शाहजहाँपुर का रंगमंच : उद्भव और विकास
शाहजहाँपुर
जनपद में रंगमंच का इतिहास लम्बा और सशक्त रहा है। करीब 100 वर्ष से ज्यादा लम्बे ज्ञात रंगकर्म के द्वारा इस नगर ने
अपनी पहचान बनाई है। नाट्य-लेखन से लेकर मंचन की यह परम्परा काफी विस्तृत है। नगर
के रंगमंच का ज्ञात इतिहास 1900 ई. के आस-पास मिलने लगता है। तब से अब तक रंगमंच के क्षेत्र में अनेक
संस्थाएँ और व्यक्तित्व उभरकर सामने आए हैं, जिन्होंने शाहजहाँपुर रंगमंच में निरन्तर नए-नए अध्याय जोडे
हंै।
शाहजहाँपुर
रंगमंच के इस सौ वर्ष लम्बे इतिहास-जिसकी जानकारी हमें श्रोत व्यक्तित्वों ,संस्थाओं, समाचार पत्रों आदि तमाम माध्यमों से मिलती है-को मोटे तौर पर दो प्रमुख भागों
में विभाजित किया जा सकता है-
(1.) प्राचीन रंगमंच (1900 ई. के आस-पास से 1980 ई. तक)
(2.) आधुनिक रंगमंच (1980 ई. से आज तक)
प्राचीन
रंगमंच के नाटक अधिकांशतः धार्मिक और ऐतिहासिक होते थे, जिन पर पारसी रंगमंच और नौटंकी शैली का पूरा-पूरा प्रभाव
था। वहीं ‘आधुनिक रंगमंच’ समाज की अनेकानेक समस्याओं से जुड़ा। उस पर पाश्चात्य नाट्य-शैली का प्रभाव भी
पड़ा। उसने काफी हद तक प्राचीन रंगमंच की रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ा। आधुनिक
रंगमंच ने अधिकांशतः सामाजिक बुराइयों पर दृष्टिपात करने वाले नाटकों का ही मंचन
किया।
प्राचीन
एवं आधुनिक रंगमंच के इतिहास का पृथक-पृथक विवेचन निम्नवत् है-
1.प्राचीन रंगमंच (1900 ई. के आस-पास से 1980 ई. तक):-प्राचीन रंगमंच को भी सरलता के लिए दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(क.) धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक नाट्य-धारा
(ख.) रामलीला
पहली धारा में
अधिकांशतः धार्मिक, ऐतिहासिक नाटक
जैसे-श्रीकृष्ण जन्म, राजा
हरिश्चन्द्र,
वीर अभिमन्यु, शिव-पार्वती, अमरसिंह राठौर,
द्रोपदी चीर हरण, कृष्ण-सुदामा, सूरदास आदि
होते थे। इन नाटकों पर स्पष्टतः नौटंकी और पारसी रंगमंच का प्रभाव नजर आता है।
दूसरी धारा थी ‘नगर की रामलीला’ की,
जिसमें नगर और कभी-कभार बाहरी संस्थाएँ आकर पूरी धार्मिक
शृद्धा और कलात्मकता से रामलीला मंचित करती थीं।
प्रथम
धारा को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है -
(क.) धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक नाट्य धारा-1 (आरम्भ से सन् 1955 तक)
(ख.) धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक नाट्य धारा-2 (सन् 1955 से 1980 तक)
धार्मिक,
पौराणिक एवं ऐतिहासिक नाट्य धारा-1ः-सन् 1900 ई. के आस-पास नगर का रंगमंच अपने प्राचीन रूप में सक्रिय था। सबसे पहले
शाहजहाँपुर रंगमंच की जानकारी जिस रूप में मिलती है वह है ‘हनुमत परिषद’ नामक संस्था, जिसकी स्थापना
वर्ष 1918-19 के आस-पास हुई थी। इसके संस्थापकों में दयाशंकर मिश्र,
विश्वम्भरनारायण मिश्र, जयगोपाल रस्तोगी, मथुराप्रसाद रस्तोगी, गंगाप्रसाद रस्तोगी आदि शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, जो अच्छे रंगकर्मी भी थे। संस्था के संरक्षक उस समय पुवायाँ
नरेश फतेहसिंह थे।
आरम्भ
में संस्था द्वारा ‘धनुष यज्ञ’
का ही मंचन होता था। यह लोग 6 दिनों तक नाटक खेलते थे, जिसका पूर्वाभ्यास वर्ष भर चलता रहता था। इन 6 दिनो में प्रथम 3 दिन रामायण का मंचन होता था और बाद के 3 दिनों में अन्य धार्मिक और ऐतिहासिक नाटकों का मंचन हुआ
करता था। रामायण के मंचन में मुख्य रूप से ‘विश्वामित्र आगमन’, ‘पुष्प वाटिका’, ‘धनुष
यज्ञ’, आदि दृश्यों
का मंचन प्रमुख था। अन्य नाटकों में भक्त प्रहलाद, भक्त ध्रुव, राजा हरिश्चन्द्र, सिकन्दर और
पौरस,
सुल्ताना डाकू, उड़ीसा का नवाब, चन्द्रगुप्त
मौर्य,
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, महाराणाप्रताप, हमीर हठ,
छत्रपति शिवाजी, राजा मोरध्वज आदि प्रमुख नाटक हुआ करते थे।
यह सभी
नाटक अधिकांशतः ‘मूलचन्द की
बगिया’
में खेले जाते थे। नाटक रात में नौ बजे आरम्भ होकर सुबह तक
चलते थे। नाटक खेलने के लिए मंच तथा पर्दे आदि संस्था के कलाकार ही बनाते थे। मंच
पर दृश्य बदलने के लिए कई एक पर्दो की व्यवस्था होती थी। पर्दे पेन्ट करने वालों
में रामेश्वर दयाल मिश्र तथा विश्वम्भरदत्त प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त वाद्य
यन्त्रों में हारमोनियम पर घुरई मास्टर, तबला पर शिराजुद्दीन मास्टर, बाद में बच्चन भी तबला मास्टर रहे, वायलिन पर वीरू बाबू आदि प्रमुख कलाकार होते थे।
इस समय
मंच पर स्त्री पात्रों का आगमन बिलकुल नहीं हुआ था, अतः स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुष ही किया करते थे।
संस्था के नाटकों में काम करने आने वाले नए पात्रों को सबसे पहले स्त्री पात्रों
की भूमिकाएँ ही करनी पड़ती थीं। इसका एक कारण उन पात्रों की झिझक दूर करना भी था।
इस समय स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने वाले प्रमुख कलाकारों में बलभद्र,
बद्रीप्रसाद, रमेशबाबू,
बाबूलाल, मोहम्मद अली (विशेष रूप से कानपुर से आमंत्रित किए जाते थे),
रामस्वरूप आदि थे। ये लोग नृत्यादि नृत्यांगनाओं से सीखते
थे। इसके अतिरिक्त हास्य कलाकारों में जगदीश प्रसाद सक्सेना घडी साज प्रमुख थे।
कुछ
समय बाद संस्था की एक नई कार्यकारिणी भी बनाई गई थी, जिसके अध्यक्ष बने त्रिवेणी सहाय सक्सेना और सदस्यों में
डाॅ. सेन,
डाॅ. चिन्ताहरण बनर्जी, गोपाली बाबू एडवोकेट, जयगोपाल रस्तोगी, वीरू बाबू बनर्जी, दयाशंकर मिश्र,
मुरारी बाबू, मायाराम मारवाणी, लाला नंगू लाल
(नानकचन्द कपूर), नानकचन्द
शुक्ला,
शालिग्राम शास्त्री, वैद्य बाबूराम गुप्ता, रामेश्वर दयाल मिश्रा, जगत नारायण खन्ना, रामश्वरूप अग्रवाल, हरिकिशन तिवारी आदि शहर के प्रमुख व्यक्तित्व थे।
इस तरह
से संस्था सन् 1936-37 तक सुचारु रूप से चलती रही, किंतु इसके पश्चात् इसमें धीरे-धीरे विराम आने लगा और 17-18 वर्षो से चल रही ‘हनुमत परिषद’ सन् 1940-45 तक आते-आते पूर्णतया बिखर गई।
लेकिन
सन् 1934-35 के आस-पास दो संस्थाएँ विशेष रूप से सामने आ चुकी थीं-पहली
‘कृष्णा क्लब’ तथा दूसरी ‘रामा क्लब’।
‘कृष्णा क्लब’ की स्थापना की थी श्यामनाथ मेहरोत्रा ने तथा सहायकों में इकबाल बहादुर,
जगदम्बा सहाय तथा रिजबी आदि थे।
चूँकि
वह समय ही पारसी शैली के प्रभुत्व का था, अतः इस संस्था द्वारा भी वैसे ही नाटक खेले जाते थे। ‘सिकन्दर और पौरस’ इस संस्था का प्रमुख नाटक था, जिसे बडी सफलता मिली थी। ‘सिकन्दर’
की भूमिका में वीरेन्द्र कुमार बनर्जी तथा ‘पारस’ की भूमिका में जयगोपाल को खूब सराहा गया था। इस संस्था द्वारा जगदम्बा प्रसाद
द्वारा लिखे नाटक भी खेले जाते थे। श्यामनाथ मेहरोत्रा तथा रिजवी संस्था के मुख्य
पेन्टर हुआ करते थे। उस समय पेन्टरों का विशेष महत्व होता था,
इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘रामा‘ एवं ‘कृष्णा ड्रामेटिकल क्लबों’ में पर्दो को लेकर खूब प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी। नाटकों को
लेकर ‘कृष्णा क्लब ’ की प्रतिष्पर्धा ‘हनुमत परिषद’
से भी खूब हुआ करती थी। ‘राजा हरिश्चन्द्र’ नाटक के मंचन के बाद से इस संस्था ने भी विराम ले लिया।
‘रामा क्लब’-जो ‘कृष्णा क्लब’ की समकालीन संस्था थी-की स्थापना डाॅ. रामसिंह सेठ, जगमोहनलाल श्रीवास्तव, महादेव प्रसाद आदि ने मिलकर की थी, जिसके संरक्षक कैलाश बाबू श्रीवास्तव एवं निर्देशक थे
महादेप्रसाद शर्मा। इनके निर्देशन में हम्मीर हठ, चन्द्रगुप्त, गरीब की दुनिया, विधवा,
दानवीर कर्ण, आदि नाटक बड़े ही सफल रहे।
‘रामा क्लब’ के समानान्तर एक संस्था और थी ‘शंकर ड्रामेटिक क्लब’, जिसके संस्थापक थे-जयगोपाल सक्सेना। कुछ समय तक पृथक-पृथक कार्य करने के बाद
इन दोनों संस्थाओं का आपस में विलय हो गया और नया नाम पड़ा ‘रामाशंकर ड्रामेटिक क्लब’। इसके संरक्षक जुगुलकिशोर सेठ और संस्थापकों में डाॅ. सेठ,
कैलाश नारायण, विश्वनाथ,
डाॅ. मलिक, शिवशंकर वर्मा तथा एन.एस. मस्त का नाम प्रमुखतः से लिया जा सकता है। पं.
