शब्द और उसकी ‘नो एज’

हमारे शब्द बाबू अभी तीन साल के होने वाले हैं । उनकी समझ तेजी से विकसित हो रही है । लगातार पूछे जाने वाले प्रश्न पहले की अपेक्षा कुछ गंभीर हो चले हैं । अपने प्रश्नों के उत्तर पाने के साथ ही अब वह प्रतिउत्तर भी करने लगे हैं । यानि कि एक प्रश्न से कई-कई प्रश्नों का सृजन सहजता से हो रहा है । उत्तर देने वाले के लिए यह थोड़ा मुस्किल भरा कार्य अवश्य है लेकिन बच्चे की सहज जिज्ञासा को शांत तो किया ही जाना चाहिए । 

आज शब्द या शब्द जैसे तमाम बच्चों की एक विशेष आदत के बारे में बात कर रहा हूँ । मैंने अनुभव किया कि एक साल से ऊपर, मान लीजिए कि डेढ़ साल से लेकर करीब-करीब तीन साल तक बच्चों की ‘नो एज’ आरम्भ हो जाती है । इस उम्र के दौरान सभी बच्चे ‘नो’ करना सीख जाते हैं और इस ‘नो’ का खूब प्रयोग करते हैं । इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि उनकी इस उम्र में उनकी जिज्ञासा अत्यधिक उर्धोन्मुखी होने लगती है । वह किसी भी बात को या किसी भी वस्तु को आपके अनुसार नहीं स्वीकारना चाहता है बल्कि स्वयं से उस वस्तु या बात को जानने-समझने का प्रयास करता है । यह सबसे कठिन उम्र होती है ऐसे बच्चों के अभिभावकों के लिए । अधिकांश अभिभावक बच्चों की इस ‘नो’ की आदत को उसकी जिद समझ लेते हैं और और अपने स्तर से उसे दबाने का प्रयास करने लगते हैं ।

अभिभावक यह समझ नहीं पाते हैं कि बच्चे की इस ‘नो’ के पीछे उसके समय और समाज को जानने की सहज जिज्ञासा छिपी हुई है । वह इस उम्र में ही सबसे अधिक सीखता है । 

जॉन हाल्ट बहुत सही कहा है कि ‘‘बच्चा जब स्कूल में पहला कदम रखता है, तो वह काफ़ी निडर, चतुर, आत्मविश्वासी, चीजों को समझने वाला, स्वतंत्र और धैर्यवान होता है, पर स्कूल उसमें डर और आतंक पैदा कर देता है । वह उसे बोर कर देता है । उसकी सोचने-समझने की छमताओं को कुंद कर देता है । वह बच्चे के साथ क्रूरता से पेश आता है ।”

जॉन हाल्ट का यह कथन मैं अपनी उक्त बात के संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानता हूँ । स्कूल जाने से पहले बच्चा स्वतंत्र महसूस करता रहा होता है । वह अपनी जिज्ञासाओं के हल स्वयं तलाशता है लेकिन स्कूल जाने से पहले अभिभावक और बाद में स्कूल का परिवेश बच्चे से उसकी सहज जिज्ञासा को लगातार छीनने का कार्य करता है । धीरे-धीरे वह बच्चे, जिन्होंने अपनी जिज्ञासा से अपनी एक काल्पनिक दुनिया रची होती है, सब कुछ भूलकर स्कूल द्वारा जबरन थोपा गया ज्ञान अपने आस-पास एकत्र करने में जुट जाते हैं । एक प्रकार से हमारे अभिभावक और हमारे स्कूल बच्चों की उस कोमल भाव की हत्या कर देते हैं । 

वापस आते हैं शब्द की ‘नो एज’ पर । इस दौरान शब्द बाबू हर उस वस्तु या बात का विरोध करते दिखे जो हमने उन्हें अपने बुद्धि से देनी चाही । उन्होंने बस उसी वस्तु या बात को स्वीकारा जो उन्हें स्वयं से अच्छा लगा । पहले-पहल तो मैं और सीमा शब्द की इस आदत को उसकी जिद ही समझते रहे लेकिन धीरे-धीरे हमने उसे समझने का प्रयास किया और ‘नो एज’ से अपना सामंजस्य बिठाने के लिए उपाय तलाश लिया । 

कुछ उदाहरण लेते हैं इस ‘नो एज’ के । जैसे जब आप बच्चों को कोई कपड़े पहनाते हैं तो वह उन कपड़ों के रंग, डिजाइन आदि को लेकर अपनी जिज्ञासा अपने हाव-भाव के माध्यम से प्रकट करते हैं और अपनी पसंद का दूसरा कपड़ा पहने की ‘जिद’ करते हैं । वह कपड़े पहनने में ‘स्वयं’ के चुनाव को स्थान देते हैं । आप कोई भी कपड़ा पहनायेंगे तो अधिकांश बच्चे उसके लिए ‘नो’ ही करेंगे । और हम बड़ी आसानी से इस ‘नो’ का तात्पर्य बच्चे की सहज जिज्ञासा न मानकर उसकी ‘जिद’ ही मान लेते हैं । 

आम जीवन में जीते हुए बच्चों की यह ‘नो’ प्रत्येक वस्तु और बात को प्रभावित करती है । कपड़ों के चुनाव से लेकर खाने-पीने की वस्तुएँ अथवा खेलने के सामान हों या अभिभावकों द्वारा कही जाने वाली कोई बात, जिसे अभिभावक ‘सीख’ कहते हैं । इन सबके पीछे बच्चे की सहज जिज्ञासा ही काम करती है, जिसे बच्चे ‘नो’ के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं । 

शब्द में यह ‘नो एज’ अभी पूरे उफान पर है । लेकिन हमने उसके साथ अब खूब सामंजस्य बिठा लिया है । हम उसके सामने कई विकल्प रखते हैं । यानि कि जब उसे कपड़े पहनाना हो, नहलवाना हो, उसके साथ खेलना हो या कुछ बताना हो; सबके लिए हम कई-कई विकल्प प्रस्तुत करते हैं । शब्द उन विकल्पों में से अपने लिए ‘चुनाव’ करता है और अपने इस ‘चुनाव’ पर खूब गर्वान्वित महसूस करता है । 

अब देखिए कि हमने क्या किया । बच्चा कर वही रहा है जो हम चाहते हैं । बस अंतर यह आ गया कि पहले जहाँ अभिभावक अपने दबाव में बच्चों को चीजें स्वीकार करवा कर अपनी उसकी जिज्ञासा को दबाते रहे हैं वहीं हमने उसके सामने विकल्प रखकर उसकी जिज्ञासा को निखारने का प्रयत्न किया है । ऐसे में बच्चों के अंदर कल्पनाशक्ति और ‘वस्तु’ अथवा ‘बात’ का ‘चुनाव’ करने की अद्भुत शक्ति विकसित होती है । बस हमें बच्चों के अंदर की इसी ‘शक्ति’ को बचाए रखना है । 
उसके लिए स्कूल का चुनाव करते हुए भी हमें यह सोचना चाहिए और स्वयं भी बच्चे की उस सोच का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनना चाहिए । 

हम ‘शब्द’ के साथ कुछ इसी प्रकार से सामंजस्य बनाने का प्रयास कर रहे हैं ! और आप सब ... 

सुनील मानव
जगतपुर
25.05.2020

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