मरिहइं नाइं इत्ती जल्दी...
मरिहइं
नाइं इत्ती जल्दी...
Ø सुनील
मानव
तम्बाकू
पी जा चुकी थी,
चिलम
में अब केवल राख थी। बावजूद इसके हरिहर स्मृतियों में खोये हुए एक लम्बा सुट्टा
लगाते तो एक-आध चिनगी मुस्कुरा ही पड़ती थी। अपने बरोठे में एकचित हुए बैठे अधेड़ हरिहर
की निगाहें सामने नहर के बाजू में पसरी सड़क से मानों किसी बात पर जिरह सी करती
प्रतीत हो रही थीं। सड़क थी कि अपने गड्डों से आने-जाने वालों को बचाती या बचने का
मूक इशारा करती हुई हरिहर से मुंह चिढ़ा रही थी। अभी दो साल पहले ही एम.एल.ए. के
चुनाव से ठीक महीने भर पहले ही इस सड़क पर रमेसुर ठेकेदार ने पत्त्थर डलबाकर कोलतार
पुतवाया था, सो चुनाव होते ही प्रत्याशियों के साथ सिमटा चला गया और सड़क थी कि
वहीं अपने पुराने आवरण में बिछी रह गई थी। समझ ही नहीं आ रहा था कि इस बहस में
हरिहर के चेहरे पर विजयचिन्ह थे या इस सड़क पर।
यह
रोज का ही काम बन गया था कि जब भी हरिहर थोड़ी-बहुत फुरसत में होते तो बरोठे में
चुपचाप बैठकर सामने पसरी पड़ी सड़क को निहारते रहते थे। जब से थर्मल पावर के लिए
उनकी जमीन चली गई तब से उनकी दिनचर्या बदल गई थी। नहीं तो पहले हरिहर को
खेत-खलिहान से ही छुट्टी नहीं मिलती थी। वह सुबह तड़के ही खेत पर निकल जाते और
अच्छी-खासी धूप चढ़े लौटकर आते थे। सामने के चकरोट से घुटनों तक का कुर्ता पहने,
जिसके नीचे पाजामा न होकर केवल पाटले का नेकर ही होता था, सर पर कजरी गइया के लिए
हरी घास का गट्ठर डण्डे के सहारे उठाए जब वह घर आते थे तो बिटोला सरबत-पानी लिए उन्हें
घर से बाहर ही राह निहारती मिलतीं। सरबत-पानी के बाद हरिहर चिलम का सुट्टा लगाते
हुए बिटोला से खेत-खलिहान के बारे में तमाम सारी बातें करते थे। उनकी मेहनत खेत
में इठलाती तो हरिहर-बिटोला का अभिमान भी चेहरे पर चमक पैदा कर देता था। जब से खेत
थर्मल पावर की भेंट चढ़ गए तब से उनके चेहरे के उस अभिमान का स्थान अब एक स्थाई
चिन्ता और मायूसी ने ले लिया था। हरिहर और बिटोला की दिनचर्या अब बिलकुल ही बदल गई
थी।
“...अप्पा
हो रोटी बनि गइ हअइ खाउ चलइ.......” कहते–कहते
हरिहर की पोती पियरिया उनके गले में झूल गई तो हरिहर थोड़ा नीचे को झुक से गए।
पियरिया आठ-नौ साल की हो चुकी थी लेकिन अपने बाबा को ऐसे लिपटती थी जैसे कि अभी वह
दो-तीन साल की ही हो। आज पियरिया ने अपने उल्झे हुए बालों में सरसों का तेल डालकर
पास ही में रहने वाली अपनी सहेली उमिया की बड़ी बहन रमबतिया से दो चोटियां करवा कर
लाल फीते के दो फूल बनवाए थे, जो कि दोनों तरफ को खड़े हो रहे थे और बड़े बक्से में
हिफाजत से रखी हुई फ्रांक, जो उसके नाना पिछली बार कतिकी के मेले से लाए थे, पहनकर
गमक रही थी। वैसे भी वह हरिहर से बहुत लड़ुकाती थी और हरिहर भी उससे उतना ही लाड़
करते थे। वह जब भी बाजार जाते उसके लिए पेंड़ा और पोंगा जरूर लाते थे जो कि उसे
बहुत ही पसंद थे। बाजार वाले दिन तो पियरिया उनसे कुछ ज्यादा ही लिपटती-चिपटती और
चिरौरी करती थी। आज बाजार का ही दिन था और पियरिया हरिहर के साथ आज बाजार जाने के
पूरे मूड में थी।
चूँकि हरिहर स्मृतियों से
निकल नहीं पाए थे सो केवल मुस्कुरा भर दिए और पियरिया को गोद से हटाते हुए खोए-खोए
से अपनी लकड़ी टटोलने लगे जो पियरिया के पैर लगने से थोड़ा दूर हट गई थी।
आज ऐसा पहली बार हुआ था जब
पियरिया के लिपटने पर हरिहर ने उसके गाल पर न तो ‘मीठा चुम्मा’ लिया था और न ही
उसकी चुटिया पकड़कर प्यार से दुलारा-चुमकारा था सो पियरिया का उत्साह कुछ हल्का-सा
पड़ गया था।
हरिहर चुपचाप उठे और लकड़ी
टेकते हुए भीतर वाले बरोठे की ओर चले गए तो पियरिया भी उनके पीछे-पीछे हो ली।
बरोठे में जाकर हरिहर ने
गमछा उठाया और बाहर वाले कुँएं पर नहाने चले गए। जब तक वह लौटकर आए तब तक पियरिया
की अम्मा ने, जो उनका खाना लिए इंतजार ही कर रही थी, चौके में ही बैठना डाल दिया।
हरिहर नित्य की भाँति कबीर के कुछ पद गुनगुनाते हुए बैठने पर आ बैठे तो बहू ने
खाने की थाली उनके सामने रख दी। नहाने के बाद हरिहर का मन अब कुछ हल्का हो गया था
उस पर खाना भी पिछले दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा अच्छा था। थाली में तरकारी के साथ
दाल भी थी और साथ ही लुनिया का साग भी, जो पियरिया
की अम्मा खेत से आते समय खोंट लायी थी। हरिहर ने आज कई दिनों बाद इस तरह का खाना
देखा था। मन प्रशन्न हुआ तो हँसते हुए बहू से बोले - ‘तुम्हारी
अम्मा कहां गइं........ बअइ नाइं खाइहअइं का.......’ और
पियरिया जो पास ही में खड़ी थी हाथ पकड़कर पास बिठा लिया।
‘दद्दा
हमने अम्मासि कही रहइ खानकि ले ............. बअइ तउ तुम जन्तइ हअउ........ आजु ता
उन्ने चाइउ नाइं पी.................बिनइं पिए खेतप चली गइं.....’
