दस्सन

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 36
#तुम_यार_हउ_ता_घोड़ा_लेकिन_चल्त_गदहा_किसी ...

आज से करीब बीस-पच्चीस वर्ष पहले का समय । स्थान #अमिलिइया_तीर’ । मदारी अपना खेल आरम्भ कर रहा है । उसे जरूरत है एक #जमूरे की । मदारी के चारो ओर लगी भीड़ से कोई जमूरा बनने को तैयार ही नहीं है । बस सब एक-दूसरे को ठेलते हुए जमूरा बनने के लिए ‘पिंच’ कर रहे हैं । कारण यह कि मदारी का कोई भरोसा नहीं है कि वह जमूरा बने हुए व्यक्ति के साथ क्या करेगा । एक ओर बैठे एक बुढ़ऊ हथेली पर न जाने कब से मली जा रही ‘खैनी’ को अपने ओंठ में दबोचते हुए अपना अनुभव सुना गए ‘उरेउ इनको सान्नकु कोई भरोसो नाइं ... एक दाउं इन्ने फलानेकि घींच काटि डारी रहइ ...’ 
 
मदारी विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहा है कि ऐसा कुछ नहीं होगा । वह केवल खेल दिखाएगा । बावजूद इसके सब एक बात को लेकर तो आश्वस्त थे ही कि मदारी पूरे गाँव के सामने जमूरे की मजाक बहुत बनाता है । इसके लिए मना करते हुए मदारी की छूट गई हँसी और किसी को आगे नहीं बढ़ने देती । काफ़ी देर बाद भी जब कोई आगे नहीं बढ़ा तो यकायक #दस्सन, जो सबसे आगे उकड़ू बैठे थे, पूरे जोश के साथ मदारी के सामने आ बैठे । लोगों में उत्साह छा गया । ... और #दस्सन अपने अंदर के भय को छिपाते हुए कहने लगे कि ‘मदारीय ता हइ ... खाइ थोरउ जइही ...’ सबने एक साथ और पूरे उत्साह, साथ ही कुछ-कुछ ‘चुटकी’ काटते हुए उनका मनोबल बढ़ाया ‘हाँ... हाँ... अउरु का...’ ... और खेल आरम्भ हो गया । 

 ‘हाँ तो जमूरे नाम बता अपना गाँव के लोगों को ...’
 ‘दस्सन’
 ‘अरे जोर से बोल ... क्या खाया नहीं कुछ...’
 ‘द..स..स्सन’
 ‘अरे थोड़ा दम लगा के बोल ... वो खैनी वाले बाबा को सुनाई नहीं दिया ...’
... और दस्सन खूब जोर से चिल्ला दिए ...#दर्शन_सिंह_घोड़ा’

दर्शक दीर्घा ठहाकों से झूम उठी । सबके होठों पर मुस्कान के साथ #दर्शन का ‘सरनेम’ आ गया #घोड़ा’ ... बच्चों और नौजवान पीढ़ी में न जाने कितने रहे होंगे जिन्हें #दस्सन का पूरा नाम नहीं पता था । सब मुस्कुरा दिए ‘घोड़ा’ ।

वैसे दर्शन सिंह का ‘सरनेम’ घोड़ा नहीं था और उन्होंने उस दिन अपना ‘सरनेम’ ‘घोड़ा’ क्यों बोला या गाँव में भी लोगों को उन्हें कई बार ‘घोड़ा’ ‘सरनेम’ के साथ पुकारते सुना था । भले ही वातावरण मज़ाकिया रहा हो । मैं इस गणित को आज भी नहीं समझ सका । जबकि उनका पूरा नाम #दर्शन_सिंह_राठौर है । गाँव के सबसे ‘कुलीन’ क्षत्रिय लेकिन गरीबी और बदहाली के चलते क्षत्रिय तो क्षत्रिय अन्य समाज में भी उन्हें ‘जातिगत’ सम्मान न मिला । वास्तव में यह जो ‘जातिगत सम्मान’ है वह पद, प्रतिष्ठा और पैसे से भी प्रेरित होता है । खैर ! यह एक अलग विमर्श का विषय हो सकता है ।    

