बंधा

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 45
#तुमइं_का_पता_तुम_ता_कल्लिकि_लरिका...

संभवत: यह पहली दफ़ा था कि हमारे #गाँव_की_प्रधानी सवर्णों से निकलकर पूर्ण रूपेण किसी #अवर्ण के पास आई थी । नाम था #बंधा’ । लोग जाति का नाम जोड़कर कहते थे #बंधा_धोबी’ जो प्रधानी आने के बाद #बंधा_परधान’ कहलाने लगे थे । बावजूद इसके गाँव-गिराँव के लोग उनसे #बंधा_बाबा’, #बंधा_चच्चा’, #बंधा_दउवा’, #बंधा_परधान’ या #बंधा’ आदि संबोधनों से पुकारते थे । उनके कुछ हम उम्र व्यंग्य भरे लहजे में उनसे खड़ी बोली में #प्रधान_जी’ कह कर पुकारते । पहले कुछ दिन वह अचकचाए लेकिन धीरे-धीरे ‘प्रधान जी’ संबोधन पर वह गर्व भी करने लगे थे । उनके मस्तिष्क पर गर्व की रेखाएँ खिच आती थीं । सीना थोड़ा फ़ूल जाता था और चेहरे पर सालीन प्रसन्नता का भाव दीप्त हो उठता था । मैं उन्हें #दउवा’ कहा करता था । 

#बंधा_दउवा ‘धोबी जाति से थे और पहली बार प्रधान बने थे । हमारे गाँव के लिए यह किसी विशेष घटना से कम नहीं था । अभी तक सवर्ण ही गाँव के प्रधान बनते चले आ रहे थे । संविधान ने सवर्णों से इतर जातियों को भी नेतृत्त्व का अवसर प्रदान किया । फ़िलहल आधुनिक भारतीय समाज में यह महत्त्वपूर्ण बात थी । पहले तो बंधा दउवा को किसी सवर्ण ने यही सोचकर प्रधानी का चुनाव लड़ाया था कि उनके नाम पर वह स्वयं प्रधानी करेंगे लेकिन धीरे-धीरे बंधा दउवा ने गाँव की प्रधानी का नेतृत्त्व स्वयं करना आरम्भ कर दिया था । हाँ ! यह उनका बुद्धि कौशल ही था कि लोगों की नज़र में छोटे बने रहकर भी उन्होंने बिना किसी का विरोध किए पूरे समय हमारे गाँव की राजनीति में महत्त्वपूर्ण बदलाव किए । 

हमारे गाँव के दो रास्ते बहुत ही खराब हुआ करते थे । एक तो हमारे ही घर के सामने का #चकरोट’ और दूसरे गाँव से निकलकर बाहर की मुख्य सड़क से गाँव को जोड़ने वाला रास्ता । इस रास्ते पर पढ़ने जाने वाले हम बच्चे बरसात के दिनों में कभी भी पैंट पहनकर नहीं निकल पाए थे । बंधा दउवा ने सबसे पहले इस रास्ते को ऊँचा करवा के ‘खंजड़ा’ लगवाया । इसके बाद मेरे घर के सामने के ‘चकरोट’ पर । लोग कहते थे कि पहले के प्रधान ने राजनीतिक विरोध के चलते कसम खाई थी कि जब तक उनकी प्रधानी रहेगी इस रास्ते को नहीं बनने देंगे चाहें कुछ भी हो जाए । बंधा दउवा ने इस मिथक को तोड़कर पूर्व प्रधान और उनके हितैषियों का विरोध मोल लिया था । लेकिन उनकी #निडर_भावना ने इसकी चिंता नहीं की । 

बंधा दउवा की एक बात की तारीफ़ गाँव के करीब-करीब सभी लोग किया करते थे । वह यह कि गाँव के राशन की दुकान पर जब भी तेल या गल्ला आता था वह स्वयं गाँव में घर-घर जाकर सबको गल्ला-तेल आदि लाने के लिए सूचित करते थे । उनका यह काम प्रधानी जाने के बाद भी बदस्तूर चलता रहा था । 

प्रधान बनने के बाद उनके व्यक्त्तिव में कई परिवर्तन आए थे जिनमें सबसे बड़ा परिवर्तन उनकी वेष-भूषा का था । अब वह #झक्क_सफ़ेद_कुर्ता और #धोती वैसी ही साफ़ सफ़ेद धोती पगनने लगे थे । आँखों पर अच्छे फ़्रेम का चश्मा और कुर्ते की ऊपरी जेब में छोटी-सी डायरी के साथ चार पेन लगे रहते थे । कोई अनजान उन्हें अनपढ़ नहीं कह सकता था । जब तक वह उन्हें कुर्ते के नीचे की जेब से स्टंप पैड से किसी कागज पर अंगूठा लगाते न देख लेता । उनकी जिज्ञासा और उत्साह ने आगे चलकर उन्हें #हस्ताक्षर करना भी सिखा दिया था । 

