महतिया

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 33
#तुम्हारी_मउसी_नाइ_आईं_अबकी_भजाइ_लइहीं_उनइं ....

#महतिया जब भी हमारे या हम अन्य भाई-बहनों के सामने पड़ते तो बस एक ही वाक्य कहते #तुम्हारी_मउसी_नाइ_आईं_अबकी_भजाइ_लइहीं_उनइं’ । ... और इस वक्त उनकी आँखों में एक विशेष प्रकार का तेज, माथे पर उत्साह की रेखाएँ खिच आतीं । इस बात को कहने से अधिक वह केवल एक और बात को लेकर प्रसन्न हुआ करते थे । वह यह कि घर या गाँव में जब कोई उन्हें उनकी पत्नी को लेकर चिढ़ाता था । 

महतिया हमारे बापू-चाचाओं के भाइयों में लगते थे इस हिसाब से उनकी पत्नी हमारे को ये लोग ‘भौजी’ कहते थे । और भौजी से तो मनुहार करने का हक सभी को है । इसी रिश्ते से हमारी मौसी महतिया की  भी ‘साली’ हो गई थीं । बस दोनों पक्षों को एक-दूसरे से मनुहार करने का एक मज़बूत बहाना मिल गया था । 

 एक बार मेरे घर में कोई काम था । ‘विद्यावती’ मौसी सहित अन्य तमाम सारे मेहमान एकत्र हुए थे । ढोलक बज रही थी । कोई स्वाँग बगैरह हो रहा था संभवत: । बीच में ढोलक फ़ूट गई । बड़ी मुसीबत । पता चला कि महतिया के घर अच्छी ढोलक है, लेकिन लेने कौन जाए । विद्यावती मौसी ने मोर्चा संभाला । वह गाने-बजाने में खूब तेज़ थीं । दो लड़कियों को साथ लेकर जा पहुँची महतिया के घर । आधी रात का समय । मौसी जोर-जोर से महतिया क दरबाजा पीटने लगीं । आस-पास के लोग तक जग आए । महतिया बाहर आए । पहले तो संभवत: क्रोध में रहे होंगे लेकिन जब मौसी को देखा तो चेहरे पर मुस्कान खिल गई । साली सामने खड़ी थी और हास-परिहास के साथ ढोलक माँग रही थी । महतिया ने भी कुछ चुहल की और ढ़ोलक लाकर दे दी । बस फ़िर क्या था ! इसी दिन से यह घटना उमंग बनकर महतिया के अंतश्चल में समा गई और गाहे-बगाहे उनके चेहरे पर आनंद की रेखाएँ खीच जाती है । 

 क्या रिश्ते होते थे ये गाँव-गिराँव के जो सामाजिक स्तर की एक खाईं को पाटते नज़र आते थी । पता नहीं आज यह रिश्ते कहाँ समाप्त होते चले जा रहे हैं । महतिया और उनके हमउम्र अधिकांश लोगों में यह अपनापन आज भी मौजूद है लेकिन नई पौध में यह सब एकदम समाप्त ही हो गया है । न किसी में कहने की कूबत और न किसी में सहने की अभिलाषा । धीरे-धीरे सब कुछ एक सपने के माफ़िक धुँधला पड़ता जा रहा है । 

 महतिया अत्यंत सीधे हैं । पूरी तरह से यह कह पाना भी ठीक न होगा । कई बार घर से लेकर मोहल्ले में उन्हें झगड़ते भी देखा गया है लेकिन यह सब गाँव-गिराँव का सामान्य वातावरण ही कहा जाएगा । यह लोकजीवन की एक बड़ी ताकत ही है, जो अब अपने समापन की ओर है । 

 आज भी जब भी कभी गाँव में होता हूँ और सामने से महतिया आ जाएँ तो एक बारगी उनके चेहरे पर वही मुस्कान आ जाती है । आस-पास बैठे बापू-चाचा आदि से चुहल भी हो जाती है । पुरानी घटना के साथ विद्यावती मौसी का नाम भी आ जाता है । बावजूद इसके अब वह ‘रस’ न रहा जो एक मज़बूत रिश्ते के साथ कभी महसूस किया करता था । 

सुनील मानव
11.05.2020

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