गयाप्रसाद,
रामदास भट्ट, ओंकारनाथ खन्ना उर्फ ओम बाबू, रघुनन्दन प्रसाद शर्मा, राधेश्याम श्रीवास्तव, रघुवंश नारायण, माताप्रसाद,
पूरनलाल यादव, महेश सक्सेना आदि प्रमुख रंगकर्मी थे।
‘रामाशंकर ड्रामेटिक क्लब’ के अतिरिक्त कुछ और भी संस्थाएं शाहजहाँपुर रंगमंच को गति
प्रदान कर रही थीं। सन् 1935-40 के आस-पास एक संस्था ‘यंगमैन ड्रामेटिक क्लब’ थी। इसके प्रमुख रंगकर्मियों में डाॅ.जयगोपाल, पं. भाई लाल, बाबूराम तिवारी तथा बाबूराम रस्तोगी का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है।
इसके साथ ही शहर में ‘मुस्लिम क्लब’
भी सक्रिय था, जिसके द्वारा लैला मजनूँ, सीरी फरहाद,
दास्ताने हातिमताई जैसे नाटक खेले जाते थे। इस प्रकार के
नाटक लोगों द्वारा खूब सराहे जाते थे।
इसी
समय ‘अशोक ड्रामेटिक क्लब’-जिसके संस्थापक रघुनन्दन प्रसाद थे-भी शाहजहाँपुर रंगमंच की
जड़ों को सींच रहा था। सन् 1950 के आस-पास श्री देवीप्रसाद वर्मा ने ‘तुलसी सत्संग’ अथवा ‘तुलसी ड्रामेटिक क्लब’ की भी स्थापना की थी। इनके साथ ही एक ‘नन्दन क्लब’ भी हुआ करता था, जिसका विलय
आगे चलकर ‘रामा क्लब’ मे ही हो गया।
इस
प्रकार वर्ष 1920 से 1950-55 तक करीब एक दर्जन नाट्य संस्थाएं शाहजहाँपुर रंगमंच पर सक्रिय थीं,
लेकिन उनमें मुख्य रूप से दो संस्थाएं-‘हनुमत परिषद’ एवं ‘रामाशंकर ड्रामेटिक क्लब’-ही अधिक प्रकाश में थीं।
जिस समय यह संस्थाएँ अपने नाट्य-मंचनों की धूम
शहर तथा आस-पास के क्षेत्रों में मचाए हुए थीं उसी समय ‘एलफर्ड कम्पनी’ नामक एक व्यवसायिक नाट्य संस्था भी यहां पर अपने नाटक खेलने आई थी। कम्पनी
यहां के नाट्य-मंचनो से इतना प्रभावित हुई कि यहाँ के रंगकर्मियों को अपने साथ चलने
का न्यौता दिया,
पर इसके लिए यहाँ के रंगकर्मी तैयार नहीं हुए क्योंकि
अधिकतर रंगकर्मी सम्पन्न परिवारों से थे और केवल मनोरंजन के लिए रंगकर्म से जुड़े
थे।
उस समय समाज में रंगमंच का क्या प्रभाव था,
इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ‘अलफर्ड कम्पनी’ का टिकट 10 रुपए का होता था। इस पर भी खचाखच भीड़ होती थी। इस कम्पनी
का पड़ाव मंडी में पड़ता था। यह कम्पनी अपने नाटकों में टेक्निकल प्रयोगों के तहत
परियों का उड़ना आदि आकर्षक दृश्यों का समायोजन भी करती थी।
सन् 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो गया,
जो सन् 1945 तक चला। इस दौरान शहर में विश्व युद्ध के लिए चंदा एकत्र करने के लिए मुम्बई
के प्रसिद्ध रंगकर्मी पृथ्वीराज कपूर अपनी संस्था ‘पृथ्वी थियेटर’ के कलाकारों के साथ आए। उन्होंने शहर के मैजिस्टिक सिनेमा हाल मे पाँच नाटक
किए। इनमें बटवारे की पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक ‘दीवार’ तथा ‘पठान’ को बड़ी ख्याति मिंली। इसके अतिरिक्त ‘गद्दार’, ‘आहुति’
तथा ‘शिवाजी’
को खूब सराहा गया।
पृथ्वीराज
कपूर उस समय रंगमंच की एक ऐसी शख़्सियत थे, जिनके नाम से रंगमंच की पहचान होती थी। उन्होंने यहाँ के
रंगकर्मियों को अपने साथ चलने को कहा लेकिन यहाँ के रंगकर्मी इसके लिए सहमत नहीं
हुए।
इस
परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो शाहजहाँपुर का रंगमंच आरम्भ से ही बुलन्दियों का ताज
अपने सिर पर रखे हुए था।
धार्मिक,
पौराणिक एवं ऐतिहासिक नाट्य धारा-2:-सन् 1955 के बाद से शाहजहाँपुर रंगमंच में एक परिवर्तन होना आरम्भ हो गया। यहाँ से
धार्मिक एवं ऐतिहासिक नाटकों के साथ-साथ सामाजिक नाटकों का मंचन भी आरम्भ हो गया।
एक बात जो महत्वपूर्ण थी वह यह कि यहाँ से नाटकों ने आधुनिक जामा पहनना आरम्भ कर
दिया और पारसी रंगमंच तथा नौटंकी शैली का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता चला गया।
सन् 1914 में यहाँ ‘आर्डनेन्स क्लोदिंग फैक्ट्री’ की स्थापना हुई, जिसने देश के
सैनिकों को वर्दियाँ तथा शाहजहाँपुर के निवासियों को बड़ी मात्रा में रोजगार मुहैया
करवाया। फैक्ट्री के अनेक उत्साही लोग शाहजहाँपुर रंगमंच की तमाम
संस्थाओं-रामाशंकर, कृष्णा,
हनुमत परिषद आदि-से जुडे़ थे। इन संस्थाओं के नाट्य-मंचनों
से प्रभावित होकर फैक्ट्री के लोगों ने अपनी एक नई संस्था गठित करने का निर्णय
लिया और सन् 1950-55 के आस-पास भगवती सहाय ने ‘आड्रीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ की स्थापना की। इस संस्था का संरक्षक एस. एन. गुप्ता और
निर्देशक निरंकार सहाय मस्त को बनाया गया। इसके अतिरिक्त रघुवंश नारायण श्रीवास्तव,
बाबूराम तिवारी, पूरनलाल यादव, अज़हर,
सिराजुद्दीन, एस.एम.जौहरी, आर.के.श्रीवास्तव,
एस.एन.प्रसाद, आर.पी.सक्सेना, मो.सिद्दीक,
जे.पी.दीक्षित, नन्हें खाँ,
फज़ल आदि प्रमुख रंगकर्मी थे। यह क्लब फैक्ट्री स्टेट के
दायरे में ही अपने मंचन किया करता था। रामपुर के नवाब नाटकों के शौकीन थे। उनके
पास नाट्योपयोगी बहुत-सा सामान था। इस क्लब द्वारा वहाँ से पर्दे आदि बहुत-सा
सामान खरीदा गया। इस समय जहाँ ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ की नाट्य गतिविधियाँ फैक्ट्री स्टेट तक ही सीमित थीं, वहीं ‘यंगमैन ड्रामेटिक क्लब’ तथा ‘तुलसी क्लब’ आदि संस्थाएँ पूरे शहर में सक्रिय थीं। सन् 1961 में ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ के संस्थापक श्री भगवती सहाय फैक्ट्री से सेवामुक्त हो गए और इसी के साथ इस
क्लब में भी विराम लग गया।
उन
दिनों ‘आर्डीनेन्स क्लब’ तथा ‘तुलसी क्लब’ पाँच दिनों का उत्सव मनाया करते थे। ‘कृष्णा’ एवं ‘रामा’ क्लब भी तीन दिन का उत्सव मनाया करते थे। इस उत्सव में अनेक धार्मिक एवं
ऐतिहासिक नाटकों का मंचन होता था।
इस समय
तक जो नाटक हुआ करते थे उनके पूर्वाभ्यास के लिए कोई स्थान निश्चित नहीं होता था।
इसके लिए किसी का घर ही चुना जाता था। इन नाटकों के मंचन के लिए शहर के सेठ लोग
खूब मदद किया करते थे। इन्हीं परिस्थितियों में ‘कृष्णा क्लब’ द्वारा ‘पद्मिनी’ नाटक का मंचन हुआ। इसमें पद्मिनी की भूमिका को इदरीस ने यादगार बना दिया तो
बैजनाथ मेहरोत्रा उर्फ बैजू बाबू, गोपाली बाबू, मटरूलाल आदि
ने अपने हास्य अभिनय को दर्शको के मस्तिष्क में अंकित कर दिया।
इन
क्लबों द्वारा खेले गए नाटकों में देश गंगा, पृथ्वीराज की आँखें, भक्त पूरनमल, प्रेम का मूल्य, सम्राट
चन्द्रगुप्त,
विमाता उर्फ पन्नादाई, महारानी दुर्गावती, मशर की हूर, चन्द्रमुखी,
खम्बात की हूर, जयद्रथ वध,
दानवीर कर्ण, कृृष्णार्जुन युद्ध, पृथ्वीराज चैहान, बंदा बैरागी,
सुल्ताना डाकू, सिकन्दर और पोरस, गरीब की
दुनिया,
यहूदी की लड़की, छाया,
भक्त सूरदास, अमरसिंह राठौर, औरत का दिल,
सम्राट अशोक, हमीर हठ,
छत्रसाल, परशुराम,
शिव-पार्वती, वीर दुर्गादास, किसान,
पैसा, गद्दार,
आहुति, सत्यवान-सावित्री, अंगूर,
श्रीमती मंजरी, रानी पद्मिनी आदि प्रमुुख नाटक होते थे।
इस समय
एक नाट्य संस्था ‘गोशाला ड्रामेटिक
क्लब’
भी सक्रिय थी। इसके संस्थापक गनेशी लाल तथा रघुवरदयाल थे।
यह संस्था शाहजहाँपुर रंगमंच पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ सकी।
सन् 1965 में आर्डीनेन्स क्लोदिंग फैक्ट्री की गोल्डन जुबली मनाई
गई। इस अवसर पर फैक्ट्री के रंगकर्मिर्यो ने 5 नाटकों का मंचन किया। नाटक थे-वीर अभिमन्यु,
हम्मीर हठ, दुर्गादास राठौर, शिव-पार्वती
तथा छीन लो रोटी। इन नाटकों की अपार सफलता से उत्साहित होकर रंगकर्मियों ने ‘रामलीला’ खेलने की योजना बनाई। फैक्ट्री मन्दिर में मीटिंग करके तत्कालीन महाप्रबन्धक
श्री सुरेन्द्रनाथ गुप्ता से अनुमति प्राप्त की और अगले ही वर्ष अर्थात 16 अक्टूबर 1966 से फैक्ट्री स्टेट रामलीला का आरम्भ हो गया। साथ ही सन् 1967 से ‘रामलीला’
के साथ-साथ प्रदर्शनी का आयोजन भी किया जाने लगा। इसके कुछ
समय बाद रामलीला मंचन में विराम आया जिसको बाहरी कम्पनियों ने पूरा किया लेकिन
वर्षो के व्यवधान के बाद ‘आड्रीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ फिर से सक्रिय हो गया।
सन् 1965 में शाहजहाँपुर रंगमंच में आधुनिकता का नया अंकुर संस्था ‘जयनाट्यम’ के माध्यम से प्रस्फुटित हुआ। जिस समय फैक्ट्री अपनी ‘गोल्डन जुबली’ मना रही थी (1966), उसी
समय फैक्ट्री के ही कुछ रंगकर्मियों-पी.के.मुखर्जी, आनन्द सक्सेना, एल.एन.शर्मा आदि-ने ‘जयनाट्यम’
संस्था का गठन किया। इस संस्था के गठन का प्रमुख कारण
था-गोल्डन जुबली के अवसर पर मंचित नाटकों में प्रमुख रंगकर्मियों को उचित स्थान न
देना। वर्तमान के सभी रंगकर्मी पहले-पहल इसी संस्था से जुड़े थे। बालकिशन,
सुशील शर्मा, चन्द्रमोहन महेन्द्रू, महेश सक्सेना, असद उल्ला खाँ,
एल.के.शर्मा, दर्शन कुमार, जीवनलाल,
रामचन्द्र श्रीवास्तव आदि इस समय के प्रमुख रंगकर्मी थे। इस
संस्था के महत्व पर प्रकाश डालते हुए नाटक ‘इन्तकाम’ की स्मारिका में नाट्यकर्मी श्री अशोक बेढ़व कहते हैं कि ‘‘जिस तरह के नाटकों का प्रचलन आज शाहजहाँपुर में है उसका
प्रथम श्रेय ‘जयनाट्यम’ को प्राप्त है, वर्ना इससे
पहले नाटकों में अश्लील डांस, फूहड़ काॅमेडी, द्विअर्थी
संवाद और न जाने क्या-क्या होता था।’’
‘जयनाट्यम’ संस्था द्वारा जो नाटक सबसे पहले हुआ वह था जगदीश वर्मा कृत ‘पुजारी’। इसके बाद संस्था द्वारा जमाना, फैसला,
अण्डर सेक्रेटरी, रक्तरेखा आदि नाटकों का मंचन हुआ। ‘नेफा की एक शाम’ इस संस्था का
सबसे प्रसिद्ध नाटक था। सन् 1986-87 तक आते-आते इस संस्था में भी विराम आ गया।
‘जयनाट्यम’ संस्था शाहजहाँपुर रंगमंच में आधुनिकता का समावेश करने वाली पहली संस्था थी,
जिसने आगे आने वाली संस्थाओं के चिंतन में कुछ परिवर्तन
करने का प्रयास किया।
जिस
समय ‘जयनाट्यम’ में विराम आया उसी के आस-पास (1969) दो नवीन संस्थाएँ प्रकाश में आईं-‘नवबिन्दु’
तथा ‘युगान्तर सांस्कृतिक परिषद’। प्रथम के संस्थापक प्रतापनारायण कंचन एवं सचिव थे चुन्नीलाल,
जिन्होंने ‘रामा ड्रामेटिक क्लब’ द्वारा मंचित नाटकों में भी अभिनय किया था। दूसरी संस्था के संस्थापक थे अशोक
बेढव एवं अध्यक्ष थे सतीश चन्द्र सक्सेना।
‘नवबिन्दु नाट्य परिषद’ द्वारा वही पुराने पारसी टाइप नाटक ही मंचित किए जाते थे।
इन्साफ,
वीर अभिमन्यु, श्रीमती मंजरी, सिकन्दर और
पोरस,
अमर सिंह राठौर आदि इस संस्था द्वारा मंचित प्रमुख नाटक थे।
चूँकि शाहजहाँपुर रंगमंच ने इस समय तक पूरी तरह से आधुनिकता का जामा पहनना आरम्भ
