आइसर ट्रेक्टर

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 38
#आइसरनि_सब_भूत_भजाइ_दे ...

वर्ष उन्नीस सौ तिरानवे में हमारे घर ‘आयशर ट्रेक्टर’ आया था । उस समय पूरे गाँव में एक और ट्रेक्टर था । संभवत: वह भी ‘आयशर’ ही था । उसके बाद तो एक के बाद एक कई ट्रेक्टर गाँव में आए । ... और सबके सब ‘आयशर ट्रेक्टर’ । आस-पड़ोस के गाँवों तक में इन ट्रेक्टरों की बाढ़-सी आ गई थी । 

हमारा उत्साह चरम पर था उस दिन । बापू-चाचा आदि खुटार गए थे ट्रेक्टर लेने । सर्दी का महीना था । रात भी काफी हो चुकी थी । दूर से सुनाई देने वाली कोई भी अलग आवाज़ हमें घर से बाहर खीच लाती । हम सब बार-बार बाहर आकर देखते कि कहीं ‘हमारा ट्रेक्टर तो नहीं आ गया ।’ गाँव के हमारे साथी मित्र भी जाग रहे थे । पास-पड़ोसी भी । समय था कि कटने का नाम ही नहीं ले रहा था । जिया आदि बार-बार सोने के लिए कह रही थीं पर नींद कहाँ आँखो में ! यह मेरे जीवन का पहला इंतजार था, जो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था । 
सब ‘पोर’ पर बैठे मेहमान, जो हमारे घर का सदस्य बनने जा रहा था, के स्वागत में तरह-तरह की बातें कर रहे थे । जिसके पास जितनी जानकारी थी, अतिश्योक्ति के साथ वर्णित कर रहा था । ट्रेक्टर न हुआ मानो कोई बहुत बड़ा व्यक्ति आ रहा हो । बीच-बाच में कोई आने वाले ट्रेक्टर के बारे में कोई ‘कमी भरी बात’ कह जाता तो सब मिलकर उसे लताड़ डालते । हम लोग तो किसी प्रकार अपने आ रहे ट्रेक्टर की कमी नहीं सुनना चाहते थे । 

मुझे खूब याद है कि ईसुरी दउवा ने ‘पोर’ से सकरकंदी निकालकर मेरी ओर बढ़ाई ही थी कि सबके कानों में एक साथ, एक सी आवाज़ सुनाई पड़ने लगी । कुछ पल को हल्की । फ़िर लगातार तेज़ और अपनी ओर आती हुई । हमारे चेहरे खिल गए । ‘अमिलिया तीर’ के चौराहे पर ‘लाइट’ टकराते ही हम सब मित्र उसकी ओर भाग पड़े । चौराहे पर हमारा पहला दीदार हुआ । देखते ही रह गए हम सब । चाचा चला रहे थे शायद । उसका पूरा अस्क मैं अपनी आँखों के रास्ते अंदर तक भर लेना चाहता था । हमारे अंदर ट्रेक्टर पर बैठने की अत्यधिक उत्सुकता थी पर उस पर कई सारे लोग बैठे होने के कारण हमें बिठाया न जा सका । अंदर एक क्रोध और ग्लानि भर गई । जो लोग दूर रहने को कह रहे थे, दुश्मन से नज़र आने लगे । ट्रेक्टर चारो ओर की ‘लाइटों’ से चमचमाता हुआ आगे घर की ओर निकल गया और हम मायूसी भरे उत्साह से उसके पीछे भागे । 

ट्रेक्टर घर के सामने आकर खड़ा हो गया । उस पर से चाचा आदि ऐसे उतर रहे थे जैसे कोई बड़ी जंग फ़तह कर आए हों । किसी के छू तक लेने पर झिड़कते हुए गर्व से चूर हुए जा रहे थे । बावजूद इसके हम बच्चे अपने उत्साह और इंतराज की परिणति को संभाल नहीं पा रहे थे । आस-पास से उठ आए तमाम लोग ट्रेक्टर देखने के बाद बाँटे जा रहे ‘लड्डुओं’ का आनंद लेने लगे तो हमें मौका मिल गया और हम सब ट्रेक्टर पर जा चढ़े । पीछे से कोई रोकने के लिए चिल्लाया भी लेकिन बापू ने हमारा साथ दिया ‘बच्चे हैं दिन भर से इंतजार कर रहे हैं ... बैठने क्यों नहीं देते ...’ सब चुप हो गए । हमें तो मानो मन माँगी मुराद मिल गई । मैं ड्राइवर वाली सीट पर और घर के अन्य बच्ची तथा मोहल्ले के अन्य साथी मित्र मेरे आजू-बाजू बैठ गए । हम खड़े हुए ट्रेक्टर को लेकर अपने सपनों की दुनिया में उड़ चले । 

