नागार्जुन के निराला
हिन्दी साहिय में ‘छायावाद’ एक ऐसा कालखंड था, जिसमें भारतीय जनमानस स्वतंत्रता
के लिए अकुला रहा था । हर क्षेत्र से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हुंकार भरी जा
रही थी । इस कालखंड में जहां एक ओर भारतीय संस्कृति की विवेक परम्परा का तेज व्याप्त
था तो वहीं दूसरी ओर विश्वचेतना से संपंन्न ज्ञान-विज्ञान को पाने और पचाने की
असीम ललक विद्यमान थी । वास्तव में छायावाद अपने में एक नए प्रकार का काव्य था जो
नवीन चित्त-वृत्तियों का संचय था । निराला इन्हीं नवीन चित्त्वृत्तियों के संचयन
के मूर्तिमान हस्ताक्षर थे ।
निराला ने अपने समय-समाज का पर्यवेक्षण बड़ी ही
सूक्ष्मता और गहराई से किया था । उन्होंने उस समय के उन मुखौटों को चेहरे से अलग
किया था जो तत्कालीन रंगमंच पर कब्जा किए हुए थे । निराला ने और गहरे जाकर उस
वास्तविक सच्चाई को छानने का प्रयत्न किया था जो तत्कालीन साहित्य की नज़रों से
‘बचती-सी’ जा रही थी; परन्तु ऐसे सूक्ष्मदर्शी कवि का वास्तविक मूल्यांकन साहित्य
में जिस प्रकार से होना चाहिए था नहीं हो पाया । ऐसे में बाबा नागार्जुन द्वारा
उनका मूल्यांकन अवश्य ही उन तमाम अनछुए बिन्दुओं पर प्रकाश डालता है जो अब तक
अछूते से थे ।
यूं तो निराला पर बहुत लिखा गया और निरंतर लिखा
जाता रहेगा । खोज-खोज कर उनके व्यक्तित्व के जाने अनजाने तमाम पहलुओं
पर बड़ी ही मार्मिकता और गहराई से प्रकाश डाला गया है, पर
उनकी ही परंपरा के एक कवि द्वारा उनका मूल्यांकन अवश्य ही कुछ नए की ओर संकेत करते
हुए उनके उन पहलुओं पर विचार करता है जो संभवत: अभी
तक समीक्षकों/आलोचकों
की नजर से बच - से
गए थे ।
नागार्जुन
लिखते है “वे कवियों के कवि थे,
सन्तो के सन्त । उनका अवधूतपन सार्वजनिक था । उन्हें
समझने के लिए हमें अपनी परंपरा को समझना होगा । उनकी दुर्गति हमारी अपनी दुर्दशा थी
।”( एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.-११) नागार्जुन
अपनी पुस्तक (एक
व्यक्ति : एक
युग) में
उन संदर्भों को तलाशने का प्रयास करते हैं, जिनके
चलते निराला अंत तक निर्धनता से खुद को उबार न सके और अपनी पुत्री तक का होम करना पड़ा
।
बाबा
लिखते हैं कि “... निराला सन् १९६१ के बदले १९५१ ई. में ही उठ गए होते तो क्या हर्ज था!”