अपने
आप में ही पियरिया की अम्मा कितनी ही देर तक बड़बड़ाती रही।
हरिहर और बिटोला के विवाह के
तकरीबन चालीस-पैतालिस बरस हो गए थे। बिटोला जब इस घर में बियाह कर आयीं थीं तब घर
में मिट्टी की दो दिवाले और उनके सहारे फूस का एक छप्पर ही रखा था। हाँ! पुरखो से
मिली ज़मीन अच्छी-खासी थी, लेकिन उस ज़मीन को कोई जोतता-बोता नहीं था। जब बिटोला आईं
तो हरिहर के अंदर भी उत्साह जागा और दोनों ने मिलकर कोयले के ढेर के समान उस ज़मीन
को सोने सी बना दिया। दोनों का जीवन आरंभ से ही बड़े प्यार से बीता था। बिटोला को
सब पता था हरिहर के बारे में। खाने-पीने से लेकर उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने तक; सब
कुछ। सुबह बिटोला उनके लिए चाय-सरबत बनातीं तो दोपहर और शाम को उनकी मन-पसंद
साग-सब्जी बनाकर खिलातीं। हरिहर का खाने का ढ़ंग भी अलग ही था। उन्हें चूल्हे से
निकली एकदम गरम रोटी पसंद थी, सो बिटोला एक-एक रोटी सेंक कर हरिहर को परोसती जातीं
और साथ ही हाथ बाला पंखा भी डुलाती जाती थीं। हरिहर को खाने में खाफी समय लगता था,
तब तक बिटोला उनके पास ही बैठी रहतीं और उनके खा चुकने के बाद ही उसी थाली में
अपने आप खाती थीं। घर में जब बहू आ गई तब भी हरिहर को खाना बिटोला ही खिलाती थीं।
बहूं को इतना धैर्य कहाँ कि एक घण्टे तक चौके में चूल्हे के सामने बैठे। इधर जब से
उनकी ज़मीन गई तब से दोनों प्राणी उखड़े-उखड़े से रहने लगे थे। चालीस-पैतालिस सालों
से चली आ रही दिनचर्या भी अब उनके जेहन से निकलती जा रही थी। बिटोला को जब घर के
कामों से निजात मिलती सीधे अपने उस खेत की मेंड़ पर जा पहुंचती थीं, जहाँ बियाह के
बाद उन दोनों नें मिलकर एक साथ हल चलाया था। आज उस खेत में ही थर्मल पावर की दो
गगनचुम्बी चिमनियां बन चुकी थीं और बिटोला को उस ज़मीन पर पैर रखने की भी इजाजत
नहीं थी।
हरिहर से खाया ना गया। बिना
खाए ही उठ गए। आज तक उन्होंने अकेले नहीं खाया था। सीधे खेत पर जा पहुंचे जहां एक
कोने में अकेली बैठी बिटोला रिलायंस की ‘रोजा थर्मल
पावर’
वाली
गगन चुंबी चिमनी से निकलते हुए धुएं में न जाने क्या तलाश रही थीं। चारो ओर मशीनों
की घरघराहट,
तेज
धूप,
गर्म
और धूल उड़ाती तेज हवा वातावरण को एक अजीब रहस्य से भर रहे थे। सिर पर प्लास्टिक की
पीली टोपी पहने मजदूर चुपचाप इधर से उधर आ-जा रहे थे। सब अपने में सिमटे हुए से
ऐसे लग रहे थे जैसे सबों को किसी प्रेत की छाया ने घेर लिया हो। एक समय था जब
शाहजहाँपुर जिले से दस-बारह किलो. मी. दूर रोजा के पास का यह क्षेत्र हरी-भरी
फसलों के साथ महकता रहता था। हर प्रकार की फसल के लिए उपजाऊ यह भूमि यहां के रहने
वालों के अभिमान की प्रतीक थी। धान की रोपनी हो या गन्ने की छुलाई हर अवसर पर ऐसा
लगता था जैसे कोई त्योहार आ गया हो। हर ओर हंसी-मजाक और हमजोलियों की चुहलबाजी
पूरे वातावरण को संगीतमय बना देती थी। सावन की रिमझिम फुहार में धान की ‘बेढ़’[1]
उखाड़ने वाली औरतें आपस में गुनगुनातीं –
“आली बन बोलन लागे मोर
उमड़-घुमड़ बरसत बदरा रे,
घन गरजत चहुँ ओर
आली रे बन बोलन लागे मोर”
...तो धान की रोपनी करने
वाले युवक-युवती संवेत स्वर में गा उठते –
“जोबन मेरे बस में नाहीं
पिया – २
जह जोबन कउ कुठरीम मूंदो
कुंजी-कुलुफ दइ हारे पिया,
जोबन.........
जहु जोबन हइ कट्टर घोड़ा
दहिके लगाम चढ़ि बइठइ पिया,
जोबन............”