इस आयशर ट्रेक्टर ने हमारे घर, गाँव और समाज की स्थितियाँ बदल दीं । हर कोई इसकी मदद से खेती-किसानी को नवीन आयाम देने लगा । ... लेकिन हमारा आकर्षण और जुड़ाव अलग था । हम बस ट्रेक्टर को चलाना चाहते थे । तेज़ । खूब तेज़ । हवा से भी तेज़ । इतना कि खूब ऊपर तक उड़ सकूँ । ऐसा बहुत दिनों तक हो न सका । हम इतने छोटे थे कि पैर भी ढंग से ‘क्लच’ और ‘ब्रेकस’ तक न पहुँचते थे । समय गुजरता गया । साल-दो साल में हमें ट्रेक्टर का हैंडिल पकड़ने का मौका मिल गया । एक बर मिल गया तो फ़िर चल पड़ा । थोड़े ही दिन में हम ट्रेक्टर चलाने लगे । तब यही कोई मैं छठी, सातवीं या आठवीं में पढ़ता रहा हूँगा । मौका देखते ही ट्रेक्टर चलाने का प्रयास करने लगता था । 

चूँकि थोड़ा-बहुत चलाने लगा तो धीरे-धीरे खेतों में काम करते हुए या इधर से उधर जाते समय अब ट्रेक्टर हमारे हाथ आने लगा था । यह क्रम यही कोई साल-दो साल चला होगा । आखिरकार वह घड़ी भी आ पहुँची जब ट्रेक्टर चलाने से अरुचि होने लगी । यह एक मज़ेदार घटना थी । 

ट्रेक्टर आने के बाद आस-पड़ोस की तमाम खेती ‘पटके’ पर ले ली गई थी । इसी क्रम में पूरनपुर के विधायक विनोद तिवारी का सात-आठ एकड़ का खेत, जिसे ‘सीर’ कहा जाता था, भी हमारे पास था तो एक दिन बड़े चाचा उसकी जुताई कर रहे थे । शाम का समय था । वह अधिक देर ट्रेक्टर नहीं चला पाते थे । घर से प्रमोद चाचा ने चाय की केतली मुझे पकड़ाते हुए कहा कि ‘शर्मा को चाय दे देना । वह पीकर घर चले आएंगे । तब तक तुम खेत जोतना । मैं थोड़ी देर में आता हूँ ।’ मेरी तो मानो मन माँगी मुराद पूरी हो गई थी । मैं आनन-फ़ानन में साइकिल से खेत पर जा पहुँचा और चाचा को चाय देकर ट्रेक्टर की गद्दी संभाली । चाचा कुछ देर तक मेरा खेत जोतना देखते रहे । थोड़ी देर में जब वह मेरे काम से आश्वस्त हो गए तो घर की ओर निकल गए । अब क्या था । इतना बड़ा खेत और हमारा ट्रेक्टर मेरे अधिकार में था । मैं पूरी स्वतंत्रता और उत्साह के साथ खेत जोतने लगा । ‘एकहर’ से लेकर ‘दोबर’ तक आते-आते उत्साह कम होने लगा । बार-बार मुड़कर देखता कि चाचा आए कि नहीं । थोड़ी-थोड़ी देर में ट्रेक्टर रोककर ‘पेशाव’ जाता लेकिन चाचा का कोई अता-पता नहीं । ट्रेक्टर पर बैठे-बैठे देह टूटकर दोबर हो गई थी । खेत ‘चौबर’ जोता जा चुका था । कई बार तो एक ही फ़ेरे में बार-बार आ जाता था । रात के बारह से ऊपर बज रहे थे । सामने से चाचा आते हुए दिख गए । जान में जान आई । झट ट्रेक्टर उनके हवाले किया और हम घर आ गए । 

इस घटना के बाद भी कई बार ट्रेक्टर चलाया लेकिन अब सारा उत्साह समाप्त हो गया था । इसके बाद तो गाँव से पढ़ाई के लिए बाहर ही चला गया तो कम ही ट्रेक्टर चलाना हुआ पर इस ट्रेक्टर से आत्मिक लगाव हमेशा बना रहा । 

एक बार, काफ़ी दिनों बाद ऐसे ही ‘पोर’ पर बैठे-ठाले मुँह से बात निकल गई कि ‘अब भूत-प्रेत देखने को नहीं मिलते हैं ... न ही कोई उनकी सुनवाही ही है ... पहले तो इनकी चर्चा हर ओर हुआ करती थी ...’ 

बद्री दद्दा पास ही बैठे हुए थे । अपने पारंपरिक चुहलभरे अंदाज में बोले ‘जबसे इलाकाम जइ आइसर टिकटर आए तबसे सारे सब भूत भाजिगे ...’ सबके चेहरों पर मुस्कान बिखर गई । 

आज जब इस ट्रेक्टर को देखता हूँ तो जैसे एक लम्बा समय, एक बड़ा इतिहास सामने मुस्कुराने लगता है । न जाने कितनी यादें एक साथ ताज़ा हो उठती हैं । 

सुनील मानव
15.05.2020

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