इटइया वाली

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 31
#तुमने_हमइं_नेगु_नाइं_दो_लड़िका_भयेकु ...

मर्दानी-सी दिखने वाली हमारे गाँव की #इटइया वाली दादी हमारे गाँव की सबसे जीवंत महिला हैं । इनका मूल नाम शायद ही किसी को पता हो लेकिन इनकी पहचान ‘इटइया वाली’ के रूप और नाम से ही है । ‘शब्द’ होने के बाद जब भी कभी गाँव में घर पर आ जाती हैं तो बस घुमा-फ़िराकर एक ही वाक्य हमसे कहती हैं “#तुमने_हमइं_नेगु_नाइं_दो_लड़िका_भयेकु ...”

 इटइया वाली दादी जाति और कर्म से ‘नाइन’ हैं । गाँव भर के सामूहिक उत्सव और रीति-रिवाजों से लेकर लोगों के घरों में होने वाले व्यक्तिगत उत्सव तक । बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक । ... और इससे भी आगे बढ़ते हुए सभी प्रकार के सुख-दुख के कार्यों की एकमात्र संगिनी हैं । 

 जब बाबा जीवित थे तब गाँव में ‘नाई’ द्वारा किए जाने वाले सभी कार्य वही किया करते थे । बाबा के जीवित रहते ही उनके शिथिल होने से पहले ही दादी ने यह सब कार्य संभाल लिए । छोटे लड़के को भी साथ लगाया लेकिन वह रस न ले सका सो दादी स्वयं ही गाँव में ‘नाई’ के स्तर के सभी कार्य करने लगीं । बस किसी की शादी-ब्याह में ‘न्यौता’ बाँटने का कार्य उनका छोटा लड़का कर लेता है । वह भी मोटरसाइकिल की व्यवस्था करवाने पर । 

 इसके साथ ही दादी को मैंने बचपन से ही खेत-खलिहानों के भी सभी कार्य करते देखा है । मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर । ... और सही कहूँ तो उनसे दो कदम आगे ही । दादी को गाँव में कुछ हँसोड़ लड़के-बच्चे मर्दानी तक संबोधित करते हैं, क्योंकि दादी पुरुषों की ही भाँति आवश्यकता पड़ने पर गाली-गलौज तक कर लेती हैं । वैसे अब खेत-खलिहानों में कम ही जाना होता है । लड़के-बच्चों ने संभाल लिया है सब कुछ । अब तो घर के पास एक ‘पर्चून’ की दुकान खोल ली है, जिस पर बैठी रहती हैं । गाँव में किसी के घर काम हुआ तो कर आईं और वापस आकर दुकान संभाल ली । 

 अभी एक दिन मैं शब्द को लेकर मोटरसाइकिल से गाँव घुमाने निकला तो दादी की दुकान के सामने से निकलन हुआ । आस-पास बैठे लोगों से रुककर राम-जुहार हुई तो दादी बिस्कुट का एक पैकेट निकाल लाईं और ‘शब्द’ को पकड़ा दिया । मैंने पैसे देने के लिए पर्स की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि दादी ने खा जाने वाली आँखों से हमें निहारा । हाथ वापस अपने स्थान पर आ गया । मैंने भी स्पष्ट कर दिया कि ‘मैं तुम्हें इसीलिए कोई नेग नहीं देता हूँ ... तुम या तो ‘मुझे’ और ‘शब्द’ को अपना मानना बन्द कर दो या नेग मत माँगो ...” दादी को अपना रिश्ता अधिक प्रिय है । स्वभाव से कुछ-कुछ लोभी होने के बावजूद भी वह ‘नेग’ की कुर्बानी हमारे संबंध में चढ़ा डालती हैं । 

 गाँव के घरों में जब कोई काम होता है तो उन्हें कोई बात बतानी नहीं होती है । उन्हें सब पता रहता है । बस सामान माँग लिया और शुरू हो गईं । इसके साथ ही काम निपटाकर औरतों के साथ गाना-बजाना भी उनकी आदत में है । कई बार तो मैंने स्वयं देखा है कि वह बिना किसी संकोच के धोती समेटकर औरतों के बीच नाचने तक लगती हैं । ... और मीठा-मीठा बोलकर अधिक से अधिक ‘नेग’ पा लेने के बावजूद भी अपनी ‘लिप्सा’ को संभाल नहीं पाती हैं । 

 दादी से जब कोई अपने गाँव-गिराँव के रिश्ते के आधार पर मज़ाक कर बैठता है तो फ़िर उसे स्वयं ही भाग जाना पड़ता है । उनसे मज़ाक करने में, वह भी अश्लील से अश्लील, कोई आगे नहीं निकल सकता है । बावजूद इसके दादी हमारे गाँव का वह मज़बूत रिश्ता हैं जो सबको काफ़ी हद तक एक धागे में पिरोये हुए हैं । 
 
 आज गाँव-गिराँव से ‘पझारू’ कहे जाने वाले ‘लोक नायक’ समाप्तप्राय हो गए हैं, लेकिन दादी हैं कि आज भी इस संस्कृति को काफ़ी हद तक संभाले हुई हैं । कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या होगा इनके जाने के बाद ... कौन घर में काम होते ही चला आएगा उत्सव में चार चाँद लगाने ... सोचकर मन काफ़ी उदास हो जाता है !

सुनील मानव, 02.05.2020

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