....और एक साथ कई ‘गोईं’[2]
जब ‘कंदहर’[3]
बनाने लिए चलतीं तो अधेड़ और कुछ बूढ़े लोगों का मन भी तरंगे लेने लगता –
“राजा बलि के लगे दरबार देव
सब आवत हइं
अउ गढ़ परबत से चले हइं
महादेउ
बगल मइं डमरू दबाये, बजावत
आबत हइं
राजा बलि के लगे दरबार.........”
हरिहर और बिटोला इस प्रकार
के माहौल में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे, लेकिन आज यह सब महज याद करने भर की बातें
रह गईं थीं।
हरिहर को अक्सर वे क्षण याद
आते जब बिटोला शादी के बाद पहली बार खेत पर उनके लिए खाना लेकर आयीं थीं। लाल
चुनरी की धोती पहने बिटोला को देखकर जैसे पगला से जाते थे हरिहर और चोरी-छुपे उनसे
कोई न कोई छेड़-छाड़ कर बैठते तो बिटोला का गोरा चेहरा और भी लाल हो जाता। उनकी यह
छेड़-छाड़ अनवरत चलती रही। लेकिन इधर जब से खेत गए उनकी यह छेड़-छाड़ भी मुरझा गई थी।
‘हियां
अकेली काहे बैठी हउ रामूकि अम्मा...’ कहते हुए
हरिहर ने पीछे से ही बिटोला के कंधे पर प्यार से हाथ रखा।
स्मृतियों में खोई बिटोला को
एक झटका सा लगा। जाग सी गई बिटोला ने करीब-करीब डबडबाई आंखों से हरिहर को निहारा
पर कुछ बोल नहीं पाई, लेकिन हरिहर बिटोला की इस मूक भाषा
को समझ गए और पास ही में बैठते हुए प्यार से बिटोला के हाथ को अपने हाथ में लेते
हुए बोले ‘अब
सोचनसि का हुइही.........खालिम तुम अपनेक परेशान कत्ती हउ...........’
‘नासु
हुइ जअइही जह सरकारकु जहिने हमारे हसति-खेलति भे घरमा आगी लगाइ दइ....’
और
आंसू जो अब तक किसी तरह से रुके थे पूरे वेग के साथ बाहर निकल ही आए। रो पड़ी
बिटोला फबक-फबककर।
दोनों न जाने कितनी देर
डबडबाई आंखों से शून्य में निहारते हुए बैठे रहे। आखिरकार हरिहर ने ही उस तन्द्रा
को तोड़ा –
‘चलउ
अब घरइ चलउ... कुछु खाइ लेउ चलइ... आजु संझाक मंदिरप मीटिंग हइ,
डी.एम.
साहब,
जन्डैल
सिंह अउरअउ बहुतसि लोग अइहइं, देखउ का
होइ जह मीटिंगम.....’
‘कछू
नाइं हुइही............दहिअर बकन अइहीं, फोटू अइंचइही
अउरु चले जइहीं... उनकी जमीन गइ होती त कछु पेटम आगी पत्ती... पेटु भरो होत त सबई
बकलोली कल्लेत हइं...... ’ बिटोला के
शब्दों में एक ऐसी निराशा थी जिसका कोई तोड़ नहीं था। उसका हर शब्द मानों कह रहा था
कि ‘अब
कुछ नहीं हो सकता।’
इस पूरे क्षेत्र का रकबा
करीब 8200
बीघे
का रहा होगा जिस पर रिलायंस ग्रुप द्वारा यह ‘थर्मल पावर’ लगाया था। हरिहर और
बिटोला के पास तकरीबन पैतिस-चालिस बीघे ज़मीन थी, जो रिलायंस के इस यज्ञ में आहुति
बन गई थी।
इनकी यह ज़मीन प्रदेश की
मुलायम सरकार के समय ली गई और माया सरकार के समय इस पर कब्जा किया गया था।
औने-पौने मुआवजे से किसानों की आँख मूंदने का प्रयास किया गया, पर अपनी ज़मीन इतनी
जल्दी यह किसान बंजर होते नहीं देख पा रहे थे। उनकी रूह तक कांप उठती थी जब वह
अपनी लहलहाती फसलों के स्थान पर कालिख उगलती चिमनियों की कल्पना करते थे। परिणामस्वरूप
कुछ लोगों ने संगठित होकर प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाने का भी प्रयास किया, पर सब
विफल। संगीनों की पैनी नोक का यह साधारण किसान सामना न कर सके। कुछ को इतना
डरा-धमका दिया गया कि वह चुप हो गए और जो नहीं डरे उनको सलाखों के पीछे डाल दिया
गया। बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे इस ‘बौद्धिक देश’ का एक भी बुद्धिजीवी इनके
पक्ष में नहीं खड़ा हुआ। किसी भी अखबार में इन किसानों की चर्चा नहीं हुई। हां!