क्योंकि...“१९४५-४६
ई. के
बाद से ही निराला सिध्दावस्था में आ गए थे । जो कुछ देना था, वह
दे चुके थे । हाँ, कुछ झेलना और भोगना शेष था ।” (एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.-११) नागार्जुन
ने इस कृति में विशेष रुप से इसी ‘झेलना और भोगना’ को
अपने संस्मरण का आधार बनाया है । निराला के व्यक्तित्व को ‘सार्वजनिक अवधूतपन’ कहने
के पीछे बाबा एक गहरा संकेत देते हैं ।
बाबा निराला के मार्फत उस समय के उन राजनीतिज्ञयों / साहित्यकारों के
खोखले व्यक्तित्व की पर्ते उघाड़ते हैं जो अपने को साहित्य और राजनीति का मशीहा समझ
रहे थे और ऐसा करते ही निराला का अवधूती व्यक्तित्व स्वयं प्रकाशित हो उठता है । इस
संदर्भ में बाबा उस समय जब निराला इहलोक छोड़ने वाले थे, परिस्थिति को सामने लाते हैं जब कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, शास्त्री, नेहरू इत्यादि
प्रयाग में होते हुए भी इस क्रांतिकारी व्यक्तित्व से साक्षात्कार करने का प्रयास नहीं
करते । हां! मृत्युपरांत प्रतिभा
और खुद को पत्रों की सुर्खियों में अवश्य लाते हैं । बाबा लिखते हैं- “अखड़, अवधूत, स्वाधीनचेता साहित्यकार
आदि अपने जीवनकाल में किसी महाप्रभु के सामने नहीं झुकेगा तो मृत्यु के बाद उसकी प्रतिभा
से यह काम राजनीतिज्ञ करवा लेंगे ।”( एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-१३) कितनी कचोट भरी है बाबा के हृदय में...।
निराला के समय
के तमाम साहित्यकार राजनीति के हवाई पंखों पर स्वर्णिम स्वप्नों में भ्रमण कर रहे थे
तो क्या निराला जी उनसे याचना करते या उनको अतिरिक्त महत्व देते? नहीं ! बिलकुल नहीं !! निराला संघर्ष
के मूर्तिमान प्रतीक’ थे। “साहित्यिक दृष्टि से अयोग्य, साहित्यिक मर्यादाओं के प्रति गौण आस्था रखने वाले व्यक्ति साहित्य
के मंच पर जम्हाई लेते हुए बैठे रहें, यह निराला को बरदाश्त नहीं था; फिर वह व्यक्ति कितना ही बड़ा राजनीतिज्ञ क्यों न हों, कितना ही बड़ा धनपति
क्यों न हो, कितना ही बड़ा आफिसर
क्यों न हो ।”( एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.-१४) निराला की दृष्टि
में तो साहित्यिक और संघर्ष के मापदण्ड पर खरे उतरते हैं तुलसीदास जो मध्यकालीन समय
में भी अपनी कठोर साधना के बल पर अमर हो गए ।” समकालीन विह्न - बाधाओं के पहाड़
तुलसीदास का मार्ग अवरूद्ध नहीं कर पाए । लगता है, तुलसीदास निराला को सदैव अपनी ओर खींचते रहे । लगता है, तुलसीदास ही निराला
के आदर्श रहे । साधनाएँ, कष्ट सहन में, पाखंडियों से लड़ने में, काव्यकर्म, निर्लिप्तता में, सामाजिकता में”( एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-१४) इस तरह बाबा निराला को एक संघर्ष पुरूष के रूप में प्रतिष्ठित
कर देते हैं जो संघर्ष के बावजूद खोखले लोगों का मखौल उड़ाता नजर आता है । और बाबा निष्कर्ष
देते हैं कि “ निराला का अपना कवि और उनके आदर्श कवि ‘तुलसीदास’ दो नहीं, एक ही व्यक्ति
थे ।” (एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.-१६)
पुस्तक में बाबा नागार्जुन निराला के उस आरम्भिक व्यक्तित्व
पर प्रकाश डालते हैं जब वह महिषादल के राजघराने में अपने को किसी राजकुमार से कम सम्मानित
महसूस नहीं करते थे । यहाँ पर कहीं न कहीं से महादेवी जी की ‘सुख की प्रतिक्रिया स्वरुप
दु:ख का अवतरण’ वाली बात याद आती
है । बाबा संकेत करते हैं कि “कुकुरमुत्ते ने जिस गुलाब को ललकारा था, उसी गुलाब का गमला
था महिषादल का घराना !”( एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.-१७) यदि निराला जी
उस सामंती परिवेश में पले न होते तो संभवत: ‘कुकुरमुत्ते’ का वैसा वर्णन न कर सकते जैसा किया है ।
निराला के उस परिवेश का स्नेह तब क्षीण हुआ जब पहले पत्नी और
बाद में पुत्री सरोज की मृत्यु हुई । यह वह बिन्दु था जहाँ से निराला जी का ‘स्नेह
निर्झर क्षीण’ होने लगता है और
व्यक्तित्व में वह अवधूतीपन आना आरम्भ हो जाता है, जिसका बाबा ने ऊपर संकेत किया है । बाबा सन् ’४२-’४३ के समय के उस
निराला की संवेदना को छूते हैं जब “ताजा कविताओं के छोटे - छोटे संकलन उन्हें के कोंदो के भाव बेचने पड़े ।” (एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.- १९) इसी परीप्रेक्ष
में नागार्जुन निराला को रवीन्द्र के साथ खड़ा करते हैं- “मेरे मन में बार-बार यह बात उठती है
कि निराला रवीन्द्र से भी ऊँचे उठ सकते थे
।...
