समकालीन साहित्य-सृजन


Ø सुनील ‘मानव’
ज साहित्य और उसके पाठकों की कमी का रोना भले ही रोया जाता हो और पठन-पाठन की संस्कृति के लोप का स्यापा दिया जाता हो, किंतु पूरे परिदृश्य पर व्यापक दृष्टि दौड़ाई जाए तो ना केवल एक उम्मीद बंधती है, बल्कि उपर्युक्त मान्यताएं भी निराधार साबित हो जाती हैं । बीते कुछ दिनों के प्रकाशित साहित्य पर नज़र दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि न केवल बहुत सी पुस्तकों के नए संस्करण प्रकाशित हुए हैं, बल्कि नई विधाओं की पुस्तकें भी प्रभूत परिणाम में  सामने आ रही हैं  ।
     वर्तमान कविता, जिस पर दुर्बोधता, कठिनता और पाठकीय समझ से बाहर होने के आरोप लगाए जाते हैं, तमाम मिथकों को तोड़ती हुई लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित कर रही है। पिछले दिनों के प्रकाशित साहित्य में सबसे अधिक संख्या काव्य-संग्रहों की ही दिखती है । इन संग्रहों में नए व पुरानी पीढ़ी के तमाम रचनाकार कन्धे से कन्धा मिलाकर यथार्थ  को समझने और उससे मुठभेड़ के लिए युक्तियां तलाशने में संलग्न हैं । और कहना न होगा कि उनकी यह तलाश कहीं न कहीं यथार्थ से त्रस्त जन-सामान्य को न केवल सम्वेदनात्मक धरातल पर सहारा देती है, बल्कि उनमें वैचारिक उर्जा का संचार भी करती हैं ।
आस-पास प्रकाशित काव्य-संग्रहों पर दृष्टि दौड़ाई जाए तो चर्चित कवि असद जैदी के संपादन में ‘सहमत प्रकाशन दिल्ली’ से दो खण्डों में प्रकाशित ‘दस बरस : हिंदी कविता अयोध्या के बाद’ काव्य-संग्रह अनायास ही ध्यान खींचता है । दोनों खण्डों में लगभग सभी समकालीन कवि इकट्‍ठे किए गए हैं । ६ दिसम्बर १९९२ को हुए बाबरी मस्जिद बिध्वंस के घाव अभी सूखे भी न थे कि गुजरात में हुए साम्प्रदायिक नरसंहार ने उसे फिर से कुरेद दिया । साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ इसी आक्रोश और पीड़ा की अभिव्यक्ति है यह काव्य-संग्रह । ‘दो शब्द’ में बाबरी मस्जिद विध्वंस प्रकरण पर असद जैदी लिखते हैं -“यह हमारे उप महाद्वीप के इतिहास का ऐसा प्रसंग है, जिसकी भद्दी और डरावनी रोशनी में न सिर्फ गुजरात और गुजरात के आगे का रास्ता बल्कि पीछे की सड़कें भी अब अपने चुभते हुए नंगेपन में दिखाई देती हैं ... फासिज़्म, जिसकी विधिवत आमद का इंतजार एक अर्से से, बीसवीं सदी के चौथे दशक से ही इस मुल्क में सबको था, अब हमारी दहलीज पर है ।”
कुल मिलाकर चार सौ पृष्ठों में फैला हुआ यह काव्य ग्रंथ अपनी वैचारिक तेजस्विता, साम्प्रदायिकता के संवेदनात्मक विरोध और अपने बेलाग आक्रोश के कारण प्रभावित करता है । विचारधाराओं की भिन्नता के बावजूद सभी समकालीन कवियों का एक मंच पर इकट्‍ठा होना सुखद अनुभूति प्रदान करता है ।
संकलन के कवि अंशुल त्रिपाठी की कविता ‘दुश्मनी’ सर्वाधिक प्रभावित करती है –
              मेरे रोशनदान पर
              रहने वाली चिड़िया
              तुम्हारे आंगन से दाने लेकर आती है
              ×                 ×                 ×
              तुम्हारी छत पर
              टहलने वाली बिल्ली
              मेरे घर का सारा दूध पी जाती है
              ×                 ×                 ×
              बोलो हम क्या कर सकते हैं ।
वरिष्ट कवियों में अशोक बाजपेयी का संग्रह ‘पुरखों की परही में धूप’ प्रभावित करता है । इसमें १९६० से २००१ के बीच लिखी गईउन विशिष्ट कविताओं का संकलन है, जिनका विषय माता-पिता, बच्चे, घर, पड़ोसी, पुरखे आदि हैं और जो कवि के अनुभवों के दायरे में गहरे जुड़कर आते हैं । अपनी संवेदनात्मक तरलता में यह संग्रह अनूठा है । प्रचलित विषयों के अलावा कवि ने कुछ ऐसे विषय भी चुने हैं जो काव्य संवेदनाओं के दायरे से बाहर पड़ते हैं । ऐसी ही एक कविता है ‘अपनी आसन्न प्रसवा मां के लिए तीन गीत’ –
              तुम्हारे होंठों पर नई बोली की पहली चुप्पी है
              और तुम्हारी अंगुलियों के पास कुछ नए स्पर्श हैं
              मां, मेरी मां !