अखबारों ने ‘थर्मल पावर’ की गुणगाथा पूरे मनोवेग से गायी।
मरता क्या न करता। गाँव
वालों को महसूस होने लगा था कि अब उनकी भूमि वापस नहीं मिल सकती और न ही वाजिब
मुआवजा, लेकिन उनका हृदय था कि हार मानने को तैयार ही नहीं हो पा रहा था। इसके
चलते इतने दिनों से दबा पड़ा आक्रोश पूरे वेग के साथ फूट पड़ा। उस दिन ‘थर्मल पावर’
के किसी अधिकारी या मालिक का दौरा था। सो गाँवों के बच्चे-बूढ़े, औरतें, जवान सब
अपने हाथों में हशिया, दराती, कुल्हाड़ी, बाँका; जो भी सामने पड़ा ले दौड़े। समस्या
अब और भी जटिल हो रही थी। इन बच्चों-बूढ़ों और औरतों को न तो जेल में ही डाला जा
सकता था और न ही कोई जटिल कार्यवाही की जा सकती थी। सो अब दूसरा पैंतरा अपनाया
गया। आपसी बातचीत से बात सुलझाने का प्रलोभन इनको दिया गया और मध्यस्त एक ऐसे
व्यक्ति को बनाया गया जिस पर यहाँ के ही नहीं बल्कि पूरे देश के किसान गर्व करते
थे। जी हाँ! ये हमारे किसान नेता श्री रघुवीर सिंह टिकैत ही थे।
आज मंदिर पर इन्हीं का भाषण
होना था।
***
मंदिर पर आज बहुत भीड़ थी।
ऐसा लग रहा था जैसे चैत में लगने वाला मेला आज ही लग गया हो। जिन आठ गांवों की
जमीन रिलायंस की इस परियोजना के लिए अधिग्रहीत की गई थी, उनका बच्चा-बच्चा आज यहां
एकत्र था। दिलावलपुर भटकर, गुंवारी, परमाली, बाड़ीगांव, कनेंग, विवियापुर, जिन्दीनगर,
चौड़ेहरा, ऐंडापुर आदि गांवों से आए हजारों बूड़े, बच्चे, जवान औरत-मर्द सभी के
चेहरे पर आज एक विशेष उत्साह था। सब यह जानते हुए भी कि अब उनकी जमीन नहीं मिल
सकती और न ही उसका माफिक मुआवजा मिलने की कोई उम्मीद है, लेकिन आज की इस मीटिंग
में किसान नेता रघुवीर सिंह टिकैत के आने को लेकर आसा की एक आस लिए यहां उपस्थित
हुए थे।
वास्तव में श्री रघुवीर सिंह
जी भारत के किसानों के लिए प्रेरणास्रोत थे और यह एक संयोग ही था कि एक किसान नेता
का चेहरा तक गाँव के आम आदमी के चेहरे के साथ एकाकार हो रहा था। सभी ग्रामीण
उन्हें अपने में से ही एक समझ रहे थे।
हरिहर भी बिटोला और बहू-बेटे
के साथ पंडाल के एक कोने में जा बैठे थे। आज भले ही सबके चेहरे पर कुछ उत्साह के
चिन्ह दिखाई दे रहे हों पर बिटोला और हरिहर एकदम तटस्त भाव से बैठे थे।
‘... का दद्दा तुम्हूं कुछु
बुलिअउ मइक प...’ आज की इस मीटिंग के संचालक परमाली के लल्लासिंह ने हरिहर को
मुस्कुराते हुए चिकोटी काटी।
लल्ला सिंह इस क्षेत्र के
कुछ पढ़े-लिखे नेता टाइप व्यक्ति थे और किसी तरह से अन्य गांव वालों से ज्यादा
मुआवजा भी ले चुके थे। साथ ही इन्होंने कुछ ऐसे गुप्तचर भी पाल रखे थे जो गांव
वालों की हर योजना की सूचना इन तक पहुंचाते थे और ये इस सूचना को हुक्मरानों तक
पहुंचाकर उनकी हमदर्दी पाते थे। इसी के बल पर इन्होंने अपने तीन बेटों को इस
परियोजना में नौकरी दिला दी थी और चौथे के साथ मिलकर खुद फैक्ट्री से निकलने वाले
अनुपयोगी लोहे को सस्ते दामों में लेकर आगे ऊंचे भाव पर बेचते थे। इसके साथ-साथ ये
युवा बेरोजगारों को भड़काकर लोहे की चोरी भी करवाते थे। खैर! आज की इस मीटिंग के
संयोजक और संचालक यही लल्ला सिंह थे।
‘अरे तुम्हारे होति भे जइका
बुलिहीं... ’ बिटोला द्वारा दिया गया जबाब इतना तीखा था कि लल्ला सिंह वहां न
रुककर सीधे माइक पर जा पहुंचे।
‘आज यहां उपस्थित समस्त
किसान भाइयों, जैसा कि आप सब जानते हैं कि आज हम लोग यहां क्यों एकत्र हुए
हैं....’ लल्ला सिंह धाराप्रवाह बोलने लगे, जिसमें वह माहिर थे।
‘... और हमारे मध्य आज की इस
सभा के मुख्य अतिथि महान किसान नेता श्री रघुवीर सिंह टिकैत जी आ चुके
हैं.........मैं उनको मंच पर आमंत्रित करता हूं। (मंचाशीनों की ओर एक चटुकारिता
भरी दृष्टि डालते हैं और श्रोताओं का अभिवादन पाने के लिए उनकी ओर खीसें निपोरते
हैं) साथ ही मंच पर आमंत्रित करता हूं सभा के मुख्य वक्ता प्रो. श्यामबिहारी मल्ल
जी को ......जो हमारे देश के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के महान विचारक हैं।’
पूरी सभा तालियों की गड़गड़ाहट
से गूंज उठी। तालियों की गूंज के साथ ही ‘महान किसान नेता’ और विचारक महोदय मंच पर
लोगों का अभिवादन स्वीकर करते हुए पहुंच गए तो लल्ला सिंह ने आगे बोलना आरंभ किया –
‘हमारी आज की सभा के मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता मंच पर आ चुके हैं, मैं समस्त
किसान भाइयों की ओर से उनका स्वागत करता हूं... हार्दिक अभिनंदन करता हूं... और
इसके साथ ही मैं अपने जनपद के न्यायप्रिय जिलाधिकारी महोदय श्री अमित कुमार जी से
भी मंच पर आने का अनुरोध करता हूं..........श्री अमित कुमार जी.....’
