्ठारह साल, दो महीने, ग्यारह दिन
और नौ महीने
(माँ की कोख को जोड़ते हुए)’

प्रवक्तागण कविता-पाठ के बाद उसकी बखिया ऊधेड़ने लग गये तो सामने की सीट पर बैठी सन्नों के चेहरे पर उसका असर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा।सन्नों की धड़कने तेज हो गईं। मोहित ने सन्नों के भावों को समझते हुए उसके कंधे पर रखे हाथ से सन्नों का कंधा प्यार से दबाया।सन्नों ने एक नजर मोहित की ओर देखा। मोहित की नजरों ने सन्नों को अपने प्यार का विश्वास दिलाया।
तमाम मानसिक उहा-पोहों से लड़ रही सन्नों को लेकर ट्रेन ने कानपुर सेन्ट्रल पर दस्तक दी तो चाय और समोसे बेचने वालों मेंयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लग गई।तरह-तरह के जुमलों से वह अपने उत्पाद को बेचने का प्रयास करने लगे।
इन्हीं सब के बीच सन्नों ने मोहित का हाथ पकड़े हुए ट्रेन से नीचे उतरते हुए कानपुर के प्लेटफार्म और अपनी नवीन कर्म स्थली पर पहला कदम रखा।

*  *  *

सन्नों और मोहित को लिए हुए रिक्सा कई सारी गलियों में चक्कर लगाता हुआएक साधारण से घर के सामने रुका। निम्न वर्गीय इस बस्ती में जिस मकान के सामने इन युगल प्रेमियों का रिक्सा रुका था वह अभी नया ही बना था। पलस्तर ना होने से ईंटों का जुड़ाव अपनी चित्रकारी प्रस्तुत कर रहा था।
मोहित ने रिक्से से उतरकर इस मकान की कुंडी खटखटाई।सन्नों अपना बैग पकड़े हुए मोहित के पीछे आ खड़ी हुई तो आस-पास की तमाम निगाहों ने उन्हें प्रश्नाकुल भाव से देखा। सन्नों अपनी ओर उठी निगाहों को भांपती हुई मोहित के और पास आ गई।
अंदर से दरवाजा खुला तो एक अधेड़ औरत मोहित और सन्नों के सामने थी। उसने सन्नों को ऊपर से नीचे तक अपनी पैनी नजरों से ताड़ा और अंदर आने का इशारा किया। मोहित ने लपकर उस औरत के पैर छुए और ऐसा ही करने की उम्मीद से सन्नों की ओर देखा। सन्नों ने एक आदर्श पत्नी की तरह पति की निगाहों को समझा और सर पर साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए दोनों हाथों से अधेड़ औरत के पैर छुए। औरत ने सन्नों को कंधों से पकड़ कर उठाया और मुस्कुराते हुए अंदर चलने का इशारा किया।
मोहित का एक दोस्त कानपुर में रहता था। उसने ही कानपुर में यह घर इन दोनों के रहने के लिए देखा था। यह औरत मकान की मालकिन थी। इसे बताया गया था कि ‘ये दोनों पति-पत्नी हैं। जल्दी ही विवाह हुआ है इनका। मोहित यहाँ काम की तलाश में आया है. . . आदि. . . आदि . . . ।
मोहित ने सन्नों को अंदर चलने का इशारा किया तो सन्नों ने आगामी जीवन की सकारात्मक उम्मीदों के साथ अपना दाहिना पैर घर की डेहरी के अंदर रखा। सन्नों के लिए अब यही उसकी ससुराल थी। फिलहल तो इसी घर को सन्नों को सजाना-संवारना था।घर में पैर रखने के बाद सन्नों ने सबसे पहले मकान मालकिन को ही अपनी सास समझकर एक बार और उसके पैर छू लिए। मकान मालकिन सन्नों के भावों को समझ गई। उसने भी सन्नों के सिर पर हाथ फेरते हुए सुखमय जीवन का आशीर्वाद दिया और अपने कमरे से लाकर एक कमरे की चाबी सन्नों के हाथ में पकड़ा दी। सन्नों ने भी सास के आशीर्वाद स्वरूप कमरे की चाबी दोनों हाथ फैलाकर ग्रहण की और अपने भविष्य रूपी ताले को खोलकर कमरे में गई।
कमरा पहले से ही तैयार कर दिया गया था। एक सिंगल बेड, सुहागरात के लिए पूरी तरह से तैयार। दो कुर्सियां। रहने के लिए लगभग सभी आवश्यक वस्तुएं जो एक नव-विवाहित जोड़े को चाहिए होती हैं।
मोहित सन्नों की व्यवहारकुशलता पर रीझ गया था।सन्नों के रूप में एक आदर्श पत्नी पाकर मोहित गद्‍गद्‍ हो उठा।कमरे में घुसते ही उसने सन्नों को अपनी मजबूत बाहों के आगोश में जकड़ लिया।सन्नों इस हमले के लिए तैयार नहीं थी सो पहले तो चौंकी लेकिन अगले ही पल सम्हल गई और मोहित की भावों में खोती चली गई।
‘. . . अब छोड़ों भी . . . इतनी भी क्या जल्दी है. . . पहले कमरा तो सही कर लेने दो फिर जो चाहें करना. . . भागे थोड़ी ही जा रही हूँ . . .’ सन्नों ने मोहित को ऊपरी तौर पर अपने से अलग करने का प्रयास किया।
मोहित कुछ बोला नहीं बस अपनी मदभरी आँखों से सन्नों को निहारा . . . ‘हाय! इन्हीं आंखों की गुलाम बनकर चली आई तुम्हारे साथ . . .’ सन्नों ने मन ही मन अपने पर गर्व किया और मोहितमय हो गई।
काफी देर तक कामसागर में हिचकोले खाने के बाद दोनों उठे।भूख भी लग चली थी। सोचा बाजार जाकर कुछ सामन ले आये घर-गृहस्थी का। अब तो इस घर को अपनी तरह से सजाना है सन्नों को। मोहित से बाजार जाकर सामान लाने को कहा और खुद नहा-धोकर फ्रेश होने जाने लगी।तभी कमरे की कुंडी खटकी।
‘. . . कौन. . .’ मोहित ने जानना चाहा।
‘. . . लल्ला . . . मैं हूँ. . . ताई . . .’
सन्नों ने कपड़े और बाल ठीक करते हुए कमरे का दरवाजा खोला।
‘. . . जी ताई जी. . .’ सन्नों की आवाज में ताई के लिए सास वाला भाव प्रबल हो उठा।
‘. . . ऐसा है बहू . . . आज खाना हमारे साथ ही खा लेना . . . कल से अपनी व्यवस्था कर लेना. . .’
‘. . . जी ताई जी . . .’ सन्नों ने धीरे से आमंत्रण स्वीकार किया।

*  *  *

सन्नों और मोहित ने घर छोड़ते समय अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कुछ रुपया-पैसा इकट्ठा कर लिया था। सोचा कम से कम एक-दो महीने तक अगर काम नहीं भी मिला तो भी काम चल जायेगा।सन्नों को गृहस्थी चलाने की कला अम्मा से विरासत में ही मिली थी। उसे खूब पता था कि कम से कम पैसे में घर कैसे चलाया जाता है। हाँ! मोहित कुछ सहखर्ची टाइप का था। वह सोचता था कि बेचारी उसके भरोसे अपने घर से भाग कर आई है तो उसे किसी प्रकार की कोई दिक्कत ना हो।
मोहित ने जब तक हाथ में पैसा रहा, सन्नों को बिलकुल रानी बनाकर रखा। सिनेमा दिखाना हो, होटल में खाना हो या फिर घूमना-फिरना हो; मोहित ने कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि नौकरी की तलाश में घूमते-घूमते सन्नों के वह झुमके भी बिक गये जो अम्मा ने बड़े जतन से उसके लिए खरीदे थे।
आज तक याद है सन्नों को कि अम्मा ने उसके लिए झूमके खरीदते वक्त एक-एक करके जोड़े गए अपने सभी पैसे निकालकर सन्नों के पापा के हाथ में रख दिये और बड़े प्यार से उन्हें समझाते हुए उनसे मनुहार की – ‘ . . . ला दीजिये . . . बेचारी का मन ही तो है. . . ’
‘. . . लेकिन अभी तो वह बच्ची है . . .’
‘. . . आप भी ना . . . सौक बच्चों को होता है. . . या बूढ़ों को . . .’
अम्मा ने अपनी आँखों के मादक अंदाज से पापा को मना ही लिया। धराशाही हो चुके पापा जी आगे कोई तर्क नहीं कर सके और अगले ही दिन शाहर जाकर मछली की आकृति के झुमाके सन्नों के लिए ले आये। कानपुर की तंगहाली के चलते जब सन्नों ने अपने इन झुमकों को मोहित के हाथों में रखा तो एकबारगी उसके सामने अम्मा-पापा की तस्वीर सजीव हो उठी। उसने किसी प्रकार अपने मन की इस व्यथा को मोहित से छिपा लिया।
कानपुर में रहते हुए उन्हें पूरे दो महीने हो चुके थे, लेकिन मोहित को अब तक कोई काम नहीं मिला था। इस कारण अब मोहित कुछ परेशान रहने लगा था। सन्नों के साथ भी अब उसे उतना मजा नहीं आता था। कभी-कभी वह सोचता कि ‘घर से भाग कर उसने गलती की है और अपने साथ-साथ सन्नों की भी जिंदगी बरवाद कर दी है।’ पर सन्नों उसे बहुत सहारा देती। कोई ना कोई काम जल्द ही मिलने की आस बंधाये रहती।
रोज की ही भाँति आज भी मोहित घर से काम की तलाश में निकला तो रोज ही की भाँति सन्नों उसे दरवाजे तक विदा करने आई। इसके बाद दोनों अपने-अपने कामों में लग गये। सन्नों घर के कामों में और मोहित काम की तलाश में।
एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक फैक्ट्री से दूसरी फैक्ट्री और रोज ही की भाँति हर जगह से ‘नो वैकेन्सी’ का एक समान उत्तर। एक जैसी दिनचर्या और एक जैसा ही उत्तर सुनते-सुनते मोहित कुछ चिड़चिड़ा होने लगा था।
शाम हो चुकी थी और कहीं उसे काम की उम्मीद नहीं बंधी तो घर के लिए जाने से पहले वह एक रेस्त्राँ में जा बैठा। चार साल पहले की भाँति ही उसने आज वेटर को वाइन लाने का आर्डर दिया और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगा ली। सिगरेट के कश खींचते हुए मोहित दूर, कहीं दूर किसी शून्य में ताकने लगा। कुछ ही पल में वेटर आर्डर की ट्रे लेकर आ गया तो मोहित ने फटाफट एक पैग हलक के नीचे उतार दिया।
आज पूरे चार साल बाद मोहित ने शराब को हाथ लगाया था। जब दो पैग उसके गले से नीचे उतर गये तो उसके सामने सन्नों द्वारा चार साल पहले दी गई कसम एकायक याद हो आई।
यह वह समय था जब मोहित की मुलाकात ही हुई थी सन्नों से। जब दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे तो सन्नों को पता लगा कि मोहित कभी-कभार शराब पी लेता है। एक दिन जब अचानक ठीक उस समय जब मोहित शराब के नशे में था, सन्नों उसके कमरे पर आ पहुँची। मोहित का यह रूप देखकर अनायाश ही उसकी आँखों से आँसू की बूँदें निकल आईं। सन्नों के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। उसने मोहित की आँखों में एकबार गहराई से झाँका और अगले ही पल वह मोहित के कमरे से बाहर निकल गई।
मोहित के दिलो-दिमाग में सन्नों के आँसू काँटे बनकर उतर गये। उसने सन्नों की आँसुओं से सराबोर आँखों की कसम मन ही मन में खा ली। तय कर लिया कि अब कुछ भी क्यों न हो, कभी शराब को हाथ नहीं लगायेगा। लेकिन आज चार साल बाद अचानक उसे यह क्या सूझी। हृदय आत्मग्लानि से भर उठा। बाकी के पैग ज्यों के त्यों टेबल पर ही छोड़ दिये और रेस्त्राँ से उठकर मन में कुछ प्लान बनाते हुए घर की ओर चल पड़ा।
पूरे रास्ते दिमाग में चल रहे सन्नों के सवालों से जूझते हुए किसी प्रकार से उसने डरते-डरते घर का दरवाजा खटखटाया।
रोज की ही भाँति हार-सिंगार किये हुए और शराब के नशे में सन्नों के चेहरे पर मदहोशी को अंदर तक महशूस करते हुए मोहित ने बड़ा सम्हालकर डेहरी के अंदर कदम रखा। इसके बावजूद भी उसके पैर कुछ लड़खड़ा ही गये। लड़खड़ाते पैरों को सम्हाल न पाने के कारण मोहित सन्नों के मुँह के पास जा पहुँचा तो सन्नों का प्रशन्नता से चमक रहा चेहरा अपना भाव बदल गया। सामने की ओर आँटी को खड़ा देखकर उसने कुछ कहा नहीं और चुपचाप अपने कमरे की ओर चली गई। मोहित समझ गया उसके मनोभावों को। उसने आँटी की नजरों से खुद को छुपाते हुए सन्नों के पीछे से कमरे में प्रवेश किया और पीछे पलटे बिना ही दरवाजा भेड़ लिया। आँटी समझ गईं पूरी वस्तु स्थिति। उनकी पारखी नजरों से बच पाना सन्नों और मोहित जैसे अनाड़ी प्रेमियों के बस की बात नहीं थी।
कमरे में पहुँचने पर सन्नों एक ओर को मुँह फुलाकर बैठ गई। उसकी आँखों से चार साल पुराने आँसू बाढ़ से उमड़ी हुई नदी की माफिक बह निकले।ऐसा लगने लगा सन्नों को जैसे कि वर्षों से संजोये गये उसके सपने उसके आँसुओं के साथ बहे जा रहे हों। वह अपने आप को सम्हाल नहीं पाई और फफक-फफककर रो उठी। आज उसका एक-एक पोर जैसे गलता जा रहा था।
सन्नों के आँसुओं से मोहित का नशा हिमखण्ड की भाँति पिघल गया। वह आत्मग्लानि के समन्दर में डूबने-उतराने लगा। उसके आँसू भी सन्नों के आँसुओं के साथ बहने लगे।
कुछ पल के इस महाप्रलय के बाद मोहित ने अपने आपको सम्हाला। चेहरे पर बनावटी मुस्कुराहट लाते हुए वह अपने चिर-परिचित अंदाज से सन्नों के सामने कान पकड़कर उठक-बैठक करने लगा। यह मोहित का सबसे ताकतवर अस्त्र था। शब्दों के बिना भी सम्वेदना ने अपना प्रभाव डाल दिया। कुछ पल रूठने-मनाने के इस अभिनय ने दोनों के अंदर से गुस्से को निकालकर मादकता का संचार कर दिया।
सन्नों ने अपने आँसू पोंछ दिये और मोहित को कंधों से पकड़कर अपनी ओर खींच लिया। बहुत दिनों बाद मोहित ने सन्नों को इस रूप में देखा था। सब कुछ को निकालकर मोहित ने अपनी समस्त कामभावना को एकत्र किया और सन्नों से लिपट गया।
काफी देर तक दोनों एक-दूसरे में समाये रहे। कुछ पल तक शराब का नशा मोहित से दूर जा खड़ा हुआ था, मादकता का साथ पाकर एक बारगी वापस अपने शुरूर में आ गया। अपने सामने वस्त्रों से विहीन स्त्री को देखकर मोहित के कामुक दिमाग में कुछ शैतानी की रेख खिंच आई। उसने सन्नों की आँखों में आँखे डालते हुए तकिये के नीचे रखा अपना मोबाइल उठाकर सन्नों के सामने लहराया।
सन्नों के चेहरे पर कामुकता की रेखा और भी गहरा गई। उसके लिए यह नया नहीं था। जब भी मोहित ज्यादा खुश होता था, मोबाइल से उसकी अश्लील वीडियो बनाता था। काम-क्रीडा के दौरान बनाई गई इस वीडियो को बार-बार देखता था और अंत में उसे मोबाइल से डिलीट करके एक-दूसरे की बाहों में बंधकर सो जाया करता था।
मोहित की आँखों का इशारा समझ सन्नों अपने कामुक अंदाज में मोहित के द्वारा बनाये जा रहे वीडियो की नायिका बन गई।
आज दोनों को बड़ा मजा रहा था इस काम में। इधर एक-ढेड़ महीने की ऊब और परेशानी भरी जिंदगी में आज का दिन उर्जा भरा था। आज वह पूरी तरह से एक-दूसरे के इशारों और मनोभावों के गुलाम थे।
ढेढ़-दो घण्टे की इस काम-क्रीडा ने दोनों को थका दिया। दोनों के शरीर पर श्रम-बिंदु खिल उठे।कुछ देर एक-दूसरे की बहों में बंधे रहने के बाद दोनों को लगा कि अभी तो रात के दस ही बजे हैं और खाना तक नहीं खाया है। आज तो यह बेमौसम बरसात हो गई। कुछ भी हो दोनों को एकदम तरोताजा कर गई थी आज की यह बरसात।
दोनों ने अपने को सम्हाला। एक-दूसरे की आँखों में झाँककर शेष बचे गिले-सिकवों को दूर किया और खाने के लिए फ्रेश होने लगे।