              तुम कितनी बार स्वयं से ही उग आती हो
विष्णु खरे समकालीन कवियों में सबसे भिन्न दिखाई देते हैं । इसका कारण न केवल उनकी काव्य-संवेदना है, बल्कि उनकी काव्य भाषा भी है । उन्होंने काव्य-भाषा के बिलकुल नए मुहावरे गढ़े हैं । पत्रकारिता की सपाट भाषा को काव्यात्मक संस्पर्श देने वाले संभवत: वे पहले कवि हैं । उनका काव्य-संग्रह ‘काल और अवधि के दरमियान’ हिंदी साहित्य जगत में अपनी बिलकुल अलग पहचान बनाता है ।
नव गीतकार नईम का नया संग्रह ‘लिख सकूं तो’ पढ़ना बिलकुल नए अहसास से भर जाना है । गीतकारों में नईम कुछ उन गिने-चुने लोगों में से हैं, जिन्होंने मंचीय भावुकता से बचते हुए गीत की आत्मा को सुरक्षित रखा है । उनके गीत कोरी भावुकता या संवेदना के बहाव में नहीं बहते बल्कि यथार्थ की विसंगतियों, विरूपताओं और समाज के बन-बिगड़ रहे स्वरूप को पूर्ण सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्त करते हैं ।
अन्य प्रमुख संग्रहों में – ‘लिखने का नक्षत्र’(मलय), ‘असंभव सारांश’(आशुतोष दुबे), ‘तत्रकुशलम’(विनय दुबे), ‘बीज से फूल तक’(एकांत श्रीवास्तव), ‘राख का किला’(अजंता देव), ‘सराय में कुछ दिन’(नरेन्द्र जैन), ‘पानी का स्वाद’(नीलेश रघुवंशी) आदि हैं ।
हिन्दी उपन्यास अपने जन्म के साथ ही साहित्य केन्द्रीय विधा बनकर सामने आया । समय समाज की गहरी पड़ताल के लिए इसका विस्तृत कैनवस लेखकों को सदैव आकर्षित करता रहा है । चर्चित युवा कथाकार अखिलेश के शब्दों में ‘उपन्यास लिखना रचनाकार का मोक्ष है ।’ इधर कुछ ऐसे उपन्यास सामने आए हैं जो काफी चर्चित रहे हैं ।
साठोत्तरी पीढ़ी के कथाकार दूधनाथ सिंह द्वारा रचित ‘आखिरी कलाम’ हिन्दी साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । पत्रकारिता के उपकरणों की सहायता से लिखे गए इस उपन्यास का विषय है – बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अयोध्या में हुए साम्प्रदायिक दंगे । अख़बारी कतरनों का उपयोग करते हुए भी उपन्यास की रचनात्मकता कहीं स्खलित नहीं होती, यह दूधनाथ सिंह की अपनी विशिष्टता हैं । उपन्यास न केवल भाई-भाई में दरार पैदा करने वाली ताकतों की सघन पड़ताल करता है बल्कि उनके विरुद्ध एक सक्रिय चेतना भी जाग्रत करता है ।
अमरकांत का उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि को लेकर लिखा गया है । इसकी कथा का केन्द्र बलिया है । उपन्यास न केवल ऐतिहासिक तथ्यों और सत्यों को उठाता है बल्कि इनकी शुष्कता से पैदा हुए गैप को अपनी कल्पना से रचनात्मक आयाम भी देता चलता है । इतिहास की नए सिरे से पड़ताल करते हुए, कुछ नए सवाल उठाने में यह उपन्यास सफल रहा है ।
संजीव का उपन्यास ‘सूत्रधार’ भिखारी ठाकुर को केन्द्र में रखकर चलता है । संजीव नक्सलबाड़ी कथा आंदोलन की देन हैं । इस आंदोलन से उपजे अन्य कथाकार जहां गहन वैचारिकता के चलते शीघ्र ही विस्मृत हो गए वहीं संजीव वैचारिकता और कथात्मकता में एक संतुलन स्थापित करते हुए आज भी शीर्षस्थ कथाकारों में गिने जाते हैं । संजीव का कथा-क्षेत्र मुख्यत:  बिहार रहा है । इस उपन्यास में एक तरह का आंचलिक संस्पर्श मिलता है, जो उत्तर आधुनिक भाव-बोध से त्रस्त मस्तिष्क को सुखद एहसास प्रदान करता है ।
