प्रसिद्ध कथाकार हृदयेश जी से कुछ गुप्तगू



सुनील ‘मानव’ : कहानी में राजनीति की कहाँ तक गुंजाइश है? क्या यह कहानी के लिए घातक है?
हृदयेश : देखिये राजनीति में तो बहुत सी विचारधारायें हैं। जहाँ तक कि एक विचारतत्त्व की बात है वह कहानी के लिए आवश्यक है। और वह विचारतत्त्व जो है, उसमें सामाजिकता हो, मनुष्य को लेकर उसकी चिंता हो। अभी हमने जो एक नया उपन्यास(चार दरवेश), जिसकी हम-आप अभी चर्चा कर रहे थे, लिखा है। अब चाहें वो जिस भी विचारधारा का हो, उसके केन्द्र में यानि कि उसका मूल तत्त्व मनुष्यता, मानवता ही होगा। तो विचारधारायें जो हैं. . . और बहुत सी विचारधारायें जकड़बन्दी की शिकार हैं। समय के साथ वह चल नहीं पातीं। तो इसको भी ध्यान में रखना चाहिये। और जो राजनीति है, वह ‘राजनीति’ शब्द इसके लिए (साहित्य के लिए) बड़ा घातक है। पर विचारधारा उसके लिए आवश्यक है। क्योंकि विचारधारा मनुष्य की चिंता को लेकर, समाज की चिंता को लेकर चलती है।

सुनील ‘मानव’ : सम्पन्न वर्ग के लेखकों की कहानियों का परिवेश साधारण पाठकों को कहाँ तक छू सकता है?
हृदयेश : हाँ! बिलकुल सही सवाल किया आपने। इस तरह के लेखक केवल अपने लिए लिखते हैं या अपनी तरह की मानसिकता वालों के लिए। साधारण पाठक उनसे बहुत दूर होता चला जा रहा है। जैसा कि नई कविता के साथ हुआ था। जो कविता थी वह उनसे (साधारण पाठक) से दूर जा चुकी थी। वह एक वर्ग तक सीमित हो गई। हाँ! ये ठीक है कि इस वर्ग (संपन्न) की जो समस्याएं हैं, वह उनमें (नई कविता / कहानी) प्रकट हुई हैं। आधुनिकता की समस्याएं उनमें हैं। जो अब कस्बों बगैरह में आ चुकी हैं। उनकी समस्याएं कविता में प्रकट हुई हैं। यह उनका ज्यादा जोर जो है वह, जैसे कि कहा गया है कि आजकल व्यभिचार को बोल्डनेस यानि कि जो बोल्डनेस है वह व्यभिचार बना दिया। और वो (साधारण लेखक) व्यभिचार को बोल्डनेस के नाम पर परोस रहे हैं, कि देखिए हम कितना आधुनिक हैं, कितने साहसिक हैं। तो यह एक बड़ी चीज है

सुनील ‘मानव’ : हिन्दी के आलोचकों / समीक्षकों में आप उतने चहेते नहीं रहे, जितने कि अन्य लेखक। इसके पीछे आप क्या कारण समझते हैं?
हृदयेश : देखिए ऐसा है कि हम, लेखकों के जो गढ़ हैं, उनसे बहुत दूर रहे हैं। और ऐसा नहीं है कि हम दिल्ली जाते हों, लखनऊ जाते हों और उनसे व्यक्तिगत संपर्क रखते हों, तो एक कारण यह भी हो सकता है। और इसमें आजकल आपाधापी बहुत चल रही है। अपने-अपने लेखक, अपने-अपने आलोचक जैसी स्थिति चल रही है।

सुनील ‘मानव’ : अपनी समस्त रचनाओं में ‘चार दरवेश’ को आप कहाँ तक मूल्यांकित करते हैं। उनमें उसे कहाँ पर रखना चाहते हैं?
हृदयेश : देखिए ऐसा है कि वह एक छोटा-सा बहुत ही गठा हुआ उपन्यास है जो कि आजकल के वृद्धों को लेकर एक कटु सत्य है। वह उसे उद्‍घाटित ही नहीं करता बल्कि उसे उद्‍वेलित भी करता है। जब मेरे पास फोन आते थे तो मैं पूछ लेता था कि भाई आपकी आयु कितनी है? तो अधिकांश ५० से ७० के बीच बताते थे और साथ में यह भी कह देते थे कि मेरे साथ यह स्थिति नहीं है। मेरे बेटे मेरा बड़ा ख्याल करते हैं। तो मैं जबाब में कहता था कि तब आपने ऐसा कैसे समझ लिया कि हृदयेश के साथ यही स्थिति है? लेकिन यह जो एक वास्तविकता है तो वह है ही।
वैसे हमारा ‘किस्सा हवेली’ उपन्यास भी काफी चर्चित हुआ था। साथ ही ‘हत्या’, ‘सफेद घोड़ा काला सवार’ आदि भी काफी चर्चित रहे।