** *

आज काम की तलाश में घर से निकलते हुए मोहित पिछले कई दिनों से ज्यादा तरोताजा लग रहा था। कमरे से निकलते हुए उसने अपने चिर-परिचित अंदाज में सन्नों के होंठों को चूमा, जो पिछले कुछ दिनों से वह भूल चुका था। खिल उठी सन्नों ने मोहित का भरपूर साथ दिया। इसके साथ ही मोहित निकल पड़ा।
कल एक जगह जहाँ पर वह काम की तलाश में गया था, मैनेजर छुट्टी पर था और पियून से अगले दिन आने को कहा था। अपने मन में विश्वास और शरीर को अपने आत्मविश्वास से सजाये हुए मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ ठीक दस बजे इस ऑफिस में जा पहुँचा।
मैंनेजर अभी-अभी ही आया था। उसने अपने कमरे के सामने एक उत्साह से भरे हुए लड़के को बैठे देखा तो चपरासी से अपने कमरे में बुला लिया। तकरीबन आधे घण्टे की बातचीत के बाद जब मोहित मैनेजर के कमरे से बाहर निकला तो उसके चेहरे पर प्रशन्नता एक नवीन आयाम लिख रही थी। उसके चेहरे के भावों के समझते हुए चपरासी जान गया कि कल से इन साहब को भी सलाम करना पड़ेगा।
खुशी से झूमता हुआ मोहित जैसे ही ऑफिस से बाहर निकला, उसे सामने से आता हुआ प्रदीप दिख गया। मोहित के चेहरे को चमकते हुए देख वह समझ गया कि इसे काम मिल गया है। पूरी गर्मजोशी के साथ वह आकर मोहित के गले लग गया और नौकरी मिलने की ट्रीट माँगने लगा।
मोहित उसे मना नहीं कर सका। प्रदीप के काफी एहशानात थे उस पर। कानपुर जैसे अन्जान शहर में प्रदीप ही था जिसने तंगहाली में उसका साथ दिया था। काम तलाशने में उसकी बड़ी मदद की थी। और इस जगह के बारे में भी उसी ने सूचना दी थी। दोनों हँसते-खिलखिलाते हुए सामने के एक रेस्त्राँ में जा बैठे।
हँसी-मजाक और खाने-पीने की चीजों ने मोहित की खुशी को और भी बढ़ा दिया। प्रदीप ने कहीं फोन करने के इरादे अपना फोन जेब से निकालकर किसी का नम्बर लगाने लगा। जब काफी देर तक कोशिश करने के बाद भी फोन कनेक्ट नहीं हुआ तो मोहित ने अपना मोबाइल उसके सामने बढ़ा दिया। प्रदीप ने मुस्कुराते हुए उसे देखा और उसके मोबाइल पर कोई नम्बर टाइप करने लगा। एक ही बार में फोन लग गया। किसी से बड़ी संक्षिप्त बात हुई। कहीं जाना था उसे। फोन पर बता दिया कि कुछ देर और लग जायेगी। बात खत्म करके प्रदीप ने मोबाइल मोहित की ओर बढ़ा दिया। मोहित ने हँसते हुए मोबाइल लिया और सामने ही टेबल पर रख लिया। इसके बाद दोनों वापस किसी चर्चा में व्यस्त हो गये।
दोनों के बीच बातों का एक लम्बा दौर खिंच गया। इसी दौरान धीरे-धीरे मेज पर रखा मोबाइल मोहित के हाथों से होता हुआ प्रदीप के हाथों में आ गया। बातें चलती रहीं और मोबाइल प्रदीप के हाथों में झूमता रहा।झूमने के इसी क्रम में प्रदीप की अंगुलियाँ मोबाइल की गैलरी तक जा पहुँचीं और गैलरी खोलते ही उसकी आँखों से जो दृष्य टकराया, प्रदीप की आँखे चौंधिया गईं। हृदय के आश्लील भावों को अंदर ही दबा लिया उसने, पर आनन-फानन में ही उसने मोहित के मोबाइल से उस फाइल को अपने मोबाइल में ट्रान्सफर कर लिया। दोनों के बीच चल रही बातचीत ने गुपचुप तरीके से हुई इस घटना को मोहित से छुपा दिया। कुछ देर की बातों के बाद दोनों अपने-अपने रास्तों पर निकल गये। प्रशन्नता दोनों के चेहरों पर दस्तक दे रही थी, पर दोनों के मनोभाव अलग-अलग थे।
सन्नों और मोहित की जिंदगी खुशियों से भर चुकी थी। सुबह-सुबह मोहित ऑफिस जाने के लिए तैयार होता तो सन्नों उसके लिए टिपन तैयार करती। शाम को जब मोहित वापस आता तो सन्नों सजी-धजी दरवाजे पर उसका इंतजार करती मिलती। इसके बाद दोनों अपने सपनों की दुनिया में खो जाते।
जब मोहित को उसकी पहली तन्ख्वाह मिली तो उसने सन्नों को बताये बिना उसके लिए झुमके खरीद लाया। और जब दोनों खा-पीकर सोने चले तो मोहित ने एकायक सन्नों के सामने झूमके निकालकर रख दिये। मारे खुशी के सन्नों खिल गई। मोहित ने अपने हाथों से सन्नों को झुमके पहनाये तो सन्नों बिलकुल कचनार के माफिक खिल उठी। बेड से उठकर उसने आइने में खुद को निहारा तो दो आँसू उसके गालों पर लुढक पड़े।
दोनों के जीवन की नाव एक सतत गति से चली जा रही थी। मोहित को नौकरी करते हुए करीब दो महीने हो चुके थे।इसी दौरान कुछ अशुभ उनके जीवन में प्रवेश करने के लिए उतावला हो रहा था।
***
दोपहर का तकरीबन दो बज रहा था। मोहित ऑफिस में था और सन्नों अपने छोटे से कमरे में अलसाई हुई पड़ी थी। दरवाजे पर हुई अचानक ‘ठक-ठक’ ने उसके आलस्य को झकझोर दिया। मकानवाली आंटी घर पर थीं नहीं, सो दरवाजा उसे ही खोलना था। ‘कौन हो सकता है इस समय. . . मोहित तो शाम को आता है और आम तौर पर आंटे के घर भी कोई नहीं आता. . . उसका तो कोई मिलने वाला भी नहीं है . . .’ मन में कुछ-कुछ सोचते हुए सन्नों ने दरवाजे की कुंडी हटाते हुए उसे अपनी ओर खींचा। सामने प्रदीप भैया को देखकर पहले तो वह ठोड़ा सहमी, लेकिन अगले ही पल अपने आपको सम्हालते हुए दो शब्द उसके होंठों पर खिसक आये – ‘. . . अरे प्रदीप भैया आप. . .’
‘. . . इधर किसी के यहाँ किसी काम से आया था. . . सोचा भाभी जी से भी मिलता चलूँ. . .’ कहते हुए प्रदीप ने अपने कदम पूरी आत्मीयता के साथ सन्नों के कमरे की ओर बढ़ा दिये। हालाँकि सन्नों को काफी असहज-सा महसूस हुआ, लेकिन घर आये मेहमान का स्वागत करना उसका दायित्त्व था। इसके अलावा कानपुर जैसे अनजान शहर में प्रदीप भैया ही थे जिन्होंने उनकी काफी मदद की थी।
मन ही मन में प्रदीप भैया का अहशान स्मरण करते हुए और अचानक इस तरह से, वो भी मोहित के पीछे, कमरे पर आने के बारे में तरह-तरह की कल्पनायें करती हुई सन्नों एक गिलास में पानी ले आई। प्रदीप ने सन्नों के हाथ से पानी का गिलास लेकर एक ही बार में गले के नीचे उतार लिया और सन्नों को ऊपर से नीचे तक निहारते हुए पूछा – ‘. . . और बताइये भाभी जी. . . यहाँ आपको किसी बात की कोई दिक्कत तो नहीं है . . . मोहित आपको परेशान तो नहीं करता है. . .’
‘. . . भैया. . . आपके होते हुए हमें किसी भी बात की कोई दिक्कत कैसे हो सकती है. . .’ कहते हुए सन्नों ने मोहित की आँखों को पढ़ लिया। अब वह और भी असहज हो उठी। मन ही मन में प्रदीप के जाने की कामना करने लगी, लेकिन प्रदीप था कि शायद पहले से ही सोचकर आया था कि आज सन्नों के पास काफी देर तक बैठेगा। प्रदीप रह-रह कर तरह-तरह की बातें करने लगा और न चाहते हुए भी सन्नों उसका साथ देने पर मजबूर हो गई। काफी देर की बातों के बाद जब प्रदीप को ऐसा लगने लगा कि सन्नों परेशान हो रही है तो वह अपने असल मुद्दे पर आया. . .
‘. . . अरे भाभी जी मैं तो एकदम भूल ही गया था. . .’
‘. . . क्या. . .’
‘. . . आपके लिए एक गिफ्ट लेकर आया था. . . बातों बातों में देना ही भूल गया. . .’
सन्नों कुछ न बोली। प्रदीप ने उसकी असहजता को अपनी निर्लज्ज्ता से दबाते हुए अपनी जेब से अपना मोबाइल निकालकर उसकी एक वीडियो फाइल एकायक सन्नों के सामने रख दी और बेहयायी से सन्नों के चेहरे को निहारने लगा। सन्नों की आखों में खून उतर आया। पर कसाई के हाथ में फँसी गाय की माफिक उसने प्रदीप की ओर दया की याचना के साथ निहारा। उसकी आँखों में आँसू रिसने लगे।प्रदीप ने उसकी कमजोरी को अपनी बाहों में दबाने का प्रयास किया तो अचानक सन्नों का हाथ उसके गाल पर चमक उठा। बौखला गया प्रदीप। इस हमले का उसे आभास तक नहीं था।उसकी बुद्धि ने भी उसका साथ दिया। उसने प्रदीप को जोर का झटका देते हुए अपने से दूर झटक दिया और उसके मोबाइल को, जो अब तक उसके ही हाथ में था, इतनी जोर से जमीन पर पटका कि उसके परखच्चे उड़ गये।
प्रदीप को अपना खेल उलट जान पड़ा तो वह चुपचाप कमरे से निकल गया।
प्रदीप के कमरे से बाहर निकलते ही सन्नों का हृदय बह चला। वह यह नहीं समझ पा रही थी कि यह वीडियो प्रदीप के मोबाइल में पहुँचा कैसे। एक बारगी उसके दिमाग ने मोहित पर शक किया, लेकिन अगले ही पल उसका खण्डन भी कर डाला। नहीं-नहीं मोहित ऐसा नहीं कर सकता। प्रदीप बड़ा शातिर है। हो न हो उसने किसी चालाकी से मोहित के मोबाइल से ले लिया हो। उस रात मारे आवेग के वह डिलीट करना भी जो भूल गये थे। और अगले दिन रेस्टोरेंट में प्रदीप के साथ बैठे भी थे। सन्नों का मोहित पर विश्वास और भी प्रबल होता चला गया। पर इस घटना का क्या. . . जो आज उसके साथ घटी थी। प्रदीप को तो वह सगा भाई ही मानती थी. . . और उसने. . . । कुछ पल को रुके आँसू एक बार फिर बह चले।
मोहित के आने का समय हो चुका था और सन्नों ने अब तक अपने आपको मजबूत भी कर लिया था। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, वह इस घटना को मोहित से छुपायेगी नहीं। सब कुछ सच-सच मोहित को बता देगी। मोहित के सामने भी तो उसके दोस्त की करतूत आनी चाहिये। और. . . और मोहित को भी अपनी गलती का अहसाश होना चाहिये।
सन्नों अपने मन में न जाने क्या-क्या सोच रही थे कि उसे दरवाजे पर हुई खट-खट से मोहित के आने का आभास हुआ। अपने आपको एकबारगी और मजबूत करते हुए वह कमरे से उठकर मुख्य दरवाजी की ओर बढ़ गई।
सन्नों ने जैसे ही दरवाजा खोला तो उसके सामने मोहित के साथ मकान वाली आँटी भी थीं। दोनों को एक साथ देखकर सन्नों के अंदर के आवेग को कुछ सान्त्वना मिली। मोहित और आँटी अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ अंदर की ओर बढ़ गये तो सन्नों दरवाजा बंद करके कुंडी लगाने लगी।
दरवाजे की कुडी लगाकर सन्नों कमरे में पहुँची तो मोहित को थका-सा बेड पर लेटा देखा तो गिलास में पानी लेकर उसके पास जा बैठी। मोहित का सर अपनी गोद में रखकर सहलाने लगी। कुछ पल आँखे बंद किये लेटे रहने के बाद मोहित उठा। पास में रखे गिलास से पानी पिया और झुककर जूते खोलने लगा। जॊते खोलने के बाद उसने सन्नों की ओर प्यार भरी निगाहों से देखा। . . . अरे यह क्या. . . सन्नों की सदा महकने वाली मुस्कान को क्या हो गया। आज उसके चेहरे पर यह उदासी कैसी। मोहित ने थोड़ा और सम्हलते हुए सन्नों के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए पूछा – ‘क्या हुआ. . .’
सन्नों कुछ बोल नहीं पाई। मोहित के प्यार भरे स्पर्श ने उसके घावों को पिघला दिया। उतनी देर से रोके गये आँसू अपने पूर्ण आवेग के साथ बह निकले। सन्नों की यह स्थिति मोहित के लिए एकदम नई थी। उसने सन्नों का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। वह कुछ समझ नहीं पाया। शब्दों के अभाव में मोहित ने सन्नों को अपनी बाहों में भर लिया।
मोहित की बाहों में जकड़ी हुई सन्नों न जाने कितनी देर तक रोती-सिसकती रही। जब पूरी तरह से वह हल्की हो गई तो अपने आँसू पोंछती हुई मोहित की बाहों से निकलकर उसकी आँखों के सामने आई।
‘. . . क्या हुआ. . .’ मोहित ने हल्के स्वर में उससे पूछ ही लिया।
कुछ पल और अपने आपको सम्हालने के बाद सन्नों ने आज की पूरी घटना मोहित को सुना डाली। मारे आक्रोश के लाल हो उठा मोहित का चेहरा।उसके शरीर में इतना गुस्सा समा गया कि वह काँपने लगा। मोहित के दिमाग ने एकदम से काम करना छोड़ दिया। काफी देर उसे समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिये तो उसने सन्नों का हाथ पकड़ा और बोला – ‘चलो. . . अभी चलो . . .’
सन्नों ने आँखो के इशारे से जानना चाहा कि कहाँ चलें।
‘. . . चलो प्रदीप के घर चलो. . . उसके साले की तो माका. . .’ कहते-कहते मोहित का चेहरा और भी ज्यादा क्रूर हो उठा।
सन्नों ने मोहित का यह रूप इससे पहले कभी नहीं देखा था। गुस्से से लाल और तमतमाते हुए चेहरे के साथ मोहित सन्नों का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया।
मकान वाली आँटी ने मोहित को सन्नों का हाथ पकड़े हुए इस तरह से कमरे से बाहर निकलते हुए देखा तो वह समझ गई कि कुछ बड़ी बात हो गई है, नहीं तो मोहित जैसा अच्छा लड़का एकायक इतने गुस्से में कैसे आ गया। आँटी ने जाते हुए मोहित से पूछ ही लिया – ‘. . . क्या हुआ बेटा. . .’
‘. . . कुछ नहीं आँटी. . . अभी आता हूँ. . . कहते हुए वह मुख्य दरवाजे से बाहर निकल गया। अपनी जिज्ञासा शाँत हुई न जानकर आँटी भी उसके पीछे-पीछे हो लीं।
***
सन्नों का हाथ पकड़े हुए ही मोहित एक बड़ी हवेलीनुमा मकान में पहुँचा। उसके चेहरे का तापमान और भी अधिक प्रबल हो चुका था। अपने अंदर की संपूर्ण उर्जा को एकत्रित करते हुए वह चीख पड़ा – ‘. . . प्रदीपऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ. . . .’
थर्रा उठी-सी हवेली के समस्त जीव-जन्तु एकबारगी काँप गये। मोहित के स्वर की गूँज समाप्त होते न होते हवेली से कई चेहरे उसके सामने आ खड़े हुए। उसने अपने सामने वाले चेहरे पर क्रूरता से आँखें गड़ाईं और सन्नों का हाथ छोड़ते हुए उसकी ओर बढ़ गया।
सामनेवालेचेहरेकेएकदमसामनेआकरमोहितकीआँखोंनेउसेएकबारगीजलतेहुएनिहाराऔरअगलेहीपलसामनेवालेकाचेहराएकदमसेलालपड़गया।इससे पहले कि सामने वाले की ओर से कोई प्रतिक्रिया आती मोहित उस पर बरश पड़ा – ‘. . . तुझे साले हर बात की बड़ी जल्दी रहती है. . . सारा बना-बनाया काम बिगाड़ने पर तुला रहता है. . . जब मैंने कहा था कि इसको मैं अपने तरीके से करता हूँ तो . . .’
मोहित थोड़ा रुका और मुस्कुराते हुए प्रदीप के गले में हाथ डालते हुए आगे बोला – ‘. . . अब नहीं रुका जाता तो कर ही ले. . . अब तो यह बुलबुल जाल में फँस ही गई है. . .’
सन्नों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसके सामने यह हो क्या रहा है। अभी दो पल पहले की स्थिति अचानक बदल कैसे गई। और. . . और यह मोहित को एकायक क्या हो गया है. . . सन्नों के सामने काले बादलों का तांडव होने लगा। उसकी आँखों के सामने घिर आये अँधेरे में तमाम अस्पष्ट चेहरे मँड़राने लगे। ऐसा लगने लगा उसे कि जैसे वह कोई हॉरर फिल्म के सेट पर खड़ी हो और उसके इर्द-गिर्द तमाम डरावनी आकृतियाँ घूम-घूम कर अट्टहास कर रही हों। इन सबका अस्पष्ट स्वर सन्नों को लगातार जड़ता में परिवर्तित किये जा रहा था।
कुछ देर की इस अस्पष्टता के बाद सन्नों को मोहित का धुँधला-सा चेहरा अपने सामने नजर आया और अगले ही पल उससे जुड़ी अनगिनत स्मृतियाँ उसके मस्तिष्क में साकार हो उठीं।मोहित और उसके दोस्तों द्वारा खोले गये रहस्य ने सन्नों के देखे गये समस्त स्वप्नों को रेत के महल के समान ढहाना आरम्भ कर दिया।
तमाम सारे राक्षसों के बीच खड़ी सन्नों संज्ञा-शून्यता की स्थिति में जा चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद वह अपने चारों ओर पनप रहे भयावह दृष्य को भी महसूस कर रही थी।
मोहित, प्रदीप, आंटी और उनका पूरा ग्रुप सन्नों के अश्लील वीडियों को फिल्माते हुए मोबाइलों को अपने हाथों में लहराते हुए उसके चक्कर लगाने लगे। उनके अट्टहास से हवेली थर्रा उठी और साथ ही मरे हुए गोस्त को नोचने वाले गिद्धों के समान उन सबने सन्नों के शरीर को नोचना आरम्भ किया और करते ही गये। सन्नों ने अपने आपको नि:सहाय पाकर अपने शरीर को उनके हवाले कर दिया। उसके दिमाग में बस एक ही पंक्ति गूँजने लगी – ‘अम्मा-बाबू जी के विश्वास को तोड़ने का परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।’
एक ओर भेड़िये उसके शरीर को नृशंसता से नोच रहे थे तो दूसरी ओर अपने शरीर से बेखबर सन्नों के दिमाग में ‘अम्मा-बाबू जी’ के प्यार से जुड़ी तमाम स्मृतियाँ कई-कई बिंबों में नोचे जा रहे शरीर की पीड़ा ने निजात दिला रही थीं।सन्नों की स्थिति अब निस्प्राण हो चुकी थी।
***
सन्नों ने अब परिस्थितियों से ताल-मेल बिठा लिया था। अब वह मोहित की रानी गृहणी सन्नों से ‘कॉलगर्ल सन्नों’ बन चुकी थी। उसका शरीर अब मोहित की नौकरी का मुख्य आधार हो गया था। उस पर चारो ओर से पैसों की बरशात होने लगी। मोहित अब सन्नों के हृदय-सम्राट से प्रसिद्ध ‘कॉलगर्ल डीलर’ में बदल चुका था। शहर का हर रईस सन्नों का दीवाना बन गया था और मोहित सन्नों के उस कमनीय शरीर का सप्लायर।
सन्नों के सपनों के घर के स्थान पर अब एक भव्य हवेली बन गई थी। वह एक घर की मालकिन के स्थान पर उस हवेली की साम्राज्ञी कही जाने लगी। दौलत उसकी गुलाम हो गई। शहर के अमीर और सफेदपोश उसके कदम चाटने लगे। ऐसा लगने लगा उसे जैसे कि वह शहर के सबसे ऊँचे स्थान पर बैठी हो और शहर के लोग उसकी स्तुति में खड़े हों। लेकिन इस सबके बावजूद सन्नों का अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। हर ग्राहक के पास होने से पहले उसका अतीत एकबारगी उसके सामने आकर खड़ा होने लगा। इसके लिए भी उसने एक रास्ता तलाश निकाला। उसने शराब को अपना सबसे बड़ा साथी बना लिया। वह शराब से उतना ही प्रेम करने लगी, जितना कभी मोहित से किया करती थी। अर्थात् सन्नों के प्रेम का आलम्बन अब मोहित के स्थान पर शराब हो गई।
***
सन्नों का यह जीवन अब तकरीबन बीस बरस का हो चुका था। सन्नों अब केवल सन्नों नहीं रह गई थी। अब वह एक ‘पॉर्न स्टार’ कही जाने लगी थी। लोग कुछ पल के लिए उसका साथ पाने को तरशने लगे। उसकी बुलन्दियों ने अच्छे-अच्छे सफेदपोशों को उनके रास्ते से भटका दिया।
आज उसे एक बड़े पार्टी में किसी विदेशी महेमान को खुश करना था। वह रोज की भाँति सजी-सँवरी। अपने यौवन को एक स्थान पर एकत्र करते हुए उसका हाथ करीने से सजी हुई ज्वैलरी को अपने शरीर पर चमकाने लगा। इसी क्रम में उसके हाथ में ज्वैलरी में सबसे पीछे की ओर रखे दो झुमके टकरा गये। झुमकों से बिंधी हुई तमाम स्मृतियाँ सन्नों की आँखों के सामने से गुजरती चली गईं। मन में हुई हलचल ने उसे आइने के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। उसके हाथ एक-एक करके पहनी हुई ज्वैलरी निकालने लगे। और अंत में सामने रखे हुए झुमके अपने कानों में डाल लिए।इससे पहले कि स्मृतियों की आँधी में बह जाती तेजी के साथ अपने कमरे से बाहर निकल आई और पहले से ही तैयार खड़ी अपनी गाड़ी में किसी राजसी ठाठ के साथ होटल की ओर चल निकली।
अपनी विशेष मर्शडीज में जाते हुए सन्नों के अंदर आज कुछ हलचल-सी हो रही थी। बीस साल में आज पहली बार उसने सुबह से अब तक शराब होंठों से नहीं लगाई थी। एक अनजाना-सा डर उसकी हृदय में पनप रहा था।रह-रह कर उसके दिमाग में अम्मा-बाबू जी की पथराई आँखें कौंध-सी पड़ रही थीं। हर कौंध के साथ वह काँप-सी उठती थी। बीस सालों आज पहली बार उसे इस तरह का अनुभव हो रहा था। जब उससे नहीं रहा गया तो अंतत: गाड़ी के किसी कोने से उसने ‘वाइन’ की बोतल निकालकर अपने होंठों से लगा ली और तब तक नहीं हटाई जब तक उसमें से बूँद-बूँद उसके गले में नहीं उतर गई। संवेदनाओं का एक तूफान-सा उठा और अगले ही पल वह शराब के आगोश में समा गया। कुछ हिचकोलों के बाद गाड़ी अपनी सतत गति से चली जा रही थी।
शहर के कई हाइवे और लिंक रोडों को पार करते हुए तकरीबन आधे-पौन घण्टे के बाद गाड़ी एक आलीशान होटल के सामने रुकी। शराब के नशे में डगमगाते हुए पैरों ने जैसे ही जमीन का स्पर्श किया तो रात में बिजली की रोशनी से सजा-सँवरा होटल किसी नवपरणीता दुलहन की भाँति सन्नों को देखकर मुस्कुराया। शराब से बेहद लड़खड़ाते हुए भी सन्नों के दिमाग में एक बिम्ब तैर गया।
अम्मा के सपनों में सन्नों किसी भी प्रकार से इस होटल की सज-धज से कम नहीं थी। उसे होटल के स्थान पर खुद का चेहरा दिखाने लगा। अभी वह दुल्हन के आवेश से निकल भी नहीं पाई थी कि उसकी अगवानी को कुछ लोगों ने उसकी तंद्रा तोड़ दी। सन्नों ने एकबारगी उन पर जलती हुई नजर डाली और बिना कुछ बोले होटल के एक विशेष कमरे की ओर चली गई।
कमरे का दरवाजा उसका ही इंतजार कर रहा था। आहट पाते ही स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछा गया। सामने से उठी दो आकृतियों ने उसका मुस्कुराकर स्वागत किया, लेकिन सन्नों बिना किसी भाव के कमरे में प्रवेश कर आई और उनके सामने से होती हुई अपना गाउन उतारकर सोफे पर पसर गई। आकृतियों ने दरवाजा बंद किया और सन्नों के आस-पास जा चिपके।
बड़ी कोशिश के बावजूद भी आज सन्नों अपने ग्राहकों के साथ एकमेक नहीं हो पा रही थी। ग्राहकों की बड़ी कोशिश के बाद भी जब सन्नों ने उनका साथ नहीं दिया तो एक ने पास ही रखे फोन से किसी पर अपनी सारी झल्लाहट उतारी और नग्न हो चुके शरीर को ढकते हुए कमरे से बाहर निकल गये।
सन्नों का शरीर और मनोमस्तिष्क अलग-थलग पड़े हुए थे। उसे किसी बात की कोई सुध नहीं थी। कमरे में घुसने से लेकर ग्राहकों के असंतुष्ट होकर बाहर जाने और मोहित के अंदर आने तक के बीच क्या हुआ, सन्नों को कुछ भी होश नहीं था। उसके दिमाग में महज एक दुल्हन बसी थी, जिसका चेहरा उसके चेहरे से होड़ लगा रहा था। वह निस्प्राण-सी नग्नावस्था में सोफे पर पड़ी थी।
‘. . . क्या हुआ सन्नों. . . तुम्हारी तबियत खराब है क्या. . .’ शब्द कानों से टकराये और शरीर को तेजी से झकझोरा गया तो उसकी आँखे ऊपर उठीं। सामने मोहित खड़ा हुआ कुछ कह रहा था। मोहित के पीछे उसे कुछ-एक आकृतियाँ और नजर आईं जो उस विदेशी ग्राहक के असंतुष्ट होने पर नाराज हो रही थीं।
मोहित ने उसके कपड़ों को व्यवस्थित किया और हाथों का सहारा देते हुए उसे कमरे से बाहर ले जाने के लिए खड़ा किया।
‘. . . माफ करना यार . . . लगता है आज इसने ज्यादा पी ली है. . . घर ले जाना पड़ेगा. . .’ कहते हुए मोहित उसको लेकर होटल से बाहर निकल आया। मेम साहब को इस अवस्था में देखते हुए ड्राइवर ने दौड़कर गाड़ी का दरवाजा खोला तो एकायक सन्नों ने अपने को सम्हालते हुए अपने आपको मोहित के सहारे से मुक्त किया और ड्राइवर से गाड़ी की चाबी लेते हुए खुद उसकी सीट पर बैठ गई। इससे पहले कि मोहित और ड्राइवर कुछ कह पाते वह गाड़ी को खुद चलाते हुए वहाँ से निकल गई। मोहित और ड्राइवर आश्चर्य और कुतूहल भरी नजरों से उसे निहारते रह गये।
***
सन्नों की गाड़ी नेशनल हाइवे पर तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी। उसके मनोमस्तिष्क में चल रही स्मृतियों का दौर अभी थमा नहीं था। गाड़ी के डैशबोर्ड से शराब की एक छोटी बोतल एकबार फिर उसके हाथ में आ गई थी। उसने मुस्कुराकर हाथ में पकड़ी शराब की बोतल को देखा और अगली ही पल अपनी होठों से लगा लिया।
गाड़ी की गति और तेज हो गई। सामने की ओर से अम्मा का प्रशन्नता और लाड़ से चमचमाता हुआ चेहरा उसके सामने मुस्कुराया – ‘. . . बिटिया तुम बड़ी जिद्दी हो गई हो. . . च्यमनप्राश के इतने सारे डिब्बे रखे हैं . . . कौन खायेगा. . . और खाओगी नहीं तो परीक्षा में पहले नम्बर पर कैसी आओगी. . .’ सन्नों अपना वर्तमान भूलकर अतीत में समा गई। वह एकटक अम्मा का चेहरा निहारने लगी। अचानक एक बड़े झटके के साथ उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।
तेज गति से जा रही गाड़ी और सन्नों का आपसी संबंध टूट गया था। गाड़ी अपने आपको सन्नों की गिरफ्त से महफूज जान रोड की सीमाओं को पार करती हुई डिबाइडर के ऊपर से चढ़कर एक गहरी खाईं में जा गिरी।
***
अपना शरीर हिलता हुआ महसूस करते हुए सन्नों की आँखे खुलीं तो सामने खाखी वर्दी के कई चेहरे स्पष्ट हुए। उसको पकड़े हुए एक चेहरा चिल्लाया – ‘. . . यह अभी जीवित है. . . ’
सन्नों को चिल्लाने वाले चेहरे में अम्मा का कुछ देर पहले वाला अक्श नजर आया। उसके चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। बोली – ‘. . . अम्मा मुझे च्यमनप्रास अच्छा नहीं लगता. . . मुझे यह ना खिलाया करो. . .’ कहते-कहते उसकी आँखों में रात का अंधेरा सदा-सर्वदा के लिए समा गया।
उसके शरीर को पुलिस ने पोस्टमर्टम के लिए अस्पताल भेज दिया और अगले दिन एक खबर अन्य खबरों से कुछ बचते-बचाते हुए एक अखबार के कोने में समा गई – ‘प्रसिद्ध कॉलगर्ल सन्नों की गाड़ी टकराने से मौत’।
चाय के साथ अखबार को चाटते हुए किसी ने खबर पर टिप्पड़ी की – ‘रंडी थी रंडी. . . उसका तो यही अंत होना था।’