अमर गोस्वामी का ‘इस दौरे में हमसफर’ महानगरीय जीवन में पति-पत्नी सम्बंधों और निकटतम कहे जाने वाले रिश्तों की बेरहम पड़ताल करता है । समझौते, अकेलेपन, तनाव, एकरसता जैसे सवालों से टकराते हुए यह उपन्यास मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन के बिखराव और टूटन की कहानी कहता है । ‘लिव टुगेदर’ या ‘फ्रीलिविंग’ जैसी पाश्चात्य अवधारणाओं को लेखक भारतीय मध्यवर्ग में घटित होते दिखाकर उनकी आवश्यकता और सीमाओं पर प्रश्न खड़े करता है । मो. अलीम का उपन्यास ‘जो अमां मिली तो कहाँ मिली’ दो गाँवों जिहुली और चंदनवारा की कथा कहता है, जो हिंदुओं और मुसलमानों के किले के रूप में मशहूर थे । इसके बावजूद वहाँ साम्प्रदायिक दंगे कभी नहीं हुए । पर समय के क्रूर पाश से ये गाँव भी नहीं बचते और फिर वहाँ भी भयंकर दंगे होते हैं । यह उपन्यास इन्हीं बदलावों की कथा कहता है और इनके कारणों की तलाश करने का प्रयास करता है ।
अन्य प्रमुख उपन्यासों में ‘बहुत लम्बी राह’(कर्मेंदु शिशिर), ‘दे ताली’(वीरेन्द्र जैन), ‘सपनों से बाहर’(वीणा श्रीवास्तव), ‘टूटते दायरे’(रामधारी सिंह दिवाकर) आदि हैं ।
इधर कहानियों के क्षेत्र में बी कुछ महत्त्वपूर्ण कहानी संग्रह आए हैं । वरिष्ट रचनाकार स्वयं प्रकाश का नवीनतम कहानी संग्रह ‘अगले जनम’ कथा साहित्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । अपनी भाषा शैली, संवेदना और सादगी के कारण स्वयं प्रकाश अलग से पहचाने जाते रहे हैं । अपनी सादगी और यथार्थ पर बारीक पकड़ के कारण वे प्रेमचंद की परंपरा का विस्तार करते हुए प्रतीत होते हैं । अपने नवीनतम कहानी संग्रह में वे इन्हीं तथ्यों को और पुष्ट करते दीखते हैं । ‘पिता जी का समय’, ‘उज्ज्वल’, ‘प्रौढ़शिक्षा’, ‘अच्छी भेंजी’, ‘स्वाद’, ‘अपराध बोध’ आदि इस संग्रह की महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं । पर इस संग्रह की सबसे महत्त्वपूर्ण कहानी है –‘स्याह तवारीख के आखिरी पन्ने’ । यह कहानी एक फ़ैंटेसी है । बावजूद इसके यह कहानी कहीं से अयथार्थ नहीं होती । अपनी गहन राजनीतिक  समझ के कारण यह कहानी महत्त्वपूर्ण है । फासिज़्म के आगमन की समझ के कारण यह कहानी महत्त्वपूर्ण है । फासिज़्म के आगमन की आहट को कहानीकार भली-भाँति महसूस  करता है । वर्तमान परिस्थितियों में इस कहानी का पाठ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो सकता है ।
नरेन्द्र नागदेव का कहानी संग्रह ‘वापसी के नाखून’ कुछ नए सवालों के साथ कथा-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है । नरेन्द्र बड़े-बड़े घटना प्रधान कथानक नहीं चुनते । छोटी-छोटी घटनाओं को कभी प्रतीकात्मक तो कभी फैण्टेसी के सहारे अभिव्यक्त कर मनचाही बात कह लेते हैं । ‘चाबुक’ कहानी फैण्टेसी के सहारे ही आगे बढ़ती है । यह कहानी मानव के संवेदनशील होते जाने के कारणों की सफल तलाश करती है । ‘पीला पढ़ता संगमरमर’ कहानी भी मानवीय संबंधों की उल्था करती है । ‘निद्रागामी’ भी इसी सूत्र को आगे बढ़ाती हुई प्रतीत होती है । बहन के नींद में चलने की बीमारी को भाई जब कमाने का ज़रिया बना लेता है तो बहन पानी में डूबकर भी उसके स्वार्थ पर आंच नहीं आने देती । संग्रह की शीर्ष कहानी ‘वापसी के नाखून’ मनुष्य और जानवर के बीच संबंधों को नए सिरे से समझने की कोशिश करती है ।
ज्ञानप्रकाश विवेक वरिष्ठ कथाकार हैं । कहानी, उपन्यास, कविता के अलावा उर्दू बहर की ग़ज़लें लिखने में भी उन्हें सफलता और लोकप्रियता मिली है । सुरुचिपूर्ण भाषा के लिए ज्ञानप्रकाश अलग से ध्यान खींचते हैं । उनका ताज़ा कथा संग्रह है ‘शिकारगाह’ । समकालीन समाज और मानवीय प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने में उनकी कहानियाँ पूर्ण सफल दिखाई देती हैं ।