मंच पर तीनों जनप्रतिनिधि आ
चुके थे। लल्ला सिंह ने बड़े ही आदर और सम्मान का भाव प्रकट करते हुए इनका फूल
मालाओं के साथ अंग वस्त्र दिलवाकर स्वागत करवाया।
संचालक महोदय ने थोड़ा
खासते-खखारते हुए फिर से जनसमुदाय की ओर दृष्टि फेरी – ‘... अब मैं इस सभा की
कार्यवाही को आगे बढ़ाते हुए सर्वप्रथम आमंत्रित करता हूं हमारे बीच के ही एक किसान
भाई श्री जन्डैल सिंह को.....जो हमारे किसान भाइयों की फरियाद से हमारे किसान नेता
जी को अवगत कराएंगे.....(थोड़ा रुकते हुए) श्री जन्डैल सिंह जी.....’
जन्डैल सिंह इन गांवों में
सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। इनका एक बेटा शोध कर रहा था तो दूसरा इंजीनरिंग
पढ़ रहा था, बीच वाला लड़का इनके साथ ही घर-वार देखता था और तीनों लड़कियां पोस्टग्रेजुएट
हो चुकी थीं। कुल मिलाकर इनका जीवन यहाँ के अन्य ग्रामीणों से हर स्तर पर बेहतर
था। और इनकी जमीन भी कम ही गई थी। इनके अधिकांश खेत थर्मल पावर की सीमा से लगे
होने के कारण दस गुनी कीमत के हो गए थे। बावजूद इसके भी इनके मन में थर्मल पावर के
प्रति काफी आक्रोश(?) था। प्रधानी का चुनाव सर पर आ चुका था, जिसके यह प्रबल
दावेदार थे।
माइक अब श्री जन्डैल सिंह के
हाथ में थी। ये कुछ विद्रोही किस्म के व्यक्ति थे, सो बिना किसी औपचारिकता के
धाराप्रवाह बोलने लगे जैसे कि कोई रटा-रटाया निबंध मास्टर जी को सुना रहे हों –
‘...रिलायंस की इस परियोजना के लिए सन् 1992 में जमीन का अधिग्रहण किया गया था
(थोड़ा सा रुककर मंचाशीनों की ओर देखते हुए) – राज्य एवं केन्द्र सरकार की दलाली
में। इस भूमि का मुआवजा ‘रिलायंस ग्रुप’ ने सरकारी रेट पर ‘सरकार’ को दिया और
सरकार ने यह मुआवजा 5-7 हजार रुपए प्रति बीघे की दर से किसानों को देना सुनिश्चित
किया; जिसे कुछ किसानों ने ले लिया और कुछ ने इंकार कर दिया। जिन्होंने नहीं लिया
उनको कुछ समय बाद ब्याज सहित दिया गया अथवा देने की कोशिश की गई। लेकिन यह ‘ब्याज
सहित मुआवजा’ भी यहां की उपजाऊ भूमि की कीमत से काफी कम था। इतना कम कि यदि इससे
कहीं और जमीन खरीदी जाए, तो अधिग्रहित भूमि की आधी-चौथाई भूमि भी न मिल सके ....’
जन्डैल
सिंह मंचासीनों की ओर मुखातिब हुए बिना माइक फाड़े डाल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि
सारा का सारा क्रोध आज ही निकाल देंगे। वह थोड़ा रुके और डायस के ही पास रखी बोतल
से पानी पिया और फिर उसी जोश और लहजे से बोलना आरंभ किया – ‘...इस क्षेत्र के कुछ
किसानों ने इस परियोजना के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश भी की। वे तत्कालीन डी.एम.
से मिले, धरने-प्रदर्शन किए, नारेबाजी की लेकिन सरकारी संगीनों की पैनी नोक से उनकी
आवाज दबा दी गई। जिस समय इस क्षेत्र में काम आरम्भ हुआ, उस समय करीब दो-तीन ट्रक
पी.ए.सी. के जवान उसकी देख-रेख हेतु भेजे गए। जिनके द्वारा परमाली गांव के कुछ
लोगों को जेल भी भेजा गया और शेष गांव को इतना आतंकित कर दिया गया कि वहां के
किसान इस संबंध में कुछ बताने को सहमत नहीं होते हैं...
...जिस
समय भूमि अधिग्रहीत की गई थी, उस समय कहा गया था कि जिनकी जमीन ली गई है उन्हें
योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी। जब तक क्षेत्र का घिराव चलता रहा तब तक यह दिलासा दी
जाती रही, लेकिन जब क्षेत्र का घिराव हो गया तो सीधे-टेंढ़े इस बात से भी इंकार कर
दिया गया...
...भूमि पर कब्जे के समय खड़ी
फसलें उजाड़ दी गईं, नहर कटवाकर पूरे क्षेत्र में सैलाव ला दिय गया, कुछ गन्नों के
खेतों में आग लगवा दी गई, जिससे किसान परेशान होकर खुद व खुद जमीन छोड़ दें।’
अब जाकर वह थोड़ा रुके और फिर
एक बार जोर से बोले – ‘... मैं जानता हूं कि मेरे इस तरह बोलने से संचालक महोदय और
हमारे नेता जी को काफी परेशानी हो रही होगी....’ संचालक लल्ला सिंह और मंचाशीनों
का चेहरा देखने लायक था इस समय।
‘... इसलिए मैं अपनी बात को
यहीं पर विराम देता हूं और आशा करता हूं कि हमारे किसान नेता और डी.एम. साहब हम
किसानों की व्यथा को समझेंगे।’ ब्रह्मासिंह ने डायस से ही सबको हाथ जोड़कर प्रणाम
किया और अपने स्थान पर आ बैठे।
इन वक्ता महोदय ने चूंकि
काफी समय ले लिया था और संचालक महोदय इनके वक्तव्य से कुछ भिन्ना भी गए थे सो माइक
पर आकर किसी प्रकार की कोई टिप्पड़ी किए बिना ही सीधे विश्वविद्यालय से आए विचारक
महोदय को आमंत्रित करने लगे – ‘... अब मैं आप सबको और इंतजार न करवाकर मंच पर
आमंत्रित करता हूं प्रो. श्यामबिहारी मल्ल जी को.... आशा करता हूं कि वह इस समस्या
पर गंभीर विचार रखेंगे..... श्री श्यामबिहारी जी.....’