जगतपुर
07/05/2015भाग गई सन्नों . . .
Ø  सुनील ‘मानव’

रोज की ही भांति आज भी उसने ट्‍यूशन जाने की तैयारी शुरू की थी। अपने रोज ले जाने वाले बैग में कुछ किताबें रखीं, साइकिल को झाड़ा-पोंछा। नहाने-धोने के बाद अच्छे से कपड़े पहने और धूल से मुंह को बचाने के लिए दुपट्टे से मुंह को जकड़ा। अम्मा का जी रखने के लिए जल्दी-जल्दी में परांठे के दो-चार कौर मुंह में ठूंसे और कमरे में से दो बैग निकालकर साइकिल में टांगे। अम्मा ने पूछ ही लिया ‘इस दूसरे बैग में क्या है. . . कहाँ लिए जा रही हो इसे. . .’
‘. . . ओ. . . हो अम्मा आप भी ना . . . चलते-चलते टोकोगी जरूर. . . लो देखो आकर . . . कपड़े हैं. . . सोचा प्रेस ही करवा लाउंगी. . . कल कॉलेज जाना है. . .। और भी ना जाने क्या-क्या।
सन्नों ने रोज की भाँति अम्मा को गले लगाकर उनके गाल पर चुम्मा लिया और साइकिल पर निकल गई. . . निकल गई ट्‍यूशन पढ़ने . . .।
‘. . . अच्छा बाबा नहीं टोकूंगी . . . जा तू . . . पढ़ने जा . . . और हाँ जल्दी आ जाना. . . घर पर कोई नहीं है। तुम्हारे पापा भी पता नहीं कब तक लौटेंगे. . .। और अम्मा बड़ी ही वात्सल्यता से अपने करेजे के टुकड़े को निहारती रहीं। जब तक साइकिल दरवाजे से निकलकर आँखों से ओझल नहीं हो गई। इसके बाद अम्मा कभी ना खत्म होने वाले अपने रोजमर्रा के कामों में लग गई।
सन्नों अब बीस साल से ऊपर की हो चली थी, लेकिन अम्माउसे अब तलक चार-पाँच बरस से ज्यादा की नहीं समझ पा रही थी। बड़े लाजो से पाला था उसके अम्मा-बाबू ने।
अम्मा जब ब्याह कर इस घर में आईं तो उन्होंने अपने को एक विपरीत वातावरण में पाया था। विपरीत इस अर्थ में कि उनकी ससुराल में सब कुछ था – धन-दौलत,मकान, खेती-बारी,नौकर-चाकर आदि सब कुछ, लेकिन अगर किसी चीज की कमी थी तो वह थी लड़कियों की पढ़ाई की।उनकी सास को छोड़ ही दो ननदें तक नहीं पढ़ी थीं।दो ननदें थीं उनकी। दोनों की दोनों बड़ी होशियार। चाहे कढ़ाई-बुनाई हो या कपड़े-लित्ते सिलने की कला हो अथवा हो सीनरी-रंगोली बनाने की बात या फिर तरह-तरह के व्यंजन बनाना; हर काम में पूरी तरह से निपुड़। पर अगर किसी चीज की कमी थी तो बस पढ़ाई-लिखाई की। जब वह ब्याह कर इस घर में आई तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ था कि आज के जमाने तक में इनको पढ़ाया नहीं गया। खैर! ‘बीती ताहि भुलाए दे, आगे की सुध लेइ।’ अम्मा ने अपनी दोनों ननदों को पढ़ना-लिखना तो सिखाया ही साथ ही साथ अपने पति के कानों में धीरे-धीरे घर की लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की बात भी बैठा ही दी। पतिदेव ने पत्नी की बात को गहराई से समझा और घर की पंचायत में पत्नी के पक्ष की वकालत भी पुरजोर से की।
चूँकि घर के मुखिया घर में महिलाओं-लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के पक्ष में थे नहीं, सो उन्होंने काफी हद तक इस प्रस्ताव को पास ना होने देने का प्रयास किया, पर लड़के-बहू के तर्कों के आगे बहुर देर तक नहीं टिके रह सके। प्रस्ताव पास हो गया कि ‘अब घर की लड़कियाँ स्कूल जायेंगी, लेकिन केवल मैट्रिक तक। इसके बाद नहीं।’ अम्मा ने सोचा चलो कोई बात नहीं। कम से कम रास्ता तो खुल ही गया। आगे तो वह सम्हाल ही लेगी। अम्मा ने कमर कस ही ली कि अगर उन्हें लड़की होती है तो वह उसे आरम्भ से ही पढ़ायेगी और खूब पढ़ायेगी। जितना वह पढ़ना चाहे।
सास-ससुर के मन की आस भले ही ना पूरी हुई हो मगर अम्मा अवश्य खुश हीं जब सन्नों का जन्म हुआ। लेकिन धीरे-धीरे सास-ससुर भी रास्ते पर आ गये। अम्मा उसको लेकर सपने बुनने लगीं। और अंतत: वह दिन भी आ गया जब सन्नों पहली बार गाँव के ही प्राथमिक पाठशाला में अपने बाबा की गोद चढ़ी हुई पहुँची। अम्मा ने तो जैसे आज पहली बार में ही आधा युद्ध जीत लिया हो।
आज तो सन्नों एम.ए. का प्रथम वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके द्वितीय वर्ष में प्रवेश कर गई थी। अम्मा पल-पल जी रहीं थी अपनी लगाई हुई बेल को फलते-फूलते हुए देखकर। हाय मेरी सन्नों . . . मैं बल-बल जाऊँ मेरी लाड़ली पर . . . उम्मा . . . ।
अम्मा अपने रोजमर्रा में लगे-लगे भी ना जाने क्या-क्या सपने बुनती रहती थी अपनी इस कली के लिए।
‘. . . बीस बरस की हो गई है। सब सन्नों के ब्याह की बात कर रहे हैं। लेकिन अभी कैसे कर दें ब्याह उसका। मास्टरनी तो बनाऊँगी ही उसे। . . . जैसे मैं लड़ी हूँ घर में उसे पढ़ाने के लिए. . . वैसे ही वह भी तो लड़ेगी समाज में . . . पढ़ाये-लिखायेगी अपने जैसी तमाम सारी लड़कियों को। . . .’ ना जाने क्या-क्या सोचती रहती थी वह सन्नों को लेकर।
अम्मा धुन की बड़ी पक्की थीं। जिस काम में लग गईं . . . लगी ही रहती थीं। घर के सारे काम . . . झाड़ू-बुहारू से लेकर खाना-पकाना और खिलाना। इन्हीं सब में पूरा दिन गुजर जाता था अम्मा का। हाँ! अगर कुछ समय बचा सकीं तो तुलसी बाबा को लेकर बैठ जाती थीं और चुन-चुन कर सुन्दर-सुन्दर चौपाइयाँ अपनी सास को सुनाया करती थीं। बरोठे में बैठे हुए ससुर भी अपनी बहू की इस गुड़वत्ता पर बड़े रीझते थे। गर्व से चमकने लगता था उनका भी चेहरा। ‘धन्य हो ईश्वर. . . तुम्हारा लाख-लाख सुक्रिया. . . जो ऐसी लक्ष्मी को मेरे घर भेजा. . .।
सास तो जैसे पुजारन ही हो गई थी बहूं की। आस-पास की कई एक हम उम्र औरतों को बुलाकर बहू से सुनी हुई चौपाइयाँ सुनातीं और अपना सीना गर्व से फुलाती हुई उनकी पूरे आत्मविश्वास के साथ व्याख्या करतीं तो औरतें उनसे जलने लगतीं। व्याख्या एकदम विद्वान कथावाचक की माफिक।
“. . . हुइहै सो जो राम रचि राखा। . . .” सस्वर चौपाई गाते हुए नजर दीवार पर टिकटिका रही घड़ी पर चली गई। सुई पूरे चार बजा रही थी। सन्नों अब तक नहीं आई।
अरे आती ही होगी। कभी-कभार तो शाम के छ: तक बज जाते हैं। एम.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा है। और प्रथम वर्ष में नंबर भी अच्छे आये थे, सो उसकी अपेक्षा इस बार कुछ ज्यादा ही आने चाहिए। जी-जान लगाकर पढ़ाई कर रही है मेरी सन्नो. . .।  देखो ना कैसी दुबली हो गई है पढ़ाई के बोझ से।
अबकी उसके नाना के घर से देसी घी पहले से ही मँगाकर रख लेगी। चार चम्मच रोज दोनों जून खाने के समय देने से दिमाग अच्छा बना रहता है। और सन्नों के बाबा भी तो ना जाने क्या-क्या लाकर रखते रेहते हैं उसके लिए। च्यमनप्राश के चार-छ: डिब्बे तो पड़े ही होंगे। खाती ही नहीं है सन्नों। कहती है ‘. . . अम्मा मुझे च्यमनप्रास अच्छा नहीं लगता. . . मुझे यह ना खिलाया करो. . .’ अरे दबा तो दबा है कोई अच्छे लगने के लिए थोड़े ही खाई जाती है। अगर जबरदस्ती नहीं खिलाया होता तो दिन भर में एक-दो रोटियाँ चिरई-चुनगुन की तरह टूंग-टांग कर कहीं दिमाग तेज हो पाता।वो तो अम्मा ही हैं जो घेर-घार कर घी-दूध-व्यमनप्राश आदि खिलाती रहती हैं। चाहे जित्ता भी मना करो गुइंया. . . खाना तो पड़ेगा ही. . .। मन ही मन अपनी इस विजय पर इतरा जातीं अम्मा। और इतरायें भी क्यों ना. . .। ‘जाने क्या-क्या नहीं किया सन्नों के लिए पढ़ाई के द्वार खोलने को। सास को अलग समझाया, ससुर से घूँघट की ओट से बहस की और उन्हें तो रात-रात भर भरा. . . ।कभी-कभी अम्मा अपने इस कृत्य पर सरमा भी जातीं तो कभी-कभी गर्व भी महसूस करतीं। कुछ भी वह उन्हीं की दम थी कि इस घर में लड़कियों के लिए पाठशाला का दरवाजा खुल गया था।
छ: बज गये तो अम्मा कोदरवाजेकी हर आहट सन्नों के होने का भान कराने लगी। वैसे कुछ भी हो इतना समय तो कम ही होता था। और जब से उसके पिता ने थोड़ा डाँटा था तब से तो इतना समय कभी नहीं हुआ था। उस दिन पहली बार सन्नों की डाँट पड़ी थी। पूरे दो दिन तक मुँह फुलाये रही। जब तक पिता ने अपने हाथों से उसे खाना नहीं खिलाया। दुलार नहीं किया। लम्बी घोड़ी होती जा रही है लेकिन अम्मा-पिता का लाड़-प्यार पाने को ऐसे नखारे करती है जैसे अभी दूध के दाँत तक ना गिरे हों।
साढ़े छ: बजे तक भी दरवाजे से सन्नों अन्दर नहीं आई तो अम्मा के दिल की धड़कने बढ़ने लगीं। हृदय ना जाने कितने-कितने अच्छे-बुरे विचारों से गुंथने लगा।सूरज डूबने जा रहा है। अंधेरा अपना विस्तार कर रहा है, लेकिन सन्नों अब तक नहीं आई। कहाँ गई होगी. . . ? हो सकता हो आते समय रास्ते में साइकिल पंक्चर हो गई हो. . .? दाड़िजार! आठ कोस के रास्ते में एक दुकान भी तो नहीं हैं जो साइकैल में हवा तक पड़ जाये। अगर पंक्चर हो गई तो घर तक पैदल ही आना पड़ेगा. . .। मन ऊँचाई दर ऊंचाई ऊपर बढ़ने लगा।
आखिर जब नहीं रहा गया तो पड़ोस की ही सुमना हो आवाज लगाई – ‘. . . अरे ओ सुमना! पढ़ने गईं थीं क्या आज . . . अरे सुनती हो क्या . . .।’
‘. . . हाँ! चाची गई तो थी. . . क्या हुआ. . .’
‘. . . सन्नों अब तक नहीं आई. . . ’
‘. . . अरे . . . इत्ती देर कहाँ लगा दी . . . ट्‍युशन तो तीन बजे ही छूट गई थी। हम दोनों एक साथ सर के घर से निकले. . . सन्नों ने कहा मैं प्रेस करबाकर आती हूँ . . . तुम घर चलो . . . मैं तो साढ़े चार बजे घर आ गई थी. . .’
अम्मा की धड़कने और तेज हो गईं। मन अनजाने भय से भरने लगा। अंधेरा वातावरण के साथ उनके मनोमस्तिष्क को भी अपने आगोस में लेने लगा। ‘जय हो राम जी . . . तुम्हीं पालनहार हो रक्षा करना . . .।’ मन ही मन तैंतीसो करोड़ देवी-देवताओं का स्मरण होने लगा। घर के देवता से लेकर ग्राम देवता तथा आस-पास के तमाम देवी-देवताओं का प्रसाद मान डाला अम्मा ने।
मन की इस अस्थिरता के चलते वह दिया-बाती तक करना भूल गईं। शरीर कंपायमान हो उठा। कमरे से आंगन और आंगन से दुआरे के दरवाजे तक ना जाने कितने चक्कर लगा डाले, पर सन्नो का अब ना तब। इन्हीं उहा-पोहों में पूरा एक घण्टा बीत गया।
‘. . . अरे सन्नो पानी तो ले आना. . . ’ बाहर से सन्नों के बाबा की आवाज अम्मा को सुनाई दी तो ऐसा लगा जैसे वह आ गई हो। दौड़कर बाहर गई तो देखा दादा हार से वापस आये थे और पीने के लिए पानी माँग रहे थे।
दादा का रोज का ही नियम है कि जब भी वह बाहर से आते हैं तो सन्नों को पानी लाने के लिए हाँक देते हैं। और सन्नों. . . सन्नों भी उनकी बात के सूत तांबे के उनके लोटे में पहले से ही भर कर रखा पानी लेकर हाजिर हो जाती है। रोज का ही यह नियम है इनका।
दादा ने देखा कि उनके आवाज देने पर सन्नों की जगह उसकी माँ बाहर आई तो उन्हें कुछ अटपटा सा लगा। पूछ लिया कि ‘सन्नों कहाँ है’
‘. . . दादा सन्नों अब तक नहीं आई पढ़कर . .. ’ अम्मा की कंपकपाती हुई आवाज दादा को भी अंदर तक एक अजीब भय से भर गई। मुँह से कोई आवाज नहीं निकली उनके। बहूं की ओर निहारा तो उसका चेहरा भय और आशंका से लाल हो रहा था।उठ खड़े उए चारपाई से। बस निकालकर पास ही में रखा कुरता वापस उठाकर पहनते हुए दरवाजे की ओर चले गये।
बाहर जाकर आवाज दी – ‘. . . नन्हें . . . ओ नन्हें . . .’
‘. . . हाँ दादा क्या हुआ . . .’ नन्हें अपने घर से निकलकर उनके पास आते हुए बोला।
‘. . . सन्नों अब तक नहीं आई पढ़कर. . .’ दादा का भयाक्रांत चेहरा देखकर एक बार तो नन्हें भी परेशान हो गया। मुंह से बस यही निकला – ‘ . . . क्या अब तक नहीं आई पढ़कर . . .’
‘हाँ . . . लल्ला घर पर नहीं हैं। चलो देख आयें चलकर . . .’ नन्हें दादा के मन की स्थिति समझ गया। दादा से मोटरसाइकिल निकालकर लाने के लिए कहते हुए अपने घर की ओर दौड़ गया।
पूरा वातावरण एक अनजाने भय से भर गया। आस-पड़ोस में जिसको भी पता चला कि ‘सन्नों अब तक वापस घर नहीं आई’ . . . सहानुभूति से भरा हुआ सन्नों के दरवाजे पर आ गया।
तरह – तरह की बातें होने लगीं।
‘. . . किसी ने पकड़ तो नहीं लिया . . .’
‘. . . हाँ भइया हो सकता है . . . आज-कल ये पकड़ा-पकड़ाई बहुत चल रही है। . . .’
‘. . . और नहीं तो क्या . . . सोचा होगा कि अकेली लड़की है और पैसे वाले तो हैं ही. . .’
तरह-तरह की बातें। जो जिसकी समझ में आईं।
‘. . . कहीं भाग तो नहीं गई किसी के साथ . . .’ किसी ने दूसरे के कान में मुंह लगाते हुए फुसफुसाया।
‘. . . हाँ हो सकता है आजी . . . आज-कल के लड़के-लड़कियों का कोई भरोसा तो है नहीं. . .’
‘. . .और भेजो घर से बाहर पढ़ने को. . .’
‘. . . मेरे उन्ने तो जिज्जी इसीलिए बिटिया को पढ़ने के लिए नहीं भेजा। बारही साल में बरात कर दी। अब देखो आराम से अपना घर-बार देख रही है। अच्छे-खासे चार बच्चे हैं. . . . और क्या चाहिए एक औरत को. . . । हमारी भी नाक बची है और उसकी भी जिन्दगी बन गई है।’
‘. . . तुम सही कहती हो चाची. . .’
‘. . .भगवान का लाख-लाख शुक्र है . . . मेरे दो लड़के ही हैं . . .कहीं बिटिया होती तो मैं भी डरी रहती हरदम. . .’
जितने मुंह उतनी बातें।
अम्मा का बुरा हाल हो रहा था। लोगों की तरह-तरह की बातें उनके करेजे पर काँटे की तरह चुभ रही थीं। मुँह से कुछ बोला नहीं जा रहा था। बस रोये जा रही थीं और ‘सन्नों’ का नाम लेकर खिन-खिन में बेहोस हो जाती थीं।
आस-पास बैठी घर-परिवार और मोहल्ले की औरतें अम्मा को दिखावटी सान्त्वना दे रही थीं।
‘. . .अपने आप को सम्हालो बहू. . . आ जायेगी बिटिया. . .’
‘. . . हाँ बहू . . . तुम तो समझदार हो . . . और बिटिया भी क्या नासमझ है . . . पढ़ी-लिखी है . . . ’
‘. . . दादा और सब लोग गये हैं देखने . . . अभी आती ही होगी . . .चुप जाओ बहू. . .’
औरतें तरह-तरह की बातों से बहूं को सान्त्वना देने का प्रयास कर रही थीं। वैसे औरतों की इस हमदरदी में मजाक कहीं अधिक था।
अम्मा को सान्त्वना देने के बाद मन में सोचतीं ‘. . .और करबा लो कलट्टरी लड़की से . . . भागेगी नहीं तो क्या तुम्हारे लिए फूल बिछायेगी. . .’
‘. . . कितनी बार कहा कि अब ज्यादा मत पढ़ाओ लड़की को . . . कोई लड़का देखकर ब्याह कर दो . . .लेकिन नहीं भाई . . .पता कैसे चलेगा कि इन्होंने अपनी लड़की को इतना ज्यादा पढ़ा-लिखाकर मास्टरनी बनाया है. . . अब बना लो मास्टरनी . . . ’
सान्त्वना देने वाली इन औरतों के व्यंग्यबाण अम्मा को असह पीड़ा पहुँचाने लगे। अम्मा निहाल हो गई थीं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था और ना ही वह कुछ देख पा रही थीं। उन्हें तो बस यही लग रहा था जैसे कि आज बीच चौराहे पर उनकी इज्जत-आबरू की नीलामी हो रही हो। उसके सारे प्रयास, सारा संघर्ष विफल हो गया था आज। उन्होंने ऐसा तो नहीं सोचा था कभी कि यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब क्या कहूं सबसे सन्नों को लेकर। . . .क्या किया रे सन्नो तूने क्या किया . . . किस बात की कमी थी तुझे यहाँ . . .।
असहाय-सी हो गई अम्मा के मन में लोगों के मन की बात अब विश्वास बन कर अपनी जड़े जमाने लगी थी कि हो न हो ‘भाग गई सन्नो।’
‘नहीं...... नहीं ...... ऐसा नहीं हो सकता। . . . ऐसा तो हो ही नहीं सकता। . . . मेरे संस्कारों की डोर इतनी कमजोर नहीं हो सकती।. . .’ अम्मा अपने आप से ही लड़ने लगीं। विचारों की पूरी सेना ने अम्मा के अंतस में खलबली मचा दी।
रात का अंधेरा अम्मा को भयंकर राक्षस लगने लगा जो उनकी बेबसी पर ठहाके लगाता-सा प्रतीत होने लगा। अम्मा उससे लड़ने का प्रयास करने लगीं। उन्होंने एक बार फिर से नकारात्मक विचारों को अपने आप से दूर करने का प्रयास किया। ‘नहीं . . . लोग जो कह रहे हैं झूठ है . . . हो ना हो सन्नों किसी बड़ी मुसीबत में फंस गई हो।अम्मा ने पूरी ताकत लगाकर अपने को इकट्ठा किया।
‘राम जी मेरी लाज रखना. . . हे किसन कन्हैया नंगा ना होने देना . . . तुम्हें मेरी सौगन्ध. . . ’ अम्मा तरह-तरह से अपने मन से अनहोनी की बात को हटाने का प्रयास करने लगीं।
रात के ग्यारह बज गये थे। नन्हें के साथ सन्नों की तलास में गये दादा अभी वापस घर नहीं आये थे। शहर गये सन्नों के पापा भी जब घर आये तो सुनकर सुन्न हो गये कि यह क्या हुआ। उल्टे पैरों ही गाँव के किसी व्यक्ति को लेकर सन्नों की तलास में निकल गये।
अम्मा को सान्त्वना देने आये लोग धीरे-धीरे अपने-अपने घरों को वापस लौटने लगे। बस घर-परिवार के ही कुछ लोग अम्मा के पास रह गये थे। सभी को ऐसा लगता था जैसे सन्निपात हो गया हो।सबके चेहरे पर मुर्दानी छाई थी। मृत्यु-सूचक सन्नाटा रात के अंधियारे को और भीभयावह बना रहा था।
घड़ी ने पौने बारह बजाये तो मोटर साइकिल की आवाज अम्मा के कानों से टकराई। अम्मा के साथ पास में बैठे अन्य लोग भी दौड़कर दरवाजे पर जा पहुँचे।मोटरसाइकिल की तेज रोशनी ने दरवाजे पर शुभत्व की सूचना पाने की आस लगाये खड़ी अम्मा और अन्य औरतों की आँखें चुंधिया दीं। मोटरसाइकल जब पास आकर रुकी तो अम्मा की धड़कने तेज हो गईं।शुभ समाचार की आस से दादा और उन्हें देखा तो वापस निरासा के सागर में गोते लगाने लगीं। दादा और सन्नों के पापा का उतरा हुआ चेहरा बता रहा था कि ‘सन्नों का कोई समाचार नहीं मिला है।’
नन्हें पीछे से सन्नों की साइकिल लेकर आये तो सबको पता चला कि ‘महेश सर्राफ की दुकान पर साइकिल खड़ी करके सन्नों प्रेस करवाने को कहकर गई, फिर वापस नहीं आई। . . . महेश को भी सन्नों की याद तब आई जब रात नौ बजे दुकान बढ़ाते समय उन्हें सन्नों की साइकिल अब तक उनकी दुकान पर खड़ी दिखाई दी।’
सबके चेहरों पर रात की कालिमा और भी गहरी होकर सिमट आई। पूरी रात इसी मसानी में गुजर गई। अपलक. . . ।
अम्मा, दादा, पापा, घर के अन्य लोगों के साथ बच्चों तक के सामने से रात एक भयानक झंझाबात की तरह गुजर गई, लेकिन किसी के पलकों पर नींद ने दस्तक नहीं दी।
सूरज की किरणों ने जब अम्मा के चेहरे पर दस्तक दी तो उन्हें लगा जैसे आज उठने में बड़ी देर हो गई हो। सन्नों को ट्‍यूशन भी तो जाना है। मन में एक तरंग उठी। जितनी सहजता से तरंग उठी उतनी ही सहजता से विलीन भी हो गई। अम्मा अब पूरी तरह से आश्वस्त हो चुकी थीं कि अब सन्नों को पढ़ने नहीं जाना है।सबके चेहरों पर एकबरगी अम्मा की नजर फिरी और अनायास ही आँखों से जलधारा प्रवाहित हो उठी।
सुबह होते-होते घर में गाँव वालों की भीड़ जुटने लगी। दादा और सन्नों के पापा जवाब देते-देते परेशान होने लगे। दादा, पापा और घर के लोगों के झुके हुए चेहरे देककर अम्मा अपने को दोषी समझने लगीं। उन्हें लगने लगा कि जैसे इस सबकी जिम्मेवार वह ही हैं। उन्हीं ने जिद की थी सन्नों को पढ़ाने की।
अम्मा पल-पल में चेतन और अचेतन के बीच झूझने लगीं। सबके हृदय में यह बात अब पूरे इत्मिनान से घर कर गई थी कि ‘अब सन्नों नहीं आयेगी।’
घर के किसी भी सदस्य ने कल से अन्न का एक दाना तक नहीं खाया था। रामलाल की दुल्हिन चाय बनाकर लाईं पर किसी ने उस ओर देखा तक नहीं।
दादा और सन्नों के पापा दो-चार लोगों को लेकर तड़के ही सन्नों की खोज में निकल गये। कहाँ-कहाँ नहीं तलाशा उन्होंने सन्नों को। लेकिन सन्नों की कुछ भी भनक नहीं लग पाई। आखिर गई तो गई कहाँ. . .? अफवाहों की हवा तेजी से बहने लगी।अपने आप से लड़ते हुए भी अधिकांस लोगों के मनोमस्तिष्क में यह विश्वास जड़ जमाने लगा था कि ‘अब सन्नों का मिलना बड़ा मुश्किल है. . . भाग ही गई है किसी के साथ. . .।’
जो भी जैसी सलाह देता दादा को सही लगती और वह उस पर अमल करने पर मजबूर हो जाते। किसी ने पुलिस को सूचना देने की सलाह दी दादा को। दादा का दिमाग चकरा गया। थाना-पुलिस-जग हसाई. . . पुरखों की सारी इज्जर मिट्टी में मिल गई आज।
थानेदार और पुलिस वालों के ‘व्यंग्य भरे प्रश्न’ दादा की अन्तरात्मा को झकझोर देते।अब जो हुआ उसका कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा।
थाना-पुलिस सब बेकार। पूरे पन्द्रह दिन गुजर चुके थे सन्नों के लापता हुए, लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था।
सन्नों के पापा लोगों के कहने पर ना जाने कितने तान्त्रिकों तक से भी सलाह ले आये थे। पर सब का सब बेकार। किसी की बात अम्मा के दिमाग को तसल्ली नहीं दे पा रही थी। अम्मा के दिमाग में तो बस सन्नों कीहसती-खिलखिलाती हुई मूरत इधर से उधर दौड़ रही थी, जिसकी तुलना अम्मा सन्नों की एक नवीन मूरत से करने का प्रयास कर रही थीं।अम्मा के दिमाग में एक पूरी फिल्म चल रही थी इस समय। सन्नों के जीवन की फिल्म। उसके बचपन से लेकर अब तक की फिल्म, जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी।बार-बार शुरू से ही आरम्भ हो जाती थी।
दिन पर दिन गुरते जा रहे थे। अम्मा का शरीर सूखकर कांटा होने लगा। भूख-प्यास से अम्मा का दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं रह गया था।
सन्नों अब एक सपने में बदलने लगी थी।धीरे-धीरे सभी अपनी दिनचर्या पर वापस आ रहे थे, लेकिन अम्मा के मनोमस्तिष्क से सन्नों एक पल को भी अमिट नही हो रही थी। हर आहट पर उन्हें ऐसा लगता था जैसे सन्नों आ गई हो। हवा का हर झोंका उन्हें सन्नों की खुशबू दे जाता था। रह-रह कर उन्हें ऐसा लगता था जैसे अभी पीछे से सन्नों आकर उनसे लिपट जायेगी और रोज की तरह इठलाकर घी और च्यमन्प्रास ना खाने की जिद करती हुई उनके गाल पर मीठा चुम्मा ले लेगी, जिससे वह आनंद से भर उठेंगी।‘नहीं यह सब छलावा है। अब वह नहीं आयेगी’ अम्मा पल-पल अपने को समझाने की कोशिश करतीं। सब बेकार . . . चाहते ना चाहते हुए भी प्रत्येक आहट सन्नों की महक से अम्मा को भर ही जाती।
तुम कहाँ चली गई हो सन्नों अपनी अम्मा को छोड़कर . . .एक बार तो आ जाओ अपनी अम्मा के गाल पर मीठा चुम्मा लेने . . . आ जाओ सन्नों वापस आ जाओ . . .।