मदारी ने खेल दिखाया । खूब हँसाया । #दस्सन का कुछ देर का भय समाप्त हो गया । उन्होंने मदारी को दो हाथ आगे बढ़कर सहयोग किया । फ़िर क्या था । गाँव में जब भी मदारी आता । लोग जमूरा बनने के लिए #दस्सन की ओर निहारने लगते । ... और कई बार #दस्सन जमूरा बन भी जाते रहे । यह समय #दस्सन उर्फ #दर्शन_सिंह_घोड़ा की ‘प्यौर’ जवानी वाला समय था । एकदम घोड़े की माफ़िक हेकड़ और अडियल । 

समय गतिमान रहा । दर्शन के पिता जी ने पूरा प्रयास किया कि उनके दोनों बेटों का ब्याह हो जाए लेकिन किन्हीं कारणों से हो न पाया । थका-हारा पिता बाहर से एक औरत खरीद लाया । सो वही बड़े भाई प्यारे सिंह की पत्नी बनी । दर्शन के जीवन में स्त्री का प्रवेश न हो सका । उन्होंने अपना पूरा जीवन पूरी मेहनत के साथ घर को संभालने में लगा दिया । बड़े भाई एक गंभीर बीमारी के चलते काम-काज के कभी नहीं रहे । बस घर में बैठे लड़ाई अवश्य करते रहे और दर्शन चुपचाप मेहनत-मज़दूरी में लगे रहे । किसी से कोई गिला नहीं । किसी से कोई सिकवा नहीं । बस चलते रहे । चलते रहे । 

दिन-रात की मेहनत-मज़दूरी ने जीवन रस निचोड़ लिया । उमंग समाप्त हो गई । घोड़े की चाल कमजोर पड़ गई । जब खेतों में काम में सबके साथ जोड़ न बिठा पाए तो ‘घरों’ में काम करने लगे । कभी को घोड़े के समान चलने वाले उनके हाथ-पैरों में स्थिरता आ गई । सब कुछ जैसे शांत होने लगा । खेतों में अन्य मज़दूरों के साथ जब काम में पिछड़ने लगते तो साथी चिढ़ाते #तुम_यार_हउ_ता_घोड़ा_लेकिन_चल्त_गदहा_किसी ।’

बड़े भाई को तीन लड़कियाँ और एक लड़का हुआ । लड़किइयों का ब्याह नौ-दस साल की होते न होते करके बाप ने पुन्य कमाया और लड़के की बहू घर आ गई । लड़का गाँव के अन्य नौजवानों एवं दुनिया के रंग-ढ़ंग में रमने लगा । कई बार अपने बाप और माँ पर हाथ तक उठाने लगा । दर्शन भी अब उतना काम न कर पाने के कारण कई बार उसके क्रोध का शिकार बनने लगे । 

अभी कुछ दिन पहले सुना कि अपनी भाभी को साथ लेकर गाँव से दूर कहीं झोपड़ी डालकर रहने लगे । वहीं दोनों मज़दूरी करके पेट पालने लगे । कभी-कभार ‘पोती’ को देखने घर आ जाते हैं । 

इसी लॉकडाउन में एक दिन मैं घर के बाहर मंदिर पर बैठा था । सामने से दर्शन सिंह, जो कि गाँव-गिराँव के रिश्ते से हमारे बाबा लगते हैं, आते दिख गए । मैं कहा ‘बाबा एक फ़ोटो चाहिए ।’ खड़े हो गए । एकदम बीतराग भाव से । मैंने मुस्कुराने को कहा तो हल्के से मुस्कुरा दिए । किस पर ? पता नहीं । लेकिन यह सहज मुस्कान नहीं । किसी न किसी पर मुस्कुरा अवश्य रहे हैं । 

सुनील मानव
13.05.2020

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