प्रो. साहब का भव्य तेज
देखकर लोगों को लग रहा था कि ये अवश्य कोई अच्छी बात कहेंगे। विचारक जी अपनी
धीर-वीर गंभीरता से उठे और महानता के आवरण से ओत-प्रोत होते हुए डायस पर पहुँचे।
कुछ देर भीड़ को निहारने और खुद को संभालने के बाद आपने बोलना आरंभ किया – ‘ आज की
इस सभा के मुख्य अतिथि जी, जिलाधिकारी जी, संचालक महोदय और यहां पर उपस्थित समस्त
किसान भाइयों...(थोड़ा रुकते हुए) मैं आभारी हूं आप सबका जिन्होंने इतनी दूर से
यहां अपनी बात रखने के लिए मुझे आमंत्रित किया है... ’
काफी
देर तक आभार प्रकट करते रहने के बाद अब विचारक महोदय अपनी असल बात पर आए – ‘मेरे
प्रिय भाइयों और बहनों.... हम जिस देश में रहते हैं वहां उद्योग-धन्धों ने भले ही
कितनी उन्नति कर ली हो, पर राष्ट्रीय आय में आज भी कृषि क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। आज भी बहुत-सी जनसंख्या कृषि से ही अपनी आजीविका कमाती है। अभी पिछले
दिनों कोलम्बो में एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसमें मुझ
अकिंचन को भी सादर आमंत्रित किया गया था....’ प्रो. साहब की भव्यता और भी बढ़ गई।
मंच
परे बैठे ग्रामीण उनकी भव्यता और वक्तव्य को समझने का पूरा प्रयास कर रहे थे। आज
पहली बार वह ‘विश्वविद्यालयी पढ़ी-लिखी भाषा’ को सुन रहे थे। सो ना समझ पाने के
कारण सब प्रो. साहब की भव्यता पर ही निगाहें टिकाए रहने पर मजबूर थे।
प्रो.
साहब ने एक दृष्टि उपस्थित जनसैलाब पर डाली और दूसरी ‘मंत्रमुग्धित-सी’ मंचाशीनों
पर...
बात
आगे बढ़ी ‘... इस संगोष्ठी में मैंने अपने देश के किसानों की तमाम सारी समस्याओं पर
आधारित एक शोधपत्र पढ़ा था...’ कुछ मुस्कुराते हुए माइक पर हाथ रखकर मंचाशीनों की
ओर मुखातिब होकर धीरे से ‘इसको मेरे बेटे ने फेसबुक पर भी लगाया था, जिस पर सैकड़ों
प्रतिक्रियाएं आईं....’(एक महिमामयी मुस्कान प्रस्तुत है....)
मंचाशीनों
ने प्रो. साहब की तारीफ में सिर हिलाया तो प्रो. साहब और भी गदगद हो गए और भीड़ की
ओर मुखातिब होते हुए अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाया ‘... इस शोधपत्र में मैंने भारत के
किसानों के हो रहे शोषण पर काफी सूक्ष्मता से प्रकाश डाला था....बाद में इस
शोधपत्र को वहाँ की एक बड़ी पत्रिका ने प्रकाशित भी किया था...’ प्रो. साहब का
उत्साह अब सर चढ़कर बोल रहा था।
‘...
जइ का कहत हइं हो...’ हरिहर ने जन्डैल सिंह कान में फुसफुसाया। बहुत देर से हरिहर
प्रो. साहब की बातों को समझने प्रयास कर रहे थे।
‘...
सुन लेउ चुप्पे चाप... बहुत अच्छी बात कहत हइं.....’ जन्डैल सिंह व्यंग्य के साथ
मुकरा दिए।
हरिहर
फिर से एकटक वक्ता को समझने के प्रयास में लग गए।
प्रो.
साहब की आत्मप्रशंसा अब पुरजोर पर थी ‘...मैंने वहाँ इस बात पर भी प्रकाश डाला था
कि ... ’
पूरे
जनसमुदाय को एक बार और निहारते हुए श्यामबिहारी जी आगे बढ़े ‘...आज भी भूमि का
महत्त्व तीन प्रमुख कारणों से विशेष रूप से आँका जा सकता है – भारत की अधिकांश
जनसंख्या की आय का मुख्य साधन कृषि है, खेती से ही मनुष्य की सबसे अह्म आवश्यकता –उदरपूर्ति-
पूरी होती है एवं अर्थव्यवस्था निर्भर है जो कि धुरी का कार्य करती है, खेती ही एक
ऐसा साधन है जो अन्य उत्पादों के लिए कच्चा माल उत्पन्न करता है ... ’ विचारक
महोदय ऐसे बोल रहे थे जैसे यहां अनपढ़ किसान-मजदूरों के सामने न होकर विश्वविद्यालय
के ए.सी. रूम में अपने समकक्षों के बीच किसी बहस को बढ़ा रहे हों। सभी स्रोता उनकी
भव्यता के सामने नतमष्तक थे। वह आगे बोले जा रहे थे ‘...लेकिन आज इस बहुपयोगी भूमि
पर पूंजीवाद और व्यवसायिकता के हमले हो रहे हैं । हमारे प्राकृतिक साधन (भूमि, जल
इत्यादि) हमें ही बेंचे जा रहे हैं। इसके लिए तरह-तरह के जाल बिछाए जा रहे हैं, तरह-तरह
के चकमें दिए जा रहे हैं। अब वह चकमें चाहें ‘गंगा एक्सप्रेस वे’, ‘नर्मदा बांध
परियोजना’, ‘टिहरी बांध परियोजना’ आदि के रूप में हों या किसी अन्य प्रकार से।
किसानों का शोषण इस चौतरफी साम्राज्यवादी नीति द्वारा हर ओर से हो रहा है....’ और
अब विचारक महोदय राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़े जा रहे शोध-पत्र की तर्ज पर आ गए थे –
‘....किसानों
की इस स्थिति पर प्रकाश डालते हुए किशन पटनायक की पुस्तक ‘किसान आंदोलन : दशा और
दिशा’ के संपादक, भूमिका में लिखते हैं –“...अब खेती को तेजी से पूंजीवादी बाजार
तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे की ना मिटने वाली भूख की रणनीति का पुर्जा
बनाया जा रहा है। भारत जैसे तमाम देशों को यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें अपनी
जरूरत का अनाज, दालें व खाद्य तेल पैदा करने की जरूरत नहीं है, दुनिया में जहाँ
सस्ता मिलता है वहाँ से ले लें.....”............