अनूदित कथाकृतियों में इस्मत चुग़ताई की ‘चिडी की दुक्की’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इस्मत चुग़ताई अपनी कहानियों में ‘बोल्डनेस’ को लेकर खासी चर्चित रही हैं । किंतु यह संग्रह अतिवादों से बचते हुए सीधी-सरल कहानियाँ प्रस्तुत करता है और किसी भी तरह के विवाद को स्थान नहीं देता । इस संकलन में  उनकी पाँच कहानियाँ ‘चिड़ी की दुक्की’, ‘वह कौन था’, ‘ख़िदमतगार’, ‘भाभी’,  ‘अमरवेल’ संकलित हैं ।
अन्य अनूदित कथा संकलनों में उड़िया का ‘प्रिय विदूषक’(जे.पी.दास), मराठी का ‘बीस रुपए’(दया पवार) के नाम लिए जा सकते हैं ।
संपादित संकलनों में रमणिका गुप्ता के संपादन में प्रकाशित ‘दलित कहानी संचयन’ महत्त्वपूर्ण है । यह संकलन साहित्य जगत के उस अछूते संसार से हमारा परिचय कराता है, जिससे हमारा परिचय शून्य था ।
इधर प्रकाशित आलोचना पुस्तकों में - भेद खोलेगी बात ही(विजय मोहन सिंह), कविता का तिर्यक(लीलाधर मंडलोई), अनभै सांचा(मैनेजर पाण्डेय), मुक्तिबोध : कविता व जीवन विवेक(चन्द्रकांत देवताले), अनछुए बिंदु(विद्यानिवास मिश्र) आदि के नाम लिए जा सकते हैं ।
‘भेद खोलेगी बात ही’ में विजयमोहन सिंह ने समकालीन रचनाओं एवं रचनात्मकता पर टिप्पणी की है । उदय प्रकाश या जोगिंदरपाल की कहानियाँ हों अथवा विनोद शुक्ल या चित्रा मुदग्‍ल के उपन्यास हों, विजय मोहन सिंह एक तटस्थ और वैज्ञानिक मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं । इस पुस्तक की समीक्षाओं को स्वतंत्र निबंध की भाँति भी पढ़ा जा सकता है ।
लीलाधर मंडलोई की पुस्तक ‘कविता का तिर्यक’ में बीस कवियों पर टिप्पणियाँ संकलित हैं । फ्लैप पर राजेश जोशी का कथन है – “यह पुस्तक साठोत्तरी कविता के बाद से लेकर लगभग कविता कुटुम्ब के युवतम कवियों की कविता को छूती है ।” वस्तुत: यह पुस्तक पिछले तीस बरसों से ‘कविता की काया’ और उसके ‘अंत:करण के आयतन में आए परिवर्तन’ को रेखांकित करती है ।
मैनेजर पाण्डेय की ‘अनभै सांचा’ आलोचनात्मक चेतना जागृत करने वाली पुस्तक है । सीधे-सीधे कृति या रचनाकार पर केन्द्रित न होकर यह पुस्तक विभिन्न मतवादों एवं मिथकों तथा आलोचनात्मक विडम्बनाओं की सीधी पड़ता करती है । ‘हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना’, ‘क्या आपने वज्र सूची का नाम सुना है’, ‘भक्तिकाव्य और हिन्दी आलोचना’ बार-बार पढ़े जाने योग्य निबंध हैं ।
अन्य विधाओं की प्रमुख पुसतकों में केदार नाथ सिंह की ‘कब्रिस्तान में पंचायत’(निबंध), मृणाल पाण्डे की ‘ओ उब्बीरी’(स्त्री-विमर्श), ऊषा महाजन की ‘खुशवंत सिंह : जिन्हें मैंने जाना’(संस्मरण), स्वर्गीय भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’(आत्मकथा), मैत्रेयी पुष्पा की ‘औरत : खुली खिड़की’(स्त्री-विमर्श), विष्णु नागर की ‘नयी जनता आ चुकी है’(व्यंग्य) आदि के नाम  लिए जा सकते हैं ।

संपर्क :
शोध-छात्र
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर
अगरतला – 799022
ई-मेल : manavsuneel@gmail.com
                                                                                                                           मोबाइल : +919436982080

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