...निराला यदि अस्सी
वर्ष की आयु पाते, निराला यदि उतने ही बड़े भरे-पूरे सुसंस्कृत सम्पन्न परिवार के सदस्य होते, निराला यदि हिन्दी
क्षेत्र की संकीर्णताओं - कूपमंडूकताओं से परे भारत को ही बंगला भाषी या अन्य भाषाभाषी
क्षेत्र में कहीं अपनी कविताओं का विनियोग करते, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर जैसे विशाल एवं प्रबुध्द व्यक्तित्व
वाले पितृदेव की छाया में यदि वह भी अपना बाल्यकाल बिता पाए होते । निराला भी यदि ...”(एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-
१९) बाबा बहुत कुछ
कहते - कहते रुक जाते
हैं ।
नागार्जुन निराला को रवीन्द्र के समक्ष रखकर देखते हैं और कहते
- कहते इसलिए रुक
जाते हैं जो परिवेश रवीन्द्र को मिला था वहीं यदि निराला को मिलता तो निराला भी...। खैर !
बाबा यहीं तक सीमित नहीं रहते । वह रवीन्द्र को भी अपनी संवेदना
में समेटकर उनके मार्फत कह ही उठते हैं- “अरे तुम निराला के लिए रो रहे हो ! देखो, मैं भी रो रहा हूँ । आज लोकमानस खण्डित है, क्षत - विक्षत है, मैं उसकी अखण्डता
के लिए रो रहा हूँ । मैं इसलिए रो रहा हूँ कि राजनीतिक मान्धाताओं का मस्तिष्क आज के
संतुलन से दूर है । साहित्य, संस्कृति, कला और विज्ञान को आज भी कूटनीतिज्ञयों ने अपना खिलौना
बना रखा है । ... आज यदि स्तानिल
के उस सुरक्षित शव की दुर्दशा हो सकती है तो कल गांधी की इस प्रतिभा का भी बुरा हाल
हो सकता है ...” बाबा यहाँ रवीन्द्र
की भव्यता और लोकप्रियता के बरक्स निराला को रखते हुए आज के साहित्य मनीषियों को एक
धौल लगा ही जाते हैं – “... वस्तुत: रवीन्द्र को समझा
नहीं जा रहा है, पूजा उनकी अवश्य हो रही है । शासक भी रवीन्द्र की जय - जयकार कर रहा है, और जनता भी रवीन्द्र
की जय जयकार कर रही है । रवीन्द्र के नाम पर
मेला लग रहा है । हमारे निराला के लिए भी कल - परसों यही कुछ होगा, उतना न सही, कुछ तो जरूर होगा । कीर्तन होगा, चर्चा होगी, हवन होगा, आरती होगी परन्तु उन्हें समझने की कोशिश नहीं की जाएगी ।”( एक व्यक्ति : एक
युग, पृ.-२०)
महिषादल में रहते हुए निराला जी में तीन संस्कार पनपे, जिन्हें नागार्जुन
की पर्यवेक्षण दृष्टि ने समझा । वह संस्कार थे - बँगला के साहित्यिक - सांस्कृतिक परिवेशों से प्राप्त कवि - संस्कार, संगीत का संस्कार
और सामन्तवाद - विरोधी लोक – संस्कार । यह वह
बिन्दु थे जिन्होंने निराला को हिन्दी में
‘निराला’ स्थान दिलाया था
।
प्रेमचन्द ने कहीं लिखा है कि ‘जो लोग शान-ओ-शौकत भरी दुनिया
में जीने के आदी हैं । साहित्य मन्दिर में उनके लिए स्थान नहीं है ।’ यह बात निराला
पर पूरी तरह से सटीक बैठती है । नागार्जुन जी ने निराला की उसी श्रमनिष्ठा को रेखांकित