कर दिया था,
अतः कुछ समय पश्चात् संस्था में विराम आ गया। ‘नवबिन्दु’ से थोड़ा पहले अर्थात् सन् 1964 के आस-पास ही एक और संस्था ‘नवरंग ड्रामेटिक क्लब’ का उदय हुआ। इसके संस्थापक थे रामविलास गुप्ता और प्रमुख रंगकर्मियों में
मुनीम जी,
महेश सक्सेना, राधेश्याम सक्सेना, रामचन्द्र देवल, राधेश्याम
उर्फ राधे उस्ताद, श्रीकृष्ण
गुप्ता,
प्रताप सिंह आदि का नाम लिया जा सकता है। यह संस्था भी 1969 तक आते-आते चुक गई।
‘जयनाट्यम’ के बाद अगर कोई संस्था का विशेष प्रभाव सन् 1980 के पहले दिखाई दिया तो वह थी ‘युगान्तर सांस्कृतिक परिषद’। इसके उदय की चर्चा इससे पूर्व की जा चुकी है। 1969 में उदय के समय ‘‘इस संस्था का प्रारम्भिक उद्देश्य नन्हें-मुन्ने बच्चों में वक्तव्य कला का
विकास करना था। ... इसलिए इसका प्रारम्भिक नाम ‘युगान्तर बाल सेना’ रखा गया।’’ धीरे-धीरे संस्था का स्वरूप बदला और इसका नाम ‘युगान्तर सांस्कृतिक परिषद’ हो गया। इस संस्था द्वारा पारसी प्रभाव से मुक्त नाटकों से
लेकर आधुनिक नाटकों तक का मंचन किया गया। संस्था द्वारा मंचित प्रमुख नाटक आधुनिक
परिवेश के ही थे, जो सन् 1990 के बाद प्रकाश में आए। इन नाटकों ने अखिल भारतीय स्तर पर
अपनी पहचान बनाई।
इन्हीं
गतिविधियों के बीच सन् 1979 में अरविन्द कुमार हसरत द्वारा ‘चित्रांशी सांस्कृतिक परिषद’ की स्थापना की गई। इस संस्था ने नाट्य-मंचन के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों
पर भी ध्यान दिया। संस्था का नवीन प्रयोग कठपुतली नाटकों का मंचन था।
इस
प्रकार अगर शाहजहाँपुर में रंगमंच के आरम्भ से लेकर सन् 1980 तक की गतिविधियों पर दृष्टिपात किया जाए तो नजर आता है कि
इस समयान्तराल में करीब डेढ़ दर्जन नाट्य संस्थाएँ सक्रिय रूप से सामने आईं,
जिन्होंने अपनी गतिविधियों द्वारा इस नगर के रंगमंच को दृढता
प्रदान की और एक विशिष्ट पहचान बनाई। अब तक के मंचित लगभग सभी नाटकों पर तत्कालीन
पारसी रंगमंच का पूरा-पूरा प्रभाव था, किन्तु ‘जयनाट्यम’ की स्थापना के साथ ही बदलते हुए समय की आहटें सुनी जा सकती हैं। ‘जयनाट्यम’ ने शाहजहाँपुर रंगमंच को एक नई दिशा, नई गति एवं नया जोश प्रदान किया।
रामलीला:-शाहजहाँपुर
रंगमंच पर रामलीला का अपना एक अलग ही महत्व है। एक ओर जहाँ शहर में अनेकानेक
संस्थाएँ धार्मिक एवं ऐतिहासिक नाटकों का मंचन करती थीं, वहीं दूसरी ओर कुछ संस्थाएं नगर में रामलीला का भव्य आयोजन
करती थीं। शहर में आज भी रामलीला नगर के विभिन्न स्थानों तथा फैक्ट्रीस्टेट में
भव्य रूप से आयोजित की जाती हैं। दोनों स्थानों की रामलीला पर सूक्ष्मता से नजर
डालने के लिए इसको स्थान के आधार पर दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(क.) नगर की रामलीला
(ख.) फैक्ट्री स्टेट की रामलीला
(क.) नगर की रामलीला:-शहर में रामलीला का एक लम्बा इतिहास
रहा है। कई बार बाहरी संस्थाओं ने भी नगर में रामलीला का मंचन किया। नगर में
प्रमुखतः तीन स्थानों पर रामलीला हुआ करती थी और आज भी हो रही है। सर्वप्रथम खिरनी
बाग में होने वाली रामलीला की चर्चा की जा सकती है।
खिरनी
बाग की रामलीला का आरम्भ सन् 1932 ई. के आस-पास से माना जा सकता है। इसकी शुरुआत भोलागंज के कुछ उत्साही तथा
धर्म में आस्था रखने वाले लोगों ने किया था। उस समय इसके संरक्षक श्री जुगुलकिशोर
सेठ तथा मुरारी बाबू खजांची बाग वाले थे।
जब इस
रामलीला का मंचन आरम्भ हुआ तो खुले मैदान में ही इसका मंच तैयार किया जाता था। इस
रामलीला के मंचन के लिए एक कमेटी का गठन किया गया था, जिसमें जुगुलकिशोर सेठ के अतिरिक्त विश्नुप्रसाद गुप्ता,
ओंकारनाथ खन्ना, रामविलास गुप्ता, शिवप्रसाद सेठ,
दामोदरदास कपूर जैसे शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति हुआ करते
थे।
खिरनी
बाग रामलीला के आरम्भिक काल में कमेटी द्वारा शहर में चार जुलूस निकाले जाते थे,
जिसकी झांकी में गणेश स्थापना, शिवविवाह, रामविवाह तथा राजगद्दी की भव्यता देखने योग्य होती थी। इन जुलूसों में से दो
जुलूस रामलीला मैदान से चलकर गोविन्दगंज, बहादुरगंज तथा चैक होते हुए भोलागंज में जाकर समाप्त होते थे। रास्ते में लोग
इन जुलूसों का बड़ा स्वागत करते थे। सेठ लोग इन रंगकर्मियों को सम्मान के साथ-साथ
आर्थिक रूप से काफी मदद करते थे। शहर में जिन-जिन स्थानों से होकर यह जुलूस निकलते
स्त्रियां और बच्चे इन पर फूलों की वर्षा किया करते। इसके अतिरिक्त बाकी के दो
जुलूस भोलागंज से चलकर खिरनी बाग रामलीला मैदान तक आते थे। इस रामलीला को शहर के
सेठ और मारवाड़ी लोगों की आर्थिक मदद और भी सफल बना देती थी। जिस समय इस रामलीला का
आरम्भ हुआ था उस समय तक बाहर से आई हुई संस्थाएँ ही रामलीला किया करती थीं। इन
संस्थाओं में संकटाप्रसाद जी का दल, अनुग्रह जी,
पारसमणि जी, उपेन्द्रपाठक, सत्यनारायण
पाठक तथा दामोदर जी आदि के दल प्रमुख होते थे।
सन् 1964 में रामलीला में ‘नवरंग ड्रामेटिक क्लब’ की स्थापना से एक नया मोड़ आया। इसके संस्थापक श्री रामविलास
गुप्ता और संरक्षक सेठ शिवप्रसाद एवं जुगुलकिशोर तथा कोषाध्यक्ष नन्हूसिंह चैहान
थे। इस संस्था ने रामलीला का मंचन स्वयं करना आरम्भ किया। 1972 में इस क्लब की कार्यकारिणी का पुनर्गठन हुआ,
जिसमें सेठ जुगुलकिशोर एवं शिवप्रसाद गुप्ता को प्रबन्धक और
ओंकारनाथ खन्ना को मंत्री बनाया गया। सन् 1976 में इसकी कार्यकारिणी समिति में एक बार फिर परिवर्तन हुआ।
इस बार सेठ शिवप्रसाद को संरक्षक, विश्नुप्रसाद गुप्ता को अध्यक्ष तथा रामविलास को मंत्री बनाया गया।
अभी तक
खिरनीबाग रामलीला पर बाहरी संस्थाओं का ही प्रभुत्व था, लेकिन सन् 1968 से ‘नवरंग ड्रामेटिक क्लब’ ने रामलीला का कार्य पूर्णतः अपने हाथों में ले लिया। इस
समय इसके निर्देशक श्रीकृष्ण गुप्ता थे, जो मुख सज्जा में अत्यंत निपुण माने जाते थे। महेश सक्सेना,
प्रतापसिंह तथा मदनलाल शर्मा आदि रामलीला के मझे हुए कलाकार
इसी समय इस संस्था से जुड़े थे। सन् 1968 में जब ‘नवरंग ड्रामेटिक क्लब’ ने खिरनी बाग में रामलीला का प्रथम मंचन किया तो उसमें
हीरालाल शुक्ला ने ‘राम’
का, कुलदीप शर्मा ने ‘सीता’
का, श्रीकृष्ण गुप्ता ने ‘दशरथ’
का, मदनलाल ने ‘रावण’ का,
डी.आर.शर्मा ने ‘लक्ष्मण’
का चरित्र अभिनीत किया था। रामचरन उस समय के प्रसिद्ध हास्य
कलाकार थे। श्रीकृष्ण गुप्ता इस रामलीला से पहले करीब दो वर्ष तक ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ की रामलीला में रह चुके थे। वहाँ से कुछ मनमुटाव के चलते आप
नगर की रामलीला में आ गए थे।
उस समय
खिरनीबाग रामलीला का मैदान बड़ा ही भव्य हुआ करता था, जिसमें रामलीला मंचन के साथ-साथ एक बड़ी प्रदर्शनी लगती थी।
खिरनीबाग रामलीला को यह स्थान श्रीमती दुर्गादेवी पत्नी श्री ब्रजकिशोर खन्ना ने 1979 के आस-पास उपलब्द्ध कराया था।
सन् 1968 से सन् 1971 तक ‘नवरंग ड्रामेटिक क्लब’ ने खिरनीबाग रामलीला का मंचन किया। इसके बाद कुछ आपसी
मतभेदों के चलते क्लब के विकास में थोड़ा व्यवधान आ गया। इसलिए एक बार फिर सन् 1972 से 1980 तक बिहार की कम्पनियाँ रामलीला के मंचन के लिए आमंत्रित की गईं। सन् 1981 से 1983 तक फिर से ‘नवरंग’
ने रामलीला का मंचन किया, लेकिन पुनः आपसी मतभेदो के कारण यह संस्था अपनी सक्रियता
कायम न रख सकी और धीरे-धीरे विराम को प्राप्त हुई। इस कारण एक बार फिर से सन् 1984 से 1994 तक बिहार की कम्पनियों ने यहाँ की रामलीला को सम्हाला।
सन् 1995 में ‘नवचेतना’
संस्था का गठन किया गया, जिसके संरक्षक थे-अशोक बाथम तथा रामविलास गुप्ता। इसके
अतिरिक्त महेश सक्सेना अध्यक्ष तथा कृष्णमोहन को कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस
संस्था के प्रमुख रंगकर्मी थे-विकास गुप्ता (राम), नन्दनलाल (लक्ष्मण), अंजू मिश्रा (सीता) तथा अनीता आदि इस संस्था से स्थानीय
कलाकार विशेष रूप से जुड़े और 1995 में इसके रंगकर्मियों ने प्रथमतः रामलीला के मंचन में अपने अभिनय की छाप
छोड़ी।
वर्ष 1996 में किन्हीं कारणों से फिर बिहार की संस्था को बुलाया गया,
जिसने वर्ष 1997-98 में यहाँ रामलीला का मंचन किया। इसके बाद वर्ष 1999 से आज तक ‘नवचेतना ड्रामेटिक क्लब’ के रंगकर्मी ही रामलीला का मंचन करते चले आ रहे हैं।
इस
प्रकार देखा जाए तो नगर की ‘खिरनीबाग रामलीला’ का अपना एक
विस्तृत तथा सुदृढ इतिहास और पृथक पहचान है। आज भी शहर के लोगों द्वारा इसी
रामलीला को अधिक महत्व दिया जाता है।
खिरनीबाग
की रामलीला के अतिरिक्त नगर में कुछ अन्य स्थानों पर भी रामलीला का मंचन किया जाता
है। अजीजगंज,
रौसर कोठी तथा जमुका की रामलीला भी महत्वपूर्ण है।
सन् 1980 में अजीजगंज में रामलीला का आरम्भ श्री भगवान स्वरूप
सक्सेना,
हरिरामगुप्ता, ब्रजेशचन्द्र सक्सेना, सुरेशचन्द्र सक्सेना, रनवीरसिंह चैहान, विश्वम्भरनाथ
पाण्डे आदि द्वारा मिलकर किया गया। यहाँ रामलीला के मंचन के लिए बिहार से
मण्डलियाँ बुलाई जाती हैं। अजीजगंज
रामलीला की वर्तमान कमेटी में सुरेश कुमार खन्ना, वीरेन्द्रपाल सिंह यादव, श्रीकिशन अग्रवाल, डाॅ. भगवानस्वरूप सक्सेना मुख्य संरक्षक ; विजय सक्सेना, सुरेन्द्र गुप्ता, चै. कर्मवीर
सिंह,
मनीष शर्मा, अनूप गुप्ता संरक्षक ; सुशील गुप्ता अध्यक्ष ; आशीष गुप्ता महामंत्री ; नरेश जौहरी कोषाध्यक्ष ; प्रदीप सक्सेना, विनोद वर्मा,
रामलखनसिंह चैहान, अनुराग सिंह चैहान, जितेन्द्र वर्मा जीतू उपाध्यक्ष पद पर हैं।
इसके
अतिरिक्त रौसर कोठी तथा जमुका में भी रामलीला का आयोजन किया जाता है।
(ख.) फैक्ट्री स्टेट की रामलीला:-सन् 1965 में ‘आर्डानेन्स क्लोदिंग फैक्ट्री’ की गोल्डन जुबली मनाई गई। इस अवसर पर फैक्ट्री के रंगकर्मियों ने 5 नाटकों का मंचन किया। नाटक थे-वीर अभिमन्यु,
हम्मीर हठ, दुर्गादास राठौर, शिव-पार्वती
तथा छीन लो रोटी। इन नाटकों की अपार सफलता से उत्साहित होकर रंगकर्मियों ने ‘रामलीला’ खेलने की योजना बनाई। फैक्ट्री मन्दिर में मीटिंग करके तत्कालीन महाप्रबन्धक
श्री सुरेन्द्रनाथ गुप्ता से अनुमति प्राप्त की और अगले ही वर्ष अर्थात् 16 अक्टूबर 1966 से फैक्ट्री स्टेट रामलीला का प्रथम मंचन हुआ, जिसका उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय श्री
सी.वी.गुप्ता ने किया।