और
मेरे प्रिय किसान भाइयों इसी, साम्राज्यवादियों की भूमि अधिग्रहण द्वारा किसानों
के शोषण के तमाम सारे उदाहरणों में से एक उदाहरण आपकी ये समस्या भी है। ... मैं
आशा करता हूं कि हमारे हुक्मरान इस बात को समझेंगे और किसान भाइयों को इस समस्या
से मुक्ति दिलाने का भरपूर प्रयास करेंगे..... ’ अब इतनी देर के बाद इनके मुखमण्डल
पर महिमामयी मुस्कान ने एक बार विजयी अंदाज में फिर दस्तक दी –
‘...इसी
के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूं... क्योंकि अभी हमारे मध्य आदरणीय किसान
नेता और जिलाधिकारी महोदय उपस्थित हैं।’ प्रो. साहब मंच से हाथ जोड़ते हुए अपने
स्थान पर आ बैठे तो लल्ला सिंह ने मंच संभाला।
‘...
मेरे प्यारे किसान भाइयों अभी आपने प्रो. साहब के विचार सुने। किस प्रकार से
उन्होंने हमारी समस्या को साम्राज्यवाद से जोड़ दिया।... हम सब आशा करते हैं कि
हमारे देश की सरकार भी इन बातों को आत्मसात करेगी....।
संचालक
महोदय एक बार फिर मंचाशीनों की ओर मुखातिब हुए – ‘ .... अब मैं उस शख्स को मंच पर
आमंत्रित करता हूं जिनका हम सबको इंतजार था। .... जी हाँ! आप सही समझे मैं
आमंत्रित करता हूं (थोड़ा रुकते हुए) हमारे महान किसान नेता श्री रघुवीर सिंह जी को......
वह हम सब को इस समस्या से निजात दिलावाने का आश्वासन दें....
संचालक
के मुंह से अपने आमंत्रण की बात सुनते ही महान किसान नेता जी अपनी गंभीरता को
संभालते हुए अपने चिर-परिचित अंदाज के साथ मंच पर उपस्थित हुए। सर पर भव्य पगड़ी और
खद्दर की धोती-कुर्ते के साथ आपकी ‘किसान प्रियता’ बहुगुड़ित हो रही थी।
इतनी
देर से जिनका वक्तव्य सुनने के लिए आज यहाँ ये किसान एकत्र हुए थे, उनके मंच पर
आते ही सबके चेहरे खिल उठे। भीड़ से समवेत स्वर में नारे सुनाई पड़ने लगे –
‘...रघुवीर सिंह टिकैत......जिन्दाबाद......हमारा नेता कैसा हो...........रघुवीर
सिंह जैसा हो....... ’ और युवाओं के नारे.......... ‘.....रघुवीर जी संघर्ष
करो..........हम तुम्हारे साथ हैं......’
पूरा
वातावरण ‘महान किसान नेता’ के नारों से गूंज उठा। काफी देर तक लगते रहे नारों को
मंच पर पहुंच चुके वक्ता ने हाथ के इशारे से शांत किया।
अब
बारी थी इनके गर्जन-तर्जन की। लेकिन यह क्या.... ‘महान किसान नेता’ जी बस चंद शब्द
बोलकर ही बिना किसी लाग-लपेट के अपने स्थान पर जा बैठे – ‘.... मेरे प्यारे किसान
भाइयों..........मैंने आपकी समस्या को यहाँ पर बोल रहे वक्ताओं के माध्यम से
जाना-समझा........मैं आज ही रिलायंस के ऑफीसरो से मिलकर बात करूँगा.........आप हम
पर विश्वास रखिए..... ’ और हाथ उठाकर नारा लगाया – ‘........जय जवान.........’
‘........जय
किसान......’ भीड़ चिल्लाई।
‘...
अब मैं इस सभा के अंत में मंच पर आमंत्रित करता हूँ हमारे न्यायप्रिय जिलाधिकारी
श्री अमित कुमार जी को.....’
संचालक
को नेता जी के संभाषण पर कोई टिप्पड़ी करना उचित नहीं जान पड़ा।
भीड़
का उत्साह कमतर हो गया था।
जिलाधिकारी
महोदय ने अपनी बात आरंभ की –
‘.....