करने का प्रयास किया है, जिससे जूझते हुए निराला ने “कविताओं और गीतों के संकलन, उपन्यास, कहानी - संग्रह, रेखांचित्र, निबन्ध - संग्रह, समीक्षा - पुस्तक, जीवनियाँ और फुटकर
किताबें । इनके अलावा उनके कतिपय नाटक अप्रकाशित रह गए, जिनका पता पंडित गंगाप्रसाद पांडेय की निराला - साहित्य - सूची से मिलता
है । अनूदित पुस्तके प्राय: बँगला से है । बंकिम के ग्यारह उपन्यास और रामकृष्ण, विवेकानन्द की
सात पुस्तकें ।”( एक व्यक्ति : एक युग, पृ.- २५) आदि सत्तर की सूची हिन्दी साहित्य को प्रदान की । साथ हीं श्रमजीवी
निराला की कर्म - तत्परता’ के और भी कितने ही प्रमाण
है । बाबा ने निराला की उस मनोवृत्ति को स्पर्श किया जिसके चलते निराला जी ने इतना
कुछ हिन्दी के खाते में दर्ज कराया ।
निराला जी द्वारा दिए गए अनुवादों को बाबा ने एक मौलिक एप्रोच
के साथ देखा । बाबा कहते हैं कि- “यों बंकिम और शरत को हिन्दी में काफी दुहा गया है और यह सिलसिला
अरसे तक चलेगा । ऐसे अनुवादक बिरले ही होते हैं जो मूलग्रंथकार की आत्मा को उसकी प्रचुरतम
विशेषताओं के साथ रूपान्तरित कर लेते हैं ।”(एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-३१) निराला के श्रमजीवी व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बाबा आगे
लिखते हैं – “...प्रकाशकों की इच्छा
के अनुसार हमारा यह श्रमजीवी साहित्यकार बहुत कुछ लिखने को तैयार रहता था । सो भी किस
रेट पर? सौ पृष्ठों की
डबल क्राउन वाली किताब के अनुवाद की मजदूरी छ्त्तीस रूपए चार आने मिलती थी ।”(एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-३१)
नागार्जुन ने ‘एक व्यक्ति : एक युग’ के माध्यम से न कि महज निराला के व्यक्तित्व बल्कि उस पूरे युग
को अपने सामने रखा है । उन्होंने निराला की उस श्रमसाध्यता का निरीक्षण किया है, जिससे वह लगातार
जूझ रहे थे पर विक्षिप्त होकर नहीं आनन्दचित्त होकर ! बाबा सन् १९४६ को निराला की एक सीमा रेखा बनाकर निष्कर्ष देते
हैं कि -
“सन् १९४६ तक
निराला का गद्यकार सचेत रहा ।
सन् १९४६ तक श्रमजीवी साहित्यकार का उनका धन्धा
किसी न किसी रूप में चलता रहा ।
सन् १९४६
तक वे अपनी पांडुलिपियाँ बेचते फिरे ।
सन् १९४६
तक प्रकाशकों की लोलुप निगाहें निराला का पीछा करती रहीं ।
सन् १९४६ तक निराला किसी न किसी रुप में दुनियादरी
के दायरे में रहे ।”(एक व्यक्ति : एक युग, पृ.- ३६)
नागार्जुन ने निराला को ‘देश - काल के शर से बिंधकर ...’ जूझते हुआ देखा । बाबा ने उनकी उस असहजता को पहचाना जो १९३७
में वनवेला में निराला ने अंकित किया था ।
“हो गया व्यर्थ जीवन,
मैं रण में
गया हार !