उस समय
रामलीला के मंचन के लिए जो चीज सबसे महत्वपूर्ण थी-वह था धन। इसके लिए फैक्ट्री के
हिन्दू-मुस्लिम सभी कर्मचारियों ने 0.50 पैसे का चंदा दिया। उस समय फैक्ट्री में करीब 14000 कर्मचारी कार्यरत थे। धन के बाद दूसरी महत्वपूर्ण चीज
थी-रंगकर्मियों की खोज। इस कार्य को ध्यान में रखते हुए ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ के वरिष्ठ व मंझे हुए रंगकर्मी श्री निरंकार सहाय मस्त को
निर्देशक नियुक्त किया गया। इस प्रकार 1966 में एस.एन.गुप्ता के संरक्षण में फैक्ट्री स्टेट रामलीला का विधिवत आरम्भ
हुआ।
इस
रामलीला के प्रथम मंचन के लिए मंच-निर्माण फैक्ट्री की ओर से कराया गया। कुछ पर्दे
भी फैक्ट्री ने ही बनवाकर पेन्ट करवाए। कुछ पर्दे रामपुर के नवाब से खरीदे गए तथा
कुछ का प्रबन्ध तत्कालीन स्थानीय संस्थाओं से किया गया। मंच-निर्माण का कार्य
रामचन्द्र देवल,
मटरूलाल, लल्लासिंह को ;रूप-सज्जा तथा
वस्त्र-सज्जा का कार्य कृष्णगोपाल शर्मा, बिहारीलाल तथा रामेश्वर को सौंपा गया। इस प्रकार फैक्ट्री स्टेट रामलीला के
प्रथम मंचन में शिवकुमार अवस्थी ने ‘राम’,
गिरीश चन्द्र शुक्ला ने ‘लक्ष्मण’, कुलदीप शर्मा ने ‘सीता’,
राधेश्याम श्रीवास्तव ने ‘कैकेयी’, राजेश सक्सेना ने ‘सुलोचना’,
जगदम्बाप्रसाद ने ‘परशुराम’ तथा ‘रावण’, मैकूलाल ने ‘केवट’,
नरवदा तिवारी ने ‘हनुमान’,
महेश दत्त तिवारी ने ‘विश्वामि़त्र’, शिवाधार मिश्रा ने ‘शंकर’,
विद्याभूषण ने ‘पार्वती’,
जगदीश प्रसाद ने ‘विभीषण’,
राजेश श्रीवास्तव ने ‘कौशल्या’, सरवरलाल ने ‘मन्दोदरी’,
ब्रह्मानन्द ने ‘मकरध्वज’,
ब्रह्मदत्त त्रिपाठी ने ‘साधू’ का चरित्र अभिनीत किया। सेना के बन्दर-भलुओं का रोल रंगकर्मिर्यो तथा
कमेटी-सदस्यो के बच्चों को दिया जाता था।
आगे
चलकर इस रामलीला में और भी प्रसिद्ध रंगकर्मी जुड़ते चले गए,
जिसमें रघुवंश नारायण ने ‘रावण’, महेश सक्सेना ने ‘मेघनाथ’,
नरदेव ने ‘भरत’,
जनार्दन सिंह ने ‘कैकेई’,
महेश्वर दयाल ने ‘अंगद’,
रामेश्वर दयाल ने ‘केवट’ तथा चन्द्रमोहन महेन्द्रू ने ‘रावण’,
‘परशुराम’ तथा ‘दशरथ’ की भूमिकाओं से अपने अभिनय का लोहा मनवाया।
चूँकि
इस समय नगर की रामलीला का जुलूस निकाला जाता था। इसलिए फैक्ट्री स्टेट रामलीला के
रंगकर्मियो ने भी जुलूस निकालने की तैयारी की। इसमें फैक्ट्री प्रशासन,
नगर प्रशासन तथा शहर के सेठ एवं मारवाड़ी लोगों ने बड़ा सहयोग
किया।
फैक्ट्री
रामलीला का सबसे पहला जुलूस वर्ष 1968 में निकला। यह फैक्ट्री स्टेट से होकर जलालनगर, रामनगर तक गया। यह परम्परा वर्ष 1970 तक जारी रही। 1971 में सेठ विशनचन्द के यहाँ से एक जुलूस निकला, 1972-73 में यह जुलूस केवल फैक्ट्र स्टेट तक ही सीमित हो गया और
अंततः 1974 में आकर बन्द हो गया।
रामलीला
कमेटी का चयन हर वर्ष नए रूप में किया जाता था। शायद इसी कारण वर्ष 1990 में फैक्ट्री के तत्कालीन महाप्रबन्धक श्री
ए.एन.भट्टाचार्य ने पूर्व महाप्रबन्धक श्री एस. रामास्वामी की मंचन समिति में
सुधार करते हुए रामलीला मंचन का कार्य ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक एशोसिएशन को सौंप दिया, जिसका वर्ष 1996 में श्री सत्यनारायण जुगनू ने ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब समिति’ के नाम से रजिस्ट्रेशन करवाया और रामलीला के साथ-साथ आधुनिक नाटकों के मंचन की
शुरुआत की।
मस्त
बाबू,
श्रीराम शर्मा, मटरूलाल आदि जब फैक्ट्री से सेवामुक्त हो गए तब इसके निर्देशन का कार्यभार
ओमदेव मिश्रा तथा राधेश्याम श्रीवास्तव के कंधों पर आ गया। इस समय फैक्ट्री स्टेट
रामलीला इतनी बुलन्दी हासिल कर चुकी थी कि कई बार प्रदेश के दूरदर्शन दल ने इसके
मंचन की रिकार्डिंग कर उसका प्रसारण तक किया।
वर्ष 1986-88 में एक बार फिर इस समिति में मतभेद होने के कारण बिहार के
कलाकारों को आमंत्रित किया गया, जिन्होंने दो वर्ष तक यहाँ रामलीला का मंचन किया। वर्ष 1989 से पुनः स्थानीय रंगकर्मियों ने इसे अपने हाथ में ले लिया।
इस
प्रकार ‘फैक्ट्री स्टेट रामलीला’ ने शहर में अपना परचम फैलाया। ‘आर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब समिति’ द्वारा आज भी चार दशकों बाद फैक्ट्री स्टेट रामलीला अपनी
बुलन्दियों पर है। आज रामलीला में एक परिवर्तन यह आया कि पहले जहाँ पुरुष ही
स्त्रियों की भूमिका निभाया करते थे, वहीं अब इसमे स्त्रियाँ भी बढ़-चढ़कर भाग लेनी लगी हैं। दूसरा एक परिवर्तन यह भी
हुआ कि रामलीला में पहले जो स्थान शास्त्रीय संगीत से ओत-प्रोत गानों का हुआ करता
था वह स्थान अब फिल्मी गानों ने ले लिया है।
(2.)आधुनिक रंगमंच (सन् 1980 से वर्तमान समय तक):-सन् 1965 में यद्यपि ‘जयनाट्यम’
संस्था ने शाहजहाँपुर में आधुनिक रंगमंच का सूत्रपात कर
दिया था,
लेकिन उस समय तक प्रभुत्व पुरानी शैली के नाटको का ही था और
जयनाट्म के नाटकों का भी वह स्वरूप नहीं था जो आज है। किन्तु आधुनिक रंगमंच के
विकास के इन प्रयासों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
सन् 1980 के पहले शाहजहाँपुर का रंगमंच ‘रामलीला’ और मनोरंजन प्रधान व रूमानियत भरे नाटकों के दौर से गुजर रहा था। यथार्थ की भूमि
से उसका कोई सरोकार नहीं था। महज मनोरंजन या शृद्धा भाव की तृप्ति ही उनका अह्म
मकसद हुआ करता था। सन् 1980 के बाद कभी-कभार छुट-पुट तरीके से रूमानियत भरे नाटक अवश्य होते रहे और
रामलीला तो आज भी उसी रूप में विद्यमान है, लेकिन इस काल में सामाजिकता की भावना से ओत-प्रोत
यथार्थवादी साहित्यिक नाटको का वर्चस्व पूरे वेग के साथ सामने आने लगा था।
शाहजहाँपुर
में जिस संस्था को ‘आधुनिक रंगमंच’
की विधिवत शुरुआत करने का श्रेय जाता है वह है-‘अनामिका’। अनामिका की स्थापना सन् 1966 में शहर के वरिष्ठ साहित्यिक लोगों ने प्रमुखतः एक साहित्यिक संस्था के रूप
में की थी। उस समय शाहजहाँपुर के लगभग सभी साहित्यकार और रंगकर्मी इससे जुड़े थे।
श्री हृदयनारायण मेहरोत्रा ‘हृदयेश’,
सुहेल अशफाक, आफ़ताब अख़्तर, महबूब आफ़रीदी,
आचार्य भिक्खु मोग्गलायन, सरवर उस्मानी, राजेश्वर सहाय ‘बेदार’,
मोहिनी मोहन सक्सेना, अचल बाजपेई, राजेन्द्र च्यवन, चन्द्रमोहन
दिनेश आदि इस संस्था के प्रमुख व्यक्तित्व हुआ करते थे।
‘अनामिका’ यों तो एक साहित्यिक संस्था थी, पर नगर में रंगमंच की आवश्यकता को देखते हुए पहली बार सन् 1980 में इस संस्था द्वारा एक रंगप्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया,
जिसमें लखनउ से प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक श्री कमल वशिष्ठ को
आमंत्रित किया गया। इन्होंने कठिन प्रशिक्षण के बाद दो नाटक तैयार करवाए-इन्ना की
आवाज (असगर वजाहत) और गिरगिट (अंतोन चेखव)। इन नाटकों का बड़ा ही भव्य मंचन हुआ और
दर्शकों की खूब वाहवाही मिली। इस प्रकार देखा जाय तो यह दोनों नाटक शाहजहाँपुर
रंगमंच के प्रथमतः मंचित आधुनिक नाटक थे। यहाँ पर एक प्रमुख बात और हुई कि यहीं से
रंगमंच पर स्त्री पात्रों ने भी सहज रूप से आना आरम्भ कर दिया। इस अर्थ में भी सन्
1980 के वर्ष को शाहजहाँपुर के रंगमंच को आधुनिक रंगमंच का
आरम्भिक वर्ष कहा जा सकता है।
इस मंचन से शहर के रंगकर्मियों को नया जोश और नई
दिशा मिली। इसी के तहत एक बार फिर सन् 1984 में एक रंगशिविर का आयोजन ‘अनामिका’
द्वारा ही किया गया। इस प्रशिक्षण शिविर में ‘भारतेन्दु नाट्य अकादमी’ से प्रशिक्षण प्राप्त कर निकले अमरेन्द्र सहाय ‘अमर’ को विशेष रूप से आमं़ित्रत किया गया। पूरे एक माह की रंग कार्यशाला का आयोजन
किया गया,
जिसमें शहर के लगभग सभी रंगकर्मियों ने प्रशिक्षण लिया।
निर्देशक ने आर्यमहिला डिग्री काॅलेज में करीब 5 घण्टे प्रतिदिन आंगिक, वाचिक प्रशिक्षण दिया। इस शिविर में करीब 38 रंगकर्मियों ने-जिसमें 13 स्त्रियाँ थीं-एक माह तक प्रशिक्षण प्राप्त किया।
कार्यशाला में संगीत, मुख-सज्जा,
वस्त्र-विन्यास, सेट-डिजायनिंग, प्रकाश-व्यवस्था
आदि के बारे में खुलकर समझाया गया और जगदीश चन्द्र माथुर का प्रसिद्ध नाटक ‘कोणार्क’ तैयार किया गया। यह प्रोडक्शन शाहजहाँपुर में उस समय का सबसे महँगा प्रोडक्शन
था,
जिस पर करीब 15 से 20 हजार रुपए का खर्च आया था। इस नाटक के मंचन के लिए लाइट्स
लख़नऊ से मंगवाई गई थीं तथा खर्चा बचाने के लिए संगीत को रिकार्ड कर लिया गया था।
इस नाटक में असद उल्ला खाँ ने ‘महादेव वर्मन’, महेश सक्सेना
ने ‘सौम्य श्री’ और चन्द्रमोहन महेन्द्रू ने ‘विशु’
की केन्द्रीय भूमिका अभिनीत की। इसके अतिरिक्त राधेश्याम
श्रीवास्तव,
राजकुमार शर्मा, सुशील शर्मा, चन्द्रमोहन
दिनेश,
जनार्दन सिंह, जरीफ मलिक आनन्द, खादिम शाहपुरे,
संजीव कुमार, मनोज कुमार,
सतीश चन्द्र सक्सेना, नसीम अहमद, सुशील चन्द्र गुप्ता तथा मो. हनीफ आदि ने भी इस नाटक में अभिनय किया।
‘संगीत नाट्य अकादमी’ के सहयोग से इस नाटक के लगातार तीन मंचन ‘आर्डीनेन्स क्लब’ में किए गए। नाटक में कोणार्क मन्दिर का भव्य सेट लोगों की स्मृतियों में आज
भी संचित है। नाटक इतना सफल हुआ कि शाहजहाँपुर रंगमंच के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित हुआ। वर्ष 1985 में ‘संगीत नाटक अकादमी’ के सहयोग से वाराणसी में होने वाले नाट्य-समारोह में
भी इसका मंचन किया गया। वहाँ पर समग्र रूप
से भले ही नाटक उतना सफल न हुआ हो लेकिन केन्द्रीय भूमिका ‘विशु’ के लिए चन्द्रमोहन महेन्द्रू के अभिनय की प्रशंसा स्थानीय अखबारों ने खूब की।
इसी
जोश के साथ ‘अनामिका’ ने वर्ष 1985 में फिर एक नाटक ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ’ के मंचन की योजना बनाई। शरद जोशी के इस नाटक में निर्देशन
हेतु लखनउ से पी.डी.वर्मा को आमंत्रित किया गया और एक माह के कठिन परिश्रम से नाटक
तैयार किया गया। इसका मंचन भी ‘आर्डीनेन्स क्लब’ में ही हुआ।
नाटक का मंचन जिस दिन होना था उस दिन कुछ कट्टरपंथी लोगों ने बिना इसकी स्क्रिप्ट
देखे महज नाटक के नाम को लेकर आपत्ति खड़ी कर दी। तब नाटक का नाम छोटा करके (एक था
गधा) मंचन किया गया। इस नाटक की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि
इसके टिकट ब्लैक में बिके थे। इस नाटक में असद उल्ला खाँ, महेश सक्सेना, संजीव कुमार चिंतक, राधेश्याम सक्सेना, जरीफ मलिक आनन्द, बी.एस.