कट

सन्नों आज बड़ी खुश लग रही थी।साइकिल पर जाते हुए वह आसमान में उड़ रही थी। दिमाग में देखे हुए सपने हकीकत में बदलते हुए दिखाई पड़ रहे थे। वह सपने जो उसने मोहित के साथ उस दिन से देखे थे, जब वह मोहित से पहली इण्टर कॉलेज में मिली थी।उस दिन पहली बार सन्नों को ऐसा लगा था जैसे उसके सपनों का राजकुमार आज साक्षात उसके सामने खड़ा हो गया हो।पहली ही मुलाकात में दोनों एक-दूसरे पर मर मिटे थे।तब से लेकर अब तक दोनों एक साथ एक ही क्लाश में पढ़ते चले आ रहे थे। दोनों एक साथ एक से एक हसीन सपने देखते चले आ रहे थे। आज उसके सपने हकीकत में बदल रह थे।
सोचकर ही सन्नों का शरीर रोमांच से भर उठा था। आज उसे अम्मा, दादा और पापा की जगह मोहित की ही याद आ रही थी।
मोहित और आगामी जीवन के हसीन सपनों में खोई हुई सन्नों के पैर साइकिल के पैडल पर ऐसे डोल रहे थे जैसे कि पैर ना होकर पंख हों।हाँ! वास्तव में साइकिल पर जाती हुई सन्नों आज उड़ रही थी। बिलकुल चिड़िया की माफिक। एकदम स्वच्छन्द . . .प्रफुल्लित मन से . . . उड़ी जा रही थी।
आज उसने अपना सफर बड़ी जल्दी ही पूरा कर लिया था। उसे पता ही नहीं चला कि आज इतनी जल्दी वह ट्‍यूशन वाले सर के घर कैसे पहुँच गई है। जीवन के रंगीन सपनों में खोई हुई सन्नों को आज आठ कोस का रास्ता बहुत ही छोटा लगा था।उसका शरीर मारे रोमांच के रुई की माफिक हल्का हो चला था। उड़ता हुआ सातवें आसमान के पार जा पहुँचा था।बार-बार उसके सामने उसके मोहित. . . नहीं . . .नहीं . . . मनमोहन की छवि मदभरी मुद्रा में दिखाई पड़ने लगती थी।
ट्‍यूशन में बैठे हुए भी वह वहाँ नहीं थी। सर ने दो-एक बार पूछ ही लिया ‘कहाँ हो सन्नो. . . ’
‘. . . कहीं नहीं सर यहीं हूँ . . .’
सर ने वेबजह और ध्यान नहीं दिया उस पर, पूरी तन्मयता से पढ़ाने में लग गये। सन्नों का मन पढ़ने में नहीं लगा तो नहीं ही लगा।उसका मन तो आज हवाई सफर तय कर रहा था।
दो घण्टे की क्लास सन्नों को ना जाने कितनी लम्बी लगी थी आज। खत्म होते ही सबसे पहले वही निकली कक्षा से। पीछे सुमना आवाज दी – ‘अरी सन्नों कहाँ जा रही हो इतनी जल्दी . . . थोड़ा रुको तो सही . . . मैं भी आती हूँ . . .’
‘. . . अरे सुमना तुम चली जाना घर . . . मुझे कुछ सामान लेना है बाजार से और कपड़े भी प्रेस कराने हैं. . . अम्मा को कह देना थोड़ी देर हो जायेगी. . .।’ इससे पहले कि सुमना कुछ बोल पाती सन्नों ये गई कि वो गई।
सीधे महेश ज्वेलर्स की दुकान पर जाकर रुकी।
‘. . . महेश अंकल मेरी साइकिल खड़ी है. . . मैं प्रेस करवा कर अभी थोड़ी देर में आती हूँ . . .।’ महेश अंकल ने एक नजर सन्नों और साइकिल पर डाली फिर अपने पान की गिलोरी से भरे हुए मुँह को बोलने के लिए कुछ तकलीफ देने का प्रयास करने लगे – ‘. . . जल्दी आना बिटिया . . .’ फिर अपने काम में मशगूल हो गये।
वहाँ से सन्नों सीधे बस स्टाप पर पहुँची तो शहर जाने वाली बस चलने को तैयार खड़ी थी। मन में सागर-सी हिलोरें लेती हुई बस में सवार हो गई सन्नो. . .।आज उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। बस एक ही सूरत मन में स्थिर हो गई थी, मोहित की मूरत।
करीब एक घण्टे के सफर के बाद बस के कन्डक्टर ने आवाज दी – ‘स्टेशन जाने वाली सवारियाँ यहीं उतर जायें, आगे बस स्टाप से पहले नहीं रुकेगी. . .।’ मोहित की सुध में खोई हुई सन्नों जाग गई एकदम से. . .हड़बड़ाते हुए बस से नीचे उतरी और पास ही में खड़े एक रिक्शे पर बैठते हुए उससे रेलवे स्टेशन चलने को कहा। रिक्शे वाले ने हुक्म की तत्काल तामील की।
रेलवे स्टेशन पर पहुँचकर सन्नों ने रिक्शे वाले को पर्स से पैसे निकालकर देते हुए पूछा – ‘. . . भइया . . .लखनऊ के लिए किस समय ट्रेन मिलेगी. . .’
‘. . . बहन जी अभी जल्दी से टिकट ले लीजिए . . . गोहाटी एक्सप्रेस आती ही होगी. . . अभी गई नहीं है . . . शायद लेट है आज . . .’ सन्नों रिक्शे वाले की बात को सुनते हुए ही टिकट काउन्टर की ओर बढ़ गई।
टिकट लेकर सन्नों द्वितीय श्रेणी के विश्रामालय में आकर बैठ गई। ट्रेन दो-ढाई घण्टे लेट थी। सन्नों ने अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली। ‘. . .अभी तो चार ही बजे हैं . . .ट्रेन कहीं पाँच-साढ़े पाँच बजे तक आयेगी. . .।’ कैसे कटेगा यह समय। सन्नों का दिमाग तमाम उलझनों से भर गया।
‘. . .कहीं किसी ने देख लिया तो . . . नहीं – नहीं ऐसा नहीं हो सकता. . .वह यहाँ पर नहीं बैठेगी. . .’
सन्नों ने अपने चेहरे पर दुपट्टे को कसकर बाँधा और पास ही के बुकस्टाल से एक पत्रिका खरीदकर सीधे मालखाने की ओर चली गई। वहाँ एक बैंच पर बैठकर पत्रिका पढ़ने का बहाना अपने आप से करने लगी।
सन्नों के दिमाग में तरह-तरह की बातें चलने लगीं।
‘. . .लखनऊ में स्टेशन पर ही मोहित ने मिलने को कहा है. . . कहीं नहीं मिला तो . . . अरे मिलेगा कैसे नहीं . . . वह भी तो हम पर उतना ही मरता है जितना कि मैं उस पर. . . वह भी अभी से स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहा होगा।. . .’
सन्नों के पास अपना फोन नहीं था अभी। मोहित से अक्सर बात पापा के फोन से ही छिपछिपाकर कर लिया करती थी।और घर से भागकर ब्याह करने का पूरा प्लान सन्नों और मोहित ने दो महीने पहले ही बनाया था, जब सन्नों पेपर देने गई थी।कल शाम को किसी तरह से सुमना के फोन से मोहित से बात हुई थी। आज का सारा कार्यक्रम कल शाम को ही मोहितने फोन पर बताया था। तभी से हवा में उड़ी जा रही थी सन्नो।
सन्नों ने जब गाँव के स्कूल से ही मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर लीतो दादा की खीची गई लकीर उन्होंने खुद मिटा दी। बड़ी प्रसन्नता से सन्नों को प्यार करते हुए कहा – ‘. . . आगे भी ऐसे ही मेहनत से पढ़ना . . . जहाँ तक मन करे . . .’
आगे पढ़ने की इजाजत तो मिल गई थी लेकिन एक बड़ी समस्या थी अब सामने। समस्या यह कि गाँव या आस-पास कोई इण्टर कॉलेज नहीं था जहाँ सन्नों का नाम लिखाया जाता।
सन्नों की नानी लखनऊ में थीं। उन्होंने कहा कि ‘सन्नों को उनके पास कर दो . . .यहीं अच्छे कॉलेज में नाम लिखबा दूँगी . . .।’
अम्मा को यह अच्छा नहीं लगा कि सन्नों उनसे दूर रहे। अम्मा ही क्या घर के किसी सदस्य को यह अच्छा नहीं लगा कि ‘सन्नों उनसे दूर रहे।’लेकिन और कोई चारा भी नहीं था। चाहते ना चाहते हुए भी करेजे पर पत्थर रखकर अम्मा ने सन्नों को नानी के घर पर पढ़ने को भेजा।
इण्टर के यह दो बरस अम्मा के साथ-साथ घर के सभी सदस्यों पर बड़े भारी गुजरे थे। जब सन्नों ने इण्टर पास कर लिया तो सबने एकमत होते हुए फैसला किया कि ‘अब वह आगे की पढ़ाई ‘प्राइवेट’ करेगी।’और पास उसका ‘स्नातक’ का फार्म ‘प्राइवेट’ डलवा दिया गया। सन्नों ने बहुत कहा कि ‘वह रेगुलर पढ़ेगी. . .’ लेकिन एक बार घर में जो फैसला ले लिया गया सो ले लिया गया। घर से आठ कोस दूर ही अहिबरन सिंह मास्साब से उसकी ट्‍यूशन लगाबा दी गई। इस प्रकार सन्नों की आगे की पढ़ाई घर और ट्‍यूशन के बलबूते आरम्भ हो गई।फिर भी सन्नों ने कमाल कर दिखाया। हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास हुई।
सन्नों भले ही घर पर रहकर प्राइवेट पढ़ रही थी लेकिन मोहित से उसका जो रिस्ता बन गया था वह कम होने की बजाय अधिक प्रगाढ़ ही हुआ था। किसी ना किसी प्रकार से छिपते-छिपाते वह मोहित से बात कर ही लिया करती थी।चाहे पापा का फोन हो या फिर सुमना का। अधिकतर सुमना ही उसके काम आया करती थी।
सुमना का घर सन्नों से लगा हुआ ही था। बीच में महज छत ही थी, जिसके जरिये आसानी से वह सुमना के घर चली जाया करती थी पढ़ाई के बहाने।अम्मा को भी अच्छा लगता था कि सन्नों गाँव-गिरावँ में किसी के यहाँ आती-जाती नहीं है। सुमना के साथ ही बैठकर पढ़ती रहती है। घण्टों . . .।
शुरुआत में सुमना को तक पता नहीं था सन्नों और मोहित के बारे में, लेकिन धीरे-धीरे उसे इस बात की जानकारी हो ही गई। फिर सन्नों ने भी उसको कुछबता दिया था। सुमना को लगा कि ‘चलो कोई बात नहीं. . . कॉलेज का दोस्त  है . . . दो-चार बातें करने में क्या गुनाह . . . ।’
कहानी चलती जा रही थी, लेकिन जबसे इस बार सन्नों पेपर देकर आई उसका मन किताबों से ज्यादा फोन में लगता था। सुमना भले ही मुरव्वत में कुछ कह नहीं पा रही हो लेकिन उसे सन्नों की फोन में लगातार बढ़ती जा रही प्रगढ़ता पर शक होने लगा था।पर सुमना को अंतिम दिन तक इस बात का आभास नहीं हो सका कि सन्नों इतना बड़ा कदम भी उठा सकती है।
‘. . . यात्रीगण कृपया ध्यान दें . . .  . . .  . . . प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है . . .  . . .  . . . ’ मोहित के ख्यालों में खोई सन्नों जाग गई एकदम से।
ट्रेन और यात्रियों की मिली-जुली आवाज को मायके से अपनी विदाई मानकर सन्नों ट्रेन के महिला डिब्बे में चढ़ गई।सुनहरे सपनों के साथ नवीन मंजिल की ओर।
ट्रेन की तेज गति और आवाज से बेपरवाह सी सन्नों के हृदय में एक अजीब-सा कुतूहल मच गया था इस समय।वह अपनी नवीन मंजिल पर निकल तो पड़ी थी लेकिनअब . . . अब . . . पता नहीं क्यों उसके मन में अजीब-अजीब तरह के विचारों का कोलाज बन रहा था।अब उसके मनोमस्तिष्क में अम्मा, पापा, दादा . . . और मोहित . . . एक साथ छण-छण को आ जारहे थे।कुछ नकारात्मक और उनसे अपने को समेटे हुए से सकारात्मक भाव लगाता सन्नों के दिमाग में आ-जा रहे थे।
मानसिक झंझावातों से अपने आपको समेटते हुए सन्नों ने बैग से पत्रिका निकालकर पढ़नी आरम्भ की।. . . एक प्रेमकहानी . . . पूरी पढ़ गई वह। उसके केन्द्र में खुद और मोहित को रखकर. . .। एक बार फिर वह मोहित के संग हसीन सपनों में खो गई।
लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन पहुँच चुकी थी। सन्नों के दिल की धड़कने तेज हो गईं। उसने सम्हाला खुद को और मन में केवल सकारात्मक भावों को लेकर प्लेटफार्म पर उतर गई।नजरें भीड़ को चीरती हुई मोहित को तलाशने लगीं।कदम धीरे-धीरे गेट की ओर बढ़ गये।
बाहर आकर भी उसे जब कहीं मोहित नहीं दिखाई दिया तो सन्नों की पहले से ही तेज धड़कनों ने और भी तीव्र गति पकड़ ली। शरीर में कपकपी-सी होने लगी।ऐसा लगने लगा जैसे कि आँखों के सामने अंधेरा छा गया हो। अनजान भीड़ में सन्नों को सब कालिख पुते बिजूके से दिखाई पड़ने लगे। आँखें और भी अधिक गति से मोहित को तलाशने लगीं, पर मोहित कहीं दिखाई नहीं दिया।
‘. . . कहाँ खो गई थीं तुम इतनी देर से तलाश रहा हूँ तुम्हें . . .’ पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा तो सन्नों ने चिरपरिचित सी आवाज को पहचानते हुएपीछे मुड़कर देखा। सामने मोहित नाराजगी भरी नजरों से उसे देख रहा था।
‘. . .मैंने तुमसे कहा था कि गेट के पास ई खड़ी रहना . . . फिर वहाँ से क्यों हटीं . . .इतनी देर से तलाश रहा हूँ . . . तुमने तो परेशान ही कर दिया एकदम से . . .’ सन्नों ने मोहित की बातों और हाव-भाव में अपने लिए प्रेम कीबयार देखी तोतन-मन शीतल हो गया। इसी शीतलता में पानी की दो बूँदें उसकी आँखों से टपक पड़ीं।मोहित ने उन्हें गिरने नहीं दिया। अपने हाथों में ही लेते हुए बोला – ‘ . . . बहुत अनमोल हैं . . . इन्हें इस तरह बहाने की जरूरत नहीं है . . .’
दोनों ने अपने प्रेमी को आनंदातिरेक से देखा। मन ने कहा बस देखते रहो . . . अपलक . . .’
‘. . . अब चलो भी . . . बाकी का सारा काम कमरे पर . . .’ मोहित ने सन्नों को कामपरक नजरों से छेड़ा। शरमा गई सन्नों ने मारे लाज के नजरें नीचे झुका लीं।
मोहित ने सन्नों का कपड़ों वाला बैग उठा लिया। सड़क पर आकर आटो किया और उसे डालीगंज चलने को कहकर पीछे की सीट पर दोनों एक-दूसरे की बाहों में बांह डालकर ऐसे बैठ गये जैसे कबके प्यासे पपीहे को स्वाति की बूँद मिल गई हो।
मोहित ने पूरा प्रबन्ध कर रखा था। डालीगंज चौराहे पर दोनों आटो से उतरकर एक गली में जा पहुँचे। कुछ देर चलने के बाद एक मकान के सामने पहुँचकर मोहित ने उसकी घण्टी बजाई।
मोहित ने सारी तैयारी कर रखी थी सन्नों के लिए। आज वह लखनऊ में ही रहेगा और कल कानपुर चला जायेगा। वहाँ उसके दोस्त ने रहने का प्रबन्ध क्कर दिया है। एक छोटा-सा कमरा, एक बेड और जरूरत की और भी कुछ चीजें। लखनऊ में आज पहली बार जिस घर में सन्नो कदम रखने जा रही थी, मोहित के एक दोस्त का घर था। मोहित ने दोस्त को सारी बात बता दी थी और दोस्त ने किसी प्रकार से अपने घर में मैंनेज कर लिया था। मम्मी से कह दिया था कि परसों इन दोनों की शादी है कानपुर में, आज देर हो गई है, इसलिए कल जायेंगे यह कानपुर। आज की रात यहीं बितायेंगे।
मकान का दरवाजा खुला। खोलने वाली एक तकरीबन चालीस साल की महिला थीं। खोलते ही उसने सन्नों को पैनी नजरों से देखा। सन्नों को लगा जैसे अम्मा हों। सकपका ही गई एक बार को वह। जल्दी से सम्हाल लिया खुद को। दोनों ने एक साथ ही कहा – ‘. . . आंटी जी नमस्ते. . .’ महिला ने स्वीकृति में सर हिला दिया और अंदर आने का इशारा किया।
दोनों अंदर तो चले गये पर सन्नों के अंदर का चोर कहीं ना कहीं तक ‘कंपायमान’ हो गया। आज उसे पहली बार बड़ा विचित्र-सा आभाष हो रहा था। जैसे की चोरी करते हुए किसी ने रंगे हाथों पकड़ लिया हो। बढ़ती हुई धडकनों पर काबू करने के प्रयास में ही कमरे तक पहुँच गई सन्नों। आंटी दोनों को शकभरी नजरों से लगातार घूरे जा रही थीं।
दोनों ने कमरे में जाते ही झट से दरवाजा बंद कर लिया। सन्नों एकदम से लिपट गई मोहित को।
मोहित का दोस्त, जिसने मोहित को यहाँ आज की रात रुकने का प्रबन्ध किया था घर पर नहीं था। जब तक वह आ नहीं गया सन्नों के प्राण अधर में ही अटके रहे; क्योंकि आंटी की आँखे लगातार किसी ना किसी बहाने से उन्हें घूरे जा रही थीं।रात के दस बजे कहीं जब वह आया तो दोनों ने चौन की सांस ली।
खैर! दोस्त की माँ ने ज्यादा पूँछ-ताँछ नहीं की, फिर भी सन्नों कम्फर्ट महसूस नहीं कर रही थी।
दोस्त ने उनके खाने-पीने का इंतजाम पहले से ही कर दिया था, इसलिए दोनों अब जल्दी ही सो जाना चाहते थे। सुबह पाँच बजे कानपुर के लिए ट्रेन थी, जिसे पकड़ने के लिए चार बजे तड़के ही घर से निकलना होगा। जब कानपुर पहुँचेंगे तभी जाकर सन्तोष होगा उन्हें।
दोनों की एक साथ यह पहली रात थी। एक-दूसरे की बाँहों में सुखभरी रात। सन्नों के सपनों का राजकुमार आज सपनों से निकलकर उसके आगोश में बंध गया था। कितना हशीन था यह पल सन्नों के लिए। उसकी बरसों की मुरादें उसके पास स्थिर हो गई थीं।
एक-दूसरे की बाँहों के कसाव में जकड़े हुए ही दोनों ने पूरी रात जागते हुए ही बिता दी। कई बार सोने का प्रयास किया लेकिन बिरह-मिलन की इस प्रथम बेला में नींद का क्या काम था।
घड़ी ने तीन बजा दिये तो एक बार ताजगी के साथ दोनों ने फिर से एक-दूसरे को सींचा। ना चाहते हुए भी सन्नों ने मोहित को फ्रेस होने के बहाने अपने आपसे दूर किया और कपड़े लेकर बाथरूम की ओर चली गई।
मोहित उसे छोड़ना नहीं चाहता था आज बिलकुल। उसने बाथरूम की ओर जाती हुई सन्नों को प्यार भरी नजरों से देखा और खुद भी उठकर जाने की तैयारी करने लगा।
मोहित के दोस्त को जब लगा कि दोनों उठ गये हैं तो वह ऊपर उनके कमरे में चाय लेकर आ गया। दोनों बैठकर चाय पीने लगे तब तक बाथरूम से नहाकर सन्नों भी आ गई। मोहित और उसका दोस्त उसको देखते ही रह गये अपलक . . .। आज सन्नों ने पहली बार साड़ी पहनी थी और साड़ी में सन्नों बला की खूबसूरत लग रही थी। मोहित को ऐसा लगा जैसे कामदेव अपनी पूरी शक्ति के साथ सन्नों में समाहित हो गये हों।
मोहित जड़-सा हो गया सन्नों के रूप-यौवन में।
‘. . . भाभी जी आप बड़ी खूबसूरत लग रही हैं. . .’ मोहित के दोस्त ने सन्नों की तारीफ करनी चाही।
सकपका गई सन्नों। उसे दोस्त की आँखों में कामुकता की झलक दिखाई पड़ गई। अपने आपको सम्हालते हुए उसने मोहित से कहा – ‘ चलो अभी तक बैठे हो. . . चार बज गये हैं . . . ट्रेन का समय हो रहा है . . .’
मोहित मुस्कुरा दिया। तैयारी कुछ करनी ही नहीं थी। दोस्त नीचे मिलने को कहकर कमरे से चला गया तो सन्नों ने मोहित से उसका उलाहना किया, जिसे मोहित ने हँसकर टाल दिया।
सन्नों ने बाल बाँधे और घर से छिपाकर लाये हुए गहने पहने। ऐसे सजी जैसे विवाह के बाद एक नवयौवना सजती है। मोहित छोटी-मोटी छेड़खानी के साथ उसका रसपान कर रहा था, जिसमें सन्नों एक पत्नी की भाँति मोहित का सहयोग कर रही थी।
कानपुर जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। दोस्त दोनों को स्टेशन छोड़ने आया था। उसने ही उन्हें कानपुर की दो टिकटें लाकर दी थीं और दिया था एक छोटा-सा गिफ्ट का डिब्बा। पूरी तरह से पैक। यह कहकर की रात को सोने समय ही इसे खोलना।
ट्रेन चल पड़ी कानपुर के लिए। और सन्नों चल पड़ी मोहित के साथ एक नवीन सफर पर। सब कुछ को पीछे छोड़ते हुए। अम्मा, पापा, दादा, घर, गाँव और. . . वह सारी संवेदनायें जो उसके साथ बुनी गई थीं। उसकी अम्मा ने उसके लिए बुनी थीं, बरसों के धैर्य के साथ।
ट्रेन ने चलते हुए अपना विशेष संगीत छेड़ दिया और मोहित के कंधे पर सर रखे हुए सन्नों एक बार फिर से अपने आगामी जीवन की सज-धज में खो गई। ठीक उसी प्रकार जैसे अम्मा खो जाती थीं उसकी देख-रेख और घर के कामों में।
सब कुछ को तेजी के साथ पीछे छोड़ती हुई ट्रेन तेज गति से कानपुर की ओर, सन्नों की हसीन मंजिल की ओर भागी जा रही थी।
कानपुर के पहले की स्टेशनों पर जब ट्रेन रुकती तो सन्नों कुछ देर के लिए जाग जाती और कुछ ही देर बाद वापस अपने सपनों में खो जाती। मोहित के साथ। उसके सपनों के आलम्बन के साथ।
ऐसे ही एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो उसमें चढ़ने वाले यात्रियों में कुछ अध्यापक गण भी थे। हंसते-बात करते हुए सन्नों के सामने वाली सीट पर ही आ बैठे। इनकी आपस की बातचीत से लग रहा था कि ये लोग कानपुर के किसी कॉलेज में प्रवक्ता हैं और कवि भी हैं। आपस में हो रही उनकी दीन-दुनिया की बातों से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था।
सन्नों और मोहित इनकी बातों को समझने का प्रयास करने लगे। उनकी बातों से सन्नों को ऐसा लगा जैसे कि उन लोगों की बातों का केन्द्र-बिन्दु वह ही हो।
‘. . . जी हाँ! तिवारी जी . . . आज-कल के बच्चों ने माँ-बाप को हासिये पर ही डाल दिया है . . .’
‘. . . उनके लिए संवेदना की डोर महज एक खिलौना है. . . भाव उसमें से ना जाने कहाँ गायब हो गये हैं . . .’
‘. . . भाई मैं आप लोगों की बातों से सहमत नहीं हूँ . . .’ एक नौजवान प्रवक्ता ने अपनी बात रखी।
‘जी हाँ! अगर लड़का-लड़की बड़े हो गये हैं और वह खुद फैसला लेना चाहते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है. . .।’
‘क्यूँ जी बुराई क्यों नहीं हैं. . . एक माँ-बाप, जो बच्चों को पालते-पोसते हैं, उनकी हर फरमाइस पूरी करते हैं, और बच्चे हैं कि उनकी संवेदनाओं को एक झटके में तोड़कर भाग जाते हैं उन्हें ठेंगा दिखाकर. . .’
इन लोगों की बातचीत का केन्द्र थी एक कविता, जो कल के दैनिक जागरण पत्र में प्रकाशित हुई थी। कविता का भाव एक ऐसी लड़की पर केन्द्रित था जो ‘घर से भाग गई है।’ पत्र एक प्रवक्ता के हाथ में था।
‘. . . अरे मिश्रा जी छोड़िये भी इस बहस को. . . बहस के लिए स्टाफरूम और क्लास ही सही है. . . यहाँ हम लोग यात्रियों को क्यों अपनी बह्स से बोर कर रहे हैं . . . वैसे कविता का वाचन हो जाये तो ठीक रहेगा. . .’
‘हाँ! यह ठीक रहेगा . . . वाचन होते-होते हम कानपुर पहुँच जायेंगे। . . . कविता का विषय कुछ भी हो भाई . . . अगर लिखी गई है तो पढ़ी तो जानी ही चाहिये . . .’
नई उम्र वाले प्रवक्ता की दाल नहीं गल पाई इन ‘सहज विमल हृदय’ वाले विद्वानों में। उसने ना चाहते हुए भी हाथ में पकड़े हुए पत्र से कविता पढ़नी आरंभ की . . .
“भाई साहब
जरा गौर फरमायेंगे
जी हाँ!
जो मैं कहने जा रहा हूँ
उसे
थोड़ा ध्यान से सुन लेते तो . . .
जी अच्छा . . .
तो आप तैयार हैं सुनने को
मेरी बात . . .
ठीक है
तो मैं कहता हूँ
अपनी बात . . .
दरअस्ल बात मेरी नहीं
मेरे पड़ोसी से संबंधित एक घटना है
जो मुझे
मेरे किसी अभिन्न ने बताई
‘राज’ कोराज रखने की कसम देकर
हाँ तो घटना . . .
यही कोई
तकरीबन रात के ग्यारह बज रहे होंगे
किसी ने कहा मुझसे
आपको कुछ पता है
हमारे पड़ोसी की लड़की
जो गई थी सुबह
पढ़ने को कॉलेज
तैयार होकर
अब तक नहीं वापस आई
सुना है भाग गई है वह
साथ में पढ़ने वाले
एक मनचले के साथ
ले गई माँ-बाप की सारी इज्जत
काट ले गई उनकी नाक
और तो और
तोड़ गई संवेदनाओं का वह धागा
जिसे उसकी माँ औए बूढ़े बाप ने बड़े जतन से
‘बुना था’
माँ और बाप के वह सपने
जो उन्होंने देखे थे
पूरे अट्ठारह साल, दो महीने, ग्यारह दिन
और नौ महीने
(माँ की कोख को जोड़ते हुए)
पता है आपको
बड़ी मुश्किल से इस घर में
खुला था दरवाजा
लड़कियों के लिए
स्कूल-कॉलेज जाने को
लेकिन बंद कर गई वह
आज उसे फिर से
ना जाने कितने दिनों के लिए
लोगों में सुगबुगाहट फैल गई
‘मैं तो खुशनसीब हूँ कि
मेरे कोई लड़की नहीं है’
और जिनके आगे हैं लड़कियाँ
वह भी शंका की दृष्टि से देखी जाने लगीं
‘कहीं ये भी ना तोड़ दें उस डोर को
जिसे बुनने में लगे थे पूरे
अट्ठारह साल, दो महीने, ग्यारह दिन
और नौ महीने
(माँ की कोख को जोड़ते हुए)’