बंधा दउवा की एक बात को लेकर गाँव के लड़के-बच्चे खूब #चिंग’ बनाया करते थे । उन्हें बहुत अधिक बोलने की बुरी बीमारी थी ।  जब भी वह बोलते सामने वाले को बोलने ही नहीं देते थे । प्रधानी आने के बाद इस बीमारी में बहुत इजाफ़ा हुआ और आगे #मौत’ के करीब पहुँचते हुए लगातार बढ़ती ही गई थी । लड़के बच्चे उन्हें चिढ़ाने के लिए कुछ न कुछ बोल दिया करते थे तो बंधा दउवा का रटा-रटाया एक तकिया कलाम उनके मुँह से अपने आप ही उछल आया करता था #तुमइं_का_पता_तुम_ता_कल्लिकि_लरिका...’

बंधा दउवा को उनकी पत्नी और लड़कों आदि से भी कई बार खूब लड़ते देखा था । बावजूद इसके उनका व्यक्त्तित्व अत्यंत सहज और सरल था । किसी के प्रति द्वैष की भावना तो शायद ही किसी ने उनके अंदर देखी हो । बस अत्यधिक बोलने की आदत के चलते वह भले ही लोग उनके पास बैठने-खड़े होने से बचते हों लेकिन गाँव के नेतृत्त्व और गाँव को जोड़ने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण था । 

प्रधानी किसी और के पास जा चुकी थी । क्षेत्रीय सांसद वरुण गाँधी गाँव-गाँव सौर्य ऊर्जा लाइटें लगवा रहे थे । हमारे गाँव से जब कोई आगे नहीं बढ़ा तो बंधा दउवा ने ही आगे बढ़कर गाँव के करीब प्रत्येक चौराहे पर बिना किसी भेदभाव के लगवाई थीं । बंधा दउवा के इस व्यवहार से पूरा गाँव ही प्रभावित रहा था ।

बंधा दउवा से जुड़ा एक बड़ा ही रोचक वाकया मैं कभी भूल नहीं सकता हूँ । मैं गाँव  में ही था । गाँव में फ़ैली गंदगी को देखते हुए मेरे मन में आया कि क्यों न मैं पूरे गाँव में सफ़ाई अभियान चलवाकर लोगों को सफ़ाई का संदेश दूँ । इसमें सबसे बड़ी दिक्कत थी कि हमारे साथ में #ब्राह्मण और #क्षत्रिय आने को करीब तैयार ही नहीं हो रहे थे । उनका उच्चता बोध उनको अवर्णों की गलियों में झाड़ू लगाने से मना कर रहा था । बंधा दउवा सामने पड़ गए । मैंने उन्हें अपनी बात बताई । वह पूरे उत्साह के साथ तैयार हो गए । बोले ‘#लल्ला_तुम_हमइं_बताबउ_ऊ_केबल_करबाइ_ता_हम_लिहींय...’ और वास्तव में बंधा दउवा ने गाँव भर से तमाम सारे बच्चे, बूढे और नौजवान इस कार्य के लिए तैयार कर दिए । सबकी देखा-देखी कई क्षत्रिय घरों के लोग भी इस अभियान में सम्मिलित हो गए थे । मैंने बंधा दउवा को अपनी मंशा समझा दी थी । फ़िर क्या था । उनका उत्साह और नेतृत्त्व देखने ही लायक था । लोग अपने हाथो में झाड़ू और फ़ावड़े लिए हुए गाँव की गली-गली में घूमें । सफ़ाई की और आस-पास के घर वालों को भी प्रेरित किया । बंधा दउवा ने स्वयं भी कई नालियाँ साफ़ कीं । साथ-साथ कहते जाएं कि ‘#देखउ_जहु_लरिका_पंडितु_हुइके_जब_सफ़ाई_करि_सकति_तउ_तुम_सारेउ_काहे_सरमात’ । उनके यह वाक्य और वह जोश भूले न भूलेगा कभी । 

आज बंधा दउवा नही हैं । साथ ही वह वातावरण भी नहीं रहा अब । वह #गाँव_की_संस्कृति_के_बड़े_और_महत्त्वपूर्ण_प्रतीक थे जो अब समाप्त ही हो गया है । आज टूटा-टूटा सा गाँव अपने इन प्रतीकों के लिए तरस रहा है, जिसका भान केवल मैं ही कर पा रहा हूँ । शेष सभी तो अपने में मस्त ही हैं । #कोई_किसी_को_याद_नहीं_करता है । 

मैं उनको अब तक का सबसे सफ़ल प्रधान मानता हूँ अपनी ग्राम पंचायत का ।

सुनील मानव
जगतपुर
22.05.2020

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