त्रिवेदी,
चन्द्रमोहन दिनेश, रचना शर्मा आदि ने जबर्दस्त अभिनय किया।
वर्ष 1990 में ‘अंधायुग’
अनामिका संस्था की अंतिम प्रस्तुति थी। इसका निर्देशन जबलपुर
से आए प्रसिद्ध निर्देशक विश्वभावन देवलिया ने किया था। इस नाटक का मंचन तीन दिनों
तक गाँधी हाल में हुआ था। इसमें महेश सक्सेना, राजकुमार शर्मा, विकास चावला, सुदर्शन वर्मा
‘सलिलेश’, ओ.पी.वर्मा,
मनोज मंजुल, प्रमोद प्रमिल, अनिल कक्कड़,
बलराज शर्मा, श्रीनाथ यादव, अशोक बेढव,
अमनजीत हांडा आदि रंगकर्मियों ने अभिनय किया था।
इस
नाटक के बाद ‘अनामिका’ में थोड़ा विराम आ गया। तब कुछ और नई-पुरानी संस्थाएँ उभरकर सामनें आईं। सन् 1980 के आसपास ही डाॅ. राजकुमार शर्मा, मनोज त्रिपाठी, खादिम शाहपुरे, सुरेश मिश्रा,
मनोज शर्मा, गोपाल मेहता आदि ने मिलकर ‘सोपन कला परिषद’ की स्थापना की
इसके द्वारा सबसे पहले ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ का मंचन किया गया तथा इसके बाद ‘पाँच पैसे का सिक्का’, ‘सीढियां’
तथा ‘अंधायुग’
आदि का मंचन किया गया इसके बाद सन् 1991 ई. में ‘भुवनेश्वर प्रसाद शोध संस्थान’ बनने पर इसकी गतिविधियों में थोडा विराम आ गया और ‘सोपान कला परिषद’ की सक्रियता बढी।
‘अनामिका’ द्वारा ‘अंधायुग’ के मंचन के बाद इसके कार्यक्रमों में कुछ-कुछ विराम आने लगा। तब 1984 में लगे रंगशिविर में प्रशिक्षित तथा ‘अनामिका’ के बैनर तले काम कर रहे रंगकर्मियों ने एक सभा करके उसमें एक नयी संस्था बनाने
को लेकर विचार-विमर्श किया और श्री वी.एस. त्रिवेदी, चन्द्रमोहन महेन्द्रू, जरीफ मलिक आनन्द, श्याम किशोर, असद उल्ला खँा,
सुधीर विद्यार्थी आदि ने मिलकर वर्ष 1985-86 में ‘कोरोनेशन आर्ट थियेटर’ की स्थापना की। जुलाई 1987 को मंचित नाटक ‘दीमक’
की स्मारिका के अनुसार इस संस्था के ‘मुख्य संरक्षक शाखा बन्धोपाध्याय, ‘संरक्षक’ श्याम किशोर सेठ, चन्द्रमोहन ‘दिनेश’, रतीश गर्ग,
सतेन्द्र पाठक, महेश सक्सेना, ‘संस्थापक’
वी.एस. त्रिवेदी, ‘महासचिव’,
ज़रीफ मलिक आनन्द, ‘सह सचिव’
रचना शर्मा तथा राधेश्याम सक्सेना, ‘कोषाध्यक्ष’ चेतराम तथा ‘प्रचार प्रसार’
सचिव बुद्धदेव शर्मा आदि की कार्यकारिणी बनाई गई।
‘कोरोनेशन आर्ट थियेरटर’ द्वारा सर्वप्रथम विनोद रस्तोगी द्वारा लिखित नाटक ‘प्रमोशन’ का मंचन अपने स्थापना वर्ष में ही किया गया। इस नाटक के निर्देशक थे-
चन्द्रमोहन महेन्द्रू तथा रंगकर्मियों में विकास चावला, कु. संध्या पाण्डे, संजीव शर्मा, कु. रचना शर्मा, जरीफ मलिक
आनन्द,
महेश सक्सेना, सुशील कुमार, खादिम शाहपुरे,
शिवनन्दन स्वरूप तथा एस.ए. खान आदि।
इसके
बाद संस्था की अगली प्रस्तुति थी रवि वर्मा द्वारा लिखित तथा एवनर सादिक द्वारा
निर्देशित नाटक ‘दीमक’। इसका मंचन वर्ष 1987 में ‘गन्ना शोध परिषद’ में किया गया।
इसमें ओ.पी.वर्मा, अनीता
त्रिवेदी,
महेश सक्सेना, रचना शर्मा,
राधेश्याम सक्सेना, दिलीप कुमार, शमीम कुरैशी, शहशुजा खाँ,
संध्या पाण्डे, प्रमोद प्रमिल, कृष्ण कुमार,
वी.एस. त्रिवेदी, ज़रीफ मलिक,
मुबीन खाँ, हिमाद्री पाण्डे, चांदमियाँ,
मो. आजम खाँ, बबलू,
सुबोध गुप्ता तथा प्रज्ञा मिश्रा आदि रंगकर्मियों ने अभिनय
किया था। यह नाटक शाहजहाँपुर रंगमंच का ऐसा पहला नाटक था, जिसने सर्वप्रथम ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में प्रथम पुरस्कार जीतकर शाहजहाँपुर रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान
दिलाई। यह नाटक अब तक करीब आठ ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं’ में पुरस्कृत हो चुका है। 14-15 दिसम्बर 1987 को नाटक ‘इतिहास चक्र’ का मंचन ‘कोरोनेशन’ तथा ‘सोपान’ संस्थाओं ने मिलकर किया। निर्देशक थे-तरूण राज, जो लखनऊ से आमंत्रित किए गए थे। इस नाटक को भी अपार सफलता
मिंली। इसी समय अर्थात वर्ष 1988 में वी.एस. त्रिवेदी ‘कोरोनेशन’
से हट गए और अपनी एक अलग संस्था ‘नवज्योति कला मंदिर’ की स्थापना की । 19 अगस्त 2001 को गाँधी भवन प्रेक्षागृह में मंचित नाटक ‘मुख्यमंत्री’ के पत्रक के अनुसार इस संस्था की कार्यकारिणी समिति में संरक्षक-दादा
राजबहादुर ‘विकल’ तथा कमल ‘मानव’, संस्थापक- वी.एस. त्रिवेदी, प्रबंधक-डाॅ.प्रभात शुक्ला, अध्यक्ष-राजीव सिंह, उपाध्यक्ष-आशा सोम, महासचिव-डाॅ.प्रशान्त अग्निहोत्री, संयुक्त सचिव-मनमोहन त्रिपाठी, कोषाध्यक्ष-यतीन्द्र सिंह त्रिवेदी- प्रमुख पदाधिकारी थे। इसके अतिरिक्त राजेश
सत्संगी,
अतीक अहमद, मुनीर अहमद,
सुशील कुमार सक्सेना ‘बनारसी’, सौरभ अग्निहोत्री, गौरव सिंह,
मो.शहजाद, कु. नीतू,
कु. साधना, कु. सपना कनौजिया, रजत सक्सेना,
विनय पाण्डेय तथा अम्बुज मिश्रा आदि इस संस्था के प्रमुख
सदस्य थे।
‘नवज्योति कला मन्दिर’ द्वारा शाहजहाँपुर रंगमंच पर वर्ष 1989 में प्रथम नाटक अनीता त्रिवेदी के निर्देशन में ‘छूमन्तर’ का सफल मंचन किया गया और इसी नाटक को इसी वर्ष बरेली में आयोजित ‘नाट्य प्रतियोगिता’ में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ। इसके बाद वर्ष 1990 में नाटक ‘बिखरती पंखुडियां’ का मंचन
मुरादाबाद में तथा वर्ष 1991 में आरा (बिहार) में किया गया।
इसी
समय ‘चित्रांशी संास्कृतिक परिषद’ द्वारा भी नाटक ‘फैसला’
तथा ‘नवक्रांति’
तथा ‘दिशा’
का मंचन किया गया। इसी दौरान अनेक धार्मिक ऐतिहासिक नाटक
मंचित कर चुकी संस्था ‘युगान्तर संास्कृतिक परिषद’ ने वर्ष 1990 में अपनी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनाई और वर्ष 1992 में ‘आल इण्डिया आर्टिस्ट एशोसियेशन शिमला’ की रजत जयन्ती में आयोजित ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में नाटक ‘कसाईबाड़ा’
को श्रेष्ठ स्थान दिलाया। इसके बाद वर्ष 1993-94 में बरेली में आयोजित ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में नाटक ‘ये नाटक नहीं है’ तथा ‘धर्म और ईमान’ के लिए क्रमशः तृतीय और द्वितीय पुरस्कार प्राप्त किया,
किन्तु इसी के बाद इस संस्था में विराम आ गया।
वर्ष 1990 में शाहजहाँपुर रंगमंच पर एक संस्था और उभर कर सामने आयी। वह संस्था थी शहर
के ही रंगकर्मी प्रमोद ‘प्रमिल’
द्वारा स्थापित ‘परिक्रमा’। वर्ष 1995 की स्मारिका के अनुसार उस समय की कार्यकारिणी में प्रदीप पाण्डेय,
भगवानदास अग्रवाल, डा.गिरिजानन्दन त्रिगुणयत ‘आकुल’
तथा तरूण राज- संरक्षक, एस.के. सेठी-अध्यक्ष, ब्रजेन्द्र सिंह साहनी तथा सुरैया खान-उपाध्यक्ष,
प्रमोद ‘प्रमिल’-संस्थापक एवं महासचिव, एस.एस.झा-सचिव, प्रभात कुमार-संास्कृतिक सचिव, पंकज गुप्ता-साहित्यिक सचिव, अनिल कक्कड़-कोषाध्यक्ष, ओंकार मनीषी तथा नामित सक्सेना मुख्य परामर्शक और श्री चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू‘, एबनर सादिक (दिल्ली) तथा राजवीर रतन (लखनऊ) रंगमंच परामर्शक नियुक्त किए गए।
इस
प्रकार ‘परिक्रमा’ संस्था द्वारा वर्ष 1990 में अपनी पहली प्रस्तुति के रूप में ‘कसाईबाड़ा’ का मंचन किया गया। इसके बाद संस्था द्वारा ‘तमाशा’, ‘सिंहासन खाली है’, ‘एक
कुँआरा शादी का मारा’, ‘हमें
बोलने दो’(नुक्कड) तथा ‘बकरी’
का सफल मंचन किया गया। वर्ष 1995 में संस्था द्वारा एक नया प्रयोग किया गया -डाॅ.‘आकुल’ के काव्य-रूपक ‘कुणाल’,
खण्डकाव्य ‘पाषाणी’
तथा महाकाव्य ‘अग्निशिखा’
के मंचन के रूप में। किसी काव्य को इतना व्यवस्थित एवं सटीक
रूप से मंचित करना बड़ी चुनौती थी। ‘अग्निशिखा’
का तो मंचन एक ही कलाकार ‘निधि पोरवाल’ ने एकल-नाट्य के आधार पर काव्यात्मक रूप से किया। यहाँ पर अगर यह कहा जाए कि
शाहजहाँपुर रंगमंच में ‘एकल नाटकों’
की परंपरा यहीं से पड़ी तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
शाहजहाँपुर रंगमंच की यह एक बड़ी उपलब्धि थी।
वर्ष 1991 तथा 1993 में क्रमशः दो संस्थाएँ और प्रकाश में आयीं। वह संस्थाएँ थीं-‘अभिनव’ तथा ‘अनुभूति’। जिनके संस्थापक थे-क्रमशः गोपाल मेहता तथा मनोज मंजुल।
‘अभिनव नाट्य संस्था’ जहाँ कुछ ही नाटक-‘इन्तकाम’, ‘अन्धी तकदीर’, ‘एक रात’,
‘यह नाटक नहीं है’, ‘घरवाली’
तथा ‘अयोध्या’
आदि मंचित करके इतिहास के पन्नों में दब गई वहीं ं‘अनुभूति नाट्य संस्था’ ने कुछ उपलब्धियों के बाद विराम लिया।
‘अनुभूति’ द्वारा वर्ष 1993 मेें
प्रथम प्रस्तुति के रूप में मनोज ‘मंजुल’
के निर्देशन में नाटक ‘मेरा नाम मथुरा’ का मंचन किया गया। इस नाटक के करीब 13-14 मंचन हुए तथा इसने ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं’ से अनेक पुरस्कार प्राप्त किए। इसके बाद संस्था द्वारा नाटक‘
‘कसाईबाड़ा’ का मंचन किया गया। इस नाटक के भी 13-14 मंचन हुए तथा कई पुरस्कार प्राप्त हुए। इसके बाद संस्था द्वारा वर्ष 1993 में ‘ये नाटक नहीं है’ तथा वर्ष 1996 में ‘एक और द्रोणाचार्य’ का मंचन किया गया और इसके बाद इस संस्था का अस्तित्व भी संकट में आ गया।
एक ओर
नई-नई संस्थाएँ बनती बिगड़ती रहीं तो दूसरी ओर पुरानी संस्थाओं की नाट्य
प्रस्तुतियाँ भी रंगमंच पर दिखाई पड़ती रहीं। वर्ष 1992 में ‘नवज्योति कला मन्दिर’ की एक नाट्य प्रस्तुति सामने आयी-ओ.पी. वर्मा द्वारा निर्देशित तथा जेटली
द्वारा लिखित नाटक ‘तमाशा’
के रूप में। इस नाटक ने बरेली में आयोजित ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में तृतीय स्थान प्राप्त किया। इस नाटक में सर्वश्रेष्ठ
अभिनय के लिए स्व. संजीव सारांश तथा निर्देशन के लिए ओ.पी.वर्मा को भी पुरस्कृत
किया गया। वर्ष 1993 में इसी संस्था द्वारा सुशील कुमार सिंह लिखित और वी.एस.