सोचा न कभी
अपने भविष्य
की रचना पर चल रहे सभी !”
बाबा ने उक्त पंक्तियों के माध्यम से निराला की उस बेचैनी को
मह्सूस किया था जिससे तत्कालीन साहित्य जगत अछूता था ।
बाबा ने निराला में उस औदात्य को रेखांकित किया जिसके चलते वह
अपने समय - समाज से मुठभेड़
कर रहे थे । शक्तिपूजा के ‘राम’ हों, गोदान का ‘होरी’ हो अथवा पैराडाइज लास्ट का नायक हो बाबा कहीं न कहीं ‘निराला’ के व्यक्तित्व
को इनसे जोड़कर देखने का प्रयास अवश्य करते हैं ।
निराला ने अपने युग की राजनीति को महसूस किया था । समकालीन साहित्य, प्रकाशक आदि पर
दृष्टिपात किया था और किया था उन सबके बीच अपना मूल्यांकन । और फिर थके - हारे मुसाफिर के
समान आह भरी -
“हो गया व्यर्थ जीवन
मैं रण
में गया हार
सोचा न
कभी
अपने भविष्य
की रचना पर चल रहे सभी ।”
बाबा ने निराला की इस व्यथा को पहचाना और अपने को यह कहने से
रोक न सके कि “उनका अहम तो मतवाला युग में ही भूमा की परिधि में प्रवेश कर गया था ।
युग की चोटें सहते - सहते अन्तस्तल निहार्र बन गया । शताब्दियों बाद पैदा होने वाले वे एक ऐसे व्यक्ति
थे जिनका अहम बढ़ते - बढ़ते ‘भूमा’ के वृहत्तम परिमंडल
में जा मिला था ।”( एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-४०)
इसी साधनापथ पर चले हुए निराला को ‘महाशक्ति का साक्षात्कार
...’ होता है । और निराला
के इस अन्त:करण को समझने के उपादान बनते
हैं ‘कला की रुपरेखा’ और ‘देवी’ (पगली) जैसे स्केच । बाबा
लिखते हैं – “यों तो कवि के
जीवन - दर्शन का साक्ष्य
उसकी रचनाएँ हुआ करती हैं और निराला की कविताओं में तो उनका जीवन - दर्शन अधिकाधिक
ओत - प्रोत है । परन्तु
‘देवी’ शीर्षक शब्द - चित्र को मैं निराला
को समझने की कुंजी मानता हूँ ।”( एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-४६) महाशक्ति के रुप में निराला उस साधारण सी पगली स्त्री को ‘देवी’ के रुप में स्थापित
करते हैं जिसकी कल्पना वह शक्तिपूजा में भी करते हैं । उनकी दृष्टि में पूरे भारतवर्ष
में महाशक्ति की जो कल्पना है वह ‘पगली’ अथवा ‘देवी’ से बहुत ज्यादा पृथक नहीं होनी चाहिए । बाबा निराला की इस भावना
को बड़ी ही गहराई से ‘देवी’ के माध्यम से उजागर करते हैं ।
नागार्जुन निराला का मूल्यांकन करते हुए वहाँ तक पहुँचते हैं
जहाँ निराला ‘पीड़ितों के पक्षधर’ के रूप में अपनी छवि स्पष्ट करते हैं । बाबा लिखते हैं – “सन् १९३३ - ३४ से लेकर सन्
१९४२ - ४३ तक (दस साल) प्रगति और प्रयोग
की दृष्टि से निराला के साहित्य जीवन में ‘युग - बोध का चरम उत्कर्ष काल’ माना जाना चाहिए । इसी अर्से में उन्होंने हमें ‘तुलसीदास’ दिया ! चतुरीचमार’ और ‘देवी’ के दर्शन कराए
। कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा
जैसे सामान्य युगनायकों से निराला जी ने हमें इन्हीं वर्षों में परिचित कराया । कुकुरमुत्ते
ने गुलाब को ललकारा, हमने अपने कानों से वह ललकार सुनी । हमने क्रांतिकारी कंठ से निकलती हुई उद्दीप्त
घोषणा सुनी ।”(एक व्यक्ति : एक युग, पृ.-६३) और यहीं पर बाबा
ने निराला की वह पंक्तियाँ कोट की जिनके चलते निराला ‘पीड़ितों के पक्षधर’ कहलाए -
“आज अमीरों की हवेली
किसानों
की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली,
खोलेंगे
अँधेरे का ताला
एक पाठ
पढ़ेंगे, टाट बिछाओ !