प्रवक्तागण कविता-पाठ के बाद उसकी बखिया ऊधेड़ने लग गये तो सामने की सीट पर बैठी सन्नों के चेहरे पर उसका असर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा।सन्नों की धड़कने तेज हो गईं। मोहित ने सन्नों के भावों को समझते हुए उसके कंधे पर रखे हाथ से सन्नों का कंधा प्यार से दबाया।सन्नों ने एक नजर मोहित की ओर देखा। मोहित की नजरों ने सन्नों को अपने प्यार का विश्वास दिलाया।
तमाम मानसिक उहा-पोहों से लड़ रही सन्नों को लेकर ट्रेन ने कानपुर सेन्ट्रल पर दस्तक दी तो चाय और समोसे बेचने वालों मेंयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लग गई।तरह-तरह के जुमलों से वह अपने उत्पाद को बेचने का प्रयास करने लगे।
इन्हीं सब के बीच सन्नों ने मोहित का हाथ पकड़े हुए ट्रेन से नीचे उतरते हुए कानपुर के प्लेटफार्म और अपनी नवीन कर्म स्थली पर पहला कदम रखा।

*  *  *

सन्नों और मोहित को लिए हुए रिक्सा कई सारी गलियों में चक्कर लगाता हुआएक साधारण से घर के सामने रुका। निम्न वर्गीय इस बस्ती में जिस मकान के सामने इन युगल प्रेमियों का रिक्सा रुका था वह अभी नया ही बना था। पलस्तर ना होने से ईंटों का जुड़ाव अपनी चित्रकारी प्रस्तुत कर रहा था।
मोहित ने रिक्से से उतरकर इस मकान की कुंडी खटखटाई।सन्नों अपना बैग पकड़े हुए मोहित के पीछे आ खड़ी हुई तो आस-पास की तमाम निगाहों ने उन्हें प्रश्नाकुल भाव से देखा। सन्नों अपनी ओर उठी निगाहों को भांपती हुई मोहित के और पास आ गई।
अंदर से दरवाजा खुला तो एक अधेड़ औरत मोहित और सन्नों के सामने थी। उसने सन्नों को ऊपर से नीचे तक अपनी पैनी नजरों से ताड़ा और अंदर आने का इशारा किया। मोहित ने लपकर उस औरत के पैर छुए और ऐसा ही करने की उम्मीद से सन्नों की ओर देखा। सन्नों ने एक आदर्श पत्नी की तरह पति की निगाहों को समझा और सर पर साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए दोनों हाथों से अधेड़ औरत के पैर छुए। औरत ने सन्नों को कंधों से पकड़ कर उठाया और मुस्कुराते हुए अंदर चलने का इशारा किया।
मोहित का एक दोस्त कानपुर में रहता था। उसने ही कानपुर में यह घर इन दोनों के रहने के लिए देखा था। यह औरत मकान की मालकिन थी। इसे बताया गया था कि ‘ये दोनों पति-पत्नी हैं। जल्दी ही विवाह हुआ है इनका। मोहित यहाँ काम की तलाश में आया है. . . आदि. . . आदि . . . ।
मोहित ने सन्नों को अंदर चलने का इशारा किया तो सन्नों ने आगामी जीवन की सकारात्मक उम्मीदों के साथ अपना दाहिना पैर घर की डेहरी के अंदर रखा। सन्नों के लिए अब यही उसकी ससुराल थी। फिलहल तो इसी घर को सन्नों को सजाना-संवारना था।घर में पैर रखने के बाद सन्नों ने सबसे पहले मकान मालकिन को ही अपनी सास समझकर एक बार और उसके पैर छू लिए। मकान मालकिन सन्नों के भावों को समझ गई। उसने भी सन्नों के सिर पर हाथ फेरते हुए सुखमय जीवन का आशीर्वाद दिया और अपने कमरे से लाकर एक कमरे की चाबी सन्नों के हाथ में पकड़ा दी। सन्नों ने भी सास के आशीर्वाद स्वरूप कमरे की चाबी दोनों हाथ फैलाकर ग्रहण की और अपने भविष्य रूपी ताले को खोलकर कमरे में गई।
कमरा पहले से ही तैयार कर दिया गया था। एक सिंगल बेड, सुहागरात के लिए पूरी तरह से तैयार। दो कुर्सियां। रहने के लिए लगभग सभी आवश्यक वस्तुएं जो एक नव-विवाहित जोड़े को चाहिए होती हैं।
मोहित सन्नों की व्यवहारकुशलता पर रीझ गया था।सन्नों के रूप में एक आदर्श पत्नी पाकर मोहित गद्‍गद्‍ हो उठा।कमरे में घुसते ही उसने सन्नों को अपनी मजबूत बाहों के आगोश में जकड़ लिया।सन्नों इस हमले के लिए तैयार नहीं थी सो पहले तो चौंकी लेकिन अगले ही पल सम्हल गई और मोहित की भावों में खोती चली गई।
‘. . . अब छोड़ों भी . . . इतनी भी क्या जल्दी है. . . पहले कमरा तो सही कर लेने दो फिर जो चाहें करना. . . भागे थोड़ी ही जा रही हूँ . . .’ सन्नों ने मोहित को ऊपरी तौर पर अपने से अलग करने का प्रयास किया।
मोहित कुछ बोला नहीं बस अपनी मदभरी आँखों से सन्नों को निहारा . . . ‘हाय! इन्हीं आंखों की गुलाम बनकर चली आई तुम्हारे साथ . . .’ सन्नों ने मन ही मन अपने पर गर्व किया और मोहितमय हो गई।
काफी देर तक कामसागर में हिचकोले खाने के बाद दोनों उठे।भूख भी लग चली थी। सोचा बाजार जाकर कुछ सामन ले आये घर-गृहस्थी का। अब तो इस घर को अपनी तरह से सजाना है सन्नों को। मोहित से बाजार जाकर सामान लाने को कहा और खुद नहा-धोकर फ्रेश होने जाने लगी।तभी कमरे की कुंडी खटकी।
‘. . . कौन. . .’ मोहित ने जानना चाहा।
‘. . . लल्ला . . . मैं हूँ. . . ताई . . .’
सन्नों ने कपड़े और बाल ठीक करते हुए कमरे का दरवाजा खोला।
‘. . . जी ताई जी. . .’ सन्नों की आवाज में ताई के लिए सास वाला भाव प्रबल हो उठा।
‘. . . ऐसा है बहू . . . आज खाना हमारे साथ ही खा लेना . . . कल से अपनी व्यवस्था कर लेना. . .’
‘. . . जी ताई जी . . .’ सन्नों ने धीरे से आमंत्रण स्वीकार किया।