त्रिवेदी द्वारा निर्देशित नाटक ‘बापू की हत्या हजारवीं बार’ का मंचन हुआ। इसके बाद वर्ष 1994 में रमेश मेहता लिखित एवं राजीव सिंह निर्देशित नाटक ‘स्वांग’ का भी मंचन हुआ। इसके साथ ही वर्ष 1995 में राजीव सिंह द्वारा लिखित एवं निर्देशित नाटक ‘बिल्लू-वागले’ का भी मंचन किया गया। इस नाटक को बरेली महोत्सव में पुरस्कृत भी किया गया। इसी
नाटक के निर्देशन के लिए राजीव सिंह को द्वितीय, विशाल अग्रवाल को श्रेष्ठ अभिनेता का,
कु. सपना कनौजिया को श्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। इसी वर्ष संस्था द्वारा ‘कंस वध’ और ‘दिल की दुकान’ का मंचन भी किया गया।
वर्ष 1994 में एक संस्था-‘सांस्कृतिक एकता मंच’, जिसके संस्थापक थे रंगकर्मी विवेक टिकैत-की स्थापना हुई। इस संस्था द्वारा सर्वप्रथम नाटक ‘अभिशाप’ मंचित किया गया। इसके अलावा इस संस्था द्वारा कुछ और नाटक जैसे ‘उल्लू’, ‘हवालात’,
‘क्या पाॅलीथीन बन्द है’, ‘रामलीला’, ‘ताजमहल का टेण्डर’, ‘वेनिस
का मूर’
आदि मंचित किए गए। इसके अतिरिक्त कई नुक्कड़ नाटक-‘आओ संकल्प ले’, ‘अनपढ़ बीबी’,
‘आय अपार्जन’, ‘बुधिया फँस गया चक्कर में’-भी नाटक खेले गए।
वर्ष 1995 में ‘सुरभि नाट्य संस्थान’ की स्थापना हुई। संस्थापक थे-रामेन्द्र मिश्रा। वर्ष 1998 की कार्यकारिणी के अनुसार इस संस्था में रामेन्द्रकुमार
मिश्रा-संस्थापक एवं अध्यक्ष, मनोज कृष्ण मिश्रा-वरिष्ठ उपाध्यक्ष, रामशंकर लाल तथा रणजीत सिंह बेदी-उपाध्यक्ष, डा. वीरेशपाल सिंह-महासचिव, गोपाल मेहता-कोषाध्यक्ष, प्रेम प्रकाश मिश्रा, सलीम मलिक, कु. शक्ति मिश्र-सचिव, मनोज गोस्वामी-संयुक्त सचिव, प्रवीण गुप्ता, आनन्द शर्मा,
कु. वन्दना राना-प्रचार सचिव तथा एजाज हसन खाँ और रमाकान्त
मिश्रा-विधि परामर्शदाता मनोनीत किए गए। वर्ष 1995 में ही इस संस्था की एक जबर्दस्त प्रस्तुति राजेश कुमार
लिखित और निर्देशित नाटक ‘अयोध्या’
के रूप में सामने आयी । इस नाटक को इसी वर्ष बरेली में
आयोजित ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ। इसके बाद संस्था द्वारा ‘अब गरीबी हटाओ’, ‘दहेज’,
‘राजा भ्रष्ट प्रजा त्रस्त’, ‘ये नाटक नहीं है’, ‘जनता जाग गई’ आदि का मंचन
किया गया। इसके अतिरिक्त इस संस्था द्वारा तैयार एक नाटक-‘एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ-को जिला प्रसाशन ने सौहार्द
बिगड़ने के भय से रुकवा दिया, जबकि इसकी तैयारी करीब दो महीने तक की गई थी।
इधर
वर्ष 1991-92 में ‘कोरोनेशन’
ने रंगोत्सव तथा लुप्त होती-सी विधा नौटंकी को बचाए रखने के
लिए एक ‘द्विमासिक नौटंकी अभिनय कार्यशाला का आयोजन विजय शुक्ला के
निर्देशन मेें किया। इस कार्यशाला में मुद्राराक्षस द्वारा लिखित नाटक ‘आलाअफसर’ का द्विदिवसीय मंचन किया गया। इसके बाद ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय-दिल्ली’ से अभिनय का डिप्लोमा प्राप्त कर लौटे संस्था के कलाकार
राजपाल यादव ने पारसी शैली पर आधारित एक मासिक कार्यशाला का आयोजन किया। इस
कार्यशाला मे आगा हश्र कश्मीरी द्वारा लिखित नाटक ‘यहूदी की लड़की’ का अभूतपूर्व मंचन किया गया। इस बीच संस्था द्वारा ‘एक तारे की आंख’, ‘बेंच’,
‘बेचू का बकरा’, ‘पर्दाफाश’
आदि कई नाटकों का मंचन किया गया तथा कई ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं’ में जीत हासिल की ।
क्षणिक
रूप से उभरने और मिटने वाली सस्ंथाओं के बीच अगर देखा जाए तो वर्ष 1995-96 तक मुख्य रूप से दो ही संस्थाए शहर के रंगमंच पर दिखाई
देती रहीं। एक ‘नवज्योति’ और दूसरी ‘केरोनेशन’। इसी दौरान ‘कोरोनेशन’
से निकलकर रंगकर्मी शमीम आज़्ााद, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव, आजम खाँ, आलोक सक्सेना तथा विनीत, अरविन्द चोला आदि ने मिलकर 15 अगस्त सन् 1996 में
एक अलग संस्था ‘अभिव्यक्ति’ की स्थापना की।
वर्ष 1996 में स्थापित ‘अभिव्यक्ति’
संस्था की कार्यकारिणी में चन्द्रमोहन ‘महेन्द्रू’ को निर्देशक, इन्जीनियर
राजेशकुमार को अध्यक्ष, सुदर्शन वर्मा ‘सलिलेश’,
विष्णुकांत शुक्ला, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव को उपाध्यक्ष,
शमीम आजाद को महासचिव, आलोक सक्सेना को सचिव, आज़म खाँ को संयुक्त सचिव, अरविन्द‘चोला’
को कोषाध्यक्ष, मो. यामीन अंसारी को संगठन सचिव, मोअज्जम बेग और विनीत रेजीनेल्ड सिंह को प्रचार सचिव, दाताराम, सुहेल ‘बब्लू’, सुरेन्द्र ‘पप्पू’ को संगीत सचिव, राजपाल यादव
तथा संजीव सागर को मानद सदस्य, गुलिस्तां,
तरन्नुम, निधि नैथानी, अखिलेश रोहरा,
सूरजराना, शहनवाज,
संजय सक्सेना, विशाल,
आनन्द, उमेश गुप्ता, मनोज त्रिपाठी,
रामगोपाल आदि सदस्य नियुक्त किए गए तथा असद उल्ला खाँ,
अमितेश अमित, सुधीर विद्यार्थी को संस्था का संरक्षक बनाया गया। इसके बाद समय-समय पर
कार्यकारिणी में परिर्वतन भी किया गया।
यह
संस्था शाहजहाँपुर रंगमंच पर ‘जनवादी विचारधारा’ को लेकर एक नए
रूप में उपास्थित हुई। वैचारिक प्रखरता के कारण इसे विरोध भी झेलना पड़ा। अब
शाहजहाँपुर रंगमंच दो भागों में विभाजित हो गया था। एक ओर ‘जनवादी विचारधारा’ की पोषक‘
अभिव्यक्ति’ संस्था और दूसरी ओर शहर की लगभग सभी संस्थाएँ थीं। इस संस्था के अध्यक्ष
इन्जीनियर राजेश कुमार ने शाहजहाँपुर रंगमंच को एक नई दिशा दी और अनेकानेक
प्रयोगों के बीच उसे वैचारिक प्रतिद्धता से जोड़ते हुए मुख्यधारा से जोड़ा।
अगर यह
कहा जाय कि ‘अभिव्यक्ति’ के माध्यम से शाहजहाँपुर रंगमंच पर उतरे श्री राजेश कुमार ने शाहजहाँपुर
रंगमंच को नया कलेवर प्रदान किया तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हाँ! यह एक
अलग बात है कि यहाँ के जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि और पूर्वग्रह से युक्त दर्शक और
रंगकर्मी खुले दिल से इसका स्वागत नहीं कर पाए।
वर्ष 1996 में ‘अभिव्यक्ति’
संस्था ने शहर के शहीदों की प्रतिमाओं की साफ-सफाई करके
चेतना जाग्रत की। इसी वर्ष राजपाल यादव ने आगाहश्र कश्मीरी द्वारा लिखित नाटक ‘यहूदी की लड़की’ का मंचन किया और इसी वर्ष ‘आॅर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब’ का श्री सत्य नारायण ‘जुगनू’
ने रजिस्टेªशन करवाया और इसके साथ ही ‘रामलीला’
के साथ साथ इस
संस्था द्वारा अन्य सामाजिक नाटक भी मंचित किए जाने लगे। इसके अतिरिक्त इस संस्था
ने ‘ये नाटक नहंीं है’, ‘दिशा’,
‘छतपुरानी’, ‘फैसला’,
‘दिल की दुकान’ आदि तमाम नाटक मंचित किए।
वर्ष 1997 में देश की आजादी के स्वर्ण जयन्ती वर्ष में ‘अभिव्यक्ति’ संस्था द्वारा इन्जीनियर राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक ‘आखिरी सलाम’ तथा ‘अन्तिम युद्ध’ का मंचन किया गया। ये नाटक शहर के शहीदों रामप्रसाद बिस्मिल व अशफाक उल्ला खाँ
की विचारधारा को आधार बनाकर लिखे गए थे। इन नाटकों के प्रमुख कलाकार कृष्णा कुमार
श्रीवास्तव,
आलोक सक्सेना, शमीम,
मोअज्जम बेग, संजय सक्सेना, जनार्दन सिंह,
विशाल, आनन्द,
अरशद आजाद, अरविन्द कुमार शर्मा, आजम खाँ,
उपेश कुमार गुप्ता, मनोज त्रिपाठी, आशीष शुक्ला, अनिल शुक्ला
आदि और निर्देशक थे-चन्द्रमोहन महेन्द्रू।
इसी
वर्ष 1997 में एक और संस्था ने शाहजहाँपुर रंगमंच में प्रवेश किया और
वह थी तार्रूफ कुरैशी द्वारा स्थापित संस्था ‘कांसटेलेशन आर्ट थियेरटर’। इसी वर्ष इसने एक नाटक का मंचन बरेली में आयोजित करके ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में तृतीय स्थान प्राप्त किया।
वर्ष 1998 में ‘अभिव्यक्ति’
सस्ंथा की कई गतिविधियां रहीं। इस वर्ष सबसे पहले एक प्रयोग