सुनील ‘मानव’ : इधर आपकी आत्मकथा ‘जोखिम’ प्रकाश में आई। हंस में उस पर प्रतिक्रिया आई। और भी कई प्रतिक्रियाएं आईं। तो उस पर आपका क्या विचार है?
हृदयेश : हाँ! उन प्रतिक्रियाओं पर यदि बात करें तो उनमें से करीब ९० प्रतिशत हमारे पक्ष में ही लिखी गईं। और वह इतनी प्रिय हुई पाठकों में कि उसका एक संस्करण समाप्त हो चुका है और दूसरा प्रकाशन प्रक्रिया में है। और हंस वाले के साथ दिक्कत यह हुई कि प्रकाशक की एक चिट्ठी हमारे पास आई, जिसमें लिखा था कि ‘जोखिम’ में आपका परिचय इस प्रकार से जाए कि जैसे; आपकी शादी कब हुई, विवाह के बाद पहली संतान कब हुई; तो पहली संतान के रूप में चूँकि हमारा पुत्र था तो हमने पुत्र का जिक्र कर दिया तो हंस में उन्होंने इस बात का ईसू बना दिया। तब हमने जब उन्हें लिखा तो वह माफी माँगने लगे।

सुनील ‘मानव’ : एक सवाल आपसे शाहजहाँपुर की पृष्ठभूमि को लेकर करना चाहता हूँ। जैसे आपका एक कहानी संग्रह था ‘छोटे शहर के लोग’, फिर आ. भिक्खुमोग्गलायन का आपके ऊपर एक लेख छपा ‘छोटे शहर का लेखक’ और इधर सुनील ‘मानव’ की एक पुस्तक आई ‘छोटे शहर का बड़ा रंगमंच’। तो इस ‘छोटे शहर’ वाली बात को लेकर शहर के लोगों को काफी ऐतराज हुआ कि आप लोगों ने एकसिरे से शाहजहाँपुर को ‘छोटा’ कह दिया है। इस पर आप क्या कहना चाहते हैं?
हृदयेश : ‘छोटे शहर के लोग’ जो संग्रह है वह शैलेन्द्र यादव द्वारा अक्षर से आया था। उसमें जो १४-१५ कहानियाँ गईं थीं तो उनमें उस संग्रह को एक कहानी के आधार पर वह शीर्षक देदिया गया था। तो उसका हल्ला हो गया कि ‘छोटे शहर के लोग’। दूसरा वह लोग बताएं कि यह शहर क्या छोटा नहीं है? किस स्तर पर यह बड़ा है? बरेली देखिए इससे लाख दर्जे ऊपर है। यहाँ से तमाम ज्यादा सुविधाएं हैं। तो उसमें क्या है कि यहाँ के कुछ आत्ममुग्ध विद्वानों की आँखों पर एक पर्दा सा पड़ा है कि यहाँ ये हो गए, वो हो गए। अगर १८५७ और १९४७ के क्रांतिकारियों को छोड़ दें तो और क्या है यहाँ? यहाँ के लोग अशफाक, बिस्मिल आदि को भुना रहे हैं। और क्या है उनके पास? संचालन में आधे से ज्यादा समय लेकर आप मुग्ध हो जाना, भुवनेश्वर को शोध-संस्थान के नाम पर प्रयोग करना, कार्यक्रमों में टीम लगाने आदि से ये शहर बड़ा थोड़े हो जायेगा।

सुनील ‘मानव’ : जैसा कि शाहजहाँपुर के मंचों पर संचालन करने वाले सुरेश मिश्रा अक्सर कहते पाए गए हैं कि आपने अपनी आत्मकथा ‘जोखिम’ में उनका नकारात्मक लंबा जिक्र किया है। साथ ही और भी तमाम आरोप लगाते रहे हैं। तो इस संबंध बारे में कुछ. . .
हृदयेश : देखिए! सुरेश मिश्रा जो है वह एक आत्ममुग्धता में जीने वाला प्राणी है। संचालन में आधे से ज्यादा समय वह अपनी ही प्रशंसा और विद्वता की डींगे हाँकने में निकालता है। संचालन के दौरान प्रथम पंक्ति में बैठने वाले अथवा यूँ कहें कि बार-बार उसके पैर छूकर चापलूसी करने वाले शहर के स्वनाम धन्य विद्वानों का जिक्र करके वह छोटे शहर को बड़ा करने का प्रयास करता रहता है। तो उनका जिक्र संभवत: यहाँ नहीं किया जाना चाहिए। और ‘जोखिम’ में तो मैंने यह भी लिखा है कि शाहजहाँपुर के मंच पर जितने दिनों से वह टिके हैं उतना कोई नहीं टिक पाया। इसी कारण मैंने उन्हें संचालन का सचिन तेंदुलकर भी तो कहा है। बात रही उनकी नकारात्मक चर्चा की तो हम लाँछन तो तभी लगा सकते हैं जब पहले हम अपनी कमियों को उजागर करें। इसलिए हमने ‘जोखिम’ में पहले अपने बारे में, पत्नी, बेटे और बहू आदि के बारे में, उनकी कमियों आदि को उजागर किया है। तो इसमें कोई बड़ी बात तो नहीं है।

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