*  *  *

सन्नों और मोहित ने घर छोड़ते समय अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कुछ रुपया-पैसा इकट्ठा कर लिया था। सोचा कम से कम एक-दो महीने तक अगर काम नहीं भी मिला तो भी काम चल जायेगा।सन्नों को गृहस्थी चलाने की कला अम्मा से विरासत में ही मिली थी। उसे खूब पता था कि कम से कम पैसे में घर कैसे चलाया जाता है। हाँ! मोहित कुछ सहखर्ची टाइप का था। वह सोचता था कि बेचारी उसके भरोसे अपने घर से भाग कर आई है तो उसे किसी प्रकार की कोई दिक्कत ना हो।
मोहित ने जब तक हाथ में पैसा रहा, सन्नों को बिलकुल रानी बनाकर रखा। सिनेमा दिखाना हो, होटल में खाना हो या फिर घूमना-फिरना हो; मोहित ने कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि नौकरी की तलाश में घूमते-घूमते सन्नों के वह झुमके भी बिक गये जो अम्मा ने बड़े जतन से उसके लिए खरीदे थे।
आज तक याद है सन्नों को कि अम्मा ने उसके लिए झूमके खरीदते वक्त एक-एक करके जोड़े गए अपने सभी पैसे निकालकर सन्नों के पापा के हाथ में रख दिये और बड़े प्यार से उन्हें समझाते हुए उनसे मनुहार की – ‘ . . . ला दीजिये . . . बेचारी का मन ही तो है. . . ’
‘. . . लेकिन अभी तो वह बच्ची है . . .’
‘. . . आप भी ना . . . सौक बच्चों को होता है. . . या बूढ़ों को . . .’
अम्मा ने अपनी आँखों के मादक अंदाज से पापा को मना ही लिया। धराशाही हो चुके पापा जी आगे कोई तर्क नहीं कर सके और अगले ही दिन शाहर जाकर मछली की आकृति के झुमाके सन्नों के लिए ले आये। कानपुर की तंगहाली के चलते जब सन्नों ने अपने इन झुमकों को मोहित के हाथों में रखा तो एकबारगी उसके सामने अम्मा-पापा की तस्वीर सजीव हो उठी। उसने किसी प्रकार अपने मन की इस व्यथा को मोहित से छिपा लिया।
कानपुर में रहते हुए उन्हें पूरे दो महीने हो चुके थे, लेकिन मोहित को अब तक कोई काम नहीं मिला था। इस कारण अब मोहित कुछ परेशान रहने लगा था। सन्नों के साथ भी अब उसे उतना मजा नहीं आता था। कभी-कभी वह सोचता कि ‘घर से भाग कर उसने गलती की है और अपने साथ-साथ सन्नों की भी जिंदगी बरवाद कर दी है।’ पर सन्नों उसे बहुत सहारा देती। कोई ना कोई काम जल्द ही मिलने की आस बंधाये रहती।
रोज की ही भाँति आज भी मोहित घर से काम की तलाश में निकला तो रोज ही की भाँति सन्नों उसे दरवाजे तक विदा करने आई। इसके बाद दोनों अपने-अपने कामों में लग गये। सन्नों घर के कामों में और मोहित काम की तलाश में।
एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक फैक्ट्री से दूसरी फैक्ट्री और रोज ही की भाँति हर जगह से ‘नो वैकेन्सी’ का एक समान उत्तर। एक जैसी दिनचर्या और एक जैसा ही उत्तर सुनते-सुनते मोहित कुछ चिड़चिड़ा होने लगा था।
शाम हो चुकी थी और कहीं उसे काम की उम्मीद नहीं बंधी तो घर के लिए जाने से पहले वह एक रेस्त्राँ में जा बैठा। चार साल पहले की भाँति ही उसने आज वेटर को वाइन लाने का आर्डर दिया और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगा ली। सिगरेट के कश खींचते हुए मोहित दूर, कहीं दूर किसी शून्य में ताकने लगा। कुछ ही पल में वेटर आर्डर की ट्रे लेकर आ गया तो मोहित ने फटाफट एक पैग हलक के नीचे उतार दिया।
आज पूरे चार साल बाद मोहित ने शराब को हाथ लगाया था। जब दो पैग उसके गले से नीचे उतर गये तो उसके सामने सन्नों द्वारा चार साल पहले दी गई कसम एकायक याद हो आई।
यह वह समय था जब मोहित की मुलाकात ही हुई थी सन्नों से। जब दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे तो सन्नों को पता लगा कि मोहित कभी-कभार शराब पी लेता है। एक दिन जब अचानक ठीक उस समय जब मोहित शराब के नशे में था, सन्नों उसके कमरे पर आ पहुँची। मोहित का यह रूप देखकर अनायाश ही उसकी आँखों से आँसू की बूँदें निकल आईं। सन्नों के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। उसने मोहित की आँखों में एकबार गहराई से झाँका और अगले ही पल वह मोहित के कमरे से बाहर निकल गई।
मोहित के दिलो-दिमाग में सन्नों के आँसू काँटे बनकर उतर गये। उसने सन्नों की आँसुओं से सराबोर आँखों की कसम मन ही मन में खा ली। तय कर लिया कि अब कुछ भी क्यों न हो, कभी शराब को हाथ नहीं लगायेगा। लेकिन आज चार साल बाद अचानक उसे यह क्या सूझी। हृदय आत्मग्लानि से भर उठा। बाकी के पैग ज्यों के त्यों टेबल पर ही छोड़ दिये और रेस्त्राँ से उठकर मन में कुछ प्लान बनाते हुए घर की ओर चल पड़ा।
पूरे रास्ते दिमाग में चल रहे सन्नों के सवालों से जूझते हुए किसी प्रकार से उसने डरते-डरते घर का दरवाजा खटखटाया।
रोज की ही भाँति हार-सिंगार किये हुए और शराब के नशे में सन्नों के चेहरे पर मदहोशी को अंदर तक महशूस करते हुए मोहित ने बड़ा सम्हालकर डेहरी के अंदर कदम रखा। इसके बावजूद भी उसके पैर कुछ लड़खड़ा ही गये। लड़खड़ाते पैरों को सम्हाल न पाने के कारण मोहित सन्नों के मुँह के पास जा पहुँचा तो सन्नों का प्रशन्नता से चमक रहा चेहरा अपना भाव बदल गया। सामने की ओर आँटी को खड़ा देखकर उसने कुछ कहा नहीं और चुपचाप अपने कमरे की ओर चली गई। मोहित समझ गया उसके मनोभावों को। उसने आँटी की नजरों से खुद को छुपाते हुए सन्नों के पीछे से कमरे में प्रवेश किया और पीछे पलटे बिना ही दरवाजा भेड़ लिया। आँटी समझ गईं पूरी वस्तु स्थिति। उनकी पारखी नजरों से बच पाना सन्नों और मोहित जैसे अनाड़ी प्रेमियों के बस की बात नहीं थी।
कमरे में पहुँचने पर सन्नों एक ओर को मुँह फुलाकर बैठ गई। उसकी आँखों से चार साल पुराने आँसू बाढ़ से उमड़ी हुई नदी की माफिक बह निकले।ऐसा लगने लगा सन्नों को जैसे कि वर्षों से संजोये गये उसके सपने उसके आँसुओं के साथ बहे जा रहे हों। वह अपने आप को सम्हाल नहीं पाई और फफक-फफककर रो उठी। आज उसका एक-एक पोर जैसे गलता जा रहा था।
सन्नों के आँसुओं से मोहित का नशा हिमखण्ड की भाँति पिघल गया। वह आत्मग्लानि के समन्दर में डूबने-उतराने लगा। उसके आँसू भी सन्नों के आँसुओं के साथ बहने लगे।
कुछ पल के इस महाप्रलय के बाद मोहित ने अपने आपको सम्हाला। चेहरे पर बनावटी मुस्कुराहट लाते हुए वह अपने चिर-परिचित अंदाज से सन्नों के सामने कान पकड़कर उठक-बैठक करने लगा। यह मोहित का सबसे ताकतवर अस्त्र था। शब्दों के बिना भी सम्वेदना ने अपना प्रभाव डाल दिया। कुछ पल रूठने-मनाने के इस अभिनय ने दोनों के अंदर से गुस्से को निकालकर मादकता का संचार कर दिया।
सन्नों ने अपने आँसू पोंछ दिये और मोहित को कंधों से पकड़कर अपनी ओर खींच लिया। बहुत दिनों बाद मोहित ने सन्नों को इस रूप में देखा था। सब कुछ को निकालकर मोहित ने अपनी समस्त कामभावना को एकत्र किया और सन्नों से लिपट गया।
काफी देर तक दोनों एक-दूसरे में समाये रहे। कुछ पल तक शराब का नशा मोहित से दूर जा खड़ा हुआ था, मादकता का साथ पाकर एक बारगी वापस अपने शुरूर में आ गया। अपने सामने वस्त्रों से विहीन स्त्री को देखकर मोहित के कामुक दिमाग में कुछ शैतानी की रेख खिंच आई। उसने सन्नों की आँखों में आँखे डालते हुए तकिये के नीचे रखा अपना मोबाइल उठाकर सन्नों के सामने लहराया।
सन्नों के चेहरे पर कामुकता की रेखा और भी गहरा गई। उसके लिए यह नया नहीं था। जब भी मोहित ज्यादा खुश होता था, मोबाइल से उसकी अश्लील वीडियो बनाता था। काम-क्रीडा के दौरान बनाई गई इस वीडियो को बार-बार देखता था और अंत में उसे मोबाइल से डिलीट करके एक-दूसरे की बाहों में बंधकर सो जाया करता था।
मोहित की आँखों का इशारा समझ सन्नों अपने कामुक अंदाज में मोहित के द्वारा बनाये जा रहे वीडियो की नायिका बन गई।
आज दोनों को बड़ा मजा रहा था इस काम में। इधर एक-ढेड़ महीने की ऊब और परेशानी भरी जिंदगी में आज का दिन उर्जा भरा था। आज वह पूरी तरह से एक-दूसरे के इशारों और मनोभावों के गुलाम थे।
ढेढ़-दो घण्टे की इस काम-क्रीडा ने दोनों को थका दिया। दोनों के शरीर पर श्रम-बिंदु खिल उठे।कुछ देर एक-दूसरे की बहों में बंधे रहने के बाद दोनों को लगा कि अभी तो रात के दस ही बजे हैं और खाना तक नहीं खाया है। आज तो यह बेमौसम बरसात हो गई। कुछ भी हो दोनों को एकदम तरोताजा कर गई थी आज की यह बरसात।
दोनों ने अपने को सम्हाला। एक-दूसरे की आँखों में झाँककर शेष बचे गिले-सिकवों को दूर किया और खाने के लिए फ्रेश होने लगे।