के तहत आधा मंचीय और आधा नुक्कड़ का स्वरूप समेटे राजेश कुमार द्वारा लिखित एवं
निर्देशित नाटक ‘भ्रष्टाचार का
अचार’
मंचित किया। इसके बाद इसी संस्था ने शहर के रंगमंच को पहली
बार ‘एकल-98’ के माध्यम से एकल विधा से जोड़ा और इसके अन्तर्गत भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’, भुवनेश्वर की कहानी ‘भेडिए’ तथा हरिशंकर परसाई की कहानी ‘वैष्णव की फिसलन’ का मंचन किया।
इन कहानियों का एकल नाट्य में रूपांतरण एवं निर्देशन किया राजेश कुमार ने तथा इसके
कलाकार थे क्रमशः संजीव सारांश, शमीम आजाद तथा कृष्ण कुमार श्रीवास्तव। ‘अभिव्यक्ति के इन प्रयोगों ने ‘एकल नाटकों’ को लेकर व्यापक बहस चलाई। इसी वर्ष आलोक सक्सेना ने भी मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का मंचन किया और इसी वर्ष जनपद रत्न चन्द्रमोहन महेन्दू्र के निर्देशन में नाटक ‘सिंहासन खाली है’ का मंचन किया गया। वर्ष 1998 में ही ‘नवज्योति कला मन्दिर’ की भी एक प्रस्तुति आई और वह थी राजीव सिंह निर्देशित एवं
रमेश महेता लिखित नाटक ‘फैसला’। जिसका मंचन ‘नाट्य प्रतियोगिता बरेली’ में किया गया। इस नाटक में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए संजय अरोड़ा को प्रथम
तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए आशा सोम को द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके
बाद वर्ष 1999 में इसी संस्था की एक और प्रस्तुति रतन सिंह ‘हिमेश’ कृत एवं राजीव सिंह द्वारा निर्देशित नाटक-‘फैसला कब होगा?’-का सफल मंचन किया गया। इस वर्ष भी ‘अभिव्यक्ति’
संस्था की कई प्रस्तुतियाँ सामने आईं। इस वर्ष संस्था
द्वारा ‘जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय’ मे ‘वैष्णव की फिसलन’ तथा ‘मुगलों ने सल्तन बख्श दी’ का सफल मंचन किया गया। इसके बाद ‘गांव’ शीर्षक से प्रेमचन्द की कहानी ‘पूस की रात’
तथा रेणु की कहानी ‘रसप्रिया’ का एकल मंचन किया गया। इन कहानियों का नाट्य रूपान्तर तथा निर्देशन किया राजेश
कुमार ने तथा अभिनय किया क्रमशः चन्द्रमोहन महेन्द्रू तथा स्वयं राजेश कुमार ने।
इसके बाद संस्था के कलाकार संजीव सारांश के निधन पर रंगमंचीय शृद्धंाजलि ‘संजीव तुम्हे सलाम’ शीर्षक से एकल नाटक ‘मुगलों ने सल्तनत बख़्स दी‘ तथा ‘वैष्णव की फिसलन’ के माध्यम से
दी। ‘अभिव्यक्ति’ संस्था द्वारा इस वर्ष की सबसे सशक्त तथा अन्तिम प्रस्तुति थी नाटक ‘गाँधी ने कहा था’, जिसके लेखक और निर्देशक थे राजेश कुमार। ‘मी नाथूराम गोडसे
बोलतोय’
के विरोध में लिखा गया यह नाटक राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित
एवं प्रशंसित हुआ।
वर्ष 1999 में ‘अभिव्यक्ति’
के अतिरिक्त अन्य संस्थाओं की भी कुछ सफल प्रस्तुतियाँ
सामने आयीं। इसमें ‘कोरोनेशन आर्ट
थियेटर’
सबसे प्रमुख थी। इस संस्था द्वारा नाट्य-मंचनों के अतिरिक्त
कई ‘रंगकार्यशालाओं’ का आयोजन भी किया गया, जिसने यहाँ के रंगकर्मियों को एक नई दिशा दी।
वर्ष 2000 में शाहजहाँपुर के दर्शकों को स्थानीय कलाकारों द्वारा
प्रस्तुत नाटकों के अतिरिक्त बाहर की कई संस्थाओं द्वारा मंचित नाटक ‘अखिल भारतीय नाट्य-महोत्सव’ के माध्यम से देखने को मिंले। इसके जरिए पाँच बेहतर
प्रस्तुतियाँ दर्शकों को देखने को मिलीं, जिसमें ‘अस्मिता’ दिल्ली की ओर से अरविन्द गौड द्वारा निर्देशित ‘कानपुर की औरत भली-रामकली’, ‘निर्माण कला मंच’ पटना की ओर से संजय उपाध्याय निर्देशित ‘विदेशिया’, ‘एक्टवन’
दिल्ली की ओर से एन.के. शर्मा द्वारा निर्देशित ‘आओ साथी सपना देखें’, डाॅ.लक्ष्मण देशपाण्डेय द्वारा निर्देशित औरंगाबाद
(महाराष्ट्र) का चर्चित एकल ‘बरात चली लदंन को‘ तथा ‘नीपा’ रगंमडली लखनऊ की ओर से सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ निर्देशित ‘मृच्क्षकटिकम’ प्रशंसनीय रहे। 15 से 20 फरवरी के बीच चले इस नाट्य-महोत्सव के माध्यम से दर्शकों
का खासा मनोरंजन हुआ। इसके बाद इसी वर्ष 29 फरवरी से 3 मार्च के मध्य ‘बाल नाट्य
समारोह’
का आयोजन जनपद में किया गया। इस आयोजन की प्रमुख
प्रस्तुतियों में गरुण पब्लिक स्कूल की ओर से राजेश सत्संगी निर्देशित ‘अप्सरा का तोता’, शंकर मुमुक्ष विद्यापीठ की ओर से शशि गुप्ता निर्देशित ‘गुड्डा’, डान एंड डोना की ओर से सुमन श्रीवास्तव निर्देशित ‘ग्रामीण पाठशाला’, महार्षि दयानन्द शिक्षा निकेतन की ओर से दिनेश रस्तोगी निर्देशित ‘चोंचू नवाब’, डाॅ.जी.एल. कनौजिया हाईस्कूल की ओर से पूनम सक्सेना निर्देशित ‘दूल्हों की सेल’, नायक जदुनाथ सिंह मेमोरियल जूनियर हाईस्कूल जलालाबाद की ओर से वीरेश पाल सिंह
निर्देशित ‘अंधेर नगरी’, प्रभा न्यू मांटेसरी स्कूल की ओर से के.एम. शर्मा निर्देशित ‘वीर अभिमन्यु’, ओ.सी.एफ. इंटर कॅालेज की ओर से राधेश्याम सक्सेना निर्देशित ‘पचास पैसे का तानसेन’, श्री देवी संपद इंटर कॅालेज, मुमुक्ष आश्रम की ओर से आलोक सक्सेना द्वारा निर्देशित ‘आखरी सलाम’ तथा सावित्री बाल विद्या मंदिर की ओर से सूरज राना निर्देशित नाटक ‘आजाद शेर’ आदि प्रमुख रहे। इसके अतिरिक्त ‘कोरोनेशन’
संस्था द्वारा इस वर्ष शहीद अशफाक उल्ला की जन्मशती पर
फरवरी में बीसलपुर (पीलीभीत) से शाहजहाँपुर तक श्री सुधीर विद्यार्थी के सहयोग से
एक ‘संास्कृतिक चेतना यात्रा’ निकाली गई। इसमें जरीफ मलिक आन्नद के निर्देशन में ‘अन्धेरे के खिलाफ’ नुक्कड़ नाटक की करीब 12 प्रस्तुतियाँ जगह-जगह की गईं। इसके अलावा इसी माह में कई बार मंचित हो चुके
नाटक ‘अशफाक पर मुकदमा’ का मंचन गांधी भवन में किया गया।
इस
वर्ष ‘अभिव्यक्ति’ संस्था की कई प्रस्तुतियाँ सामने आयीं। संस्था ने ‘गाँधी ने कहा था’ का मंचन 10 व 11 जुलाई को श्रीराम सेंटर मंड़ी हाउस, नई दिल्ली में दो सफल मंचन करके शाहजहाँपुर रंगमंच की धमक को दिल्ली तक
पहुँचाया। इसके बाद ‘अभिव्यक्ति’
ने एक बार फिर स्व.संजीव सारंाश की स्मृति में ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’ का शमीम आजाद ने, ‘एक निराश पीढ़ी’ का मनीश मुनि
ने,
‘पागल की डायरी’ का बी.एन.ए. के छात्र विजय कुमार सिंह ने तथा ‘वैष्णव की फिसलन’ का कृष्ण कुमार श्रीवास्तव ने सफल मंचन किया। इसके अलावा इस वर्ष भुवनेश्वर
शोध संस्थान की ओर से एक कार्यशाला आयोजित की गई तथा दया प्रकाश सिन्हा द्वारा
लिखित एवं उर्मिल कुमार थपलियाल द्वारा निर्देशित नाटक ‘सीढ़ियां’ का गांधी भवन में मंचन किया गया। इसी समय विनाबा सेवा आश्रम की ओर से एक
कार्यशाला तथा ‘माधवी’ नाटक का मंचन किया गया तथा ‘न्यू स्टार थियेटर’ की ओर से राजेश गुप्ता द्वारा ‘लड़ाई’
नाटक का मंचन किया गया।
इसी
वर्ष ‘कंासटेलेशन आर्ट थियेटर’ द्वारा एक राज्य स्तरीय गोष्ठी का आयोजन भी किया गया,
जिसमें ‘उत्तर प्रदेश में रंगमंच का वर्तमान स्वरूप व सम्भावनाएं’
विषय पर चर्चा हुई। इस प्रकार वर्ष 2000 में अनेक नाट्य मंचन शाहजहाँपुर थियेटर पर हुए।
वर्ष 2001 में 10-11 जनवरी को कलाकार रफ़ीख़ान ने राजेश कुमार द्वारा नाट्य-रूपांतरित एवं निर्देशित
एकल ‘राम की शक्ति पूजा’ का मंचन किया। करीब पौने दो घण्टे तक एकल अभिनय करने का यह
प्रदेश में पहला रिकार्ड था। तीन मार्च को सआदत हसन मंटों की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ में मनीष मुनि ने जहाँ अपने जबर्दस्त अभिनय का लोहा मनवाया,
वहीं चेखव की कहानी’ एक क्लर्क की मौत’ में शमीम आजाद ने अपने अभिनय की छाप छोड़ी। इसी वर्ष विनोवा सेवा आश्रम के ‘ढाई आखर रंग मंडल’ ने 25 अप्रैल से 24 मई तक ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली’
की ओर से एक रंगकार्यशाला का आयोजन किया। इसमें रा. ना. वि.