जल्द - जल्द पैर बढ़ाओ, आओ, आओ ।”
हिन्दी पंक्तियों के माध्यम से अथवा इसी काम के चलते बाबा नागार्जुन
ने निराला का मूल्यांकन ‘समाजवाद’ या ‘सोशलिष्ट’ की आंधी और उसके खोखले स्वरूप को समक्ष रखते हुए किया है । बाबा
कहते हैं – “आज, १९६३ के आखरी महीनों
में, ‘समाजवाद’ या ‘सोशलिष्ट’ अपरिचित शब्द नहीं
रह गया है । समाजवाद की चर्चा करना अब आम फैशन हो गया है । इसकी बातें करने से पुण्य
शुद्ध होता है । कोढ़ी के शरीर पर दिए हुए चन्दन की भाँति समाजवाद का सौरभ बड़ों की इज्जत
बचाता है । २५ साल पहले वाले वे युवक कांग्रेसी नेता अब शासन की ऊँची कुर्सियों पर
विराजमान हैं । उन्होंने समाजवाद को अपना चरम
लक्ष्य घोषित कर दिया है । 25 साल पहले उनका और उनके साथियों का क्या स्वरूप था, यह आपको निराला
जी की नीचे की पंक्तियों से मालूम होगा । सन् १९३८ - ३९ की एक रचना है ‘मास्को डायग्ज’। देखिए, कैसे कवि ने एक नकली सोशलिष्ट का खाका खींचा है – “और फिर ‘मास्को
डायलाग्ज’ कविता का लम्बा
उद्धरण ।” बाबा ने स्पष्ट रूप से निराला की कविताओं से ‘सोशलिष्ट’ का भाण्डाफोड़ किया
। आगे चलकर इस भाव की प्रगाढ़ता और थी मजबूत हुई है ।
नागार्जुन ने निराला को अपने प्रत्येक चरित्र में खोजा है ।
और पाया है कि उनके पात्रों का ‘दुर्धष और अपराजेय...’ की प्रवृति निराला जी के स्वयं
अपने जीवन की प्रवृत्ति थी ।
इस तरह बाबा नागार्जुन ने ‘निराला’ के व्यक्तित्व को तत्कालीन
समय - समाज और राजनीति के बरक्स रखकर देखा है । बाबा ने निराला के व्यक्तित्व को वास्तव में ‘एक युग’ में समाहित कर व्याख्यायित करने का
प्रयास किया है । ‘एक व्यक्ति : एक युग’ के मार्फत बाबा निराला कालीन उस पूरे युग और
उसकी परिस्थितियों का पुनर्मूल्यांकन करते हैं । वास्तव में इस प्रकार का कार्य अथवा
मूल्यांकन नागार्जुन जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है ।
(‘एक व्यक्ति : एक युग’ के संदर्भ में)
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