** *

आज काम की तलाश में घर से निकलते हुए मोहित पिछले कई दिनों से ज्यादा तरोताजा लग रहा था। कमरे से निकलते हुए उसने अपने चिर-परिचित अंदाज में सन्नों के होंठों को चूमा, जो पिछले कुछ दिनों से वह भूल चुका था। खिल उठी सन्नों ने मोहित का भरपूर साथ दिया। इसके साथ ही मोहित निकल पड़ा।
कल एक जगह जहाँ पर वह काम की तलाश में गया था, मैनेजर छुट्टी पर था और पियून से अगले दिन आने को कहा था। अपने मन में विश्वास और शरीर को अपने आत्मविश्वास से सजाये हुए मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ ठीक दस बजे इस ऑफिस में जा पहुँचा।
मैंनेजर अभी-अभी ही आया था। उसने अपने कमरे के सामने एक उत्साह से भरे हुए लड़के को बैठे देखा तो चपरासी से अपने कमरे में बुला लिया। तकरीबन आधे घण्टे की बातचीत के बाद जब मोहित मैनेजर के कमरे से बाहर निकला तो उसके चेहरे पर प्रशन्नता एक नवीन आयाम लिख रही थी। उसके चेहरे के भावों के समझते हुए चपरासी जान गया कि कल से इन साहब को भी सलाम करना पड़ेगा।
खुशी से झूमता हुआ मोहित जैसे ही ऑफिस से बाहर निकला, उसे सामने से आता हुआ प्रदीप दिख गया। मोहित के चेहरे को चमकते हुए देख वह समझ गया कि इसे काम मिल गया है। पूरी गर्मजोशी के साथ वह आकर मोहित के गले लग गया और नौकरी मिलने की ट्रीट माँगने लगा।
मोहित उसे मना नहीं कर सका। प्रदीप के काफी एहशानात थे उस पर। कानपुर जैसे अन्जान शहर में प्रदीप ही था जिसने तंगहाली में उसका साथ दिया था। काम तलाशने में उसकी बड़ी मदद की थी। और इस जगह के बारे में भी उसी ने सूचना दी थी। दोनों हँसते-खिलखिलाते हुए सामने के एक रेस्त्राँ में जा बैठे।
हँसी-मजाक और खाने-पीने की चीजों ने मोहित की खुशी को और भी बढ़ा दिया। प्रदीप ने कहीं फोन करने के इरादे अपना फोन जेब से निकालकर किसी का नम्बर लगाने लगा। जब काफी देर तक कोशिश करने के बाद भी फोन कनेक्ट नहीं हुआ तो मोहित ने अपना मोबाइल उसके सामने बढ़ा दिया। प्रदीप ने मुस्कुराते हुए उसे देखा और उसके मोबाइल पर कोई नम्बर टाइप करने लगा। एक ही बार में फोन लग गया। किसी से बड़ी संक्षिप्त बात हुई। कहीं जाना था उसे। फोन पर बता दिया कि कुछ देर और लग जायेगी। बात खत्म करके प्रदीप ने मोबाइल मोहित की ओर बढ़ा दिया। मोहित ने हँसते हुए मोबाइल लिया और सामने ही टेबल पर रख लिया। इसके बाद दोनों वापस किसी चर्चा में व्यस्त हो गये।
दोनों के बीच बातों का एक लम्बा दौर खिंच गया। इसी दौरान धीरे-धीरे मेज पर रखा मोबाइल मोहित के हाथों से होता हुआ प्रदीप के हाथों में आ गया। बातें चलती रहीं और मोबाइल प्रदीप के हाथों में झूमता रहा।झूमने के इसी क्रम में प्रदीप की अंगुलियाँ मोबाइल की गैलरी तक जा पहुँचीं और गैलरी खोलते ही उसकी आँखों से जो दृष्य टकराया, प्रदीप की आँखे चौंधिया गईं। हृदय के आश्लील भावों को अंदर ही दबा लिया उसने, पर आनन-फानन में ही उसने मोहित के मोबाइल से उस फाइल को अपने मोबाइल में ट्रान्सफर कर लिया। दोनों के बीच चल रही बातचीत ने गुपचुप तरीके से हुई इस घटना को मोहित से छुपा दिया। कुछ देर की बातों के बाद दोनों अपने-अपने रास्तों पर निकल गये। प्रशन्नता दोनों के चेहरों पर दस्तक दे रही थी, पर दोनों के मनोभाव अलग-अलग थे।
सन्नों और मोहित की जिंदगी खुशियों से भर चुकी थी। सुबह-सुबह मोहित ऑफिस जाने के लिए तैयार होता तो सन्नों उसके लिए टिपन तैयार करती। शाम को जब मोहित वापस आता तो सन्नों सजी-धजी दरवाजे पर उसका इंतजार करती मिलती। इसके बाद दोनों अपने सपनों की दुनिया में खो जाते।
जब मोहित को उसकी पहली तन्ख्वाह मिली तो उसने सन्नों को बताये बिना उसके लिए झुमके खरीद लाया। और जब दोनों खा-पीकर सोने चले तो मोहित ने एकायक सन्नों के सामने झूमके निकालकर रख दिये। मारे खुशी के सन्नों खिल गई। मोहित ने अपने हाथों से सन्नों को झुमके पहनाये तो सन्नों बिलकुल कचनार के माफिक खिल उठी। बेड से उठकर उसने आइने में खुद को निहारा तो दो आँसू उसके गालों पर लुढक पड़े।
दोनों के जीवन की नाव एक सतत गति से चली जा रही थी। मोहित को नौकरी करते हुए करीब दो महीने हो चुके थे।इसी दौरान कुछ अशुभ उनके जीवन में प्रवेश करने के लिए उतावला हो रहा था।
***
दोपहर का तकरीबन दो बज रहा था। मोहित ऑफिस में था और सन्नों अपने छोटे से कमरे में अलसाई हुई पड़ी थी। दरवाजे पर हुई अचानक ‘ठक-ठक’ ने उसके आलस्य को झकझोर दिया। मकानवाली आंटी घर पर थीं नहीं, सो दरवाजा उसे ही खोलना था। ‘कौन हो सकता है इस समय. . . मोहित तो शाम को आता है और आम तौर पर आंटे के घर भी कोई नहीं आता. . . उसका तो कोई मिलने वाला भी नहीं है . . .’ मन में कुछ-कुछ सोचते हुए सन्नों ने दरवाजे की कुंडी हटाते हुए उसे अपनी ओर खींचा। सामने प्रदीप भैया को देखकर पहले तो वह ठोड़ा सहमी, लेकिन अगले ही पल अपने आपको सम्हालते हुए दो शब्द उसके होंठों पर खिसक आये – ‘. . . अरे प्रदीप भैया आप. . .’
‘. . . इधर किसी के यहाँ किसी काम से आया था. . . सोचा भाभी जी से भी मिलता चलूँ. . .’ कहते हुए प्रदीप ने अपने कदम पूरी आत्मीयता के साथ सन्नों के कमरे की ओर बढ़ा दिये। हालाँकि सन्नों को काफी असहज-सा महसूस हुआ, लेकिन घर आये मेहमान का स्वागत करना उसका दायित्त्व था। इसके अलावा कानपुर जैसे अनजान शहर में प्रदीप भैया ही थे जिन्होंने उनकी काफी मदद की थी।
मन ही मन में प्रदीप भैया का अहशान स्मरण करते हुए और अचानक इस तरह से, वो भी मोहित के पीछे, कमरे पर आने के बारे में तरह-तरह की कल्पनायें करती हुई सन्नों एक गिलास में पानी ले आई। प्रदीप ने सन्नों के हाथ से पानी का गिलास लेकर एक ही बार में गले के नीचे उतार लिया और सन्नों को ऊपर से नीचे तक निहारते हुए पूछा – ‘. . . और बताइये भाभी जी. . . यहाँ आपको किसी बात की कोई दिक्कत तो नहीं है . . . मोहित आपको परेशान तो नहीं करता है. . .’
‘. . . भैया. . . आपके होते हुए हमें किसी भी बात की कोई दिक्कत कैसे हो सकती है. . .’ कहते हुए सन्नों ने मोहित की आँखों को पढ़ लिया। अब वह और भी असहज हो उठी। मन ही मन में प्रदीप के जाने की कामना करने लगी, लेकिन प्रदीप था कि शायद पहले से ही सोचकर आया था कि आज सन्नों के पास काफी देर तक बैठेगा। प्रदीप रह-रह कर तरह-तरह की बातें करने लगा और न चाहते हुए भी सन्नों उसका साथ देने पर मजबूर हो गई। काफी देर की बातों के बाद जब प्रदीप को ऐसा लगने लगा कि सन्नों परेशान हो रही है तो वह अपने असल मुद्दे पर आया. . .
‘. . . अरे भाभी जी मैं तो एकदम भूल ही गया था. . .’
‘. . . क्या. . .’
‘. . . आपके लिए एक गिफ्ट लेकर आया था. . . बातों बातों में देना ही भूल गया. . .’
सन्नों कुछ न बोली। प्रदीप ने उसकी असहजता को अपनी निर्लज्ज्ता से दबाते हुए अपनी जेब से अपना मोबाइल निकालकर उसकी एक वीडियो फाइल एकायक सन्नों के सामने रख दी और बेहयायी से सन्नों के चेहरे को निहारने लगा। सन्नों की आखों में खून उतर आया। पर कसाई के हाथ में फँसी गाय की माफिक उसने प्रदीप की ओर दया की याचना के साथ निहारा। उसकी आँखों में आँसू रिसने लगे।प्रदीप ने उसकी कमजोरी को अपनी बाहों में दबाने का प्रयास किया तो अचानक सन्नों का हाथ उसके गाल पर चमक उठा। बौखला गया प्रदीप। इस हमले का उसे आभास तक नहीं था।उसकी बुद्धि ने भी उसका साथ दिया। उसने प्रदीप को जोर का झटका देते हुए अपने से दूर झटक दिया और उसके मोबाइल को, जो अब तक उसके ही हाथ में था, इतनी जोर से जमीन पर पटका कि उसके परखच्चे उड़ गये।
प्रदीप को अपना खेल उलट जान पड़ा तो वह चुपचाप कमरे से निकल गया।
प्रदीप के कमरे से बाहर निकलते ही सन्नों का हृदय बह चला। वह यह नहीं समझ पा रही थी कि यह वीडियो प्रदीप के मोबाइल में पहुँचा कैसे। एक बारगी उसके दिमाग ने मोहित पर शक किया, लेकिन अगले ही पल उसका खण्डन भी कर डाला। नहीं-नहीं मोहित ऐसा नहीं कर सकता। प्रदीप बड़ा शातिर है। हो न हो उसने किसी चालाकी से मोहित के मोबाइल से ले लिया हो। उस रात मारे आवेग के वह डिलीट करना भी जो भूल गये थे। और अगले दिन रेस्टोरेंट में प्रदीप के साथ बैठे भी थे। सन्नों का मोहित पर विश्वास और भी प्रबल होता चला गया। पर इस घटना का क्या. . . जो आज उसके साथ घटी थी। प्रदीप को तो वह सगा भाई ही मानती थी. . . और उसने. . . । कुछ पल को रुके आँसू एक बार फिर बह चले।
मोहित के आने का समय हो चुका था और सन्नों ने अब तक अपने आपको मजबूत भी कर लिया था। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, वह इस घटना को मोहित से छुपायेगी नहीं। सब कुछ सच-सच मोहित को बता देगी। मोहित के सामने भी तो उसके दोस्त की करतूत आनी चाहिये। और. . . और मोहित को भी अपनी गलती का अहसाश होना चाहिये।
सन्नों अपने मन में न जाने क्या-क्या सोच रही थे कि उसे दरवाजे पर हुई खट-खट से मोहित के आने का आभास हुआ। अपने आपको एकबारगी और मजबूत करते हुए वह कमरे से उठकर मुख्य दरवाजी की ओर बढ़ गई।
सन्नों ने जैसे ही दरवाजा खोला तो उसके सामने मोहित के साथ मकान वाली आँटी भी थीं। दोनों को एक साथ देखकर सन्नों के अंदर के आवेग को कुछ सान्त्वना मिली। मोहित और आँटी अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ अंदर की ओर बढ़ गये तो सन्नों दरवाजा बंद करके कुंडी लगाने लगी।
दरवाजे की कुडी लगाकर सन्नों कमरे में पहुँची तो मोहित को थका-सा बेड पर लेटा देखा तो गिलास में पानी लेकर उसके पास जा बैठी। मोहित का सर अपनी गोद में रखकर सहलाने लगी। कुछ पल आँखे बंद किये लेटे रहने के बाद मोहित उठा। पास में रखे गिलास से पानी पिया और झुककर जूते खोलने लगा। जॊते खोलने के बाद उसने सन्नों की ओर प्यार भरी निगाहों से देखा। . . . अरे यह क्या. . . सन्नों की सदा महकने वाली मुस्कान को क्या हो गया। आज उसके चेहरे पर यह उदासी कैसी। मोहित ने थोड़ा और सम्हलते हुए सन्नों के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए पूछा – ‘क्या हुआ. . .’
सन्नों कुछ बोल नहीं पाई। मोहित के प्यार भरे स्पर्श ने उसके घावों को पिघला दिया। उतनी देर से रोके गये आँसू अपने पूर्ण आवेग के साथ बह निकले। सन्नों की यह स्थिति मोहित के लिए एकदम नई थी। उसने सन्नों का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। वह कुछ समझ नहीं पाया। शब्दों के अभाव में मोहित ने सन्नों को अपनी बाहों में भर लिया।
मोहित की बाहों में जकड़ी हुई सन्नों न जाने कितनी देर तक रोती-सिसकती रही। जब पूरी तरह से वह हल्की हो गई तो अपने आँसू पोंछती हुई मोहित की बाहों से निकलकर उसकी आँखों के सामने आई।
‘. . . क्या हुआ. . .’ मोहित ने हल्के स्वर में उससे पूछ ही लिया।
कुछ पल और अपने आपको सम्हालने के बाद सन्नों ने आज की पूरी घटना मोहित को सुना डाली। मारे आक्रोश के लाल हो उठा मोहित का चेहरा।उसके शरीर में इतना गुस्सा समा गया कि वह काँपने लगा। मोहित के दिमाग ने एकदम से काम करना छोड़ दिया। काफी देर उसे समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिये तो उसने सन्नों का हाथ पकड़ा और बोला – ‘चलो. . . अभी चलो . . .’
सन्नों ने आँखो के इशारे से जानना चाहा कि कहाँ चलें।
‘. . . चलो प्रदीप के घर चलो. . . उसके साले की तो माका. . .’ कहते-कहते मोहित का चेहरा और भी ज्यादा क्रूर हो उठा।
सन्नों ने मोहित का यह रूप इससे पहले कभी नहीं देखा था। गुस्से से लाल और तमतमाते हुए चेहरे के साथ मोहित सन्नों का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया।
मकान वाली आँटी ने मोहित को सन्नों का हाथ पकड़े हुए इस तरह से कमरे से बाहर निकलते हुए देखा तो वह समझ गई कि कुछ बड़ी बात हो गई है, नहीं तो मोहित जैसा अच्छा लड़का एकायक इतने गुस्से में कैसे आ गया। आँटी ने जाते हुए मोहित से पूछ ही लिया – ‘. . . क्या हुआ बेटा. . .’
