शंकर जी

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 43
#अहिलेसि_पहिलेइ_कोई_लाओ_रहइ...

हमारे दुआरे एक #पीपल का पेड़ है जिसके नीचे एक बड़ा-सा #पत्थर रखा रहता था । इसे हम सब #शंकर_जी’ कहा करते थे । घर से लेकर गाँव भर की #आस्था_के_प्रतीक इन शंकर जी पर रोज ही घर और गाँव के अधिकांश लोग #जल’ चढ़ाया करते थे लेकिन हमारी#मित्र_मंडली का इन ‘शंकर जी’ से जो रिश्ता था, वह आस्था का कम और मैत्री या #सख्य_भाव’ का अधिक हुआ करता था । बचपन में हम सब मित्रों की मण्डली जब इस पीपल, जिसे हम सब #बरमबाबा’ कहते थे, की जड़ के घेरे में मिट्टी का घर बनाकर #गुड्डे_गुड़िया का ब्याह रचाने का #स्वाँग’ खेला करते थे । तब इन्हीं ‘बरमबाबा’ की गोद में दूसरी ओर हमारे यह शंकर जी भी बच्चों के साथ बच्चे हो जाया करते थे । 

इन शंकर जी को इन्हें हमारे घर या गाँव का ही कोई व्यक्ति गाँव के दक्षिण से निकली #रेलवे_लाइन से उठा लाया था और बरमबाबा महराज की गोद में रख दिया था । उस समय रेलवे लाइन पर नए पत्थर पड़े थे । उन्हीं पत्थरों में यह एक खूबसूरत पत्थर था । सफेद रंग के इस पत्थर के बीच में एक काली रेखा पड़ी थी, जिसको लेकर सब कहते थे कि ‘देखो यह कितने सत्त्वधारी शिव जी हैं इन्होंने तो #जनेऊ’ (यज्ञयोपवीत) तक पहन रखा है ।’ दादी कहतीं #इन_शंकर_जी_का_अहिलेसि_पहिलेइ_कोई_लाओ_रहइ_तबसे_जइ_हेनइ_हइं...’’

वास्तव में इन शंकर जी की मस्ती का कोई जबाब नहीं था । खासकर सावन में तो उनके कहने ही क्या थे । बरमबाबा की एक डाल पर #झूला पड़ता था तो उनकी जड़ के एक घेरे में #गुड्डे_गुड़िया का खेल तो जैसे रोज का ही काम था । शंकर जी भी जब अपने भक्तों से निजात पाते तो हम बच्चों की टोली में आ मिलते । कभी वह #वर_पक्ष से होते तो कभी #वधू_पक्ष से । वर-वधू को जब झूला झुलाया जाता तो शंकर जी को बीच में बिठा दिया जाता था, जिससे गुड्डा-गुड़िया झूले से गिरते नहीं थे । सब कहते कि ‘शंकर जी उनकी रक्षा कर रहे हैं । झूला झूलते हुए अथवा हम बच्चों की टोली के साथ खेलते हुए जब दूर से ही उनका कोई भक्त उनकी ओर आता दिख जाता तो बड़े बेमने से होकर वह हमारी टोली छोड़कर वापस बरमबाबा की जड़ के घेरे में अपने स्थान पर जा बैठते । 

हम बच्चों के बचपन के वह दिन शंकर जी के बचपन को वापस ले आये थे । धीरे-धीरे सब बच्चे बड़े होने लगे । #रनिया और #मिरिया की शादी हो गई तो #खलोली पारिवारिक मन-मुटाव के चलते मित्र-मण्डली से बाहर हो गया था । मुझे भी पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया गया और बरमबाबा के पास की वह रौनक भी चली गई । मित्रों की मण्डली जो टूटी धीरे-धीरे सब कुछ समाप्त होता चला गया ।

बरमबाबा के सिर की शोभा बढ़ाने वाले बगुले, जड़ के एक खोखल में रहने वाली गिलहरी और शंकर जी, सब के सब का ही मन मानो एक साथ ही उचट गया हो । रनिया, मिरिया, खलोली, हम, बगुले, गिलहरी और शंकर जी, सबने अपनी जगह छोड़ दी लेकिन शंकर जी कुछ दिन तक वहाँ रुके रहे।

मैं पढ़ने के लिए बाहर चला गया था । नवीन परिप्रेक्ष्य में गाँव में प्रधानी का चुनाव हुआ । वातावरण में बदलाव आया । गाँव के लोग कई-कई दलो में बँटे तो उनके प्रतीक भी बदल गए । अभी तक जो शंकर जी पूरे गाँव के लिए पूज्य थे अब न रहे । सबके अपने-अपने शंकर जी और अपने-अपने अन्य देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ । ‘पीपर तीर बाले शंकर जी’ अब ‘पण्डित के शंकर जी’ हो गए ।

अब बेचारे शंकर जी एक लोटा पानी और एक बेलपत्र के लिए तरशने लग गए । वह इसी इंतजार में रहने लगे कि कब कोई आए और उन पर एक लोटा पानी चढ़ा जाए । वास्तव में शंकर जी के ऊपर चढ़ाया गया वह पानी ‘बरमबाबा’ को ही अधिक उर्जा प्रदान करता था । शिव जी पर जल चढ़ना बंद हुआ तो ‘बरमबाबा महराज’ भी मुर्झाने लगे और धीरे-धीरे ‘पीपर तीर’ की सारी रौनक जाती रही । इसी दौरान पण्डित भगवत शरण अवस्थी ने ‘पीपर तीर’ एक ‘शिव-मंदिर’ बनवा दिया तो हमारे इन शंकर जी की रही-सही आव-भगत भी जाती रही ।

समय की गति बड़ी तेज होती है । वह सब कुछ को पीछे छोड़कर आगे बढ़ ही जाती है । ऐसा ही कुछ हमारे इन शंकर जी के साथ हुआ । हमारे इन शंकर जी के प्रति एक समय गाँव के लोगों की इतनी ज्यादा अंतरंगता थी कि बिना उन्हें जल और बेलपत्र अर्पित किए किसी काम की शुरुआत नहीं होती थी, वहीं अब एक समय यह भी आ गया था कि हमारे यह शंकर जी बेचारे अपने स्थान से हटाए जा कर पास ही में एक घूरे’ पर उनका आसन लगा दिया गया था और मुहल्ले के छोटे-छोटे बच्चे उन पर बैठकर ‘हगते’ थे । शंकर जी थे कि फिर भी खुश ! वह जैसे ‘बरमबाबा’ की जड़ के घेरे में महसूस करते थे वैसा ही घूरे पर पड़े रहकर भी ।

कुछ दिन बाद शंकर जी की स्थिति थोड़ी सुधरी तो वह गाय की चरनी के पास, चकरोट के किनारे रख दिए गए । जहाँ वह लोगों के बैठने और किसी ओर से आने वाले वाहन से ‘पंडित’ जी की ज़मीन बचाने के काम आने लगे । इस प्रकार हमारे पीपर तीर बाले शंकर जी अपने तीस-चालिस वर्ष के जीवन में मीठे-कड़ुवे तमाम अनुभवों से गुजरते हुए कभी-कभार हमारे बचपन की कुछ यादों को ताजा कर जाते हैं ।

सुनील मानव
जगतपुर
20.05.2020

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