आप सबके बोलने पश्चात मैं क्या बोलूं........(धीर-वीर-गंभीर-प्रतापी) .......मेरे
पास सिवाय अश्वासन के और कोई शब्द नहीं हैं.........पर इस स्थान पर जहाँ आज मैं
खड़ा हूँ वह उत्तर प्रदेश का एक छोटा, किन्तु तेजी से उभरता हुआ, औद्योगिक
परिक्षेत्र है। यहाँ पर ओ.सी.एफ., कृभको श्याम, खंडसारी एवं चीनी मिल्स, चूड़ी,
कपास एवं उर्वरक इत्यादि की लगभग 11136 छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां है(जिले की
विकास पत्रिका से पढ़कर)। पूंजीवाद के इसी विकास क्रम में ‘रिलायंस ग्रुप’ ने यहाँ
के किसानों की लगभग 8200 बीघे की उपजाऊ जमीन पर ‘रिलायंस एनर्जी पावर’, ‘सीमेंट
फैक्ट्री’ एवं ‘रबर फैक्ट्री’ बनाने की शुरुआत की है .... यह शुरुआत अच्छी है पर
किसानों को इसका वाजिब मुआवजा तो मिलना ही चाहिए। इसके लिए मैं सरकार से गुजारिश
करूँगा....।’ और जिलाधिकारी महोदय डायस से हटकर मंच पर आ बैठे।
संचालक
महोदय नें मंच की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद कार्यक्रम के समापन की घोषणा कर
दी। ‘किसान नेता’ किसी आंदोलन के कारण दिल्ली जाना था, प्रो.साहब की फ्लाइट थी और
जिलाधिकारी महोदय को इलाके के दौरे पर जाना था।
तीनों
मंचाशीन रिलायंस द्वारा किए गए ‘जल-पान के प्रबंध’ को देखने चले गए। लल्ला सिंह और
कुछ चमचे भी उनके पीछे हो लिए।
बाकी
सभी भी एक-एक कर अपने-अपने घर जाने लगे।
***
शाम
का सूरज सिर पर आ चुका था। हरिहर, बिटोला, जन्डैल सिंह, खलोली, रामपाल सिंह, इकलाख
अहमद, खुर्शीद अली, रमेसुर चौधरी आदि मंदिर के पास बैठे बातें कर रहे थे।
‘....
तअउ का हुइही लल्ला अब......’ बिटोला ने जन्डैल सिंह से पूछा।
‘....
हुइही का आजी देखो नाइं कैसे सब चमचागिरीम बोलि रहे रहइं....’
‘...
सारेनक रुपियनसि भरो सूटाकेशु मिलिगो हुही..... देखो नाइं तुमने आजी कैसे सबके
मुंह पर पइसनकि लार टपकि रही रहइ.....’
‘....हां
लल्ला सही कहत हअउ तुम..........जअउ ता सबु डिरामा रहइ हमइ सबका दिखाउनकि ले......’
हरिहर के चेहरे से मासूमियत भरी लाचारी बहने लगी।
इतनी
देर से चुपचाप बैठे रामपाल दद्दा बिना किसी की ओर मुखातिब हुए मानों खुद से बातें
करने लगे हों –
‘....हमारी
65 बरसकि उमरि हुइ गइ हइ, जहमा हमने कबहूं अइसो जमाना नाइं देखो कि कोऊ जमींदारिउ
महियां अइसे जमीन गइ होइ, जैसे जह परजातंत्र महियां छीनी गइ। हमारे आधेसि जाधा
गांवुम खानकि ले गेहूं नाइं हइं, हमारे बच्चनकि लै कोई सुविधा नाइं हइगी। अबता
सरकार जेहेइ करअइ कि हियां बम्ब गिराइ देइ, जिस्से एकइ बारम पिरान निकरि जाइं,
नाहिंत हम औउरु हमारे बच्चा कुत्तनकि मउत मरि जइहीं .....’ आठ एकड़ के जोतदार रामपाल
के पास अब दो बीघे जमीन बची थी। उस पर चार लड़के-बहू और सात पोती-पोतों वाला
भारा-पूरा परिवार।
‘....
अब छोड़उ दद्दा जो भो सो भो ..............’ जन्डैल सिंह ने रामपाल को समझाने का
प्रयास किया।
‘....
हां लल्ला अउरु करिउ का सकत हम लोग........जब किसमतियम मन्नों लिखो हइ तउ कोई का
करि सकति हइ.....’ अपनी लाचारी प्रकट करते हुए हरिहर ने रामपाल के कंधे पर हाथ
रखा।
‘....
हम सम्मा तुम सबसे सही निकरे लल्ला.....’ बिटोला ने जन्डैल सिंह की ओर देखते हुए
कहा।
‘... सब लड़िका-लड़िकिनिनक पढ़ाइ-लिखाइ दो......, हमारे
त कोई पढ़ो-लिखोउ नाइं हइ......का हुइही जिंदगीम पता नाइं..... अब जह बिजुरी भाकइं
की का करइं.... अइसेइ मरि जइहीं अब ता.....’ बिटोला की आंखें एक बार और नम हो आई
थीं।
‘....
चलउ घरइ चलउ सब लोग..... बहुत देर हुइ गइ हइ....’ हरिहर ने उठते हुए कहा।
सब
उठ खड़े हुए लेकिन बिटोला न जाने किन खयालों में खोई अभी वैसे ही बैठी थीं।
हरिहर
ने बिटोला की निद्रा तोड़ते हुए एक बार और उठाने का प्रयास किया और चिरपरिचित सी
चुहल करते हुए बोले ‘... अरे मेरी रानी हम अभइ जिन्दा हइं......तुम काहे चिन्ता
कत्ती हउ........जब तक जिहीं तुमइं राजु करबइहीं.....’ सभी ठठाकर हस पड़े तो बिटोला
के चेहरे पर भी नवयौवना वाली लज्जा आ गई।
‘....
देखउ हो जनडेल हमारी सुहागरातिप अइसेइ लजाई रहइं तुम्हारी आजी........’ अब बिटोला
अपने वास्तविक रूप में आ चुकी थीं। लगीं सुनाने मनुहार भरी गालियां हरिहर और वहाँ
उपस्थित सभी को।
कुछ
देर की हसी-ठट्टा के बाद अचानक सब शांत हो गए और हरिहर बिटोला के सामने आकर बोलने
लगे – ‘... तुम चिन्ता ना करउ कतइ........हम मरिहइं नाइं इत्ती जल्दी....’
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