‘. . . कुछ नहीं आँटी. . . अभी आता हूँ. . . कहते हुए वह मुख्य दरवाजे से बाहर निकल गया। अपनी जिज्ञासा शाँत हुई न जानकर आँटी भी उसके पीछे-पीछे हो लीं।
***
सन्नों का हाथ पकड़े हुए ही मोहित एक बड़ी हवेलीनुमा मकान में पहुँचा। उसके चेहरे का तापमान और भी अधिक प्रबल हो चुका था। अपने अंदर की संपूर्ण उर्जा को एकत्रित करते हुए वह चीख पड़ा – ‘. . . प्रदीपऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ. . . .’
थर्रा उठी-सी हवेली के समस्त जीव-जन्तु एकबारगी काँप गये। मोहित के स्वर की गूँज समाप्त होते न होते हवेली से कई चेहरे उसके सामने आ खड़े हुए। उसने अपने सामने वाले चेहरे पर क्रूरता से आँखें गड़ाईं और सन्नों का हाथ छोड़ते हुए उसकी ओर बढ़ गया।
सामनेवालेचेहरेकेएकदमसामनेआकरमोहितकीआँखोंनेउसेएकबारगीजलतेहुएनिहाराऔरअगलेहीपलसामनेवालेकाचेहराएकदमसेलालपड़गया।इससे पहले कि सामने वाले की ओर से कोई प्रतिक्रिया आती मोहित उस पर बरश पड़ा – ‘. . . तुझे साले हर बात की बड़ी जल्दी रहती है. . . सारा बना-बनाया काम बिगाड़ने पर तुला रहता है. . . जब मैंने कहा था कि इसको मैं अपने तरीके से करता हूँ तो . . .’
मोहित थोड़ा रुका और मुस्कुराते हुए प्रदीप के गले में हाथ डालते हुए आगे बोला – ‘. . . अब नहीं रुका जाता तो कर ही ले. . . अब तो यह बुलबुल जाल में फँस ही गई है. . .’
सन्नों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसके सामने यह हो क्या रहा है। अभी दो पल पहले की स्थिति अचानक बदल कैसे गई। और. . . और यह मोहित को एकायक क्या हो गया है. . . सन्नों के सामने काले बादलों का तांडव होने लगा। उसकी आँखों के सामने घिर आये अँधेरे में तमाम अस्पष्ट चेहरे मँड़राने लगे। ऐसा लगने लगा उसे कि जैसे वह कोई हॉरर फिल्म के सेट पर खड़ी हो और उसके इर्द-गिर्द तमाम डरावनी आकृतियाँ घूम-घूम कर अट्टहास कर रही हों। इन सबका अस्पष्ट स्वर सन्नों को लगातार जड़ता में परिवर्तित किये जा रहा था।
कुछ देर की इस अस्पष्टता के बाद सन्नों को मोहित का धुँधला-सा चेहरा अपने सामने नजर आया और अगले ही पल उससे जुड़ी अनगिनत स्मृतियाँ उसके मस्तिष्क में साकार हो उठीं।मोहित और उसके दोस्तों द्वारा खोले गये रहस्य ने सन्नों के देखे गये समस्त स्वप्नों को रेत के महल के समान ढहाना आरम्भ कर दिया।
तमाम सारे राक्षसों के बीच खड़ी सन्नों संज्ञा-शून्यता की स्थिति में जा चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद वह अपने चारों ओर पनप रहे भयावह दृष्य को भी महसूस कर रही थी।
मोहित, प्रदीप, आंटी और उनका पूरा ग्रुप सन्नों के अश्लील वीडियों को फिल्माते हुए मोबाइलों को अपने हाथों में लहराते हुए उसके चक्कर लगाने लगे। उनके अट्टहास से हवेली थर्रा उठी और साथ ही मरे हुए गोस्त को नोचने वाले गिद्धों के समान उन सबने सन्नों के शरीर को नोचना आरम्भ किया और करते ही गये। सन्नों ने अपने आपको नि:सहाय पाकर अपने शरीर को उनके हवाले कर दिया। उसके दिमाग में बस एक ही पंक्ति गूँजने लगी – ‘अम्मा-बाबू जी के विश्वास को तोड़ने का परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।’
एक ओर भेड़िये उसके शरीर को नृशंसता से नोच रहे थे तो दूसरी ओर अपने शरीर से बेखबर सन्नों के दिमाग में ‘अम्मा-बाबू जी’ के प्यार से जुड़ी तमाम स्मृतियाँ कई-कई बिंबों में नोचे जा रहे शरीर की पीड़ा ने निजात दिला रही थीं।सन्नों की स्थिति अब निस्प्राण हो चुकी थी।
***
सन्नों ने अब परिस्थितियों से ताल-मेल बिठा लिया था। अब वह मोहित की रानी गृहणी सन्नों से ‘कॉलगर्ल सन्नों’ बन चुकी थी। उसका शरीर अब मोहित की नौकरी का मुख्य आधार हो गया था। उस पर चारो ओर से पैसों की बरशात होने लगी। मोहित अब सन्नों के हृदय-सम्राट से प्रसिद्ध ‘कॉलगर्ल डीलर’ में बदल चुका था। शहर का हर रईस सन्नों का दीवाना बन गया था और मोहित सन्नों के उस कमनीय शरीर का सप्लायर।
सन्नों के सपनों के घर के स्थान पर अब एक भव्य हवेली बन गई थी। वह एक घर की मालकिन के स्थान पर उस हवेली की साम्राज्ञी कही जाने लगी। दौलत उसकी गुलाम हो गई। शहर के अमीर और सफेदपोश उसके कदम चाटने लगे। ऐसा लगने लगा उसे जैसे कि वह शहर के सबसे ऊँचे स्थान पर बैठी हो और शहर के लोग उसकी स्तुति में खड़े हों। लेकिन इस सबके बावजूद सन्नों का अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। हर ग्राहक के पास होने से पहले उसका अतीत एकबारगी उसके सामने आकर खड़ा होने लगा। इसके लिए भी उसने एक रास्ता तलाश निकाला। उसने शराब को अपना सबसे बड़ा साथी बना लिया। वह शराब से उतना ही प्रेम करने लगी, जितना कभी मोहित से किया करती थी। अर्थात् सन्नों के प्रेम का आलम्बन अब मोहित के स्थान पर शराब हो गई।
***
सन्नों का यह जीवन अब तकरीबन बीस बरस का हो चुका था। सन्नों अब केवल सन्नों नहीं रह गई थी। अब वह एक ‘पॉर्न स्टार’ कही जाने लगी थी। लोग कुछ पल के लिए उसका साथ पाने को तरशने लगे। उसकी बुलन्दियों ने अच्छे-अच्छे सफेदपोशों को उनके रास्ते से भटका दिया।
आज उसे एक बड़े पार्टी में किसी विदेशी महेमान को खुश करना था। वह रोज की भाँति सजी-सँवरी। अपने यौवन को एक स्थान पर एकत्र करते हुए उसका हाथ करीने से सजी हुई ज्वैलरी को अपने शरीर पर चमकाने लगा। इसी क्रम में उसके हाथ में ज्वैलरी में सबसे पीछे की ओर रखे दो झुमके टकरा गये। झुमकों से बिंधी हुई तमाम स्मृतियाँ सन्नों की आँखों के सामने से गुजरती चली गईं। मन में हुई हलचल ने उसे आइने के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। उसके हाथ एक-एक करके पहनी हुई ज्वैलरी निकालने लगे। और अंत में सामने रखे हुए झुमके अपने कानों में डाल लिए।इससे पहले कि स्मृतियों की आँधी में बह जाती तेजी के साथ अपने कमरे से बाहर निकल आई और पहले से ही तैयार खड़ी अपनी गाड़ी में किसी राजसी ठाठ के साथ होटल की ओर चल निकली।
अपनी विशेष मर्शडीज में जाते हुए सन्नों के अंदर आज कुछ हलचल-सी हो रही थी। बीस साल में आज पहली बार उसने सुबह से अब तक शराब होंठों से नहीं लगाई थी। एक अनजाना-सा डर उसकी हृदय में पनप रहा था।रह-रह कर उसके दिमाग में अम्मा-बाबू जी की पथराई आँखें कौंध-सी पड़ रही थीं। हर कौंध के साथ वह काँप-सी उठती थी। बीस सालों आज पहली बार उसे इस तरह का अनुभव हो रहा था। जब उससे नहीं रहा गया तो अंतत: गाड़ी के किसी कोने से उसने ‘वाइन’ की बोतल निकालकर अपने होंठों से लगा ली और तब तक नहीं हटाई जब तक उसमें से बूँद-बूँद उसके गले में नहीं उतर गई। संवेदनाओं का एक तूफान-सा उठा और अगले ही पल वह शराब के आगोश में समा गया। कुछ हिचकोलों के बाद गाड़ी अपनी सतत गति से चली जा रही थी।
शहर के कई हाइवे और लिंक रोडों को पार करते हुए तकरीबन आधे-पौन घण्टे के बाद गाड़ी एक आलीशान होटल के सामने रुकी। शराब के नशे में डगमगाते हुए पैरों ने जैसे ही जमीन का स्पर्श किया तो रात में बिजली की रोशनी से सजा-सँवरा होटल किसी नवपरणीता दुलहन की भाँति सन्नों को देखकर मुस्कुराया। शराब से बेहद लड़खड़ाते हुए भी सन्नों के दिमाग में एक बिम्ब तैर गया।
अम्मा के सपनों में सन्नों किसी भी प्रकार से इस होटल की सज-धज से कम नहीं थी। उसे होटल के स्थान पर खुद का चेहरा दिखाने लगा। अभी वह दुल्हन के आवेश से निकल भी नहीं पाई थी कि उसकी अगवानी को कुछ लोगों ने उसकी तंद्रा तोड़ दी। सन्नों ने एकबारगी उन पर जलती हुई नजर डाली और बिना कुछ बोले होटल के एक विशेष कमरे की ओर चली गई।
कमरे का दरवाजा उसका ही इंतजार कर रहा था। आहट पाते ही स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछा गया। सामने से उठी दो आकृतियों ने उसका मुस्कुराकर स्वागत किया, लेकिन सन्नों बिना किसी भाव के कमरे में प्रवेश कर आई और उनके सामने से होती हुई अपना गाउन उतारकर सोफे पर पसर गई। आकृतियों ने दरवाजा बंद किया और सन्नों के आस-पास जा चिपके।
बड़ी कोशिश के बावजूद भी आज सन्नों अपने ग्राहकों के साथ एकमेक नहीं हो पा रही थी। ग्राहकों की बड़ी कोशिश के बाद भी जब सन्नों ने उनका साथ नहीं दिया तो एक ने पास ही रखे फोन से किसी पर अपनी सारी झल्लाहट उतारी और नग्न हो चुके शरीर को ढकते हुए कमरे से बाहर निकल गये।
सन्नों का शरीर और मनोमस्तिष्क अलग-थलग पड़े हुए थे। उसे किसी बात की कोई सुध नहीं थी। कमरे में घुसने से लेकर ग्राहकों के असंतुष्ट होकर बाहर जाने और मोहित के अंदर आने तक के बीच क्या हुआ, सन्नों को कुछ भी होश नहीं था। उसके दिमाग में महज एक दुल्हन बसी थी, जिसका चेहरा उसके चेहरे से होड़ लगा रहा था। वह निस्प्राण-सी नग्नावस्था में सोफे पर पड़ी थी।
‘. . . क्या हुआ सन्नों. . . तुम्हारी तबियत खराब है क्या. . .’ शब्द कानों से टकराये और शरीर को तेजी से झकझोरा गया तो उसकी आँखे ऊपर उठीं। सामने मोहित खड़ा हुआ कुछ कह रहा था। मोहित के पीछे उसे कुछ-एक आकृतियाँ और नजर आईं जो उस विदेशी ग्राहक के असंतुष्ट होने पर नाराज हो रही थीं।
मोहित ने उसके कपड़ों को व्यवस्थित किया और हाथों का सहारा देते हुए उसे कमरे से बाहर ले जाने के लिए खड़ा किया।
‘. . . माफ करना यार . . . लगता है आज इसने ज्यादा पी ली है. . . घर ले जाना पड़ेगा. . .’ कहते हुए मोहित उसको लेकर होटल से बाहर निकल आया। मेम साहब को इस अवस्था में देखते हुए ड्राइवर ने दौड़कर गाड़ी का दरवाजा खोला तो एकायक सन्नों ने अपने को सम्हालते हुए अपने आपको मोहित के सहारे से मुक्त किया और ड्राइवर से गाड़ी की चाबी लेते हुए खुद उसकी सीट पर बैठ गई। इससे पहले कि मोहित और ड्राइवर कुछ कह पाते वह गाड़ी को खुद चलाते हुए वहाँ से निकल गई। मोहित और ड्राइवर आश्चर्य और कुतूहल भरी नजरों से उसे निहारते रह गये।
***
सन्नों की गाड़ी नेशनल हाइवे पर तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी। उसके मनोमस्तिष्क में चल रही स्मृतियों का दौर अभी थमा नहीं था। गाड़ी के डैशबोर्ड से शराब की एक छोटी बोतल एकबार फिर उसके हाथ में आ गई थी। उसने मुस्कुराकर हाथ में पकड़ी शराब की बोतल को देखा और अगली ही पल अपनी होठों से लगा लिया।
गाड़ी की गति और तेज हो गई। सामने की ओर से अम्मा का प्रशन्नता और लाड़ से चमचमाता हुआ चेहरा उसके सामने मुस्कुराया – ‘. . . बिटिया तुम बड़ी जिद्दी हो गई हो. . . च्यमनप्राश के इतने सारे डिब्बे रखे हैं . . . कौन खायेगा. . . और खाओगी नहीं तो परीक्षा में पहले नम्बर पर कैसी आओगी. . .’ सन्नों अपना वर्तमान भूलकर अतीत में समा गई। वह एकटक अम्मा का चेहरा निहारने लगी। अचानक एक बड़े झटके के साथ उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।
तेज गति से जा रही गाड़ी और सन्नों का आपसी संबंध टूट गया था। गाड़ी अपने आपको सन्नों की गिरफ्त से महफूज जान रोड की सीमाओं को पार करती हुई डिबाइडर के ऊपर से चढ़कर एक गहरी खाईं में जा गिरी।
***
अपना शरीर हिलता हुआ महसूस करते हुए सन्नों की आँखे खुलीं तो सामने खाखी वर्दी के कई चेहरे स्पष्ट हुए। उसको पकड़े हुए एक चेहरा चिल्लाया – ‘. . . यह अभी जीवित है. . . ’
सन्नों को चिल्लाने वाले चेहरे में अम्मा का कुछ देर पहले वाला अक्श नजर आया। उसके चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। बोली – ‘. . . अम्मा मुझे च्यमनप्रास अच्छा नहीं लगता. . . मुझे यह ना खिलाया करो. . .’ कहते-कहते उसकी आँखों में रात का अंधेरा सदा-सर्वदा के लिए समा गया।
उसके शरीर को पुलिस ने पोस्टमर्टम के लिए अस्पताल भेज दिया और अगले दिन एक खबर अन्य खबरों से कुछ बचते-बचाते हुए एक अखबार के कोने में समा गई – ‘प्रसिद्ध कॉलगर्ल सन्नों की गाड़ी टकराने से मौत’।
चाय के साथ अखबार को चाटते हुए किसी ने खबर पर टिप्पड़ी की – ‘रंडी थी रंडी. . . उसका तो यही अंत होना था।’


जगतपुर
07/05/2015

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पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)