के विशेषज्ञों-अखिलेश खन्ना, संदीप चक्रवर्ती, सत्यव्रत राउत,
सुरेन्द्र शर्मा व लखनऊ के भारतेन्दु नाट्य अकादमी के
योगेशपंत तथा आतमजीत सिंह ने रंगकर्मियों को अनेकानेक जानकारियाँ दीं। 24 मार्च को ‘ढ़ाई आखर रंग मंड़ल’ ने भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र की 150वीं जयन्ती पर
‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ की कार्यशाला में तैयार भारतेन्दु द्वारा लिखित तथा अखिलेश
खन्ना द्वारा निर्देशित नाटक ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ का सफल मंचन
किया। इसी दौरान शहर की एक नाट्य संस्था ‘आर्डनेन्स ड्रामेटिक क्लब समिति’ ने नौटंकी ‘हरिश्चन्द्र तारामती’ का ध्वनि एवं संगीत के माध्यम से मंचन किया जो एक नया प्रयोग था। इसी के साथ 5 जून 2001 को ‘अभिनव नाट्य मंच’ ने जगदीश शर्मा लिखित व गोपाल मेहता निर्देशित नाटक ‘इन्तेकाम’ की प्रस्तुति की। इसी महीने में ‘श्रीराम सेन्टर’ में प्रशिक्षण
प्राप्त कर रही जिज्ञासा भारद्वाज ने अपनी एक संस्था ‘जिज्ञासा नाट्य परिषद’ की स्थापना की और डा.धर्मवीर भारती के प्रसिद्ध उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ का नाट्य मंचन श्रीराम सेन्टर के निर्देशक मुश्ताक भाई के
साथ मिलकर किया। यह कहानी कला के हिसाब से हिन्दी के प्रथम प्रयोगवादी उपन्यास का
मंचन था। इसके बाद 13 जुलाई को
संजीव सारांश के जन्मशती पर अभिनेता विजय कुमार सिंह ने दो एकल-‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’ और ‘पागल की डायरी’ का सफल मंचन
किया। साथ ही एक अगस्त को ‘अभिव्यक्ति’
नाट्य संस्था ने राजकुमार अनिल कृत एवं राकेश श्रीवास्तव
द्वारा निर्देशित नाटक ‘जरूरत है श्रीमती की’ का मंचन किया। शाहजहाँपुर रंगमंच पर रंगमंच को व्यवसायिक बनाने के लिए पहली
बार ‘अभिव्यक्ति’ संस्था ने अपनी परम्पराओं को तोड़ते हुए फूहड, हास्य और वैचारिकता से ओत-प्रोत इस नाटक का मंचन किया। इस
नाटक के लिए दर्शकों द्वारा 50-50 रूपये का टिकट तक खरीदा गया।
इसी
समय यानी 26 अगस्त को ‘ज्योति कलश सम्मान’ के अन्र्तगत ‘कोरोनेशन’
ने राकेश कृत एवं ज़रीफ मलिक द्वारा निर्देशित नाटक ‘रामलीला’ का सफल मंचन किया। साम्प्रदायिक सौहार्द्र पर आधारित इस नाटक में रामलीला मंचन
के दौरान होने वाले हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाईचारे का संदेश दिया गया। 23 अक्टूबर को शेक्सपियर की कृति ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ के हिन्दी रूपांतरण ‘कामदेव का अपना बसन्त ऋतु का सपना’ का मंचन ‘नया थियेटर भोपाल’ द्वारा किया
गया। इसके निर्देशक थे-हबीब तनवीर। इसी वर्ष ‘अभिव्यक्ति’ संस्था द्वारा राजेश कुमार द्वारा लिखित एवं निर्देशित नाटक ‘घर वापसी’ का मंचन किया गया। यह प्रस्तुति शाहजहाँपुर रंगमंच के कुछ शीर्षथ प्रस्तुतियों
में एक थी। इस नाटक में वैसे तो सभी कलाकारों का अभिनय सराहनीय रहा,
लेकिन काजी की भूमिका में रफ़ीखान व हुस्ना की भूमिका में
गुलिस्ता ने अपनी एक अलग छाप छोड़ी और इस प्रकार राजेश कुमार ने अपने लेखन और
निर्देशन से एक बार फिर लोहा मनवाया। इसी के साथ 20 दिसम्बर को ‘शाहजहाँपुर क्रान्ति महोत्सव’ के अन्र्तगत दो नाटकों का मंचन हुआ। पहला नाटक राकेश श्रीवास्तव द्वारा लिखित
एवं निर्देशित ‘नारायण-नारायण’ था और दूसरा ‘कोरोनेशन’
संस्था द्वारा रविवर्मा लिखित व जरीफ मलिक आनन्द द्वारा
निर्देशित ‘मुक्तिसंघर्ष’ का मंचन किया गया।
वर्ष 2002 में एक बार फिर ‘अभिव्यक्ति’
के कलाकार एकल लेकर मंच पर आए। इस वर्ष जहाँ एक ओर मोअ़ज्जम
बेग ‘कम्बख्त इश्क’ लेकर मंच पर आए वहंीं मुनीष ‘मुनि’
टोबा टेक सिंह लेकर दर्शकों के सामने आए। इस वर्ष ‘अभिव्यक्ति’ ने राजेश कुमार के नाटक ‘गांधी ने कहा था’ को लेकर ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं’ में कई पुरस्कार प्राप्त किए। इसके अतिरिक्त कई ‘एकल-नाट्य’ भी प्रस्तुत किए गए। इसी वर्ष ‘अभिव्यक्ति’
संस्था से निकलकर एक नाट्य संस्था ‘संस्कृति’ की स्थापना रंगकर्मी अलोक सक्सेना ने की और 15 अगस्त को एक लघु नाटक-‘पगला’-गुलिस्ताँ के निर्देशन में मंचित कर शाहजहाँपुर रंगमंच में अपनी उपस्थिति दर्ज
करवाई। इसके बाद ‘संस्कृति’
संस्था राजेश कुमार कृत एवं निर्देशित एक नई
प्रस्तुति-मारपराजय- लेकर उपस्थिति हुई। इस नाटक का मंचन वर्ष 2003 में बरेली तथा वाराणसी में और वर्ष 2006 में आयोजित ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में किया गया, जिसमें इस
नाटक ने प्रथम एवं द्वितीय स्थान प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त वर्ष 2002 मे ‘आर्डनेन्स ड्रामेटिक क्लब समिति’, ‘न्यू स्टार थियेटर’, ‘अभिनव नाट्य मंच’ व ‘नवज्योति कला मन्दिर’ आदि संस्थाओं ने भी बाहर की कई नाट्य प्रतियोगिताओं में
हिस्सा लिया। ‘नवज्योति कला मंदिर’ के हास्य नाटक ने इस वर्ष काफी धूम मचाई। इस नाटक नेे उड़ीसा
में आयोजित ‘बहुराष्ट्रीय नाट्य प्रतियोगिता’ में कई पुरस्कार प्राप्त किए। इसके अतिरिक्त कई पुरानी
संस्थाओं द्वारा नुक्कड़ नाटक भी खेले गए। इस वर्ष ‘अभिव्यक्ति’ की एक प्रस्तुति ‘महाभोज’
के रूप में सामने आई। इसके अलावा दो सांस्कृतिक संस्थाएँ ‘वन्दना’ और ‘ग्लैक्सी स्टेज’-भी बनीं।
उपर्युक्त
नाट्य-मंचनो के साथ इसी वर्ष शाहजहाँपुर रंगमंच पर एक संस्था और उभर कर आई,
जिसने कई पूर्णकालिक नाटक, नुक्कड़ नाटक व संवाद हीन नाटक प्रस्तुत किए। ‘रचनाकार नाट्य परिषद’ नामक इस संस्था के संस्थापक थे-डाॅ. जी.ए. कादरी।
इस
संस्था ने अधिकतर डाॅ. कादरी द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक ही प्रस्तुत किए। वर्ष
2002 से वर्ष 2006 के बीच इस संस्था द्वारा हुई अनेकानेक सफल प्रस्तुतियों में ‘चांदी का गगन’, ‘कशकोल’,
‘मैं अमरबेल हूँ’, ‘पागल देश प्रेमी’, ‘सेहरा
बनाम मरसिया’,
‘हंसती खोपड़ी’ आदि बडे नाटक; ‘मच्छरों का
देश’,
‘नशीला ज़हर’, ‘जागते रहो’,
‘मरीज का मुस्तकबिल’, ‘अनपढ़ बीबी’, ‘हाय रे स्कूल’, ‘गोबर
का हाथ’,
‘चल-चल रे नौजवान’, ‘गूंगी बीबी’,
‘दो बूंद जिन्दगी की’ आदि नुक्कड़ तथा ‘शौचालय का उद्घाटन’, ‘चिढ़’,
‘पानवाला’, ‘तबलिया’,
‘आधुनिक मुगले आज़म’, ‘प्याज का भाव’ आदि स्किट
नाटक और ‘क्रिकेट मैच’, ‘गांधीजी’,
‘सुबह सवेरे’ आदि संवादहीन नाटक प्रमुख हैं। इस संस्था द्वारा अधिकतर समय-समाज को आधार
बनाकर तत्कालीन समस्याओं पर आधारित नाटकों का मंचन ही अधिक किया गया।
वर्ष 2003 से वर्ष 2006 तक ‘अभिव्यक्ति’ संस्था द्वारा ‘डब्लू-डब्लू-डब्लू
डाॅट काम लड़की डाट काम’, ‘दो कौड़ी का खेल’, ‘हवनकुण्ड’,
‘उफ ये जमाना वाह क्या बात है’, ‘कह रैदास खलास चमारा’ का मंचन किया गया तथा ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी’, ‘एक क्लर्क की मौत’, ‘मेरा राजहंस’, ‘हन्नू
हटेला से लड़की सेट क्यूँ नही होती’, ‘पेशावर एक्सप्रेस’, ‘साबरमती
एक्सप्रेस’
आदि एकल नाट्य प्रस्तुत किए गए। इन नाटकों एवं एकल नाटकांे
को विभिन्न ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त हुए।
वर्ष 2005 में एक बार पुनः शहर की सबसे प्रसिद्ध संस्था ‘अनामिका’ दुबारा सक्रिय हुई। ‘चन्द्रमोहन महेन्द्रू’ ने शहर के ही वरिष्ठ लेखक श्री चन्द्रमोहन ‘दिनेश’ की प्रसिद्ध कहानी ‘एकदा विकास खण्डे’ का ‘एक अधिकारी की मौत’ के नाम से एकल रूपंातर कर कलाकार हंसराज विकल के माध्यम से
मंचित किया। इसके बाद वर्ष 2006 में ‘अनामिका’ द्वारा नाटकों का मंचन हुआ। पहला मीराकांत का ‘भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर’, इसका निर्देशन किया चन्द्रमोहन महेन्द्रू ने। दूसरा राजेश
कुमार लिखित-‘घर वापसी’, जिसका निर्देशन किया आज़म खाँ ने। ‘भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर’ को गुडगांव में आयोजित ‘अखिल भारतीय प्रतियोगिता’ में तृतीय स्थान प्राप्त हुआ। इसमें महेश सक्सेना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का
सम्मान मिला। इस नाटक का मंचन शहर की ओसवाल फैक्ट्री में भी हुआ। वर्ष 2006 कें बिलकुल अंत में प्रस्तुति ‘घर वापसी’ को आजमगढ़ में प्रथम स्थान मिला, जिसमें सर्वश्रेष्ठ स्क्रिप्ट में राजेश कुमार, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता में कप्तान कर्णधार तथा सर्वश्रेष्ठ
निर्देशन में आज़्ाम खाँ को पुरस्कृत किया गया। आगे चलकर इस संस्था ने अपना पृथक
स्वरूप ग्रहण किया।
इसके
अतिरिक्त शहर की कुछ और प्रमुख संस्थाओं जैसे ‘कोरोनेशन’, ’आॅर्डीनेन्स ड्रामेटिक क्लब समिति’ तथा ‘नवज्योति कला मंदिर’ आदि द्वारा भी कई नाटकों का मंचन किया गया,
जिसमें ‘कोरोनेशन’
के कलाकारों द्वारा ‘गोदान’ की प्रस्तुति अधिक सफल रही। इसका मंचन भी कई बार किया गया।
उपर्युक्त
संस्थाओं के अतिरिक्त ‘मार्डन पपेट ग्रुप’, ‘स्टार मैजिक ग्रुप’, ‘दुर्गम नाट्य संस्था’ आदि कुछ और भी रंगसंस्थाएँ शाहजहाँपुर रंगमंच पर सक्रिय रहीं।
30 जनवरी से 03 फरवरी तक 2007 के मध्य ‘उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ’
तथा जिला सांस्कृतिक, शाहजहाँपुर के सहयोग से सम्भागीय नाट्य समारोह का आयोजन
शाहजहाँपुर रंगमंच की विशेष उपलब्धि रही। इसके अंतर्गत ‘संक्रमण’ (प्रयास कला संगम, लखनऊ),
चूहे (अक्स नाट्य एवं कला संस्थान झांसी),
अंधेर नगरी’ (रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय, आजमगढ़),
‘विदेसिया’ (संकल्प साहित्यक, सामाजिक एवं
संास्कृतिक संस्था बलिया) तथा ‘जल बिन मीन पियासी’ (आधारशिला,
इलाहाबाद) नाट्य प्रस्तुतियाँ हुईं।
वर्ष 2007
में ही अभिव्यक्ति संस्था से पृथक होकर रंगकर्मी मनीष मुनि
ने ‘विमर्श’ नामक नाट्य संस्था का गठन किया। कला के जरिए मनुष्य और समाज को बेहतर बनाने
हेतु जनपक्षधरता को अपना लक्ष्य घोषित करने वाली इस संस्था की कार्यकारिणी में
सुधीर विद्यार्थी अध्यक्ष, प्रेममुनि सचिव, राजीव पाण्डेय
उपाध्यक्ष,
सुनील मानव प्रचार सचिव, मनीष मुनि निर्देशक तथा सदस्यों में ज़फर खान,
आदित्य वाजपेई एवं महेन्द्र दीक्षित नामित किए गए।
सुनील मानव जी का शाहजहांपुर के रगमंच पर केन्द्रित आलेख पढ़ा.इस आलेख में लेखकीय गांभीर्य तथा इतिहास लेखन की ईंमानदारी नहीं दिखाई देती है .किसी संस्था का विस्तार से उल्लेख है तो किसी संस्था के राष्ट्रीय महत्व के कार्यों का उल्लेख तक नहीं किया गया है.इस कारण इस लेख से शाहजहांपुर के रंगमंच का प्रामाणिक इतिहास सामने नहीं आ सका है.
ReplyDeleteडॉ.राजकुमार शर्मा
आदरणीय शर्मा आपने आलेख पढ़ा बहुत-बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteमैं लेखक नहीं हूं, तथाकथित रूप में बनना भी नहीं चाहता। छात्र हूं और
हमेशा रहना चाहता हूं.......... और रही बात किसी भी संस्था के महत्त्व को
कम या ज्यादा आंकने की ............ तो यह मेरे हिस्से की समझदारी है।
एक बात और लिखने के लिए जितनी तटस्थता की आवश्यकता है, पढ़ने के लिए भी
उतना ही तटस्थ होना चाहिये.............. मानव